इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

जिजीविषा

ज्‍योतिर्मयी पन्‍त

          रीना का विभा से आज अचानक मिलना हुआ। शहर के एक बड़े अस्पताल में डाक्टर की केबिन में वह डाक्टर की प्रतीक्षा में बैठी थी। अपने एक रिश्तेदार के बारे में उसे कुछ पूछना था।उनकी सारी रिपोर्ट्स भी साथ ही लेकर आई थी। तभी एक महिला ने प्रवेश किया। रीना को लगा कोई और पेशेंट होगा। पर उसके गले में परिचय कार्ड देख कर लगा कि यह अस्पताल का ही स्टाफ है। वह सीधे जाकर कुछ फाइलें देख रही थी। रीना उठकर उसके पास गई और पूछा - सुनिए! क्या आप बता सकती हैं कि डॉक्टर साहब कब तक आएंगे?
विभा ने बिना उसकी ओर देखे ही बताया - अभी राउंड पर गए है। करीब आधा घंटा लगेगा। आप यहाँ प्रतीक्षा कर सकती है। अगर आपने अपॉइंटमेंट लिया हुआ है। आपको बुला लिया जायेगा, तब तक आप लाउंज या कैंटीन में बैठ सकती हैं।
          रीना ने धन्यवाद कहा और फिर आकर वहीं सोफे में बैठ गयी। विभा कमरे से लौट गई। तब रीना को लगा कि ऐसा लगता है कि वह विभा को पहले कभी मिल चुकी है पर कहाँ ,बहुत सोचने पर भी याद न आया।
तभी डाक्टर वर्मा ने प्रवेश किया। उन्होंने अंदर जाकर हाथ धोये और लौट कर अपनी फाइल देख कर बीमारों की सूची देखने लगे। इस बीच उन्होंने रीना के अभिवादन का उत्तर देते हुए कहा - जरा देख लूँ,और बेल बजा दी। एक वार्डबॉय ने बताया - जी साहब, पहला नंबर इन्हीं का है।
          कहकर वह बाहर चला गया और दरवाजे के पास खड़ा हो गया। डाक्टर वर्मा ने रीना को कहा-आइये! बताइये क्या तकलीफ है। रीना ने कहा - डॉक्टर साहब मैं ठीक हूँ, असल में मेरी एक करीबी रिश्तेदार बीमार हैं। वह दूसरे शहर में हैं। जहाँ उनका इलाज तो चल रहा है। पर कोई असर नहीं हो रहा है। वह जानना चाहती हैं कि यदि यहाँ आकर इलाज संभव हो तो ये उनकी सारी रिपोर्ट्स हैं। उसने डाक्टर को फाइल थमा दी दस- पंद्रह मिनट तक उन्होंने सारी रिपोर्ट्स एक्स - रे ए.एम.आर आइ.ए.मैमोग्राफी और इलाज की जानकारी ले ली फिर थोड़ी गंभीर मुद्रा में बोले- हुम्म्म,हाँ तो मामला कैंसर का है। लगता है काफी देर हो गई है। अब दवा नहीं सर्जरी ही जरूरी लगती है। इनसे तो यही लगता है। पर अगर यहाँ आकर सारी जाँच कराई जाये, तभी मैं कुछ ठीक से कह पाऊँगा। मरीज की और हालत को भी ध्यान में रखना होगा। उन्हें मेंटली तैयार करना होगा। ऑपरेशन के लिए। अब आप इस बारे में अधिक जानकारी मिस विभा से ले सकती हैं। उन्होंने फिर वार्ड बॉय को बुलाया और कहा- इन्हें विभा जी के पास ले जाओ।
            रीना, विभा के केबिन के पास पहुँची तो बाहर लगी नेमप्लेट से पता चला कि वह परामर्श दाता है। अंदर जाने के लिए उसने दरवाजे पर दस्तक दी। मेज में कुछ फाइलों में डूबी हुई विभा ने सिर उठकर उसे देखा और आने के लिए कहा और बैठने का इशारा किया। बस थोड़ी देर,कहती हुई उसने पूछा - जी मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ?
           रीना ने अपना परिचय देकर सारी बात बताई। तभी बीच में ही विभा ने कहा- ओह! रीना दी अरे! इतने दिनों बाद देखा कि पहचान ही न पाई आपको। आप को याद न होगा शायद कॉलेज की ड्रामेटिक सोसाइटी में हम दोनों साथ में हुआ करते। अब से लगभग पंद्रह साल पहले। आप एक साल सीनियर थी। हमारा विषय एक ही था सायकॉलॉजी शिमला।
           रीना भी मानों सपने से जागी अरे! अब जाके याद आया। अभी थोड़ी देर पहले जब तुम्हें देखा तभी से मन बेचैन सा था, कि कहाँ मिलें होंगे हम। चलो कितना अच्छा दिन है कि आज मिले। पर तुम यहाँ कैसे तुम्हारा विवाह हो गया था। फाइनल इम्तिहान के बाद हैं न,अब यहाँ कैसे आगे की पढ़ाई कब की? जॉब कब से कर रही हो? पति और बच्चे। लो मैं तो पीछे ही पड़ गयी। विभा पर हमारी दोस्ती तब तक ही रही थी।
          विभा की आँखों में आँसू छलक उठे। रीना को लगा पुरानी बातों ने दिल में उछाल मारी है। वह भी भावुक हो गई विभा ने कहा- बड़ी लम्बी बात है, रीना दी। एक ही दिन सब जानोगी। अब मिले हैं तो आगे भी मिलते रहेंगे-कहो आप यहाँ कैसे,सब ठीक तो है रीना ने आने का कारण बताया तो विभा जैसे कुछ विचलित सी हो उठी। धीरे से बुदबुदाई ओह! फिर एक बार फिर संभल कर बोली- ठीक है दीदी,मैं ये सारी रिपोर्ट्स पढ़ लूँगी। मेरा घर यहीं पास में है। आप जब चाहें आ सकती हैं। यहाँ की पाबंदी नहीं होगी। आराम से बात करेंगे। उसने अपना पता और फोन नंबर दे दिया। फिर कैंटीन में जाकर रीना के साथ एक -एक कप चाय पी। दी आज इतने वर्षों बाद मिले हैं। बेशक घर नहीं है, तो भी कैंटीन में जाकर पुरानी बातें ताजा करे। बाद में रीना को गेट तक छोड़ने भी आई।
          रीना की चचेरी ननद को ब्रेस्ट कैंसर हो गया था। जिसका ऑपरेशन जरूरी था। कैंसर ने अब तक दोनों स्तनों को प्रभावित कर दिया था। सारे शरीर में फैलने से तुरंत रोका जाय तो अभी भी बहुत उम्मीद की जा सकती थी।
          काम तुरंत होना आवश्यक था इसलिए विभा ने शाम को ही रीना को अपने घर बुला लिया था। रीना उसकी तत्परता से बहुत प्रभावित हुई। अब तय यह हुआ रीना जल्दी ही अपनी ननद को बुला ले, ताकि इलाज की प्रक्रिया शुरू हो सके। रीना ने फिर विभा से उसके परिवार के बारे में पूछा,तो विभा ने टाल दिया। छोड़ो न दीदी,पहले अपनी सुनाओ। इतने सालों की बातें घर परिवार फिर मेरी बारी। पर रीना बोली- ओहो, पूछा मैंने है पहले। उनकी बातों में फिर वही कॉलेज के दिनों की मस्ती छलकने लगी, पर विभा मायूस सी दिखी। बहुत कहने पर ही विभा ने बताया - क्या फायदा दीदी मेरी कहानी खत्म हो चुकी। यह तो मेरा दूसरा जन्म है। मैं पिछले जन्म की सारी बातें भूल जाना चाहती हूँ। भूल भी गयी हूँ पर आज इस रिपोर्ट ने फिर यादों को कुरेदा है।
          विवाह के बाद हम लोग सुखी जीवन जी रहे थे। दो बेटियाँ भी जन्म ले चुकी थी। हालाकि सास - ससुर को पोता न होने का दुख अखरता था, पर उम्मीद थी। इसी बीच न जाने ये जानलेवा बीमारी कहाँ से आ गयी। रोज रोज के दर्द को मैं सहती चली गयी कि ठीक हो जायेगा। सभी गृहणियों की तरह यही सोचा कि मेरी बीमारी से सभी को परेशानी होगी। अत: चुप ही रही। वह तो जब पीड़ा असह्य हो गयी। चुप रहना नामुमकिन हो गया। बरबस चीखें निकल आती। तब कुछ सोचा बीमारी का इलाज ऑपरेशन दोनों स्तन काट - काट फेंक दिए गए। दवाओं और कीमो थेरेपी के कारण सारे बाल झड़ चुके थे। अंंग काला हो गया था। खुद को ही दर्पण में देखना कठिन हो गया। इस पर भी घरवालों का व्यव्हार मेरी और बदल चुका था। दया की भीख तो मैं भी नहीं चाहती थी पर सहानुभूति की आशा रखती थी। सबको लगने लगा जैसे कि यह छूत की बीमारी है। मेरे पास आने भर से सबको लग जाएगी। और तो और मेरी बेटियों तक को दूर कर दिया गया। खान पान, बर्तन सब अलग। मैं बिलकुल अलग - थलग सी हो गयी। इसी बीच जब एक दिन अपनी सास और ननद को मेरे पति की दूसरी शादी रचाने की बात कहते हुए सुना तो अपने को रोक न सकी पूछा- ये क्या बात कर रही हो, अभी मैं जिंदा हूँ। तो उत्तर मिला- अरे हाँ, हो तो पर अब तुम्हारा नारीत्व कहाँ बचा?
          सुनकर जैसे होश ही उड़ गए पति ने मेरे इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुझे उन पर पूरा भरोसा था,लेकिन अपनी माँ की इस बात का उन्होंने कोई प्रतिकार नहीं किया।
          दिनों दिन अवसाद बढ़ता जा रहा था तभी चेक अप के लिए डॉक्टर वर्मा के पास गयी थी। वे बोले सुधार में अचानक कमी कैसे,अरे! बी ब्रेव! खुश रहो तो मंै रो पड़ी और सब कुछ उन्हें बताया। तब एक दिन मुझे वे अपने साथ ऐसी जगह ले गए जहाँ कैंसर की विभीषिका से पीड़ित लोगों को रखा गया था। जिनका इलाज हो चुका था पर आगे कोई उम्मीद नहीं बची थी। कई लोगों के प्रिय लोग मिलने आते थे। और कुछ लोगों के रिश्तेदार उन्हें जीते जी तिलांजलि दे चुके थे। डाक्टर वर्मा ने बताया -अगर तुम चाहती हो तो यहाँ इनकी सेवा कर सकती हो। बदले में तुम्हें हिम्मत मिलेगी,जीने का मकसद मिलेगा।
          बस उसी दिन से मैंने भी सोच लिया- स्त्री यदि किसी अंग से हीन होने पर अपना अस्तित्व खो बैठती है। इस समाज की सोच में तो यही सही, क्या शरीर के अंगों से ही पूर्णता परिभाषित होती है। मन की भावनाओं का कोई मोल नहीं?
          मन में एक जिजीविषा जाग उठी। इलाज का भी ठीक असर हुआ। मैं ठीक हो गई। आगे पढाई भी की डाक्टर वर्मा ने नौकरी भी दी। मैं खुश हूँ कि मैं अधूरी नहीं,मैं पूरी औरत हूँ। सपाट सीना है पर लोगों के ताने उलाहने झेल सकती हूँ।
          यही मेरी कहानी है। अब तक  रीना रो भी रही थी। विभा की हिम्मत की दाद देना चाहती थी। पर शब्द गुम थे। विभा ही बोली- तो दीदी मेरी कहानी के पात्र का मोनोलॉग जरा बड़ा हो गया न? रीना बस उसे निहारती रही।

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