इस सम्पादकीय को लिखने के पीछे मेरी मंशा यह कतई नहीं है कि मैं अपने मित्र की पीड़ा को उजागर कर रहा हूँ। मेरी मंशा न तो मित्र की पीड़ा को बताने की है और न ही उनके पारिवारिक बंधन में बंध जाने की उनकी विवशता और कमजोरी को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की। मैंने केवल इस बात की ओर इंगित करने का प्रयास किया है कि हमारी लेखनी हमसे कैसे छूटती जा रही है।
एक लंबे अतंराल, लगभग बीस वर्ष के बाद, मैं अपने एक मित्र के घर गया। दरवाजा खटखटाने पर मित्र की पत्नी ने कीवाड़ खोला। वह उनींदी थी। मैंने पूछा - जयंत घर पर हैं ।''
एक लंबे अतंराल, लगभग बीस वर्ष के बाद, मैं अपने एक मित्र के घर गया। दरवाजा खटखटाने पर मित्र की पत्नी ने कीवाड़ खोला। वह उनींदी थी। मैंने पूछा - जयंत घर पर हैं ।''
जयंत के घर पर होने की स्वीकृति देते हुए उसने मुझे अंदर आने के लिए कहा। मैंने जयंत के घर में प्रवेश किया। छपरी तक पहुँचा। तब तक जयंत भी जाग चुका था। समय दोपहर का था। संभव है, खेती - किसानी के काम से थककर वह आराम कर रहा होगा। जयंत रुम से चलकर छपरी में आ चुका था। हम एक - दूसरे को पहचान गये।
एक लम्बे समय बाद हमारी मुलाकात हो रही थी। मन के भीतर एक अजीब सा रोमांच था। दुआ - सलाम हुई। कुर्सी पर बैठते हुए मैंने कहा - ''बहुत दिनों बाद मुलाकात हो रही है। और क्या हाल चाल है?''
- ''खेती - किसानी चल रही है।'' जयंत का संक्षिप्त उत्तर मिला।
मैंने बताया - '' आजकल मैं राजनांदगाँव में रहता हूँ। गाँव आना - जाना लगा रहता है। वर्तमान में मैं '' विचार वीथी '' नामक एक साहित्यिक पत्रिका निकाल रहा हूँ। तुम अच्छी कहानी लिखते हो। पत्रिका के लिए तुमसे कहानी लेने आया हूँ।''
आज भी मैं उसके भीतर संकोच और लज्जापन महसूस कर रहा था। उसने कहा - ''लम्बे समय से लेखन नहीं किया हूंँ। खेती - किसानी और घर - परिवार की जिम्मेदारी इतनी अधिक हो गई है कि लिखने का अवसर ही नहीं मिलता।''
यह वह मित्र है, जिसके बारे में बताऊंँगा तो सहज रुप से विश्वास नहीं होगा। पर यह सत्य है। तब मैं अपने गृहग्राम भंडारपुर में रहता था। कहानियाँ लिखता और राजनांदगाँव से लेकर दिल्ली तक के पत्र - पत्रिकाओं में छपता। आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से मेरी कहानियाँ प्रसारित होती। तब मैंने जयंत की भी एक - दो कहानी राजनांदगाँव से प्रकाशित '' सबेरा संकेत '' में पढ़ी थी। कई रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ता, उसी कड़ी में जयंत की भी कहानी पढ़ी होगी। तब मुझे यह पता नहीं था कि जिस जयंत की मैंने एक - दो कहानी पढ़ी है, वही जयंत मेरी लेखनी से प्रभावित है। इसी प्रभाव के चलते वह मुझसे मिलने मेरे गाँव तक आया पर मुझसे मिले बगैर ही लौट गया। इसकी जानकारी मुझे तब हुई जब मुझे उसका पत्र मिला। इस बात पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ। पत्र में इस घटना का उल्लेख करते हुए उसने लिखा था - ''मैं आपसे मिलने आपके गाँव गया था। गाँव पहुँचने के बाद भी मैं आपसे मिलने का साहस जुटा नहीं पाया और बिना मिले लौट आया। संभवत: मेरे भीतर भय था कि आप इतने बड़े साहित्यकार मुझसे मिलना पसंद करेंगे भी या नहीं। मैं आपको अपना साहित्य गुरु मानता हूँ। आपकी रचनाशैली से प्रभावित होकर कुछ कहानियाँ मैंने भी लिखी है जो स्थानीय अखबारों में छपी भी हेैं।''
पत्र की लाइनें पढ़ कर मुझे दुख हुआ। मुझसे मिलने की इच्छा लेकर मेरे गाँव तक पहुँच चुका व्यक्ति मुझसे मिले बगैर ही लौट गया था।
इस तरह की झिझक और संकोच केवल जयंत तक ही सीमित नहीं है। किसी अधिकारी या अपने से बड़े किसी व्यक्ति से मिलने के लिए यहाँ के अधिकतर ग्रामीणों के मन में एक अज्ञात भय आज भी विद्यामान है। संभवत: जयंत भी इसी भय से ग्रस्त रहा होगा। मुझे घोर आश्चर्य तो इस बात की थी कि मुझसे मिले बगैर ही मैं उससे मिलना पसंद करूँगा या नहीं जैसे प्रश्र उसके समक्ष खड़ा हो गया था। वह समय ही कुछ ऐसा था। वरिष्ठ साहित्यकार, नवोदित रचाकारों को हिकारत की दृष्टि से देखा करते थे। उसके मन में इस तरह की झिझक और संकोच पैदा होने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि उसने किसी रचनाकार से मिलने का प्रयास किया हो और वहाँ उसको असफलता मिली हो।
मैं उसके इस भ्रम को तोड़ना चाहता था। मैं स्वयं एक दिन उसके गाँव कसारी गया। वह मुझसे मिलकर गद़गद् हो गया। फिर हमारी मुलाकात तब तक होती रही जब तक मैं अपने गृहग्राम भंडारपुर में रहा ...।
खैर, जयंत ने खेती - किसानी और घर - परिवार की जिम्मेदारी का हवाला देकर लेखनी से हाथ झाड़ लिया। अकेले जयंत ही नहीं, बहुत सारे, अच्छे - अच्छे लिखने वालों की लेखनी सामाजिक - पारिवारिक दायित्व के समक्ष दम तोड़ देती है, ऐसा क्यों ? क्या पारिवारिक - सामाजिक दायित्व के साथ मात्र लेखनीय दायित्व का निर्वहन करने में ही बाधा उत्पन्न होती होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस तरह का बहाना बनाकर हम लेखन कार्य से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहते हैं ? यदि नहीं तो अन्य कामों की तरह लेखन कार्य को भी हम अपनी प्राथामिकता की कड़ी में क्यों नहीं रख सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लिखना तो चाहते है पर लिखने के लिए हमारे पास विषय नहीं होते। या फिर हम उस तरह की रचना नहीं कर पाते हैं जिससे स्वयं को संतुष्टि मिले। यह तो सरासर लेखक की असफलता है जिसे वह पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी की व्यस्तता के आवरण में छिपाना चाहता है। आत्मसंतुष्टि नहीं मिलने के कारण हमारी लेखनी छूटती है और इसके लिए हम अपने पारिवारिक - सामाजिक जिम्मेदारियों का बहाना बनाते हैं। ऐसा करके अपने आप को कहीं हम लेखन कार्य से बचाना तो नहीं चाहते हैं ?
आज निश्चित तौर पर देखा जाए तो हमारी लेखनीय दिशाहीन हो गई है। इस दिशाहीनता के लिए न तो परिवार जिम्मेदार है और न ही सामाज। साहित्य समाज का दर्पण होता है। आज परिभाषा पलट गई है। आज साहित्य समाज को दिशा प्रदान करने में अक्षम हो गयी है। समाज, साहित्य को मार्गदर्शन देने लगा है। आज साहित्य, समाज के पीछे चल रही है, साहित्य के पीछे समाज नहीं। ऐसे दुर्दिन क्यों आये ? क्या इसी तरह की बहानेबाजी के कारण ? सिर्फ लेखन के लिए ही बहाना क्यों ? इस पर पूरी गंभीरता और पूरी ईमानदारी के साथ विचार करने की आवश्यकता है।
मैं जयंत से कह कर आया हूँ कि वह अपनी पुरानी रचनाएँ मुझे भेजे। हो सके तो नई रचना भिजवाए। परंतु जयंत अपने पारिवारिक - सामाजिक जिम्मेदारी के साथ अपनी साहित्यिक जिम्मेदारी को भी पूरा करने में ईमानदारी से प्रयास करता है या नहीं यह तो समय ही बताएगा।
एक लम्बे समय बाद हमारी मुलाकात हो रही थी। मन के भीतर एक अजीब सा रोमांच था। दुआ - सलाम हुई। कुर्सी पर बैठते हुए मैंने कहा - ''बहुत दिनों बाद मुलाकात हो रही है। और क्या हाल चाल है?''
- ''खेती - किसानी चल रही है।'' जयंत का संक्षिप्त उत्तर मिला।
मैंने बताया - '' आजकल मैं राजनांदगाँव में रहता हूँ। गाँव आना - जाना लगा रहता है। वर्तमान में मैं '' विचार वीथी '' नामक एक साहित्यिक पत्रिका निकाल रहा हूँ। तुम अच्छी कहानी लिखते हो। पत्रिका के लिए तुमसे कहानी लेने आया हूँ।''
आज भी मैं उसके भीतर संकोच और लज्जापन महसूस कर रहा था। उसने कहा - ''लम्बे समय से लेखन नहीं किया हूंँ। खेती - किसानी और घर - परिवार की जिम्मेदारी इतनी अधिक हो गई है कि लिखने का अवसर ही नहीं मिलता।''
यह वह मित्र है, जिसके बारे में बताऊंँगा तो सहज रुप से विश्वास नहीं होगा। पर यह सत्य है। तब मैं अपने गृहग्राम भंडारपुर में रहता था। कहानियाँ लिखता और राजनांदगाँव से लेकर दिल्ली तक के पत्र - पत्रिकाओं में छपता। आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से मेरी कहानियाँ प्रसारित होती। तब मैंने जयंत की भी एक - दो कहानी राजनांदगाँव से प्रकाशित '' सबेरा संकेत '' में पढ़ी थी। कई रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ता, उसी कड़ी में जयंत की भी कहानी पढ़ी होगी। तब मुझे यह पता नहीं था कि जिस जयंत की मैंने एक - दो कहानी पढ़ी है, वही जयंत मेरी लेखनी से प्रभावित है। इसी प्रभाव के चलते वह मुझसे मिलने मेरे गाँव तक आया पर मुझसे मिले बगैर ही लौट गया। इसकी जानकारी मुझे तब हुई जब मुझे उसका पत्र मिला। इस बात पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ। पत्र में इस घटना का उल्लेख करते हुए उसने लिखा था - ''मैं आपसे मिलने आपके गाँव गया था। गाँव पहुँचने के बाद भी मैं आपसे मिलने का साहस जुटा नहीं पाया और बिना मिले लौट आया। संभवत: मेरे भीतर भय था कि आप इतने बड़े साहित्यकार मुझसे मिलना पसंद करेंगे भी या नहीं। मैं आपको अपना साहित्य गुरु मानता हूँ। आपकी रचनाशैली से प्रभावित होकर कुछ कहानियाँ मैंने भी लिखी है जो स्थानीय अखबारों में छपी भी हेैं।''
पत्र की लाइनें पढ़ कर मुझे दुख हुआ। मुझसे मिलने की इच्छा लेकर मेरे गाँव तक पहुँच चुका व्यक्ति मुझसे मिले बगैर ही लौट गया था।
इस तरह की झिझक और संकोच केवल जयंत तक ही सीमित नहीं है। किसी अधिकारी या अपने से बड़े किसी व्यक्ति से मिलने के लिए यहाँ के अधिकतर ग्रामीणों के मन में एक अज्ञात भय आज भी विद्यामान है। संभवत: जयंत भी इसी भय से ग्रस्त रहा होगा। मुझे घोर आश्चर्य तो इस बात की थी कि मुझसे मिले बगैर ही मैं उससे मिलना पसंद करूँगा या नहीं जैसे प्रश्र उसके समक्ष खड़ा हो गया था। वह समय ही कुछ ऐसा था। वरिष्ठ साहित्यकार, नवोदित रचाकारों को हिकारत की दृष्टि से देखा करते थे। उसके मन में इस तरह की झिझक और संकोच पैदा होने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि उसने किसी रचनाकार से मिलने का प्रयास किया हो और वहाँ उसको असफलता मिली हो।
मैं उसके इस भ्रम को तोड़ना चाहता था। मैं स्वयं एक दिन उसके गाँव कसारी गया। वह मुझसे मिलकर गद़गद् हो गया। फिर हमारी मुलाकात तब तक होती रही जब तक मैं अपने गृहग्राम भंडारपुर में रहा ...।
खैर, जयंत ने खेती - किसानी और घर - परिवार की जिम्मेदारी का हवाला देकर लेखनी से हाथ झाड़ लिया। अकेले जयंत ही नहीं, बहुत सारे, अच्छे - अच्छे लिखने वालों की लेखनी सामाजिक - पारिवारिक दायित्व के समक्ष दम तोड़ देती है, ऐसा क्यों ? क्या पारिवारिक - सामाजिक दायित्व के साथ मात्र लेखनीय दायित्व का निर्वहन करने में ही बाधा उत्पन्न होती होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस तरह का बहाना बनाकर हम लेखन कार्य से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहते हैं ? यदि नहीं तो अन्य कामों की तरह लेखन कार्य को भी हम अपनी प्राथामिकता की कड़ी में क्यों नहीं रख सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लिखना तो चाहते है पर लिखने के लिए हमारे पास विषय नहीं होते। या फिर हम उस तरह की रचना नहीं कर पाते हैं जिससे स्वयं को संतुष्टि मिले। यह तो सरासर लेखक की असफलता है जिसे वह पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी की व्यस्तता के आवरण में छिपाना चाहता है। आत्मसंतुष्टि नहीं मिलने के कारण हमारी लेखनी छूटती है और इसके लिए हम अपने पारिवारिक - सामाजिक जिम्मेदारियों का बहाना बनाते हैं। ऐसा करके अपने आप को कहीं हम लेखन कार्य से बचाना तो नहीं चाहते हैं ?
आज निश्चित तौर पर देखा जाए तो हमारी लेखनीय दिशाहीन हो गई है। इस दिशाहीनता के लिए न तो परिवार जिम्मेदार है और न ही सामाज। साहित्य समाज का दर्पण होता है। आज परिभाषा पलट गई है। आज साहित्य समाज को दिशा प्रदान करने में अक्षम हो गयी है। समाज, साहित्य को मार्गदर्शन देने लगा है। आज साहित्य, समाज के पीछे चल रही है, साहित्य के पीछे समाज नहीं। ऐसे दुर्दिन क्यों आये ? क्या इसी तरह की बहानेबाजी के कारण ? सिर्फ लेखन के लिए ही बहाना क्यों ? इस पर पूरी गंभीरता और पूरी ईमानदारी के साथ विचार करने की आवश्यकता है।
मैं जयंत से कह कर आया हूँ कि वह अपनी पुरानी रचनाएँ मुझे भेजे। हो सके तो नई रचना भिजवाए। परंतु जयंत अपने पारिवारिक - सामाजिक जिम्मेदारी के साथ अपनी साहित्यिक जिम्मेदारी को भी पूरा करने में ईमानदारी से प्रयास करता है या नहीं यह तो समय ही बताएगा।
संपादक
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