साहित्यकार भूगोल की सीमाओं से सदैव अपने आप को ऊपर पाता है तभी संस्कारधानी के माटी में जन्मा जब मैं छत्तीसगढ़ की माटी में गया तो वहॉं के सभी साहित्यकारों से मुझे इतना अपना पन मिला कि मुझे अपनी जन्म भूमि का अपनापन बौना नजर आने लगा। वहॉं साहित्य के ऐसे दो वट वृक्ष की छाया मिली जिनकी शीतल छाया में बैठ कर कब ग्यारह साल गुजर गये इसका मुझे भान ही नहीं रहा। एक थे साहित्य मनीषी आदरणीय देवी सिंह चौहान जो कि राजकुमार कालेज में उप प्राचार्य के पद पर रह चुके थे । कहते हैं पहले इस कालेज में कभी राजा रजवाड़ों के राजकुमार बगैरह पढ़ा करते थे। दूसरे थे आदरणीय सरयूकान्त झा जो कि छत्तीसगढ़ कालेज के संस्थापक एवं प्राचार्य रहे हैं । रायपुर नगर में ही नहीं आसपास के दूर - दूर क्षेत्रों में इनकी चर्चा बनी रहती थी । इनके बगैर साहित्यिक कार्यक्रम सदैव सूना - सूना ही लगता था । सभी कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति रहती थी ।
रायपुर में चौहान जी एक समर्पित हिन्दी साहित्यकार थे । जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दी की साधना में ही समर्पित कर रखा था उन्होंने लगभग तीस ग्रंथों की रचना की थी । जिनमें आठ काव्य संकलन ' रक्त का प्रमाण दो ' , ' लहर और चाँद ' , ' क्रान्ति के शोले' , ' हॅंसते ऑंसू ' ' बढ़ो- बढ़ो बलिदानी ' ' इन्द्रधनुष ' ' सुमनांजलि ' आदि । एक खण्ड काव्य ‘‘खूब लड़ी मर्दानी ’’ महारानी लक्ष्मी बाई पर लिखा । सात बाल साहित्य एक निबंध संग्रह के साथ ही लगभग तेरह प्रेरक जीवनी ग्रंथ आजादी के परवाने, नये भारत के शिल्पी, आजादी और नेहरू, मुक्ति -आन्दोलन और क्रांतिकारी, याद करो कुर्बानी, महाक्रांति के उद्यांचल-रासबिहारी बोस, अखंड भारत के उद्घोषक-वीर सावरकर, गणेश शंकर विद्यार्थी एक अहिंसक क्रांतिकारी, शहीद शिरोमणि -रामप्रसाद बिस्मिल, क्रांतिवीर चन्द्रशेखर आजाद, शहीदे आजम - सरदार भगतसिंह, मेवाड़ और स्वातंत्रय सूर्य महाराणा प्रताप ,राष्ट्रनायक छत्रपति शिवाजी आदि पुस्तको का सृजन किया। राष्ट्रीय विचारधारा का रक्त उनके शरीर में सदैव मचलता रहता था। उनकी सभी पुस्तकों में देश हित, प्रेम सौहार्द और राष्ट्रवाद की प्रखर धारा बहती नजर आती है। संस्कारधानी जबलपुर में अशोका होटल के सामने रायबहादुर परिवार में उनकी ससुराल थी । उनके समस्त लेखन कार्य में उनकी सहधर्मिणी श्रीमती ऊषा चौहान का योगदान रहा है ये स्वंय एक प्रसिद्ध शिक्षाविद् रही हैं ।
रायपुर नगर में चौबे कालोनी स्थित एक भव्य दो मंजिला भवन कार्नर का प्लाट उसके आधे हिस्से में एक खूबसूरत बगीचा सलीके से बनी हुईं क्यारियॉं, फब्बारों के इर्द गिर्द दुर्लभ रंगबिरंगे फूल पौधे हर मेहमान का मन मोह लेते थे । सामने लोहे की जाली से घिरा एक बड़ा बरामदा जो प्रथम आगन्तुक कक्ष के रूप में था । दोनों ओर कुर्सियॉं लगी रहती थीं । सामने मेज के पीछे उनकी एक कुर्सी जिस पर एक नेपकिन लटकती रहती । मेज पर कागजों का एक पुलंदा और पेन स्टैंड । जब लिखते पढ़ते माथे पर पसीने की बूंदे झिलमिलाती तो वे पसीने को नेपकिन से पौंछतें। घर के बरामदे के दोंनो ओर स्टील की कॉच वाली आलमारियॉं जिसमें साहित्य का अपार भंडार भरा था। उनके गोल मटोल चेहरे में राजपूतों वाली उठी हुई मूॅंछे जो उनके स्वाभिमान एवं राजपूती आन बान को दर्शाती थी। किन्तु चश्में के अन्दर से झॉंकती मुस्कराती दो ऑंखें उनकी सहजता सरलता की राम कहानी कह जाती थीं। घर में आये सभी अतिथि को वे सदा बड़ी विनम्रता से गले लगाकर अपनी आत्मीयता का परिचय दे देेते थे।
रायपुर में साहित्यिक संस्थाएॅं तो अनेकों थी। किन्तु नियमित पाक्षिक - मासिक गोष्ठी केवल हिन्दी साहित्य मंडल की ही होती थी। गोष्ठियॉं मोती बाग, सिन्धी धर्मशाला, सोनकर धर्मशाला, मैथिल ब्राम्हण सभा भवन, जैतू साव मठ आदि विभिन्न जगहों पर होती थीं। सरलता सहजता में वे इतने थे कि उनके साथ दो थेैले हमेशा चलते जिसमें संस्था का बैनर व अन्य आवश्यक सामग्री रहती। बिछावन के कार्य में भी वे तनिक संकोच न करते। संस्था का यह कार्य वे सरस्वती की आराधना स्थल कह कर बड़े मनोयोग से सम्पन्न कराते। ऐसे दुर्लभ ही साहित्यकार इस दुनिया में होते हैं । तीज त्यौहर जैसे उत्सव मनाने का उनका विरला ही अंदाज था। होली-दीवाली-दशहरा पर उनके यहॉं हलवाई आकर मिठाई, पकवान,नमकीन बनाते सभी स्नेहीजनों को बुलाकर गले मिलते, त्यौहारों की बधाई देते, आतिथ्य सत्कार करते और हर उत्सव का भरपूर आनंद उठाते। उनके बैठक रूम के हाल में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा. शिवमंगल सिंह सुमन, श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल, श्री भवानी प्रसाद मिश्र, श्री भवानी प्रसाद तिवारी, डा. राजेश्वर गुरू, श्री नर्मदा प्रसाद खरे, डा. रमेशचन्द्र मेहरोत्रा, डा. राममूर्ति त्रिपाठी, श्री हरिठाकुर, श्री दानेश्वर शर्मा ,आचार्य सरयूकान्त झा, डा. सालिकराम शलभ, डा. रामकुमार बेहर, श्री विनय पाठक, डा. रामप्रताप सिंह विमल, मनोज श्रीवास्तव लखनऊ, डा. कृष्णचन्द्र वर्मा, प्रो. बालचन्द कछवाहा, श्री अमर नाथ त्यागी, श्री लखन लाल गुप्ता, श्री केयूर भूषण, डा. प्रेम शंकर, डा. शोभाकान्त झा, श्रीमती आशा श्रीवास्तव, डा. साधना कसार आदि अनेक साहित्य दिग्गजों की गोष्ठियॉं होती रही हैं व उनका सानिध्य मिलता रहा है । उनका संदेश आज भी हमारे कानों में गूंजता है:-
‘‘ हर मानव अपने जीवन का भाग्य विधाता है ,
बोता जैसे बीज , कर्म - फल वैसा पाता है ।
समय शिला पर कर्मठ ही पद - चिन्ह बनाता है ,
सुमन -सुमन पर वह मधुरिम -मधुमास खिलाता है । ’’
वहीं वे दूसरी ओर कहते हैं:-
‘‘उगता सूरज उन्नति के, सोपान दिखाता है । मंजिल पाता वही,जिसे चढऩा भी आता है ।
हर आने वाला पल ,कल का नव निर्माता है ।
फल पाता है वही ,कर्म से जिसका नाता है ।। ’’
उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था। वे सदा अपनी दो पंक्तियॉं को गुनगुनाया करते थे :-
‘‘ मुझको दीपक सा जलना है ,आलोक सभी को देना है ।
जग कह दे दीपक खूब जला,बस और मुझे क्या लेना है ?’’
उनकी कलम ने अपने खण्ड काव्य ‘‘खूब लड़ी मर्दानी में ’’ सुभद्रा कुमारी चौहान की याद तरोताजा कर दी है:-
‘‘जिस ओर झपट जाती रानी ,मैदान साफ हो जाता था ।
जिस पर होता वार अभागा , विदा त्वरित हो जाता था ।।
जिस ओर भृृकृटियॉं तन जाती , उस ओर कहर सा छा जाता ।
श्मशान दृष्य समरांगण में , आनन फानन में छा जाता ।।’’
राष्ट्रप्रेम की धारा उनके रग- रग में समायी थी तभी तो वे सीना तान के कहा करते थे:-
‘‘अगर देश पर गर्व न हो , तो जीने का अधिकार नहीं है ।
लानत है जीवन यदि, जननी-जन्मभूमि से प्यार नहीं है ।’’
पहले देश व्यक्ति है पीछे वे सदा यही बात दोहराते थे:-
‘‘कष्टों के कंटक झेलो पर,मत पियो गरल अपमानों का।
शोलों को कुचलो पैरों से ,रौंदो घमंड चट्टानों का ।’’
इस प्रखर राष्ट्रभक्ति शौर्य वीरता के साथ उनके अंदर एक कोमल मन भी छिपा था। प्रेमी मन भी बसा था तभी वे कह उठते थे:-
‘‘झाँकती जब तुम सलिल में ,तो कमल के फूल खिलते।
हास से कलियाँ विहँसती , चूमने को अलि मचलते।
दृष्टि पड़ते ही तुम्हारी , सृष्टि में मधुमास छाता ,
चाल में नवताल का - सा , गीत हर मन को लुभाता।।’’
उनकी रचना में विरह वेदना कुछ यूॅ झलकती है:-
‘‘ शूल का चुभना , मधुर चुपचाप मैं सहता रहा ,
क्योंकि परिमल स्त्रोत,अविरल श्वास में बहता रहा।।
विरह का दुख - मधु मिलन की,राह में पलता रहा।
और मैं प्रेमी शलभ सा , अनवरत जलता रहा ।। ’’
वे देश की दिग्भ्रमित राजनीति को आगाह करते हुये कहते है:-
दिग्भ्रमित दिशा निदेशक घातक होता है। उसकी प्रवंचना ही छलना बन जाती है।
पर्याय ढूंढना अनिवार्य तब अवश्य मेव है, वरना निज तट पर नाव डूब ही जाती है ।
पर्याय ढूंढना अनिवार्य तब अवश्य मेव है, वरना निज तट पर नाव डूब ही जाती है ।
इसके बावजूद उनकी लेखनी आशाओं का संचार कर लोगों को जगाती है। देश में वर्तमान निराशा और विसंगतियों के बादलों के पीछे से एक आशा की किरण झाँकती हुई देश से कह रही है:-
‘‘मजबूती से आशा का दामन थाम सखे ,विश्वास भरें लोगों में चेतना लायें।
थोथे नारों को निशा हवाले कर,हम पुन: उजाले को घर-घर छिटकायें।’’
ऐसे प्रखर राष्ट्रभक्त राष्ट्र ,समाज और मानव के हित चिंतक हमारे साहित्य के पुरोधा वीर और ओज के साहित्य मनीषीश्री देवी सिंह चौहान को उनकी 16 जुलाई 2013 की प्रथम पुण्य तिथि पर हिन्दी साहित्य जगत की ओर से विनम्र श्रृद्धाजंलि अर्पित है । जिन्होंने अपना सारा जीवन हिन्दी साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिया। ऐसे दिव्य साहित्य पुरूष के चरणों में श्रृद्धा सुमन समर्पित है ।
पता - 58, आशिष दीप,
उत्तर मिलौनीगंज,जबलपुर (म.प्र.)
मोबाईल:-09425862550
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