श्रीकृष्ण ने जिस समय अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया उसी समय कौरवों की हार और पाण्डवों की जीत सुनिश्चित हो गई। कौरव घंटों से श्रीकृष्ण की निन्द्रा टूटने की प्रतीक्षा करते रहे। पाण्डव, कौरवों के आने के बहुत देर बाद आये। जब पाण्डव आये तो देखे - कौरव, श्रीकृष्ण को घेर कर बैठे हैं। उन्हें वह स्थान रिक्त दिखा, जिधर श्रीकृष्ण का पैर था। पाण्डव वहीं पर जा बैठे। श्रीकृष्ण की निन्द्रा टूटी। उसने अपने सामने पाण्डवों को पाया। अर्जुन ने उन्हें युद्धभूमि में सारथी बनने का आग्रह किया। उन्होंने पाण्डवों का आग्रह स्वीकार लिया। कौरवों ने इसका विरोध किया। कहा - हम पहले से आये हैं। आपको पहले हमारा आग्रह सुनना था। कृष्ण का जवाब था - जब मेरी निन्द्रा टूटी तब मैंने पाण्डवों को अपने सम्मुख पाया। तुम लोग तो बाद में दिखे। इस सच्वाई को कौरवों भी जानते थे। वे निरुत्तर हो गये।
यही दुर्गति छत्तीसगढ़ी भाषा के उन लेखकों की हो रही है जो छत्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले छत्तीसगढ़ी में लेखन कर रहे हैं , जिनकी रचनाएं छपती रही है। छत्तीसगढ़ राज्य बनते ही हर क्षेत्र में छत्तीसगढ़ के हितैषी पैदा हो गये। जिस प्रकार छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वे नेता जो छत्तीसगढ़ राज्य बनने के समर्थन में कभी नहीं रहे वे ''छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया '' जय की नारे लगाने लगे।
वैसे ही छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने की चर्चा चली तो वे धुरंधर लेखक जिन्हें छत्तीसगढ़ी से 'दुराव ' था, वे ही सबसे बड़े हितैषी बनकर सामने आ गये। छत्तीसगढ़ी के वे सर्जक जो आजीवन छत्तीसगढ़ी में सृजन करते रहे, उन्हें नेपथ्य में धकेल दिया गया। वे लोग जिन्हें छत्तीसगढ़ी से लगाव नहीं था, छत्तीसगढ़ी भाषा के मानकीकरण को लेकर विवाद की स्थिति पैदा कर रहे हैं जो छत्तीसगढ़ी भाषा के हित में नहीं लगता।
कई लेखक ऐसे हुए जिन्होंने छत्तीसगढ़ी में रचना तो किए हैं पर छत्तीसगढ़ी भाषा का रुप बदलने में जरा भी संकोच नहीं किए। यही कारण है कि शुद्ध छत्तीसगढ़ी भाषा में सामान्य बोल चाल की भाषा घुसेड़ने में जरा भी संकोच नहीं किए। छत्तीसगढ़ी भाषा की एकरूपता को तोड़ने का प्रयास इन्हीं लोगों द्वारा किया गया। जैसे ' संस्कृति ' को ' संसकिरति ' कह दिया गया। जबकि संस्कृति तो संस्कृति ही होगी।
धर्मयुद्ध के समय एक ही सारथी श्रीकृष्ण थे ,जबकि छत्तीसगढ़ी भाषा के युद्ध के लिए अनेक सारथी पैदा हो गये हैं। और इनमें से सब स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सारथी समझ बैठे हैं। मुझे तो डर है कि मानकीकरण के चक्कर में छत्तीसगढ़ी राजकाज की भाषा बनने से वंचित न रह जाये।
अर्जुन की चतुराई के समक्ष अच्छे - अच्छों ने घुटने टेक दिए। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को वचन दे रखा था - तुमसे बढ़कर कोई भी धनुर्धर नहीं होगा। चूंकि एकलव्य को गुरु आश्रम में जाने से वंचित किया गया। उसने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति को द्रोणाचार्य की उपस्थिति माना और धनुर्विद्या सीखने लगा। एक दिन पता चला कि अर्जुन से भी किसी ने अधिक धनुर्विद्या प्राप्त कर लिया। अर्जुन को पता चला तो वे द्रोणाचार्य के पास दौड़े। द्रोणाचार्य ने तो अर्जुन को वचन दे रखा था कि उससे बढ़कर कोई धनुर्धर नहीं होगा। इसे मिथ्या कैसे होने देते। वे एकलव्य के पास गये और गुरु दक्षिणा में एकलव्य की अंगूठा ही मांग लिए।
छत्तीसगढ़ी के उन लेखकों के साथ भी यही हो रहा है। उन्हें गुरु दक्षिणा में बहुत कुछ खोना पड़ रहा है। तब उन्हें यह ज्ञात ही नहीं था कि छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए कोई मानकीकरण की भी आवश्यकता पड़ेगी। आज जिस प्रकार से छत्तीसगढ़ी भाषा के मानकीकरण की बात की जा रही है इससे तो यही लगता है, मानकीकरण की बात वे ही लोग ज्यादा कर रहे हैं जो आजीवन छत्तीसगढ़ी से परहेज करते रहे। छत्तीसगढ़ी भाषा की मानकीकरण की आड़ में कहीं छत्तीसगढ़ी भाषा को राजकाज की भाषा बनने से रोका तो नहीं जा रहा है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें