- नरेन्द्र कुमार
शाम को जब मेरी पत्नी स्कूल से आई और आते ही नजरें चुरा बिस्तर पर लेट गई तो मैं समझ गया हो न हो उसे ऋण मंजूर नहीं हुआ है। मैंने उसे चाय बना कर दी और कहा - च्च् उदास मत हो, हो जायेंगे तीस हजार का इन्तजाम। जहाँ तीन लाख खर्च किये वैसे ये भी मिल जायेगें। रात को दिनेश से मिलता हूं। व्यापारी है करवा देगा इन्तजाम। परन्तु पत्नी की काली स्याह आँखें प्रश्र पूछती रही - मैंने कब कहा था घर बनाओ। क्या हमारी हैसियत भी थी कि हम घर बना सकें, लोग क्या कहेंगे दोनों स्कूल टीचर और तीन कमरों का अपना मकान आज अंश याद आ रहा है।
मैं अंश को भूला नहीं पाता था, लावारिस लड़का जो मेरे सामने ही प्रायमरी मिडिल और इन्जिनियरिंग कर सका। मुझे बाबू जी व पत्नी को माई कहकर पुकारता। कभी कुछ खना है, कुछ कमी है तो बेझिझक माँग लेता और कहता - एक दिन ब्याज सहित लौटा दूँगा, और जो मेरा होगा वह आपका तो होगा ही आज आपका सब कुछ मेरा है। माई और मेरे माँ - बाप नहीं हुए तो क्या हुआ, उन्होंने मेरी नरम उंगलियाँ नहीं पकड़ी तो क्या हुआ, उन्होंने मेरे बालों पर प्यार का हाथ नहीं रखा तो क्या हुआ, उन्होंने मुझे नाम देने में हिम्मत नहीं की तो क्या हुआ। आपने तो सब दिया। बाबूजी ने मुझे इस काबिल बना दिया कि मैं स्वतंत्र उड़ जाऊँ कहीं दूर। परन्तु कितने अजीब होते हैं रिश्ते जिस धरा पर खड़े होकर वस्तु में मुझे लावारिस होने का भास होता है, दिल फटता है, मन रोता है वहीं आपकी छवि उभरकर आ जाती है। वात्सल्य की, जिद के सामने झुकती बूढ़ी चरमराती हड्डियों की, प्यार भरी माई की झिड़की की। यही सब कहता जो आज याद आ रहा था। मैं सोच रहा था आज काश अंश होता तो उधारी मिल ही जाती, परन्तु नियति की रचना दो साल पहले मेरी आँखों के सामने सनकी आतंकवादियों के लावारिस बम्ब से वह लावारिस मौत की गोद में कई टुकड़ों में बिखर गया। मैंने ही तो उसे अग्रि दी थी।
वह कई जेबों वाली एक पेंट और शर्ट उस बार मेरे लिये लाया और मुझे जबरदस्ती जोकर बना हंसता रहा। बस यही कहता बाबूजी, इसे पहनो या न पहनो। कभी दुखी हो जाओ या मेरी याद आये तो बस इसे निहारना मैं आपके सामने आ जाऊँगा। दुनिया बहुत छोटी है। बाबूजी, आप चलो छोड़ो नौकरी और मेरे पास बंगलौर चलो। परन्तु हम कहाँ जाते आज याद आई तो उस पेंट शर्ट को निकाल निहारता रहा और दुख हलका करने के लिए उसे पहन पत्नी वंदना के सामने आया जिससे वह भी अपना दिल अंश में डूबो दे।
मेरी पत्नी मुझे देख हंसने लगी, अंश की याद यादें निकाल न जाने कब तक बतियाती अगर उसकी नजर एक जेब की उखड़ी सिलाई पर न जाती उसने सिलने के लिए खड़े - खड़े हाथ बढ़ाया और सिलने लगी तो, उस जेब मे एक मुड़ा व सलीके से पिन अप किया छोटा लिफाफा निकला। उसे खोला तो दो बरस पहले अंश की चिट्ठी तथा एक दो तोले की चेन, तीन तोले सुन्दर नाजुक सोने की हार कान के बाले निकले और चिट्ठी में लिखा था - माई बाबूजी, अगर मैं बताकर कुछ दूंगा आपको तो आप लोगे नहीं, आपको लगेगा मैं एहसान चुका रहा हूं। पर माई आपका बेटा अंश कमाई कर रहा है। और अपने माँ - बाप के चरणों में कुछ दे रहा है, नहीं मत कहना। बेंगलोर पहुंचकर मैं आपको फोन कर दूंगा। बेटा हूं मैं आपका यह अहसास मत भूलना वरना लावारिस ही रह जाऊंगा। माफ करना आपका अंश अपना आप पर हक जताता हुआ।
हमारी आँखों में आँसू छलछला गये। काश वह मिलने आता, तो मरता नहीं। आज हम पोती - पोते वाले हो जाते, उन्हें खिलाते। तब मैंने और पत्नी ने उस नजराने को गिरवी रख घर का काम पूरा करने का विचार किया और उसकी याद को नजराने को ता - उम्र सीने से लगाने का प्रण किया। यह समझ दिनेश ने हमारी मानसिक स्थिति का जायजा ले एक स्टेम्प पेपर पर हमारी रजामंदी ले वे सब नजराने हमारे पास रहने दिये। सच इंसानियत, इंसान को भावुक बनाकर रिश्ते बनाती है वरना कौन, कहाँ से आया किसके साथ रहा क्या मायने है। उखड़ी सिलाई ने पेंट से जो दिया एक अनाम रिश्ता था।
मैं अंश को भूला नहीं पाता था, लावारिस लड़का जो मेरे सामने ही प्रायमरी मिडिल और इन्जिनियरिंग कर सका। मुझे बाबू जी व पत्नी को माई कहकर पुकारता। कभी कुछ खना है, कुछ कमी है तो बेझिझक माँग लेता और कहता - एक दिन ब्याज सहित लौटा दूँगा, और जो मेरा होगा वह आपका तो होगा ही आज आपका सब कुछ मेरा है। माई और मेरे माँ - बाप नहीं हुए तो क्या हुआ, उन्होंने मेरी नरम उंगलियाँ नहीं पकड़ी तो क्या हुआ, उन्होंने मेरे बालों पर प्यार का हाथ नहीं रखा तो क्या हुआ, उन्होंने मुझे नाम देने में हिम्मत नहीं की तो क्या हुआ। आपने तो सब दिया। बाबूजी ने मुझे इस काबिल बना दिया कि मैं स्वतंत्र उड़ जाऊँ कहीं दूर। परन्तु कितने अजीब होते हैं रिश्ते जिस धरा पर खड़े होकर वस्तु में मुझे लावारिस होने का भास होता है, दिल फटता है, मन रोता है वहीं आपकी छवि उभरकर आ जाती है। वात्सल्य की, जिद के सामने झुकती बूढ़ी चरमराती हड्डियों की, प्यार भरी माई की झिड़की की। यही सब कहता जो आज याद आ रहा था। मैं सोच रहा था आज काश अंश होता तो उधारी मिल ही जाती, परन्तु नियति की रचना दो साल पहले मेरी आँखों के सामने सनकी आतंकवादियों के लावारिस बम्ब से वह लावारिस मौत की गोद में कई टुकड़ों में बिखर गया। मैंने ही तो उसे अग्रि दी थी।
वह कई जेबों वाली एक पेंट और शर्ट उस बार मेरे लिये लाया और मुझे जबरदस्ती जोकर बना हंसता रहा। बस यही कहता बाबूजी, इसे पहनो या न पहनो। कभी दुखी हो जाओ या मेरी याद आये तो बस इसे निहारना मैं आपके सामने आ जाऊँगा। दुनिया बहुत छोटी है। बाबूजी, आप चलो छोड़ो नौकरी और मेरे पास बंगलौर चलो। परन्तु हम कहाँ जाते आज याद आई तो उस पेंट शर्ट को निकाल निहारता रहा और दुख हलका करने के लिए उसे पहन पत्नी वंदना के सामने आया जिससे वह भी अपना दिल अंश में डूबो दे।
मेरी पत्नी मुझे देख हंसने लगी, अंश की याद यादें निकाल न जाने कब तक बतियाती अगर उसकी नजर एक जेब की उखड़ी सिलाई पर न जाती उसने सिलने के लिए खड़े - खड़े हाथ बढ़ाया और सिलने लगी तो, उस जेब मे एक मुड़ा व सलीके से पिन अप किया छोटा लिफाफा निकला। उसे खोला तो दो बरस पहले अंश की चिट्ठी तथा एक दो तोले की चेन, तीन तोले सुन्दर नाजुक सोने की हार कान के बाले निकले और चिट्ठी में लिखा था - माई बाबूजी, अगर मैं बताकर कुछ दूंगा आपको तो आप लोगे नहीं, आपको लगेगा मैं एहसान चुका रहा हूं। पर माई आपका बेटा अंश कमाई कर रहा है। और अपने माँ - बाप के चरणों में कुछ दे रहा है, नहीं मत कहना। बेंगलोर पहुंचकर मैं आपको फोन कर दूंगा। बेटा हूं मैं आपका यह अहसास मत भूलना वरना लावारिस ही रह जाऊंगा। माफ करना आपका अंश अपना आप पर हक जताता हुआ।
हमारी आँखों में आँसू छलछला गये। काश वह मिलने आता, तो मरता नहीं। आज हम पोती - पोते वाले हो जाते, उन्हें खिलाते। तब मैंने और पत्नी ने उस नजराने को गिरवी रख घर का काम पूरा करने का विचार किया और उसकी याद को नजराने को ता - उम्र सीने से लगाने का प्रण किया। यह समझ दिनेश ने हमारी मानसिक स्थिति का जायजा ले एक स्टेम्प पेपर पर हमारी रजामंदी ले वे सब नजराने हमारे पास रहने दिये। सच इंसानियत, इंसान को भावुक बनाकर रिश्ते बनाती है वरना कौन, कहाँ से आया किसके साथ रहा क्या मायने है। उखड़ी सिलाई ने पेंट से जो दिया एक अनाम रिश्ता था।
- सी 004, उत्कर्ष अनुराधा, सिविल लाइन्स,नागपुर (महाराष्ट्र)
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