इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

गुरुवार, 23 मई 2013

रोटी



  • राजेश जगने ' राज' 
एक रिक्शे चालक युवक को पेट में भूख लिए शहर की गलियों में चक्कर लगाते सुबह से शाम हो गई। खाली मेहनत से युवक थक गया था। सोचने लगा - खाली शहर के चक्कर लगाते लगाते सारा दिन निकल गया मगर एक भी ग्राहक नहीं मिला। खाली हाथ घर जाकर भला क्या करूंगा ? घर में खाने को एक दाना भी नहीं है ... वह विचार में मग्‍न था कि एक ग्राहक आया और उससे रेल्वे स्टेशन छोड़ने कहा। सौदा हुई और वह उस ग्राहक को पंद्रह रूपए में रेल्वे स्टेशन छोड़ने तैयार हो गया। रिक्शे चालक ने विचार किया - मालिक के घर देर है, अंधेर नहीं। अब मैं इस पन्द्रह रूपए से आटा खरीदूंगा और घर जाऊंगा। रूखा - सूखा खाकर रात काट लेंगे। फिर कल नई सुबह आयेगी।
ग्राहक को उसने रेल्वे स्टेशन पर घर छोड़ा। उससे पन्द्रह रूपए लेकर दुकान गया और उस पन्द्रह रूपए से आटा लेकर अपने घर के पास पहुंचा। दरवाजा खटखटाने पर उसकी पत्नी ने दरवाजा खोली। बोली - आज तो बहुत देर लगा दिए। पति ने पत्नी से सारा हाल सुनाते हुए लाए आटा को उसे सौंप दिया। घर भीतर प्रवेश करती पत्नी ने कहा - आटा भर से क्या होगा ? इसे पकाने के लिए आग भी तो चाहिए। घर में एक भी लकड़ी नहीं है। बच्चे दिन भर से कुछ खाए नहीं है।
बच्चों का विलाप पिता से देखा नहीं गया। उसने आलमारी से कापियों का बंडल निकाला और पत्नी से कहा - लो, इन कापियों के पन्ने फाड़कर चूल्हा जला लो। इसकी आंच से रोटियाँ बन जायेगी।
पत्नी ने विनम्र भाव से कहा - मैं इसे नहीं जला सकती। ये तो आपकी अमूल्य धरोहर है। इन कापियों में आपकी कविताएं लिखी हुई है।
रिक्शे वाला कवि ने कहा - भूख की आग और कागज पर लिखे आग में जमीन -  आसमान का अंतर है। ये मेरी लिखी हुई कविता किसी की भूख नहीं मिटा सकती, पर चूल्हे में जल कर कविता रोटी जरूर बना भूख की आग बूझा सकती है।
पत्नी पन्ने फाड़कर चूल्हा जलाने लगी। कविता की आंच पर रोटियां बनाने लगी। रोटी के बनते तक बच्चे भूख से तड़प रहे थे और कविता के लिए कवि।
  • सोला खोली, स्टेशन रोड,  नागपुरे सॉ मिल के पास, राजनांदगांव ( छग.)

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