व्यंग्य
मैं गया। कुल तीस पैंतीस चेहरे थे। प्रत्येक चेहरा एक या एकाधिक संस्थाओं - संगठनों से जुड़ा था। घास उगाओ, नगर बचाओ के संयोजक देहाती जी भी थे। मुझे देखकर बोले - गुरूजी, मैंने भी हाजिरी दे दी। भवदी की बात है। यदि किसी संस्था के समारोह में न जाओ तो तुम्हारे समारोह में कौन आयेगा ? ई सीरिया ' श्री.जी.' बहुत चालू चीज है। बाप का फोटो रख कर माल चढ़वा रहा है। सेठ से माल लिया है। छप्पन भोग से नाश्ता का इंतजाम करवा लिया है। मैं सुनता रहा और मुस्कुराता रहा। श्री .. जी संयोजक थे। कार्यक्रम एक घंटा विलम्ब से प्रारम्भ हुआ। सेठ धनपति ने विमोचन किया ( देहाती जी इसे मोचन कहते हैं ) तीन चार वक्तागण आये। किसी ने धनपति पुराण का पाठ किया। किसी ने श्री ... जी के पिताजी को श्रद्धांजलि दी। सबने साहित्यिक समारोहों में क्षीण होती उपस्थिति पर आंसू बहाये। न तो किसी ने पुस्तक की विषय वस्तु पर प्रकाश डाला और न कवि झटपट को घास डाली। इसी बीच एक प्रेस फोटोग्राफर आया। उसने कहा - थोड़ी देर हो गयी। मैंने विमोचन का चित्र नहीं लिया है। एक बार फिर हो जाय। सेठ जी उठे। फाड़े हुए कागजों को मुठ्ठी में दबाया। दूसरी में पुस्तक की गर्दन पकड़ी। फोटो हो गया। श्री ... जी वहीं पर खड़े होकर समाचार का ब्रीफिंग करने लगे। फोटोग्राफर स्वीट्स की दो पैकेट लेकर चले गए। मिठाई के डिब्बे बंट रहे थे। जो खा चुके थे, वे चाय पी रहे थे। जो चाय पी चुके थे, वे जा रहे थे। इसी बीच श्री ... जी को याद आया कि धन्यवाद ज्ञापन नहीं हुआ। उन्होंने झटपट को कृतज्ञता ज्ञापन के लिए ललकारा, झटपट इस आसन्न विपत्ति के लिए तैयार नहीं थे। वे तो अपना चालीसा बांट रहे थे। उन्होंने मुझे माइक की ओर ठेल दिया। मैंने एक मुक्तक सुनाया -
सेठ जी ने कष्ट से पुस्तक विमोची
श्रोताओं ने छप्पनभोग की पैकेट नोची।
वक्ताओं ने शब्दों को जोड़ा
कहीं के ईंट कहीं का रोड़ा
पर पुस्तक भी पढ़ी जाय,
किसी ने न सोचा।
- डां. बच्चन पाठक ' सलिल'
मैं गया। कुल तीस पैंतीस चेहरे थे। प्रत्येक चेहरा एक या एकाधिक संस्थाओं - संगठनों से जुड़ा था। घास उगाओ, नगर बचाओ के संयोजक देहाती जी भी थे। मुझे देखकर बोले - गुरूजी, मैंने भी हाजिरी दे दी। भवदी की बात है। यदि किसी संस्था के समारोह में न जाओ तो तुम्हारे समारोह में कौन आयेगा ? ई सीरिया ' श्री.जी.' बहुत चालू चीज है। बाप का फोटो रख कर माल चढ़वा रहा है। सेठ से माल लिया है। छप्पन भोग से नाश्ता का इंतजाम करवा लिया है। मैं सुनता रहा और मुस्कुराता रहा। श्री .. जी संयोजक थे। कार्यक्रम एक घंटा विलम्ब से प्रारम्भ हुआ। सेठ धनपति ने विमोचन किया ( देहाती जी इसे मोचन कहते हैं ) तीन चार वक्तागण आये। किसी ने धनपति पुराण का पाठ किया। किसी ने श्री ... जी के पिताजी को श्रद्धांजलि दी। सबने साहित्यिक समारोहों में क्षीण होती उपस्थिति पर आंसू बहाये। न तो किसी ने पुस्तक की विषय वस्तु पर प्रकाश डाला और न कवि झटपट को घास डाली। इसी बीच एक प्रेस फोटोग्राफर आया। उसने कहा - थोड़ी देर हो गयी। मैंने विमोचन का चित्र नहीं लिया है। एक बार फिर हो जाय। सेठ जी उठे। फाड़े हुए कागजों को मुठ्ठी में दबाया। दूसरी में पुस्तक की गर्दन पकड़ी। फोटो हो गया। श्री ... जी वहीं पर खड़े होकर समाचार का ब्रीफिंग करने लगे। फोटोग्राफर स्वीट्स की दो पैकेट लेकर चले गए। मिठाई के डिब्बे बंट रहे थे। जो खा चुके थे, वे चाय पी रहे थे। जो चाय पी चुके थे, वे जा रहे थे। इसी बीच श्री ... जी को याद आया कि धन्यवाद ज्ञापन नहीं हुआ। उन्होंने झटपट को कृतज्ञता ज्ञापन के लिए ललकारा, झटपट इस आसन्न विपत्ति के लिए तैयार नहीं थे। वे तो अपना चालीसा बांट रहे थे। उन्होंने मुझे माइक की ओर ठेल दिया। मैंने एक मुक्तक सुनाया -
सेठ जी ने कष्ट से पुस्तक विमोची
श्रोताओं ने छप्पनभोग की पैकेट नोची।
वक्ताओं ने शब्दों को जोड़ा
कहीं के ईंट कहीं का रोड़ा
पर पुस्तक भी पढ़ी जाय,
किसी ने न सोचा।
- पता - डी. रामदास भठ्ठा, विप्टुपुर, जमशेदपुर
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