कविता
प्रकृति को बहार दो
पतझड़ में वसन - हीन
पेड़ पौधे याचक से दीन
छूकर उन्हें दुलार दो
प्रकृति को बहार दो
ठिठुरता ठण्ड से सूरज
वन - उपवन को है अचरज
निष्प्राण तन में भरो जीवन
सौन्दर्य शिल्पी करो नवसृजन
अनुपम कोई उपहार दो
प्रकृति को बहार दो
अंगड़ाइयाँ ले , मन प्राण जागे
तिमिर, आलस्यबोध भागे
गुलाबी, छरहरी है धूप
निखर आया है धरती का रूप
नेह - निर्झर- धार दो
प्रकृति को बहार दो
प्रतीक्षित है भ्रमर, तितली
सरसों की पीली चुनरी खिली
महकतीं आम्र - मंजरियाँ
विस्मित हुई दुनिया
मिलन का पर्व, त्यौहार दो
प्रकृति को बहार दो
- विजय प्रताप सिंह
प्रकृति को बहार दो
पतझड़ में वसन - हीन
पेड़ पौधे याचक से दीन
छूकर उन्हें दुलार दो
प्रकृति को बहार दो
ठिठुरता ठण्ड से सूरज
वन - उपवन को है अचरज
निष्प्राण तन में भरो जीवन
सौन्दर्य शिल्पी करो नवसृजन
अनुपम कोई उपहार दो
प्रकृति को बहार दो
अंगड़ाइयाँ ले , मन प्राण जागे
तिमिर, आलस्यबोध भागे
गुलाबी, छरहरी है धूप
निखर आया है धरती का रूप
नेह - निर्झर- धार दो
प्रकृति को बहार दो
प्रतीक्षित है भ्रमर, तितली
सरसों की पीली चुनरी खिली
महकतीं आम्र - मंजरियाँ
विस्मित हुई दुनिया
मिलन का पर्व, त्यौहार दो
प्रकृति को बहार दो
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महासमुन्द ( छग. )
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