काबर करम ले भागथस जी
विटठल राम साहू '' निश्छल '' |
करम करे ले सुख मिलही गा,
काबर तंय ओतियाथस जी
मेहनत के धन पबरीत भईया
बिरथा काबर लागथे जी ।
रात दिन तंय जांगर टोर,
तंय चैन के बंसी बजाबे जी
करम के खेती ल करके भइया
भाग ल काबर रोथस जी,
करले संगी तंय मेहनत ल
काबर दिन ल पहाथस जी
मेहनत ले हे भाग मुठा म
बिरथा काबर लागथे जी ।
गेये बेरा बहुरे नई संगी
नई पावस तंय काली लग
समें झन अबिरथा होवय
मुड़ धर के पसताबे जी ।
झन पछुआ तंय काम - बुता म
बेरा ल देख ढ़रकत हे जी
समे संग तंय दउड़ भईया
अबिरथा काबर लागथे जी ।।
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देवारी मनानच परही
देवारी मनानच परही ।
रीत ल निभानच परही ।।
लइका मन रद्दा जोहत होही ।
मिठाई फटाका लेगेच ल परही ।।
अंतस ह कतको रोवय ।
उपरछवाँ हाँसेच ल परही ।।
पूजा करना हे लछमी के ।
त घर - दुआर लिपेच ल परही ।।
तेल - फूल, पीसान - बेसन, ओनहा नांवां ।
करजा करके लानेच ल परही ।।
मन म तो घपटे अंधियारी हे ।
फेर डेरौठी म दीया बारेच ल परही ।।
देवारी मनानच परही ।
रीत ल निभानच परही ।।
मौवहारी भाठा महासमुन्द
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