वंदना पुणतांबेकर
बैंड बाजे की ढम-ढम का शोर सुबह की गुनगुनी धूप से ही शुरू हो चुका था.
सभी तरफ पायल और चूड़ियों की खनक हंसी ठिठोली की आवाजों से सारा माहौल एक
खुशनुमा वातावरण का एहसास करा रहा था. विद्या ने अलसाये मन से खिड़की का
पर्दा लगाकर सोने की कोशिश की. लेकिन अब नींद कहां आंखों में आ रही थी.
मोगरे और सेंट की खुशबू ने विद्या को उठने पर विवश कर दिया. विद्या तुरंत
उठ बैठी. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. विद्या ने अनमने ढंग से दरवाजा खोला,
सामने अंजना खड़ी थी. एक परिपक्व सास की तरह जुड़े में फूल सजाए हुए. वह
विद्या की देखकर बोली:-"यह क्या. . ? अभी सो कर उठी हो. . . जल्दी तैयार हो
जाओ माता पूजन के लिए निकलना है. और हां. . . चाय नाश्ता नीचे लगा हुआ है.
तुरंत कर लेना नहीं तो कहां वहां से हट जाएगा. कहते हुए चली गई.
उसके
जुड़े में लगे गजरे से गिरे फूल देख मेरे मन का मुरझाया आलस तुरंत खिल
उठा. विद्या नहाकर तैयार हो नाश्ते के सामने पहुंची. सब कुछ समेटा जा रहा
था. बैंड बाजे की आवाज में भी अब कानों से दूर होती नजर आ रही थी. बमुश्किल
चाय-नाश्ता कर विद्या दरवाजे की पर खड़े एक अपरिचित व्यक्ति को देख पूछ
बैठी. . , "की माता पूजन के लिए यह लोग किधर गए हैं. विद्या की ओर अपरिचित
व्यक्ति ने देखकर कहा. . . . ," कि अब जाकर कोई फायदा नहीं वे लोग आते ही
होगी. विद्या बे मन से एक कुर्सी पर जाकर बैठ गई. और उन लोगों के आने का
इंतजार करने लगी. आज विद्या अपने बचपन की सहेली जिसे वह फेसबुक पर मिल चुकी
थी. उसकी बेटी की शादी में आई हुई थी.
यहां
उसके अलावा विद्या का कोई भी परिचित नहीं था. सभी अनजाने चेहरे को देख
विद्या अपने आप को उस माहौल में अजनबी सा महसूस कर रही थी. अपनी सहेली
अंजना की व्यस्तता को देखते हुए उससे कुछ उम्मीद रखना मूर्खता होगी. यही
सोचकर विद्या कमरे में आकर अपना पर्स उठाकर उस छोटे से शहर में भ्रमण करने
निकल पड़ी. भोजन के समय तक लौट आऊंगी शादी की व्यवस्था में किसी को कुछ पता
नहीं चलेगा कि कौन आया कौन गया यही सोच विद्या शादी समारोह से बाहर निकल
पड़ी. सोचा ऑटो कर लू. मगर कहां जाना है. गंतव्य पता नहीं था. हल्की
गुनगुनी बयार बसंत पंचमी का दिन मदमस्त मौसम का आनंद उठाते हुए वह अकेली ही
पैदल निकल पड़ी. थोड़ी दूरी पर एक छोटा सा हाट बाजार दिखाई दिया. सुबह का
व्यस्त समय था. अभी बाजार खुला नहीं था. वह आगे बढ़ती चली गई. तभी वहां पर
विद्या को सरस्वती वाचनालय का एक बहुत बड़ा सा बोर्ड दिखाई पड़ा. विद्या के
कदम वही ठिठककर रुक गए. उसने देखा तो वह लाइब्रेरी बंद पड़ी हुई थी. उसके
पास एक स्टेशनरी की दुकान पर एक बुजुर्ग व्यक्ति विराजमान थे. विद्या उनसे
वाचनालय के खुलने का समय पूछा. तो वह आदर से कहने लगे. . ,"बेटा अब यहां
कोई नहीं आता. थोड़ी बहुत पुस्तकें पड़ी है. तुम्हें कुछ चाहिए तो मेरी
दुकान से खरीद लो. उसने कहा नहीं मुझे कुछ नहीं चाहिए. बस अंदर से देखने की
जिज्ञासा थी. कहते हुए विद्या आगे बढ़ गई.
विद्या की भावनाओं को समझते हुए. उन बुजुर्ग व्यक्ति ने उसे पीछे से आवाज लगाई. बेटा क्या तुम्हें इसे अंदर से देखना है. . . ?,
विद्या
की जिज्ञासा को देखते हुए उन्होंने पूछा. क्या तुम्हें वाचनालय में जाना
है. . ?विद्या के पास तो समय ही समय था. शादी तो सिर्फ एक बहाना था. उसे तो
दूसरा शहर घूमना था. तभी उस बुजुर्ग व्यक्ति ने विद्या को एक चाबी का
गुच्छा देकर बोले. . ," बेटा यह लो देख लो कोई पुस्तक तुम्हारे काम की हो
तो मैं तुम्हें दे सकता हूं. शायद तम्हारे किसी काम आ जाये. कहते हुए
उन्होंने विद्या को चाबी का गुच्छा थमा दिया. दो,चार चाबियों को लगाने के
बाद एक चाबी सही तरह से लग गई. और ताला खुल गया. गुनगुनी धूप की रोशनी
विद्या से जल्दी अंदर प्रवेश कर गई. अलमारियों में बहुत सी किताबें देखकर
विद्या मुस्कुरा उठी. शायद पुस्तकें भी सूर्य की किरणों को देख खुश हो गई.
विद्या उस अलमारी की तरफ देख उस पर पड़ी धूल को अपने दुपट्टे से झाड़ने लगी.
तभी वह अलमारी बोल उठी. . , 'यह क्या इतना कीमती दुपट्टा धूल झाड़ने के लिए
थोड़ी है. आप कौन हैं. . ? आपका परिचय अलमारी खोलते ही वह चरमराती हुई बात
करने लगी. हम यहां सदैव अच्छे पाठकों का इंतजार करते रहते हैं. क्या बाहर
कोई कर्फ़्यू लगा है. . ? जो यहां कोई और पाठक आता ही नहीं. . ,ना ही कोई
बच्चे आते है. हमें तो बाहर के हाल-चाल नजर ही नहीं आते.
विद्या
ने एक पुस्तक को खोलकर देखा पन्नों पर दीमक का आतंक पसरा पड़ा था. विद्या
ने उसे झाड़ते हुए कुछ पन्ने पलटे. इतिहास की कुछ रोचक कथाएं थी. मन में
वही बालपन जीवंत हो उठा. तभी उस पर लगी दीमक कहने लगी. . . , "अरे अब तो
सारी किताबों पर हमारा आतंक है. यहां अब कोई नहीं आता. अब यह हमारा इलाका
है. मानो वह भी विभाजन की बात कर रही हो. विद्या दूसरी अलमारी की तरह बढ़ी.
वहां भी कुछ पुस्तकें अपने सुख-दुख की दास्तां बयां कर रही थी. आखिर एक
उपन्यास ने हिम्मत कर विद्या से सवाल पूछ बैठा. पूछने लगा. . ,"इतने बरसों
बाद कैसे आना हुआ. . . ? ऐसा कौन सा युग आ गया है . कि हमारी मन की भावनाएं
कहानियां कविताएं,बाल कथाएं ज्ञान-विज्ञान जासूसी पुस्तकों कि अब किसी को
जरूरत ही नहीं. अब तो यहां दीमक नामक घुसपैठिया तो हमें इतिहास बनाने के
लिए तुल गया है. यहां तो अब हमारा अस्तित्व ही धीरे-धीरे खत्म हो रहा हैं.
विद्या ने अपने आंखों के कोरों की नमी को पोंछते हुए.
उनकी दुर्दशा
देख अपना मौन तोड़ते हुए कहा. . ," क्या कहूं सखी तुमसे में. . . . बाहर
इंटरनेट और स्मार्टफोन नामक ऐसे डिजिटल दानवों ने अपने पांव पसार रखे हैं.
और उस पर गूगल नामक उनके सरदार ने सारा ज्ञान अपनी पगड़ी पर लपेट रखा है.
उन्हें अब किसी की भी पुस्तकों जरूरत नहीं. सारी ज्ञान की चादर गूगल महाराज
ओढ़े बैठे हैं. विद्या की बात सुनकर सारी पुस्तकें विलाप करने लगी. कहने
लगी. तो क्या हमारा अस्तित्व खत्म हो रहा है. विद्या ने पुस्तकों को
सांत्वना देते हुए कहा. . " नहीं-नहीं तुम्हारा कोई अस्तित्व खत्म नहीं हो
रहा. भटकते राही को सही राह पर लाने वाली सत्य का प्रकाश पुंज फैलाने वाली
तुम. . तुम्हारा अस्तित्व कैसे खत्म हो सकता है. बहुत से लोग हैं. अभी इस
दुनिया में. . तुम्हें फिर तुम्हारे पुनरुत्थान की ओर ले जाने में अग्रसर
होकर तुम्हें फिर से उम्मीद के प्रकाश में लाने के लिए तत्पर है. विद्या की
बात सुनकर किताबें खिलखिला उठी. विद्या वहां सभी को एक आश्वासन देकर वहां
से चार पुस्तकें अपने साथ लेकर बाहर आ गई. कि वह दिन अब दूर नहीं कि
तुम्हारा परचम फिर से लहराएगा. विवाह समारोह में वापस आने पर विद्या ने
देखा सभी का भोजन समाप्त हो चुका था.
विद्या का पेट पुस्तकों की
दर्द
भरी आत्मकथा सुनकर खाली हो चुका था. लेकिन विद्या साथ आई पुस्तकों का मन उम्मीदों में बंधी आशाओं से ख़ुशी से तृप्त हो चुका था.
भरी आत्मकथा सुनकर खाली हो चुका था. लेकिन विद्या साथ आई पुस्तकों का मन उम्मीदों में बंधी आशाओं से ख़ुशी से तृप्त हो चुका था.

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