इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 18 जुलाई 2022

धागों का डिब्बा

नीरजा कृष्णा

       वो आज बहुत अनमनी सी थी। किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था। उसकी मनस्थिति घर में किसी से नहीं छिपी थी। सब समझ ही रहे थे...आज उसके पापा की पुण्यतिथि है और वो उनकी ही यादों में खोई हुई हैं।
      उसकी सासुमाँ सविता जी स्नेह से उसके लिए कॉफ़ी ले आई थीं पर वो उसी तरह उस पुराने जीर्णशीर्ण धागों के डिब्बे को गोद में रखे डबडबाई आँखों से उसे सहला रही थीं।
"लो बेटी, तुम्हारी मनपसंद कॉफीं लाई हूँ। पीकर तुम्हारा मन थोडा़ शांत होगा।"
वो तड़प कर उनसे लिपट कर रो पड़ी,
"जानती हैं मम्मी जी, मेरी शादी का मम्मी पापा को बहुत शौक था। वो कोई धन्ना सेठ नहीं थे पर मेरे लिए एक एक जरूरत की चीज़ इकट्ठा करते रहते थे। मम्मी लिस्ट बनाती थीं और पापा दस जगह घूमफिर कर खरीदते थे।"
       कहते कहते वो सिसक उठी थीं। सविता जी खामोशी से सुन रही थीं। वो फिर बोल पड़ी,
"जब शादी में सिर्फ चार दिन शेष रह गए थे, ताईजी गाँव से आ चुकी थी...उन्होंने ही सुझाया था कि बिटिया के लिए रंगबिरंगे धागों की रील भी आनी चाहिए।".
      बस क्या था...पापा निकल कर ढ़ेरों रंगीन धागों की रीलें ले आए थे। तब ताईजी कितना हँसी थीं और वो हैरान खड़े थे...तब उन्होंने समझाया था,
"अरे भैया, एक सुंदर सा डिब्बा भी ले आते। सारे धागे उसमें सजा देंगे। और सारे रंग ले आए, सफेद काली रील नहीं लाए। सुई का पत्ता भी नहीं है।"
अब सविताजी उत्सुकता से पूछ बैठीं,"तब क्या हुआ?"
      वो उत्साह से भीगे स्वर में बोली,"उनको अपनी बेटी के लिए सफेद काला रंग नहीं पसंद था।वो मेरा जीवन हँसी खुशी से भरपूर रंगबिरंगा रहे ...बस यही चाहते थे।"
"और सुई का पत्ता?"
      वो फिर बोली,"वो भी वो नहीं लाए क्योंकि उन्हें बेटी के हाथ में सुई की चुभन भी बर्दाश्त नहीं थी।उनका कहना था ...सुई के कारण मेरे ससुराल के रिश्तों में भी चुभन नहीं होनी चाहिए।"
अब सासुमाँ ने प्यार से समझाया," उन्हीं का आशीर्वाद तो यहाँ फलफूल रहा है। कितनी बढ़िया सोच थी उनकी।"
इस बार वो मुस्कुरा कर बोली,"मैं विशाल की बहू की चुनरी में इन्हीं धागों से खुशियों के घुँघरू लगाऊँगी।"
पटना

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