इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 30 मई 2022

भिक्षा

कमलेश राणा

     प्राचीनकाल में वनों में गुरुकुल हुआ करते थे। वहीं प्रकृति के सानिंध्य में शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु का उद्देश्य शिष्य का सर्वांगीण विकास करना होता था। सभी के लिए समान नियम थे। चाहे अमीर हो या गरीब।
    शिष्यों को अपनी दैनिक जरूरत का सामान खुद ही जुटाना पड़ता था। एक नियम यह भी था कि प्रत्येक शिष्य 5 घर जा कर भिक्षा माँगता था। कुछ मिल गया तो ठीक, न मिला तो भी संतुष्टए।
     इसका उद्देश्य शिष्य के अहंकार के दमन के साथ - साथ उसके मन में संतोष की भावना को विकसित करना भी था। कालांतर में लोगों ने इसे व्यवसाय बना लिया।
      अच्छे हट्टे - कट्टे युवा भीख मांगते दिखाई देते हैं। ये कामचोरी की पराकाष्ठा है। एक बार उन्हें काम बता दो तो ऐसे गायब हो जाते हैं, जैसे गधे के सर से सींग।
      एक बार हम लोग कॉलोनी में धूप में कुर्सी डाल कर बैठे हुए थे। सर्दियों के दिन थे। हमारे घर के पास ही एक चक्की है। उसके सामने आटो आ कर रुका और उसमें से बड़े - बड़े थैले लटकाये चार व्यक्ति उतरे और चक्की वाले से बात करने लगे।
जब वो बाहर आये तो उनके थैले खाली थे। यह प्रक्रिया हर 2 - 3दिन बाद दोहराई जाती।
हमारी उत्सुकता बढ़ी तो एक दिन हमने उनमें से एक कम उम्र के लड़के को बुला कर पूछा कि यहाँ किसलिए आते हो।
वह बोला - हम भीख मांगते हैं और बचे हुए आटे को बेचने आते हैं यहाँ।
      हम सन्न रह गये। क्योंकि उस चक्की से  कॉलोनी के काफी लोग आटा खरीदते थे और अनजाने में ही संपन्न परिवार के लोग भीख में मिला आटा खा रहे थे।
कितना घृणित कार्य और धोखा है ये। हम उन पर दया करके मदद करते हैं और वो हमारी कोमल भावनाओं का गलत फायदा उठाते हैं।
     हमें बेवकूफ  बनाकर मदद जरूर करें,पर सिर्फ अक्षम और जरुरतमंदों की। युवकों को परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करें।

ग्वालियर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें