टीसते छाले
छल छंद के रोग प्रबल
यहाँ सभी ने रखे पाले हैं
जो भी मन टटोला गया
दिखे टीस मारते छाले हैं।
मिला जहाँ भी अवसर
निज स्वार्थ साधने का
बक भक्तों ने निस्संकोच
मुखौटे बाहर निकाले हैं।
प्रतिहिंसा की आँच में
झुलस गया हर मानव
घाव घृणा और क्रोध के
हमने सहेजे - सम्हाले हैं।
श्वेत उत्तरीयों में ढँकी
सुनिर्मित सुडौल देह
पर उन वसनों के पीछे
छिपे हृदय बड़े काले हैं।
सर्वत्र होती सुवासित
उच्छृंखलता की मादकता
बिखरे पड़े चारों ओर
अभिमान के प्याले हैं।
क्षुद्रता की कसौटी पर
सर्वोपरि कहलाया अवसर
हमने अब सिद्धान्त सभी
कवि की चेतना
जहाँ सत्ता मृत्यु सी मूर्च्छा की
चेतना की जाग्रति प्रतिषिद्ध है।
उन्हीं काली दीवारों के तल में
नन्हा दीपक टिमटिमाया है
नए प्राण भरने सोये विश्व में
विद्रोही कहलाता कवि आया है।
सृजन की जय को किया पुनः
निज रचना से सत्य सिद्ध है।
उसके स्वर को कुचलने का
हर संभव था प्रयास हुआ
जैसे जैसे उसे दबाया गया
कविता का विकास हुआ।
भूगर्भ का लावा बनकर
वह कविता हुई प्रसिद्ध है।
जब भी कोई चेतन मानव
सृजन के वे गीत गाता है
जीवन का वह अमर कवि
जय का उत्सव मनाता है।
चेतना में खुद विलीन होकर
कवि ने जीवन किया समृद्ध है।
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