डॉ विभाषा मिश्र
'' काश मैं उन बच्चों जैसी किस्मत ला पातीकाश मेरे भी हाथों में उनकी तरह क़िताबें रहती
काश इस कच्ची उम्र में मैं भी थोड़ा जी लेती''
सोनू हाथ गाड़ी चलाते हुए यह सोच ही रही थी कि सामने से अचानक एक बड़ी गाड़ी आकर रुकती है। गाड़ी से उतरकर एक सभ्य इंसान जब पूछते हैं कि बेटा तुमने इतनी छोटी . सी उम्र में इतना बड़ा काम कैसे हाथ में ले लिया। तो वह सकुचाते हुए कहती है। क्या करूँ साहब कभी मैं भी रोज़ स्कूल जाया करती थी। घर की परिस्थिति ही ऐसी है कि न चाहते हुए भी मुझे यह काम करना पड़ रहा है। पीछे जो बैठा है वह मेरा छोटा भाई है। मैं ही घर में बड़ी हूँ। मेरे पिताजी यह काम किया करते थे। मग़र कुछ महीनों पहले ही वे लकवाग्रस्त हो गए हैं। अब ऐसी स्थिति में माँ को ही उनकी देखरेख के लिए रहना पड़ता है। छोटे भाई, माँ और पिताजी इन सबकी ज़िम्मेदारी अब मेरे ही ऊपर है। मुझे यह काम बुरा नहीं लगता मग़र यह ज़रुर महसूस करती हूँ कि न चाहकर भी मैं बंध गई हूँ। अगर यह काम न करूं तो हमारा जीवन कैसे गुज़रेगा।
सभ्य इंसान ने पूछा '' क्या ! तुम इसके अलावा कुछ और काम करना जानती हो।
जवाब में सोनू ने कहा.जी साहब ! मुझे कशीदाकारी बहुत अच्छे से आती है। मुझे यह करना भी बहुत पसंद है।
सभ्य इंसान सोनू की तरफ़ प्यार भरी नज़रों से देखते हुए कहते हैं कि बेटा अगर मैं तुम्हें कशीदाकारी का सारा सामान लाकर दे दूँ तो क्या तुम मेरी कम्पनी के लिए यह काम करोगी। काम ख़त्म करने के बाद तुम पढ़ने स्कूल भी चली जाना। सोनू को ऐसा लगा मानो कोई चमत्कार हो गया हो। सोनू को एक बार फिर अपनी एक छोटी .सी दुनिया दिखाई देने लगी, जिसमें रंग ऋत्ररद्ध'' - बिरंगी क़िताबें हैं और वह ख़ूब मन लगाकर पढ़ रही है। उसने फ़ौरन हामी भर दी।
सोनू को उसका मनचाहा काम और जीवन जीने के लिए आर्थिक रूप से मज़बूती मिल गई। घर में जब तक रहती वह कशीदाकारी का काम करती उसके बाद वह स्कूल जाती। धीरे - धीरे समय बीतता चला गयाऔर वही सोनू अब बड़ी होकर डॉक्टर बन गई।
उसने बचपन के दिनों के उपकार को न भूलते हुए उस सभ्य इंसान की हमेशा इज्ज़त की। वह हमेशा सोचती रहती कि उनका यह उपकार वह इस जन्म में कैसे चुका पाएगी।
एक दिन अचानक जिस हॉस्पिटल में सोनू डॉक्टर थी। उसी हॉस्पिटल में उस सभ्य इंसान को भर्ती किया गया। उनको दिल का दौरा पड़ा था। जैसे ही सोनू को पता चला वह भागते हुए उनके पास गई। उसने पूछा कि उनके साथ उनके घर के सदस्य जो आए हैं वे सब कहाँ हैं। जवाब में उसे सिर्फ़ एक चुप्पी मिली।
सभ्य इंसान का ऑपरेशन शुरू कर दिया गया। लगभग चार - पाँच दिनों के बाद जब वे सम्हलने की स्थिति में आये तब फिर सोनू ने उनसे पूछा कि आपके परिवार के सदस्य कहाँ गए।
उन्होंने जवाब दिया.बेटा मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। मैं बचपन से अनाथ हूँ और अनाथ आश्रम में पढ़.लिखकर ही मैंने अपने आपको इस मुक़ाम तक पहुँचाया। मेरे आगे.पीछे कोई नहीं है। तुमको जब मैंने बचपन में हाथ.गाड़ी चलाते हुए देखा और तुम जिस करुण भाव से रिक्शे से स्कूल जाते हुए बच्चों को निहार रही थी। तब मुझे लगा कि इस छोटी.सी बच्ची ने अपने माता.पिता के लिए कितना कुछ समर्पित कर दिया। बहुत क़िस्मत वाले होते हैं जिनको माता.पिता का साथ मिलता है। तुम्हारे अंदर प्रतिभा देखकर ही मैंने तुमको दोहरी ज़िम्मेदारी सौंपने का फ़ैसला लिया। मुझे नहीं पता कि मैं कितने दिनों तक जीवित रह पाऊँ मैं तुमको यह बताना चाहता हूँ कि मैंने अपने जीवन में अगर कोई पुण्य का काम किया है तो वह यही कि तुम जैसी क़ाबिल बच्ची को उसकी सही जगह पहुँचाने का माध्यम बन सका। तुमने मेरी इस बीमारी में जितनी सेवा की उतना शायद मेरे कोई अपने होते तो वह भी नहीं कर सकते थे।
सोनू की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। कुछ दिनों के बाद हॉस्पिटल में ही उस इंसान की मृत्यु हो गई। सोनू को यक़ीन नहीं हुआ कि पिता रूपी वह इंसान इस दुनिया में अब नहीं रहे। सोनू ने अपने ही हाथों उनका दाह.संस्कार किया। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद उस सभ्य इंसान के वक़ील ने सोनू को आकर एक कागज़ का पैकेट थमा दिया। उसमें यह लिखा था कि मेरी मृत्यु के पश्चात मेरी सारी जायदाद मेरी बेटी सोनू को दे दी जाएऔर पूरे जायदाद के कागज़ात उसमें शामिल थे। सोनू के पास अब बोलने के लिए कुछ भी नहीं बचा। बस वह लगातार रोये ही जा रही थी।
सोनू ने निश्चय किया कि उनकी सारी जायदाद ऐसे बच्चों पर ख़र्च करेगी जो असहाय हैं। कुछ महीनों में सोनू ने उस सभ्य इंसान की स्मृति में आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों के लिए एक भव्य स्कूल बनवाया और उसकी ज़िम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंप दी। सोनू के लिए उस इंसान के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि थी।
इंसान मरकर भी अमर हो जाता है सोनू ने इसे अपने कर्मों से चरितार्थ कर दिया।
सभ्य इंसान ने पूछा '' क्या ! तुम इसके अलावा कुछ और काम करना जानती हो।
जवाब में सोनू ने कहा.जी साहब ! मुझे कशीदाकारी बहुत अच्छे से आती है। मुझे यह करना भी बहुत पसंद है।
सभ्य इंसान सोनू की तरफ़ प्यार भरी नज़रों से देखते हुए कहते हैं कि बेटा अगर मैं तुम्हें कशीदाकारी का सारा सामान लाकर दे दूँ तो क्या तुम मेरी कम्पनी के लिए यह काम करोगी। काम ख़त्म करने के बाद तुम पढ़ने स्कूल भी चली जाना। सोनू को ऐसा लगा मानो कोई चमत्कार हो गया हो। सोनू को एक बार फिर अपनी एक छोटी .सी दुनिया दिखाई देने लगी, जिसमें रंग ऋत्ररद्ध'' - बिरंगी क़िताबें हैं और वह ख़ूब मन लगाकर पढ़ रही है। उसने फ़ौरन हामी भर दी।
सोनू को उसका मनचाहा काम और जीवन जीने के लिए आर्थिक रूप से मज़बूती मिल गई। घर में जब तक रहती वह कशीदाकारी का काम करती उसके बाद वह स्कूल जाती। धीरे - धीरे समय बीतता चला गयाऔर वही सोनू अब बड़ी होकर डॉक्टर बन गई।
उसने बचपन के दिनों के उपकार को न भूलते हुए उस सभ्य इंसान की हमेशा इज्ज़त की। वह हमेशा सोचती रहती कि उनका यह उपकार वह इस जन्म में कैसे चुका पाएगी।
एक दिन अचानक जिस हॉस्पिटल में सोनू डॉक्टर थी। उसी हॉस्पिटल में उस सभ्य इंसान को भर्ती किया गया। उनको दिल का दौरा पड़ा था। जैसे ही सोनू को पता चला वह भागते हुए उनके पास गई। उसने पूछा कि उनके साथ उनके घर के सदस्य जो आए हैं वे सब कहाँ हैं। जवाब में उसे सिर्फ़ एक चुप्पी मिली।
सभ्य इंसान का ऑपरेशन शुरू कर दिया गया। लगभग चार - पाँच दिनों के बाद जब वे सम्हलने की स्थिति में आये तब फिर सोनू ने उनसे पूछा कि आपके परिवार के सदस्य कहाँ गए।
उन्होंने जवाब दिया.बेटा मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। मैं बचपन से अनाथ हूँ और अनाथ आश्रम में पढ़.लिखकर ही मैंने अपने आपको इस मुक़ाम तक पहुँचाया। मेरे आगे.पीछे कोई नहीं है। तुमको जब मैंने बचपन में हाथ.गाड़ी चलाते हुए देखा और तुम जिस करुण भाव से रिक्शे से स्कूल जाते हुए बच्चों को निहार रही थी। तब मुझे लगा कि इस छोटी.सी बच्ची ने अपने माता.पिता के लिए कितना कुछ समर्पित कर दिया। बहुत क़िस्मत वाले होते हैं जिनको माता.पिता का साथ मिलता है। तुम्हारे अंदर प्रतिभा देखकर ही मैंने तुमको दोहरी ज़िम्मेदारी सौंपने का फ़ैसला लिया। मुझे नहीं पता कि मैं कितने दिनों तक जीवित रह पाऊँ मैं तुमको यह बताना चाहता हूँ कि मैंने अपने जीवन में अगर कोई पुण्य का काम किया है तो वह यही कि तुम जैसी क़ाबिल बच्ची को उसकी सही जगह पहुँचाने का माध्यम बन सका। तुमने मेरी इस बीमारी में जितनी सेवा की उतना शायद मेरे कोई अपने होते तो वह भी नहीं कर सकते थे।
सोनू की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। कुछ दिनों के बाद हॉस्पिटल में ही उस इंसान की मृत्यु हो गई। सोनू को यक़ीन नहीं हुआ कि पिता रूपी वह इंसान इस दुनिया में अब नहीं रहे। सोनू ने अपने ही हाथों उनका दाह.संस्कार किया। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद उस सभ्य इंसान के वक़ील ने सोनू को आकर एक कागज़ का पैकेट थमा दिया। उसमें यह लिखा था कि मेरी मृत्यु के पश्चात मेरी सारी जायदाद मेरी बेटी सोनू को दे दी जाएऔर पूरे जायदाद के कागज़ात उसमें शामिल थे। सोनू के पास अब बोलने के लिए कुछ भी नहीं बचा। बस वह लगातार रोये ही जा रही थी।
सोनू ने निश्चय किया कि उनकी सारी जायदाद ऐसे बच्चों पर ख़र्च करेगी जो असहाय हैं। कुछ महीनों में सोनू ने उस सभ्य इंसान की स्मृति में आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों के लिए एक भव्य स्कूल बनवाया और उसकी ज़िम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंप दी। सोनू के लिए उस इंसान के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि थी।
इंसान मरकर भी अमर हो जाता है सोनू ने इसे अपने कर्मों से चरितार्थ कर दिया।
रायपुर ( छग)
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