अन्नपूर्णा जवाहर देवांगन
- '' गुरुजी वो तो बइहा है उसे क्यों घर के अंदर ले जा रहे हो?
- '' बइहा है तो क्या हुआ भाई, प्रेम पर तो सभी का अधिकार है। ऐसा कहकर
गुरुजी ने उस विक्षिप्त युवक को प्रेम के साथ घर ले जाकर भोजन कराया।
गुरुजी का मानना था कि केवल मानव मात्र ही नहीं व्यक्ति को
संपूर्ण जीव जगत से प्रेम भाव रखना चाहिए । वे स्वयं निःस्वार्थ प्रेम भाव
समस्त सृष्टि में बाँटा करते थे और यही उनकी पहचान भी थी आसपास इलाके में।
गुरुजी किसी भी बेसहारा, गरीब,भूखे, दीन हीन, का दुख दर्द देख
नहीं पाते और उन को घर पर लाकर भोजन कराते कुछ मदद भी कर देते ।यही उनका
नित्य का काम था । यह बइहा भी उन्हीं दीन हीन में से एक था । वह गुरुजी से
प्रेम पाकर गदगद हो जाता था और उसकी आँखें चमक उठती थी।
शीत ऋतु में एक दिन गुरुजी देर रात रामायण कार्यक्रम से लौट
रहे थे । अचानक उनकी नजर एक दुकान पर पड़ी । कोई बैठा है शायद ,सोच कर आगे बढ़े
देखा तो वही विक्षिप्त युवक सर्दी से कुढ़कुढ़ाते हाथ पैर समेटे ठंड से काँप
रहा है। गुरुजी के पास सिर्फ एक शाल था। उन्होंने बिना कुछ सोचे उस युवक पर
डाल दिया । और घर पहुँच कर एक कंबल भी लाकर उस बइहा को ओढ़ा दिया । वह बइहा
उन्हें कृतार्थ आँखों से उन्हें देखता रहा।
कुछ दिन पश्चात गुरुजी का दिल का दौरा पड़ने से स्वर्गवास हो गया । अंतिम
यात्रा के समय वही बइहा घर के पास वाले रास्ते में खड़ा डबडबाई आँखों से एक
झलक पाने को बेकरार दिखा। शव के पास आते ही वह सामने आ गया और साष्टांग लेट
कल दो मुरझाये फूल जमीन पर रख दिया। गांव के लोग जानते थे कि यह बइहा
गुरुजी के घर कभी - कभी भोजन करता था और गुरुजी उससे प्रेम से बातें भी करते
थे । आज उस के बदले बइहा के मन में उपजे प्रेम से लोगों की आँखें गीली हो गई
और उस निःस्वार्थ प्रेम का चरम तो लोगों को तब समझ आया जब लोगों ने उसे
उठाना चाहा पर वह उठ न पाया अपने गुरुजी के प्रेम का भूखा उन्हीं के साथ इस
इस लोक को छोड़ गया। निःस्वार्थ प्रेम की शायद यही परिभाषा है।
पता
महासमुंद ( छ.ग. )
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