मै काँच नहीं हूँ जो टूट कर बिखर जाऊंगा
मै पत्ता नहीं जो हवाओं से सिहर जाऊंगा
मै तो घास हूँ, बाढ़ जिसे न बहा पाएगी
जिसकी इच्छाशक्ति समक्ष शीश झुकाएगी।
मेरी शक्ति इन तकलीफ़ों से कहीं ज्यादा है
उससे भी प्रबल मेरा स्वयं से कि या वादा है
जितने भी कष्ट पीड़ा देने को यहाँ आएंगे
कुछ और मजबूत वे मेरे मन को कर जाएँगे ।
मै गतिमान पवन, दीवारों से रुकने वाला नहीं
मै सागर, किनारों के सामने झुकने वाला नहीं
पर्वत भी विचलित होते पर नभ अटल होता है
अंत में विजयी सदा पुरुषार्थ का ही बल होता है।
पराजयेँ मुझे जितना, बांधने का प्रयास करेंगी
उतना ही वे मेरे, आत्मबल का विकास करेंगी
मै लौ नहीं जो तूफान में निश् चय ही बुझेगी
मै हूँ चिंगारी जो झंझावत में भी सुलग उठेगी।
विफलताएं भी औरों को ही खूब डराती होंगी
औरों के सपनों को मिट्टी का ढेर बनाती होंगी
मुझे इन पराजयों से न किंचित भी भय है
पराक्रम भूषण मेरा , प्रयास ही मेरी जय है।
मै काँच नहीं जो अपना अस्तित्व ही खो देगा
चातक नहीं हूँ कोई जो चातकी बि ना रो देगा
मै तो चट्टान हूँ जिसे हवा यदि तोड़ भी जाएगी
उसके टुकड़ों को गंतव्य तक अवश् य पहुंचाएगी।
( 2 )
उजाला बाकी है
थक के क्यों बैठ गया तू
अभी लक्ष्य पाना बाकी है
हार क्यों महसूस तू करता
विजय तो मनाना बाकी है।
राह में ही हो गया निराश तू
मुझे तो मंज़िल दिख रही है
मत कोस विधि को अब प्यारे!
वही तेरी विजय लिख रही है।
अंधेरे को देखकर व्यर्थ ही
तू राही! बड़ा घबरा रहा है
दूसरे छोर को भी देख ज़रा
दीपक जहां टिमटिमा रहा है।
कठिनाइयों से युद्ध हुआ कहाँ?
अभी उनसे भिड़ जाना बाकी है
खड़ी है राह में जो चुनौती तेरी
उनसे भी आँख मिलाना बाकी है।
यदि सबकुछ आसान बन जाये
तो संभव बता! है उत्कर्ष कहाँ?
विजय स्वयंवर की सुंदरी नहीं
विजय वहाँ, होता संघर्ष जहाँ!
इतनी आगे तक बढ़ गया है
पीछे लौटना अब संभव नहीं
तेरी यात्रा ही गंतव्य यहाँ ते रा
कोई उद्भव, कोई पराभव नहीं।
डगमगा मत आ रहे विघ्नों से
तेरा खुद से किया वादा बाकी है
मत आँखें बंद कर तमस में भी
यह देखना! उजाला अभी बाकी है
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