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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

समकालीन हिंदी काव्य में आदिवासी चेतना के स्वर

यशपाल जंघेल

           आदिवासी चाहे किसी भी देश या क्षेत्र के हों, वे सदियों से शोषित और उपेक्षित ही रहे हैं। विश्व के सभी देशों में उनकी विद्यमानता रही है। भारत के आदिवासियों को विश्व की प्राचीनतम और सुनियोजित नगर - रचना वाले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगरों को विकसित करने वाली सिंधु सभ्यता का जनक माना जाता है। आदिवासी  भारत के मूल के निवासी हैं और 300 ई. पू. के पहले ये द्रविड - प्रजा के नाम से जानी जाती थीं। बर्बर आर्यों के अचानक हुए हमलों से उनको अपने मूल स्थान से विस्थापित होना पड़ा। आर्यों ने आदिवासियों की पहचान मिटाने के लिए कई हथकंडे अपनाएं। वैदिक काल में उनको राक्षस, दानव, असुर जैसी उपमाएं दी गईं। महाभारत काल में गुरू द्रोणाचार्य ने आदिवासी एकलव्य से दक्षिणा के रूप में उसका दाहिना अंगूठा ले लिया था।
           आदिवासियों के शोषण का यह चक्र आज भी बदस्तूर जारी है। या यूं कहें के शोषण की मात्रा में निरंतर वृद्धि हुई है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पहले तो उन्हें समतल भूमि से बीहड़ जंगलों और दुर्गम पहाड़ों में जाने के लिए मजबूर किया गया। अब विकास के नाम पर उन्हें जंगलों और पहाड़ों से भी खदेड़ा जा रहा है। यूं तो आदिवासियों का उत्पीड़न सदियों से हो रहा है, लेकिन सन् 1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने आग में घी का काम किया है। आदिवासियों पर हुए शोषण को मोटे तौर पर दो भागों में बांटकर देखा जा सकता है। प्रथम - उपनिवेष काल में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से पैदा हुई समस्याएं। द्वितीय - आजादी के बाद शासन की जनविरोधी नीतियों एवं आर्थिक उदारीकरण से उत्पन्न समस्याएं। स्वतंत्रता से पहले जहां आदिवासियों की मूल समस्याएं वनोपज पर प्रतिबंध, तरह - तरह के लगान, महाजनी शोषण, प्रशासन की ज्यादतियां आदि रही हैं। वहीं दूसरी ओर आजादी के बाद सरकार द्वारा अपनाये गये विकास के मॉडल से उन्हें अपने जल, जंगल व जमीन से अलग होना पड़ा है।
          ‘‘प्रत्येक क्रिया की सदैव बराबर और विपरित दिशा में प्रतिक्रिया होती है’’  न्यूटन के गति का यह तृतीय नियम समाजशास्त्र में भी लागू होता है। जब . जब दिकुओं ने उनके जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप किया, आदिवासियों ने उनका प्रतिरोध भी किया है। बीती दो सदियां आदिवासी - विद्रोह की गवाह रही हैं। ‘‘बिरसा मुंडा’’ और ‘‘वीर गुण्डाधुर ’’ जैसे क्रांतिकारी व्यक्तित्वों ने आदिवासियों को उनके अस्तित्व और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी हैं। सामाजिक और राजनीतिक प्रतिरोध के अलावा कला और साहित्य द्वारा भी शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की गई है। उत्पीड़न और अत्याचार के विरुद्ध आदिवासियों के विद्राहों से रचनात्मक ऊर्जा भी निकली है। कई आदिवासी और गैर - आदिवासी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में आदिवासी जीवन और सामाज को अभिव्यक्त किया है। दलित - विमर्श औेर स्त्री - विमर्श की तरह हिंदी साहित्य में अब आदिवासी - विमर्श की चर्चा होने लगी है। सन् 1991 के आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से तेज हुई आदिवासी - शोषण की प्रक्रिया के प्रतिरोधस्वरुप आदिवासी अस्तित्व व अस्मिता के रक्षा के लिये राष्ट्रीय स्तर पर पैदा हुई रचनात्मक ऊर्जा ही आदिवासी साहित्य है। लेकिन इसके बहुत पहले ही साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आदिवासी समाज की व्यथा - कथा अभिव्यक्ति पा रही थी।
           ‘‘गोदान’’ उपन्यास में आदिवासी स्त्री के संघर्षमय जीवन की थोड़ी सी झांकी दिखायी देती है, जबकि ‘‘मैला आंचल’’ में आदिवासियों का जीवन.संघर्ष व्यापक रुप से उभरकर सामने आता है। अपनी जमीन की रक्षा के लिये ‘‘संथाल आदिवासी’’ अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। समकालीन दौर में उपन्यास ‘‘ग्लोबल गांव के देवता’’ और संजीव कृत ‘‘पांव तले दूब’’ में आदिवासियों की समस्याओं को बखूबी के साथ उठाया गया है। वैष्वीकरण के परिणामस्वरुप आज उनके समक्ष अपनी संस्कृति को बचाए रखने की जो चुनौतियां उपस्थित हुई हैं, इन उपन्यासों में व्यक्त हुई हैं।
            साहित्य की अन्य विधायों की तरह काव्य में भी आदिवासियों के दुख - दर्द ने अभिव्यक्ति पायी हैं। समकालीन हिन्दी काव्य में आदिवासी जीवन को व्यक्त करने वाले प्रमुख कवि हैं - विनोदकुमार शुक्ल, केदारनाथ सिंह, मदन कश्यप, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, एकांत श्रीवास्तव, लीलाधर मंडलोई, निर्मला पुतुल, हरीराम मीणा, ग्रेस कुजूर, सरिता बड़ाइक, वंदना टेटे, कुमार अंबुज, राकेशकुमार पालीवाल आदि। इन कवियों ने न सिर्फ  आदिवासियों की अस्मिता को पहचानने की कोशिष की हैं, बल्कि अन्याय और शोषण के खिलाफ  सशक्त प्रतिरोध की जमीन भी तैयार करने का काम किया हैं।
           आदिवासी इलाकों में बाहरी तत्वों का हस्तक्षेप उनके लिए सबसे बड़ी समस्या है। यहीं से उनके जीवन में प्रदूषण शुरु होता है और अंत में आदिवासी अस्तित्व का संकट। वर्तमान में उनके सामने अपनी अस्मिता को बचाये रखने की गंभीर चुनौती है। सत्ता और ठेकेदारों के गठजोड़ ने उन्हें अपने जलए जंगल और जमीन को छोड़ने पर विवश किया है। वे कई महानगरों में दिहाड़ी मजदूर के रुप में काम करने पर मजबूर हैं। आदिवासी, आज अपनी पहचान के लिये संघर्षरत है। कवि मंगलेश डबराल, आदिवासियों के अस्तित्व पर आए इस संकट को अपनी कविता में इस तरह व्यक्त करते हैं -
अब क्षितिज पर बार - बार उसकी काली देह उभरती है,
वह कभी उदास और कभी डरा हुआ दीखता है,
उसके पास पेड़ बिना पत्तों के हैं और मिट्टी बिना घास की,
यह साफ  है कि उससे कुछ छीन लिया गया है।
          जब हम आदिवासियों के इतिहास पर नजर डालते हैं, तो हमें उत्पीड़न का एक अंतहीन सिलसिला दिखायी पड़ता है। पहले लोगों की नजरें उनके जंगलों तक ही थीं, लेकिन अब लोगों की आंखें, उनकी जमीन के अंदर गड़ी अकूत खनिज संपदाओं पर भी गड़ गई हैं। नतीजन विकास के नाम पर उनका विस्थापन आम बात हो गई है। कहीं जबरन, तो कहीं पैसे देकर उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। आदिवासियों को उनकी जड़ों से काटने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए गये हैं। उदारीकरण ने औद्योगीकरण के रास्ते खोल दिये हैं। इससे बाहरी व्यक्ति तो अंदर आ रहे हैं, लेकिन यहां के आदिवासी रोजी - रोटी की तलाश में बाहर जाने के लिए विवश हो रहे हैं। विस्थापन की इस समस्या पर प्रसिद्ध कवि विनोदकुमार शुक्ल लिखते हैं -
रात के सड़क के पेड़ों के नीचे
सोते हुए आदिवासी परिवार के सपने में,
एक सल्फी का पेड़
बस्तर की मैना आती है,
पर नींद में स्वप्न देखते
उनकी आंखें फूट गई हैं।
          आदिवासियों को जिसने चाहा, दोनो हाथों से लूटने का ही काम किया है। सिपाही, महाजन, साहूकार, बिचौलिए, सरकारी मुलाजिम सबने उन पर धौस जमाये हैं। सत्ता और बाजार के जुगलबंदी ने उनकी जीवन - शैली में आमूल - चूल परिवर्तन किये हैं। प्राचीन काल में आदिवासी - समुदाय पूरी तरह से आत्मनिर्भर हुआ करते थे। अपनी जरुरत की सभी चीजें वे जंगल से ही प्राप्त कर लेते थे। जंगल और उनके बीच बेहद आत्मीय रिश्ता था। अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान उन पर तरह - तरह के प्रतिबंध लगाने शुरु हुए। तब से लेकर अब तक उन्हें जंगल से तोड़ने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। भूमंडलीकरण के इस दौर में आदिवासी अब पूरी तरह बाजार की गिरफ्त में हैं। इसी को इंगित करते हुए लोक से जुड़े कवि केदारनाथ सिंह ने लिखा है -
एक अकेली आदिवासी लड़की को
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता,
बाघ शेर से डर नहीं लगता
पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से
डर लगता है।

          नक्सल आंदोलन आज देश के लिए गंभीर चुनौती है। नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच की लड़ाई में हमेशा आदिवासी ही पीसते आये हैं। उनके घर उजाड़े और जलाये गये हैं। बंदूक की जोर पर नक्सलियों द्वारा आदिवासियों से बेगार लिए जाते हैं। आए दिन फर्जी मुठभेड़ की खबरें भी आती हैं। नक्सलवाद के खात्मे के लिए शासन की ओर से बड़े जोर - शोर से ‘‘सलवा जुड़ुम’’  आंदोलन शुरु किया गया। इससे किसको कितना फायदा हुआए पता नहीं, लेकिन नुकसान तो सिर्फ आदिवासियों को उठाना पड़ा है। इसी सच्चाई को उघाड़ते हुए कवि मदन कश्यप ‘‘सलवा जुड़ुम 2008’’ शीर्षक अपनी कविता में कहते हैं -
हमने हत्या को सांस्कृतिक अनुष्ठान में बदल दिया है,
कोई नहीं कह सकता इसे सत्ता का दमन,
सरकारी उत्पीड़न,
अब कंधे भी तुम्हारे हैं और छातियां भी तुम्हारी,
हम तो सिर्फ तुम्हारे नरमेघ के पुरोहित हैं।

            आदिवासियों के जीवन की कल्पना प्रकृति के बिना संभव नहीं है। अनादि काल से वे प्रकृति की गोद में पलते आए हैं। कंदमूल और फलों से वे अपनी क्षुधा मिटाते हैं और नदियों के निर्मल जल से अपनी प्यास। पहाड़ों को वे हमेशा अपने पितर की तरह पूजते आए हैं। प्राचीन काल से ही आदिवासी प्रकृति की भिन्न - भिन्न भाव - भंगिमाओं के साथ नाचते - गाते रहे हैं। इस उन्मुक्तता के चलते उन्होंने अभाव भरी जिंदगाी की भी परवाह नहीं की हैं। समृ¸द्ध प्राकृतिक परिवेश में सीमित आवश्यकताओं के साथ एक लंबी, विशुद्ध सांस्कृतिक परपंरा रही है। जीवन का आधार रही यह प्राकृतिक संपदा और सांस्कृतिक धरोहर आज उनसे छीनी जा रही है। प्रकृति और उनकी संस्कृति के साथ छेड़छाड़ उनके लिए आत्मिक पीड़ा की बात रही है। यह केवल आदिवासियों के अस्तित्व का संकट ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानवता और मानवेत्तर प्राणी जगत के लिये खतरा है। आज संपूर्ण विश्व के सामने पर्यावरणीय संकट और सांस्कृतिक पतन की जो समस्याएं विद्रूपताओं के साथ खड़ी हैं, उसे कवि विनोदकुमार शुक्ल ने ‘‘अभी बारिस नहीं हुई है ’’ शीर्षक कविता में इस तरह व्यक्त किया है-
आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए
और तुम भी जंगल छोड़कर खुद नहीं गए
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चो परिवार
के साथ जाते दिखे इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं।

           आदिवासी बेहद भोले - भाले होते हैं। उनकी एक अलग ही दुनिया होती है। दुनिया के छल - प्रपंच और षड़यंत्रों से वे अनभिज्ञ रहते हैं। उनकी इच्छाएं सीमित होती हैं। उनमें धन संग्रहण की प्रवृत्ति का लोप रहता है। जितनी जरुरतें होती हैं,  प्रकृति से वे उतना ही लेते हैं, उससे ज्यादा नहीं। वनोपज लेकर जब आदिवासी महिलाएं बाजार जाती हैं, तो उनको अपनी आंखों में पेज और नमक ही दिखता है। दुनिया की चकाचौंध से दूर वे अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी ने अपनी ’ एक आदिवासी स्त्री की इच्छा’ शीर्षक कविता में लिखा हैं. ’ लड़की इच्छा है, छोटी सी इच्छा, हाट इमलिया जाने की। सौदा - सूत कुछ लेना, तनिक सी इच्छा है ... काजर की, बिंदियां की’
          इन आदिवासी और गैर - आदिवासी रचनाकारों ने न सिर्फ आदिवासियों के दुख - दर्द, पीड़ाओं और आंसुओं को अपनी लेखनी में उकेरा है, अपितु शोषण के खिलाफ उपजे आक्रोश और प्रतिरोध को भी व्यक्त किया है। उनकी कविताओं में आदिवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार और उत्पीड़न का पुरजोर विरोध हुआ है। आदिवासियों के खिलाफ हो रहे सारे षड़यंत्रों को इन रचनाकारों ने अपनी कविताओं में उघाड़ने के प्रयास किये हैं। ’ आदिवासी धुंआ’ शीर्षक कविता में कवि राजा पुनियानी शोषण और उत्पीड़न के विरोध में एकजुट का आहृान करते हैं -
धुंआ ने उठाया है
मुस्कुराते हुए प्रतिरोध की लौ,
धुंए के हाथ में अब तीर है, धनु है,
धुंए के झोले में किताब है, पर्चा है,
धुंए के दिल में गीत है सपना है।

           आदिवासियों में वन - संरक्षण की प्रवृत्ति सहज होती है। अतः वे वन एवं वन्य - जीवों से उतना ही प्राप्त करते हैं, जिससे उनका जीवन सुगमता से चल सके और आने वाली पीढ़ी को वन - स्थल को धरोहर के रुप में सौंप सकें। वन - संवर्धन, जल - संरक्षण और वन्य जीवों की सुरक्षा का परंपरागत कौशल आदिवासियों में सदियों से रहा है। इसी कौशल - दक्षता व प्रखरता के फलस्वरुप उन्होंने प्राकृतिक वातावरण को संतुलित बनाए रखने में सफलता प्राप्त की हैं। उनके रीति -रिवाजों, उत्सव,पर्वों, और सांस्कृतिक मूल्यों को अक्सर ऊल - जुलूल और अवैज्ञानिक करार दिया जाता रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। आदिवासियों के लगभग सभी तीज त्यौहार हमें पर्यावरण - संरक्षण की सीख देते हैं। आज जब विकास की अंधाधुंध दौड़ में पर्यावरण संतुलन बिगड़ता जा रहा है। जल विषाक्त हो रहा है। हवाएं जहरीली होती जा रही हैं। साथ ही मानव पर प्रकृति का प्रकोप भी दिनोदिन बढ़ने लगा है। ऐसे समय में आदिवासियों के संचित ज्ञान की अत्यंत आवश्कता महसूस की जा रही है। ’आस्ट्रेलिया यूथ क्लाइमेंट कोलिश’ की ’ केली मैकेंजी’ कहती हैं - ’ जलवायु परिवर्तन का सामना करने और देश की सुरक्षा में इतना कुछ है जो हम आदिवासी से सीख सकते हैं’ कवि राकेशकुमार पालीवाल भी अपनी कविता में इसका समर्थन करते हैं -
हम भी यदि सीखना चाहते हैं जीने के असल गुर
गुरू बनाना होगा आदिवासियों को ही,
उन्हीं के चरण कमल में बैठकर सीखना होगा
प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण संतुलन का,
वह आईंस्टनी समीकरण।

          समकालीन हिंदी काव्य में आदिवासी स्ति्रयों के दुख, दर्द, और पीड़ाओं ने भी अपनी जगह बनायी हैं। वर्तमान में आदिवासी स्ति्रयां रोजी - रोटी की तलाश में गावों से निकलकर शहरों की खाक छान रही हैं। इस क्रम में उनका आर्थिक और दैहिक शोषण भी हो रहा है। महानगरों में ही नहीं वे अपने गांव और घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व आदिवासी सामाज में सभी कार्य स्त्री और पुरुष सामान रुप से करते थे। संपत्ति पर दोनों का बराबर अधिकार होता था। उनके आगमन के पश्चात् संपत्ति के अधिकार से स्ति्रयों को वंचित रखने तथा पुरुष वर्चस्व की दृष्टि से उन्हें हल चलाने, घर का छप्पर छाने या तीर धनुष चलाने जैसे कामों से वर्जित कर दिया गया। आदिवासी स्त्री एक ओर वर्तमान बाजारवाद के कारण मुख्यधारा के सामाज से शोषित हैं, तो दूसरी ओर स्त्री होने के कारण अपने ही सामाज में उपेक्षित हैं। स्ति्रयों की इस दशा पर कवयित्री निर्मला पुतुल लिखती हैं -
नहीं जानती कि कैसे सूख जाती हैं
उनकी दुनिया तक आते - आते नदियां,
तस्वीर कैसे पहुंच जाती है उनकी महानगर
नहीं जानती वो नहीं जानती।

            भूमंडलीकरण से जिसको सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा है, वो आदिवासी समुदाय है। उनकी भाषा और संस्कृति के अस्तित्व का संकट गहराता जा रहा है। आजकल तथाकथित सभ्य जनों के लिए ये वर्ग मनोरंजन के साधन मात्र बनकर रह गये हैं। भारतीय सामाज पूर्वाग्रह से युक्त रहा है। यही कारण है यहां उनको हमेशा बर्बर और असभ्य समझा जाता रहा है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्र की खंडपीठ ने 5 जनवरी सन् 2011 को टिप्पणी करते हुए कहा है कि ’ यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आदिवासी जो संभवतया भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी 8 प्रतिशत ही बचे हैं वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं, वहीं दूसरी ओर भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों के वंशज है, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है’ विडंबना यह है, कि संविधान द्वारा प्रदत्त सुविधाओं, सुरक्षा के उपबंधों और उनके हितों के अनेक प्रावधानों से वे अब तक पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। उन्हें देखकर यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि इक्कीसवीं सदी के भारत में ऐसा सामाज और जीवन भी अस्तित्व में है, जिनके पास न कोई आय का साधन है न रहने के लिये घर है, पहनने के लिए कपड़े। कवि राकेशकुमार पालीवाल लिखते हैं -
इन्हें नहीं मालूम कहां मिलता है,
सफेद कागज का वह टुकड़ा,
जिस पर खड़ी है
आदिवासी विकास की सैकड़ों योजनाओं की
बहुरंगी बहुमंजिली भव्य इमारतें।

           आदिवासियों को खत्म करने के सारे हथकंडों के बावजूद वे खत्म नहीं होंगे। सृष्टि के आरंभ से अंत तक उनकी मौजूदगी इस धरती पर बनी रहेगी। करोड़ों वर्ष बीत गयें। कई प्राकृतिक आपदाएं आईं। मोहनजोदड़ो की महान सभ्यता भी मौत के आगोश में समा गई, लेकिन आदिवासियों का अस्तित्व  आज भी बना हुआ है। कवि कुमार अंबुज लिखते हैं -
यदि मैं पत्थर हूं तो अपने आप में एक शिल्प भी हूं,
जैसा मैं हूं वैसा बनने में मुझे युग लगे हैं,
हटाओ अपनी सभ्यता की छैनी...
मैं पत्थर हूं पत्थर की तरह मेरी कद्र करो,
ठोकर जरा संभलकर मारना
पत्थर हूं।

          आखिर आदिवासी  कब तक अपने खिलाफ होने वाले उत्पीड़न और शोषण को चुपचाप सहते रहेंगे। कभी न कभी तो उनकी चुप्पी टूटेगी। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि समय - समय पर ये आदिवासी समुदाय अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का बिगुल फूंकते आयें हैं। पिछली सदी में हुईं कई आदिवासी विद्रोहों से इनकी सामाजिक और राजनीतिक चेतना का पता चलता है। साहित्य में इन क्रांतियों का स्वर स्पष्ट सुनायी देता है। भले ही उनका स्वरुप मौखिक रहा हो। कालांतर में लिखित साहित्य में भी उनके विद्रोही तेवर की झलक हमें देखने को मिल रही है। कवयित्री निर्मला पुतुल लिखती हैं -
अक्सर चुप रहने वाला आदमी
कभी न कभी बोलेगा
जरूर सिर उठाकर
चुप्पी टूटेगी एक दिन धीरे - धीरे उसकी
धीरे - धीरे सख्त होंगे उसके इरादें व्यस्था के खिलाफ
भीतर - भीतर ईजाद करते
कई - कई खतरनाक अस्त्र।

           समकालीन हिंदी काव्य आदिवासी जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं को न सिर्फ छूता है, अपितु उनकी गहराई में भी उतरता है। आदिवासियों के पर्व - उत्सव, रीति - रिवाज, सांस्कृतिक मान्यताओं के साथ - साथ उनके साथ होने वाले अनाचार व उत्पीड़न भी इनमें व्यक्त हुए हैं। समकालीन हिंदी काव्य आदिवासियों के खिलाफ  हो रहे अत्याचार और अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध की ठोस जमीन तैयार करने में पूरी शिद्दत के साथ जुटा है।

यशपाल जंघेल ग्राम - पोष्ट - साल्हेवारा
जिला - राजनांदगांव छत्तीसगढ़
मोबा . 9009910363
मेल .
yjanghel71@gmail.com

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