इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

बिन बाती बिन तेल

रश्मि बड़थ्वाल


          मदार गांव में स्कूल खोलने के लिए नेताजी शिक्षामंत्री विधायक-बुधायक और भी जाने किस-किस के पास गये बल, उन पर मक्खन लगाते रहे, उनका पेट पूजते रहे, जेब भरते रहे ....ये सब बातें नेताजी ही सुनाया-बताया करते थे। साल में चार-छः चक्कर तो आते ही थे गांव में चार-छः घंटे रुकते भी थे। उनके आने पर कभी बकरा काटा जाता और कभी मुर्गा मारा जाता था। गांव में आड़ू-खुबानी, सेब-दाड़िम, नींबू-किम्पू , खीरे-ककड़ी, दाल-मसाले, भुट्टे-वुट्टे जाने क्या-क्या उन पर न्यौछावर किया जाता! और वे इतने दयालु कि कभी भी कुछ ठुकराते नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर दीन सुदामा की भेंट नहीं स्वीकारेंगे तो हरि ही रूठ जाएंगे हमसे। उन्हीं दीन सुदामाओं से स्कूल के ही नाम पर चार बार का चंदा वसूल किया नेताजी ने। उन सब पैसों का कोई लेखा-जोखा, कोई हिसाब-किताब नहीं रखा गया। नेताजी कहते हैं कि बड़े लोगों को खुश करने के लिए वह तो आधा भी नहीं हुआ, बाकी सब तो उन्होंने अपनी जेब से दिया है।
          पिछले दो-तीन सालों से नेताजी जब भी आते स्कूल-स्कूल की रट लगाए रहते। स्कूल मदार गांव में ही खुलेगा क्योंकि इस गांव से मुझे बहुत ही प्यार है। ये गांव बड़ा भी है और आस-पास के दस-बारह गांवों से ज्यादा उपजाऊ भी। हर मौसम में, हर समय, कुछ न कुछ होता ही है खाने-चबाने के लिए बल। सिराणा, तैलड़ी और बुखन्या गांव यहां से नजदीक ही हैं, यहां स्कूल खुलने से उन्हें भी फायदा ही होगा। दूसरे गांवों के भी बच्चे आएंगे तो स्कूल में पैर धरने की भी जगह नहीं बचेगी....ऐसा कह रहे थे नेताजी। फिर ये नौनिहाल पहाड़ों को स्वर्ग बनाएंगे। पहाड़ों के कष्ट के दिन खत्म हो जाएंगे ...ऐसा बोल रहे थे नेताजी।
          खैर, भाई जी! क्या हुआ, क्या होना है मैं क्या जानूं। मुझे तो यूं भी अधअकल कहते हैं....कुछ सोच-जान कर ही तो कहते होंगे लोग। जिस आंगन में कोई बड़ा आदमी बैठा हो, मैं तो उसके पास भी नहीं फटकता। दूर-दूर से ‘पायं लागूं साब जी!’ कह कर सटक लेता हूं कि कहीं बड़े लोग शेर की तरह दहाड़ कर यह न कह दें कि ये अधअकल क्यों आया है ह्यां पर!
           जिस दिन स्कूल का उद्घाटन था गांव में मेला जुड़ गया था। सब गांववालों ने अपने धराऊ कपड़े पहन लिए थे। कुछ औरतों की साड़ियां चमचम-चिलमिल कर रही थीं । एक-दो तो सैंडिल पहन कर आयी थीं। सदा संदूकों में सैंत-संभाल कर रखे रहने वाले झुमके-गुलूबंद पहन लिए थे कुछ ने। मर्दों ने धुले हुए पजामे पहने हुए थे, दसेक लोग पैंट वाले भी थे। कुछ पैंटें नाड़े से भी बंधी हुई थीं। दो-तीन लोग तिरछी टोपी वाले भी थे। जाड़ा नहीं था पर जिनके पास सुंदर सी स्वेटर, जैकेट या कोट थे वे पहन कर ही आये थे। और क्या! गांव में स्कूल खुल रहा है कितनी इज्जत की तो बात है बल, ऐसे ही समय के लिए तो होते हैं ऐसे कपड़े। गांव के छोरे-छोरी तमाशबीन बनकर आये थे पर कुछ ऐसे भी थे जो घर के कोनों में छुपे बैठे थे कि कहीं मास्साब स्कूल में नाम ही न लिख दें ...फिर तो रोज ही जाना पड़ेगा! कौन मोल ले रोज-रोज का बबाल। इस से भला तो जाओ ही नहीं, नहीं दिखेगा वो तमाशा तो न सही।....न दिखे बल, कभी ना!
- भाई जी, मैं तो चला ही गया तमाशगीर बनकर! देखें तो होता क्या है स्कूूूल खुलने पर। नेताजी आये ...सफेद पूरणमासी की चांदनी जैसी गांधी-टोपी, अचकन-चूड़ीदार पहने थे वे। परधान जी ने उन्हें माला पहनाई। मदार और बुखन्या गांव में जो-जो जैसे-जैसे भी फूल मिले वे सब उस माला में पिरो दिए गये थे। नेताजी ने गले से उतार कर माला हाथ में लपेट दी थी। वे जोर-जोर से बोल रहे थे ”इस मदार गांव से मुझे बहुत प्यार है ये बात आप सभी जानते हैं। इस विद्यालय को अस्थापित करने के लिए बल, मैंने बहुत पापड़ बेले, दिल्ली-लखनऊ कहां-कहां नहीं मारा-मारा फिरता रहा, भटकता रहा। अपने मुंह से अपनी क्या तारीफ करूं.....आप लोगों से अनुरोध करता हूं बल, कि अपने बच्चे इस विद्याालय में पढ़ने के लिए भेजें। फिर नेताजी ने पूछा कि आप में से कोई बता सकता है बच्चों को हम नौन्याळ क्यों कहते हैं?
          मनुष्य मात्र की जीभें जड़ हो गयी थीं। नेताजी ने चारों ओर गर्दन घुमाई थी तो उनकी पहले से ही अकड़ी हुई गर्दन और भी अकड़ गयी थी। ”मैं आपको बताता हूं“ नेताजी बोले ”नौन्याळ, याने कि नौनिहाल, मतलब हमारा भविष्य। ये ही बच्चे कल हमारे प्रधानमंत्री होंगे बल, राष्ट्रपति होंगे, बड़े-बड़े उद्योगपति होंगे, बड़े-बड़े वैज्ञानिक होंगे, बड़े-बड़े परशासनिक अधिकारी, डाक्टर-इंजीनियर होंगे। इस विद्यालय में पढ़कर कुछ नौन्याल तो ज्ञान की मशाल लेकर दुनिया में उजाला फैलाएंगे और बाकी दीपक की तरह अपने आस-पास की दुनिया को उजाले से भर देंगे बल।
       कहने को तो नेताजी ने और भी बहुत कुछ कहा पर मैं ठहरा अधअकल, कितना याद रखता और कितना समझता! मुंह फाड़े उनका मुंह ताकता रहा बस। जब परधान जी ने लोगों को इशारा किया कि ताली बजाओ तो मैंने भी बजा दी कि लो जी मेरी तरफ से भी शगुन ले लो।
          उस दिन के बाद मास्टर जी रोज ही गांव में आते, लोगों से कहते कि अपने बच्चे स्कूल पढ़ने भेजो। कहीं पर चाय-वाय पी जाते, कहीं से पोटली-पाटली बांध ले जाते। काफी दिनों से मास्टर जी भी दिखाई नहीं दिये और स्कूल में क्या-क्या हो रहा है यह भी पता नहीं चला। चलिए भाई जी, देख आते हैं स्कूल कैसा चल रहा है!
- वो देखिए, दूर से देखकर तो स्कूल खंडहर ही लग रहा है। अभी लीपा-पोता नहीं गया है न, इसीलिए! नेताजी कह रहे थे पक्का प्लास्टर होगा सिमंट वाला। सिमंट कोटद्वार से आएगा बल। ....जरा चाल बढ़ाइए भाई जी ....तेज चलिए तेज, स्कूल तक जाना है कि नहीं! ....हांऽ ऐसे....। तेज चलने से परगति होती है बल!
          स्कूल में आगे की तरफ वो एक बड़ा कमरा है, पीछे दो छोटे-छोटे कमरे और भी हैं, उनके अभी दरवाजे नहीं लगे हैं और वे चू भी रहे हैं बल। कमरे में एक ढकचक-ढकचक हिलने वाली कुर्सी रखी है मास्टर जी के लिए। पर वो देखिए, बाहर धूप में बैठकर किसी की जनमपत्री बना रहे हैं वो तो!
          सामने दरवाजे के पास जमीन पर हमारे मदार गांव के पिरेम ठेकेदार का लड़का झाड़ू बैठा है। आप सोचते होंगे भाई जी, कि क्या बात करता है यह अधअकल भी! भला-भला झाड़ू भी कोई नाम हुआ? तो सुनिए भाई जी, इस झाड़ू की मां के पेट गिरते रहते थे। चार-पांच बार पेट गिरे, फिर दो लड़कियां होकर मर गयीं। उनके पीछे जब यह लड़का हुआ तो सभी घरवालों के डर के मारे कुहाल थे कि पैदा हो तो गया यह, पर भला-भला बचेगा भी! तो यूं ही झूठ-मूठ का झाड़ू से बटोर कर उसे घर से बाहर कर दिया कि लो जी हमने तो दूर फेंक ही दिया इसे! तभी तो यह झाड़ू बच गया बल। फिर इस लड़के का नाम झाड़ू पड़ गया, झाड़ू की किरपा से बचा था न भाई जी!
          फिर छै महीने तक तो इसकी मां और दादी इसे पल्लू में छिपाए-छिपाए ही पालती रहीं कि कोई टेढ़ी आंख से न देख दे उसकी ओर, कोई नजर न लगा दे, कोई टोना-टोटका न कर दे! तब से आज तक इसके सर पर मनस कर चार-छै मिर्चें तो रोज फूंकती ही हैं वे, घर में अपने खाने को चाहे नमक न हो। गांव का कोई भी जीव झाड़ू को ‘जरा सरकना’ भर कह दे, तो उसकी मां और दादी दोनों नरभक्षी बाघिनें बनकर कहने वाले को उधेड़ कर रख देती हैं। और ये झाड़ू साहब इतने ढीठ हो गये हैं कि रास्ते चलते एक-दो को गिराए बिना तो इनका खाना हजम ही नहीं होता! वह देखिए, पढ़ रहे हैं वो? पीछे हाथ करके कभी किसी की चिकोटी काट दे रहे हैं तो कभी थेैले में साथ लायी कंकड़ियां दूसरों के सर पर मार रहे हैं। वो जो चार आखर झाड़ू जी ने लिखे भी हैं पाटी पर, देवता पहचान सकें तो पहचानें, इन्सानों के बस का तो नहीं है उन्हें पढ़ पाना!
           झाड़ू के दूसरी ओर वह घन्तू बैठा है। घन्तू के हाथ-पैर देखिए तो बारहों महीने दो-चार फोड़े हुए ही रहते हैं, जो न कभी साफ किए जाते हैं और न उन पर दवाई लगाई जाती है कभी। मवाद बह-बह कर इधर-उधर फैलता-सूखता रहता है। देखिए न, कैसा मक्खियों का मेला जुड़ा है उसके गात पर! वो देखिए, दोनों हाथों से सर खुजा रहा है ....वो जूं निकालकर पाटी पर रखा और नाखून से कुचल डाला उसने। क्या बताऊं आपको, एक दिन मैंने उसकी मां से कहा ”बौजी, कम से कम इस घन्तू का मुंह धुलाकर तो भेजा कर स्कूल।“
बौजी बोली ”तू भी क्या बात करता है रे अधअकले! इस्कोली तो जा रहा है न, दुल्हन खोजने थोड़े ही जा  रहा है!“
          घन्तू के पल्ली तरफ अकालू बैठा है। जब यह जन्मा था, इसके बाप के बड़े बुरे दिन चल रहे थे। अन्न के दाने-दाने को तक तरसकर रहते थे वे लोग, तभी तो इसका नाम अकालू पड़ा। यह नौ साल का होकर अब अक्षरों का मुंह देख रहा है। अभी तक ‘अ’ भी नहीं बना पा रहा है बेचारा! इसके बाप को तो दारू से ही फुर्सत नहीं है। पता नहीं काम क्या करता है, कौन पूछे उसे! महीने-दो महीने बाद घर लौटता है और दारू की तीन-चार बोतलें संभाल कर वापस चला जाता है। अकालू रहता है ताक में कि कब घर में अकेला हो और दो घूंट गले में डाल ले। उसने यह विद्या अपनी मां से सीखी है, भले ही मां को यह पता नहीं है कि उसकी विद्या बेटे तक चली गयी है।
          अकालू की बगल में कालू बैठा है, इसको कल्या भी कहते हैं। इसकी मां तो इसके जनम के समय ही मर गयी थी, बेचारी! इसके बाप जी भी कुछ कम नहीं हैं। धार में दुकान है, बिक्री भी खूब है बल, पर आधी से ज्यादा कमाई दारू की भेंट हो जाती है। और जब पितासिरी टुन्न रहते हैं तो सपूत मौके का फायदा उठाता है। बाप की जेब से सारे रूपये-पैसे निकालकर आधे-आधे करता है, आधा बाप की जेब में वापस रख देता है और आधा अपने नाडा़घर के अंदर ठंूस देता है। बाप जी अपनी जेब टटोलते हैं तो सोचते हैं कि कहीं गिर-गुर गये होंगे। कल्या को कंचों से बड़ लगाव है, यही शौक धीरे-धीरे जुआ बनता जा रहा है। नाड़ाघर में दुबके आधे से अधिक रूपये-पैसे इसी शुभ काम में लगते हैं। बाकी इसलिए संभाले रहते हैं कि दुकानों में कुछ चटपटी चीजें भी मिलती हैं।
          आज पता नहीं कल्यासिरी स्कूल आ कैसे गये! वैसे घर से तो पाटी-थैला लेकर रोज ही लपककर निकलते हैं स्कूल के नाम पर, लेकिन गांव के बाहर आते ही पाटी-थैला झाड़ियों को सौंपकर सारे दिन कंचे-गुत्थी ही तो खेलते रहते हैं। मां के न होने से निश्चिंत भी हैं कि टोकनेवाला कोई नहीं है!
           कल्या के पीछे जो सींक-सलाई सा छोरा दिख रहा है न, उसका नाम वीरसिंह है भाई जी! इसका बाप दिल्ली में नौकरी करता था, उसे गांव वालों के बेमतलब और गंदे नामों पर बड़ा गुस्सा आता। सारे गांव से कहा था उसने- कोई मेरे बेटे का नाम मत बिगाड़ना! खबरदार, जो किसी ने मेरे बेटे को बीरू भी कहा तो ! वह भी क्या जानता था तब कि बेटा इस तरह अपाहिज हो जाएगा! दिल्ली ले गया था बड़े-बड़े डाक्टरों को दिखाने वीरसिंह को, डाक्टर बोले कि पोलियो हो गया है। क्या बताऊं भाई जी! बेटे का इलाज करवाने से पहले तो बेचारा आप ही ऊपर चला गया। अब यह वीरसिंह कुछ लिख थोड़े ही सकता है! पर इसकी मां इसे यहां ‘रख’ जाती है जिससे वह निश्चिंत होकर खेतों-डंगरों का काम देख सके। छोरा कुछ सुन-गुन ले तो इसका भाग्य!
          वीरसिंह के इस तरफ जो बंदर जैसा बैठा दिखाई दे रहा है न, उसका नाम है अस्सू। उसका बाप दयाराम फौजी है। लड़के का नाम उसने अशोक रखा था पर उसकी भयंकरा सी मां को यह नाम अच्छा नहीं लगा था ‘क्या हुआ शोक-साक! शोक हो बुरे करम वालों का। इसका नाम तो होगा अस्सू।’ फिर किसकी हिम्मत थी जो अस्सू को अशोक बोल दे! वहीं न कर दिया जाता उसकी सात पुस्तों का शोक। मास्टर जी भी बल, नाक पर सरक आये चश्मे को ऊपर खिसकाते हुए रोज पूछते हैं ”आज अस्सू आया है, या न्हैं आया है?“
          अस्सू के बाल देखिए भाई जी! बारह महीनों आंखों पर छाए रहते हैं। छोरा खीझता भी नहीं है। किताब पढ़ता है तो नाक पर चिपटाकर और किसी की ओर देखता है तो आंखें और गर्दन टेढ़ी करके, भेंगा तो हो ही गया है पर ऐसा लगता है कि कुछ समय बाद तो इसे दिखाई देना भी बंद हो जाएगा!
          उन दो पांतों के पीछे जो तीसरी पांत है न, वह कक्षा तीन की है। कक्षा  दो में एक भी विद्याअर्थी नहीं है। कक्षा तीन में दो बच्चे हैं। इधर वाला मोटा सा छोरा जो दूसरे सब छोरों से अलग सा दिखाई दे रहा है न, उसका नाम परमोद है। उसका बाप मिलेटर्या है, याने कि फौजी। परमोद अपनी मां के साथ ननिहाल में रहा दो बरस। वहीं कुछ महीनों तक स्कूल गया था। जरा-जरा सा लिख-पढ़ लेता था, इम्तिहान में बैठा था और नानी की भैंस दुधारू थी तो पास कैसे न होता भला! फिर परमोद ने दो-तीन साल यूं ही इधर-उधर भटकते हुए काटे। स्कूल का तो नाम भी भूल गया था वह। जब परमोद दस का हो गया तब उसके भाग से मदार गांव में स्कूल खुला। उन दिनों उसके पितासिरी घर आए हुए थे। उन्होंने मास्टर जी की जेब गरम की और गला ठंडा। मेरा मतलब है भाई जी, गला तर किया और लो जी बेटा हो गया कक्षा तीन में भर्ती! अब वह बात दूसरी है कि वह तीन आखर भी नहीं लिख सकता। अकालू और परमोद में तीन महीने की छोटाई-बड़ाई है, तभी तो अकालू की मां स्कूल में ही मास्टर जी को छक कर गरिया के गयी कि परमोद तो भरती किया तीन में तो मेरा अकालू क्यों रखा ऐक में? तुम्हें मनस्याख (नरभक्षी) खाए मास्टर जी! सारे रोग लग जाऐ तुम्हें, वह जाते-जाते ऐसा आशीरबाद दे गयी थी बल।
           परमोद के पल्ली ओर जो पिचका सा लड़का बैठा है उसका नाम है पत्वा। वैसे सुना है स्कूल की पंजिका में उसका नाम पीताम्बर दत्त लिखा हुआ है। आस-पास के सारे गांवों में बस एक यही था मन लगाकर पढ़ने वाला। दो कक्षा दोगड्डा में पढ़ा था अपने ताऊ के पास रहकर। फिर ताऊ की बदली दूसरी जगह हो गयी तो ताई ने इसे घर भेज दिया कि उस शहर में जगह की तंगी होगी, हम इसे साथ नहीं ले जा सकते। इसके पिताजी भी कहीं बाहर ही नौकरी करते थे, उनके मरने पर इसकी मां अपने तीन छोरे-छापरे लेकर गांव आ गयी थी। पत्वा  भाई-बहनों में सबसे बड़ा है, पढ़ने लायक हुआ तभी ताऊ के पास भेजा था मां ने। यह लड़का पहले जुटकर-जमकर अपनी पढ़ाई करता था। सजा-बनाकर अक्षर लिखता था। जरा सा बिगड़ा कि मिटाता, फिर बनाता, दुबारा-तिबारा। पर घर से स्कूल आते-जाते जो ग्वैर मिलते हैं, आजकल पत्वा का ध्यान उन्हीं की ओर लगा रहता है। उनके साथ बैठकर सोट्टा-बीड़ी का अभ्यास पढ़ाई से ज्यादा करने लगा है अब।
           कक्षा चार में एक छोरी है बस, लक्ष्मी। घर पर उसके पांच छोटे भाई-बहन हैं। भोर में उठकर वह गोबर साफ करती है, झाड़ू लगाती है, कलेऊ बनाती है तब स्कूल जाती है। यहां से वापस जाकर बरतन मांजती है, कपड़े धोती है, घास काटती है और रात का खाना भी पकाती है। तिस पर भी मां बर्राती रहती है ”रांड की बेटी इस्कोली में सारा दिन खपा आती है।“ महीने में दस दिन तो इसकी मां खाट पर ही पड़ी रहती है तब लक्ष्मी को स्कूल छोड़कर गायें चराने जाना पड़ता है। छोरी का गला कैसा तो सुरीला है भाई जी! ‘भादों की कुएड़ी घनघोरऽ, ना बास ना बास पापी मोरऽ’ वह जब जंगल में खुले गले से गाती है तो सच भाई जी, पहाड़ थरथराने लगते हैं पत्थर रो पड़ते हैं ....‘कनी जन्मी च गढ़वाळ नारीऽ, रोइ रूझाई आंगड़ी सारीऽ’....!
           कक्षा पांच में बस एक राजा पढ़ता है। क्या बढ़िया तो औजी (पारंपरिक गायक-वादक) था इसका बाप! गांववालों के छोटे-मोटे काम भी कर देता था, संगरांद बजाता था। थोड़े-बहुत कपड़े सिल देता था लोगों के, पर जिस दिन से उसके साले की नौकरी लगी दिल्ली में, उसे बाजा बजाने में शर्म आने लगी और कपड़े सिलने में भी। साला तो हो गया नौकर्या और जीजा ....? इसी खींचतान में उसकी औज्याण भी मायके चली गयी कि तू क्यों नहीं करता नौकरी बल! औजी नौकरी कैसे करे? कहते हैं नौकरी के लिए सट्टिफिकट चाहिए, और भी कौन जाने क्या-क्या, वह सब कहां से लाए औजी?
            जब उसने काम-काज छोड़ दिया तो गांववालों के भी दिल-नजर में बदलाव आता गया। अब लोग उससे पहले की तरह मीठा नहीं बोलते। राजा ननिहाल में कक्षा चार तक पढ़ा था, पर जब नौकर्या मामा ने झुंझलाना-फिनफिनाना शुरू कर दिया तो राजा की मां को मदार गांव वापस आना ही पड़ गया। तब उसने राजा को यहीं स्कूल में डाल दिया। उसके बाप के तो जैसे पंख ही उग गये कि बेटा पढ़ रहा है। एक दिन मुझसे भी तो कह रहा था भाई जी, कि देख रे अधअकले मेरा लड़का बामण-ठाकुरों से बड़ी कलास में है। सब के सब मेरे छोरे से पीछे हैं। आगे रहना तो दूर उसकी बराबरी पर भी कोई नहीं है बल।
            उस दिन से तो यह राजा जैसे सोने के सिंघासन पर ही बैठ गया। स्कूल कौन जाए, किताब-कलम कौन संभाले, मास्टर का कहा कौन माने ....औरों से ऊपर हो ही गये हैं बाकी क्या चाहिए? छोरों पर रौब जमाता है और छुप-छुपकर उन पर पथराव करने लिए दुबका रहता है इधर-उधर। बाप बोलता है आरक्सण है बल, जब तक बाकी छोरे बन सकेंगे बाबू , मेरा राजा बन जाएगा बड़ा भारी साब और फिर ये सब बामण-ठाकुरों के छोरे उसके लिए बोलेंगे बल, ”जय हिंद साब जी!“
           भाई जी मैंने आपको स्कूल भी दिखा दिया, पढ़ने-पढ़ानेवाले भी दिखा दिए, पर मैं अधअकल ऐसा नहीं समझ पाया कि इन सब होनहारों में से, इन नौन्यालों में से, मेरा मतलब इन नौनिहालों में से कौन बनेगा परधानमंत्री, कौन-कौन बनेंगे ....वो क्या कहा था बल, हांऽऽ बड़े-बड़े उदियोगपती, बड़े-बड़े इंजनेर, बड़े-बड़े डाक्टर .....और वो क्या कहते हैं बल, बड़े-बड़े  बैगियानिक ....और भी जाने क्या-क्या! कौन संभालेगा देश, कौन संभालेगा दुनिया, और कौन संभालेगा ....वो क्या कहते हैं उसको आप पढ़े-लिखे लोग भाई जी, अरे हांऽ मन-मन मनुष्यता को?
           मैं कब से लगातार अकेले-अकेले बोले जा रहा हूं भाई जी और आप हैं कि ....! कम से कम मेरे प्रश्नों का उत्तर तो दे दीजिए भाई जी, कि इन होनहारों में कौन-कौन ....?
- आप इतने चुप क्यों हैं भाई जी???
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