इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

नई भोर

- विनीता शुक्ला
“मासी!!!” रोहिणी को देखते ही, श्रुति उससे लिपट गयी. “अरे टिंकी बेटा...तू?!!!!” रोहिणी को सहज ही, अपनी आँखों पर, विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने टिंकी के सर पर, स्नेह से हाथ फेरा. इधर टिंकी उर्फ़ श्रुति, उन्हें देखकर खुद पर काबू नहीं रख पाई और हाथ पकड़कर, अपने साथ गोल, गोल घुमा दिया. श्रुति के इस बचकाना जोश और उछलकूद को, उसकी सास काँता, असमंजस से देखती रही. बहू के बचपने से, वह पहले ही परेशान थी. कोई परिचित, यदि यह सब देखेगा - तो जाने क्या सोचेगा...! श्रुति अपने पति विशाल और उसके दोस्तों से भी, छोटी बच्ची की तरह बात करती थी. मित्रमंडली यह सब देखती –सुनती और पीछे पीछे मजाक बनाती. उनमें से कुछ तो सामने ही, मुंह दबा कर हंस देते. लेकिन श्रुति को अकल न चढ़ती.
इस सबसे हैरान परेशान कांता ने, अपनी ममेरी बहन रोहिणी को बुलवा भेजा था ताकि वह समस्या का कोई हल सोच सके. निकट सम्बन्धियों में रोहिणी ही, सबसे ज्यादा व्यवहारिक और तीक्ष्ण बुद्धि वाली महिला थी. विशाल के शादी में वे आ न सकीं क्योंकि उनकी बहू की डिलीवरी थी. काँता से फोन पर बातचीत के दौरान वह बैचैन लगी तो उन्होंने उस व्यग्रता का कारण पूछ लिया. सब कुछ जानने के बाद रोहिणी ने, पहली फुर्सत में, विशाल के यहाँ जाने का प्रोग्राम बना लिया. किन्तु वहां टिंकी को देखकर झटका लगा. परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हो गयी थीं. शादी का कार्ड, डाक की गडबड से, मिला नहीं. बस मौखिक आमंत्रण पर, बेटे को विवाह- समारोह में भेज दिया था उन्होंने.
कार्ड पढ़कर रोहिणी जान ही लेती कि वह, उसकी अनन्य सखी, सुनंदा की बिटिया के विवाह का निमंत्रण था. उन्होंने विशाल की बहू का, बस नाम भर सुना था- ‘श्रुति’. लेकिन वे तो श्रुति को, टिंकी के नाम से जानती थीं; उस चिरपरिचित चेहरे को, इस रूप में देखेंगी- कभी सोचा न था! किसी फ़िल्मी कथा सा था, यह समूचा घटनाक्रम- बरसों से गृहस्थी में रची बसी स्त्री, अपना घर –संसार, कुशल हाथों में सौंपना चाहती है. किन्तु उसका स्वप्न खंड खंड हो जाता है. बहू तन से तो युवती है पर व्यवहार किसी नासमझ बालिका सा. फिर… वही सास- बहू का टकराव ... नाटकीयता से भरे मोड़ और इस घटनाक्रम में फंसी रोहिणी. रोहिणी- जिसकी प्रतिबद्धता, दोनों पक्षों से ही थी समझ नहीं पा रही थी, किसका साथ दे और किसका नहीं,
परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए, वह स्वयं से प्रश्न- प्रतिप्रश्न करने लगीं और तभी टिंकी ने आकर, पीछे से गलबहियां डाल दीं, “क्या सोच रही हैं मासी? इतने दिनों में मिली हैं पर बात तक नहीं करतीं!!” टिंकी का सूजा हुआ मुंह देखकर, एक फीकी सी मुस्कान उनके होंठों पर आ गयी. “कैसी हो बिटिया?”
“मैं ठीक हूँ. आप अपनी सुनाइये.” रोहिणी कुछ कहने ही वाली थी कि काँता का प्रवेश हुआ, चाय की ट्रे के साथ. बात वहीँ थम गयी. श्रुति सास को आते देख भी, अपनी जगह से नहीं उठी; पाँव पसारे कुर्सी पर बैठी रही. काँता ने जैसे ही ट्रे स्टूल पर रखी; उसकी बहू ने फट से, एक प्याला उठा लिया और लगी चुस्कियां भरने. रोहिणी को अपनी ममेरी बहन से, वाकई सहानुभूति होने लगी थी. कोई और बहू होती तो स्वयम चाय बनाकर लाती; कम से कम, सास को चाय लाते देख, ट्रे तो थाम ही लेती. मेहमान की तरह बेतकुल्लफी से खाना- पीना, भारतीय बहुओं के संस्कार नहीं हैं. फिर श्रुति कोई नई नवेली तो थी नहीं. शादी के तीन- चार महीने बीत चुके थे. अब उसे, सास के साथ, काम करवाना चाहिए था. दोनों बहनों में सामान्य वार्तालाप हो रहा था कि तभी माली ने आवाज लगाई, “मालकिन, तनिक इधर आयें. जरा बता दें- सामने वाली क्यारी में कौन से फूल लगाने हैं?” काँता का बुलावा आ गया था, सो वह उठीं और बाहर को चल दीं.
इधर रोहिणी सोच रही थी कि बातों का कौन सा सिरा पकड़कर, वह मुद्दे तक पहुचें. टिंकी उनके इरादों से अनजान, नये जमाने का कोई गीत, गुनगुना रही थी. गीत के बोल भी छिछोरे से थे, “आओ बेबी डेट पे चलें” कैसी विडंबना! सौम्य, सुरुचिपूर्ण महिला कान्ता; जिसकी चाल ढाल से शालीनता और बर्ताव से परिपक्वता छलकती थी; बेहद दुनियादार होते हुए भी, ऐसी गलती कर बैठी!! बेटे के लिए जीवनसाथी का चुनाव, एक अहम फैसला था, जिसमें वह चूक गयी...पहलेपहल जब उसने कॉल किया था, रिश्ता तय होने पर, “ रोहू, इतनी भोली, इतनी क्यूट लडकी है कि क्या बताऊँ! बहुत सुन्दर गाती है. पिता छुटपन में ही चल बसे. अभावों में पली है...ज़िन्दगी के उतार- चढ़ाव देखे हैं उसने. मुझे लगता है कि वह कायदे से रहेगी. बड़े घर की लड़कियों के नखरे भी बड़े होते हैं. अपने को तो जमती नहीं. क्या कहती हो?”
“कांति जो कुछ करना, बहुत सोचसमझकर करना. विशाल की पूरी ज़िन्दगी का सवाल है...” ‘रोहू’ और ‘कांति’ को उस चर्चा के दौरान, भविष्य के बारे में, कोई आशंका न थी. एक सीधीसादी लड़की को ही, विशाल की पत्नी होना चाहिये था; उसे बनावटी लोग पसंद न थे- इसी से. किन्तु यहाँ, पांसा उलटा ही पड गया! यह कन्या तो झूठी- सच्ची कहानी बता- बताकर, घरवालों के खिलाफ, पति के कान भरना चाहती थी. भरी सभा में उसे, उसके प्यार के नाम से पुकारती, “मिंटू”. सुनने वालों को यह अटपटा लगता लेकिन न जाने क्यों विशाल, यह सब कुछ नज़रंदाज़ कर देता. क्या कहा जाये! श्रुति की बच्चों सी जिद और विशाल को उँगलियों पर नचाने के जतन... पत्नी के सौन्दर्य पाश में जकड़ा हुआ असहाय पति...उसके संस्कारी मन की कसक...!!
कभी कभी विशाल के संस्कार मुखर हो उठते, “ देखो श्रुति, तुम जो भी करो पर मेरी माँ से कुछ न कहो...माँ मुझे बहुत प्यारी है” लेकिन श्रुति बात को घुमा देती. अपनी बात मनवाने के लिए, फट से, टसुए बहाने लगती. विशाल के हालात की, थोड़ी बहुत भनक तो, रोहिणी को लग ही गयी थी; इसी से, उसने टिंकी के गाने पर, विराम लगाते हुए पूछा, “अब तक तो सासू माँ से, काफी कुछ सीख लिया होगा...खाना बनाना, घर का कामकाज...” श्रुति इस अनपेक्षित प्रश्न से चौंक पड़ी. कहीं न कहीं, इस प्रश्न ने; उसके मन में दबी चिंगारी को, भडका दिया था. बुरा सा मुंह बनाते हुए बोली, “मुझे किसी से कुछ भी, सीखने की जरूरत नहीं है...आपको तो पता है- जब मम्मी ऑफिस जाती थी तो मैं ही घर संभालती थी”
“वही तो जानना चाहती हूँ...तुम तो हर काम में निपुण हो, फिर सास का हाथ क्यों नहीं बंटाती?” टिंकी को यह बात बहुत खल गयी. यदि ऐसा किसी और ने कहा होता तो उसे मुंहतोड़ जवाब देती; लेकिन ये बोलने वाली तो ...उसकी परमप्रिय रोहिणी मासी ही थीं! “मासी” रोहिणी को संबोधित करते हुए, उसका त्रिया हठ मुखर हो चला था, “ विदाई के समय, मम्मी बोली थीं कि इतना सब कुछ खर्चा करके, तुझे बड़े घर भेज रही हूँ. अब आराम से रहना. साल भर तो, नई बहू के, खेलने खाने के दिन होते हैं. तूने मायके में बहुत कष्ट उठाया. कोई सुख सुविधा न दे सकी तुझको...ससुराल में अपना रूतबा बनाये रखना, ताकि बाद में दिक्कत न हो” रोहिणी हतप्रभ रह गयी. तो यह सब सुनंदा की ‘सिखाई- पढाई’ का नतीजा था. “देखो बेटी” उसने गंभीरता से कहा, “यह सच है कि तुम्हारी ससुरालवालों से बड़ी बड़ी अपेक्षाएं है और तुम चाहती हो कि वे उन्हें समझें पर क्या तुमने कभी, उनकी अपेक्षाओं को समझने की कोशिश की?” श्रुति की प्रश्नवाचक दृष्टि को पढ़कर, रोहिणी ने स्पष्ट किया, “काँता बहुत गहन, गंभीर महिला है, परिवार के लिए समर्पित. उसको जानने वाले, उसके सुलझे हुए व्यक्तित्व की तारीफ़ करते हैं. हर किसी से तालमेल बना लेती है वह. क्या कहते हैं अंग्रेजी में?...हाँ! मैच्योर्ड बिहेवियर- उनके इसी गुण का विशाल भी कायल है. तुमसे भी यही चाहता होगा?”
“वो तो कोई अनोखी बात नहीं हैं” श्रुति ने लापरवाही से कहा, “अपनी माँ से सभी इम्प्रेस्ड होते हैं; लेकिन नई नई पत्नी से, माँ की इतनी बड़ाई भी नहीं करनी चाहिए- मैंने तो साफ़ कह दिया विशाल से...”
“अपनी माँ से सभी इम्प्रेस्ड होते हैं- क्या तुम भी श्रुति???!!” रोहिणी ने कठोरता से, उसे बीच में ही रोक दिया. श्रुति मानों पत्थर हो गयी!! ये क्या कह दिया..मासी ने!!! उनका यह संजीदा अंदाज, उस पर भारी पड़ने लगा था. बिना कहे, वह समझ गयी कि मासी का इशारा किस तरफ था. माँ का १५ वर्ष की उम्र में, बाल विवाह हुआ था. अठारह की होते होते, टिंकी गोद में आ गयी. सात साल की उम्र में, पिता छोड़कर चल दिए. याद है उसको- नौ बरस की कच्ची उमर में, उसने माँ के पुनर्विवाह की चर्चा सुनी थी. तब कैसा चीखी चिल्लाई थी वो! पैर पटक पटककर रोई थी. नये पिता, किसी कीमत पर, स्वीकार न थे- श्रुति को....!!
सुनंदा महज दसवीं पास थी. पति के देहांत के बाद, उसे उनकी जगह, ऑफिस की कैंटीन में रख लिया गया. कैंटीन के मैनेजर रंगनाथ विधुर थे. उन्हें सुनंदा में, अपनी मृत पत्नी की छवि नजर आई. विवाह प्रस्ताव रखने में, उन्होंने देर न की. सुनंदा को भी, एकाकी जीवन से ऊब होने लगी थी; सो उसने भी सहमति जताई. लेकिन रंगनाथ के किशोर बेटे का भविष्य आड़े आ गया. वह मेडिकल प्रवेश- परीक्षा की तैयारी कर रहा था. पिता का यह कदम, उसे भावनात्मक रूप से, अस्थिर बना सकता था. इसका असर, उसकी पढाई पर भी हो सकता था. दोस्तों के समझाने पर, रंगनाथ समझ गये और अपना बढ़ा हुआ कदम, पीछे खींच लिया. रोहिणी भी, उसी ऑफिस में काम करती थी और सुनंदा नाम की, उस अकेली, विधवा औरत से सहानुभूति रखती थी. लेकिन जब उसने, सुनंदा के रंग- ढंग देखे तो उसकी सहानुभूति हवा हो गयी.
उसने सुनंदा को, उसकी बेटी श्रुति के सामने ही डांट पिलाई. रंगनाथ के रसिक स्वभाव का हवाला देकर, उसे रोकना चाहा...बेटी के जीवन का वास्ता भी दिया; पर सुनंदा के मन में न जाने कैसी ग्रंथि थी- दैहिक आकर्षण को लेकर! वह कुछ मानने को तैयार न थी!! वो तो अच्छा हुआ कि रंगनाथ ने स्वयम ही, इस सम्बन्ध को नकार दिया- नहीं तो बेचारी टिंकी...!!! टिंकी की मनःस्थिति, ठीक से समझ सकती है रोहिणी. सुनंदा- जो परपुरुषों को देखकर, एक अजब सा खिंचाव महसूस करती थी और अनजाने ही, दोस्ती का भरम पाल लेती थी. या यूँ कहा जाये कि कुत्ते की भाँति, उसने ऐसे कई, अवान्छित रिश्तों को ‘पाल’ रखा था- तो गलत नहीं होगा. श्रुति के अस्थिर, अस्त- व्यस्त, आशंकित जीवन को, उससे बेहतर और कौन समझ सकता है भला?! माँ के दिलफेंक रवैये से, इन्सिक्योर्ड फील करती थी टिंकी; लेकिन रोहिणी मासी से तो, प्रेम करती थी वो.
मासी उसके भले- बुरे का खयाल कर, माँ को आगाह जो किया करती. सुनंदा को, सही राह दिखाने की कोशिश में रोहिणी, उससे दूर होती गयी. अतीत को, एक झटके में जी लेने के उपरान्त, रोहिणी और श्रुति उससे उबरने लगीं थीं...हौले हौले. अवसर भांपकर, रोहिणी ने आखिरी तीर छोड़ा- “माँ को लेकर... जो असुरक्षा की भावना थी- तुम्हारे भीतर, बस वही तुम्हें उकसाती है; तुम्हारे भीतर के तानाशाह को कुरेदती है...तनिक सोचकर देखो; इसका परिणाम क्या होगा! तुम तो खुद बच्ची हो; कल को, बच्चे की जिम्मेदारी कैसे उठाओगी? विशाल का सपना कैसे पूरा होगा?? उसने चाहा था कि उसकी पत्नी, परिपक्व बुद्धि की स्वामिनी हो...ऐसी लडकी, जिसके व्यक्तित्व और आचरण से लोग प्रेरित हों... क्या मिटा सकोगी – वह चाहत????!!!!”
“मासी! मैं तो बस...” टिंकी ने दबे स्वर में, प्रतिवाद करने की कोशिश की. लेकिन मासी तो, भावनाओं के ज्वार में बह निकलीं थीं. उस उद्वेग पर, विराम लगना, संभव न था. टिंकी की बात अनसुनी कर, वे बोलती चली गयीं, “अभी तो विशाल, यह सब बर्दास्त कर रहा है; पर प्यार का रंग, कभी न कभी फीका तो पडेगा...और तब!!!!!” श्रुति पर मर्मभेदी दृष्टि डालकर, वे तेजी से, बाहर निकल गयीं. तीर बेकार नहीं गया था. श्रुति सोच में पड गयी...आत्ममंथन पर मजबूर हो गयी... हठ की शिला, पिघलने लगी थी- परत दर परत !!
विशाल से पता चला कि ऑफिस की तरफ से, वह लम्बी ट्रेनिंग पर जाने वाला था. इस बारे में टिंकी को, जरा भी खटका नहीं हुआ. विशाल से बात करने के बाद, रोहिणी को उसके मन की थाह मिली. वह भी, श्रुति की मनमानी से उकता गया था. इसमें तनिक भी संदेह न था कि ऑफिस ने, जबरन उसे बाहर नहीं भेजा था; बल्कि वह खुद ही अपनी जिंदगी से भागना चाहता था. कहाँ तक पिसता- बीबी के नाटक और अम्मा की नाराजगी के बीच! शायद ऐसा करने से ही, श्रुति की सोच, विस्तृत हो सके...उसका आत्मकेंद्रित रवैया, बदल पाए. ऐसे में, बीचबचाव करना अनिवार्य था- रोहिणी के लिए. टिंकी को दंड से नहीं, बल्कि सहानुभूति और मनोविश्लेषण से ही, सुधारा जा सकता था.
इधर काँता के समक्ष भी, श्रुति के अतीत से जुड़े कुछ अध्याय, खोलने पड़े. टिंकी का मन पढ़ पाना, अब सहज हो चला था- काँता के लिए. बहू की, अपनी ही माँ से जुडी, मनोवैज्ञानिक समस्या उजागर हो गयी थी. उसके विचित्र बर्ताव से अब, उतनी वितृष्णा, उतनी निराशा नहीं होती थी. उन्होंने तय किया कि वे श्रुति को इतना प्यार देंगी कि ममत्व के लिए उसकी तृषा, उसके अंतर्मन में उपजा हुआ शून्य, मिट जाएगा. इसके लिए भले ही, मनोवैज्ञानिक सलाह क्यों न लेनी पड़े.
दिल पर एक अकथ सा बोझ लिए, रोहिणी वहां से विदा हुई. जानती थी; इससे ज्यादा, कुछ कर नहीं सकेगी. फिर अपना घर – परिवार भी तो देखना था. नन्हा शिशु रोहन- उनका पोता, उनकी गोद में नहीं खेला; कितने ही दिनों से! रोहन के पास पहुंचकर, सब कुछ बिसर गया हो मानों!! उसकी भोली, निश्छल हंसी, हाथ पैर मारना, नींद में मुस्कारना, रोमांचित कर देता था...! अपने आसपास के समाज, मुहल्ले के पूजा- कीर्तन आदि आयोजनों में मन इतना रम गया कि श्रुति और काँता को भूले से भी याद न किया. फिर एक दिन, मन्दिर में देवी-जागरण से लौटी तो पाया कि मोबाइल पर, ढेरों मिस्ड कालें थीं. सारी की सारी विशाल के फोन से. बहुत रात हो चली थी इसलिए कॉल बैक नहीं किया. लेकिन सुबह होते ही नम्बर घुमा दिया. रोहिणी मौसी का नाम फ़्लैश होते देख, दूसरे छोर से, विशाल बोलने लगा...बिना भूमिका के ही, “अरे मौसी! आपने क्या घुट्टी पिला दी श्रुति को...?! वाकई बदल गयी है!! अब थोड़ी बहुत... हम माँ- बेटे की परवाह भी करती है. सच मौसी! आप तो बहुत बड़ी जादूगरनी हो!!”
“बस बस...” रोहिणी ने प्यार से उसे घुड़का. रिसीवर काँता के हाथों में आ गया. कान्ता ने भी, विशाल से मिलते- जुलते मनोभाव व्यक्त किये. यह भी बताया कि टिंकी को छोड़कर विशाल, अब ट्रेनिंग पर नहीं जा रहा था. मन की तरंगे, छलककर, बह निकलीं थीं- शब्दों की राह पर. ‘कांति’ और ‘रोहू’ दोनों के ही मन तरंगित थे- नवल उल्लास से उमगते हुए! बस एक- दूजे की; ख़ुशी से भीगी आँखों को ही, देख न सकीं– दोनों...नई भोर ने, जीवन भी रंग डाला था- इन्द्रधनुषी रंगों में!!!

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