(1)
कट गयी उम्र खड़े खड़े
प्लेटफार्म पर
भीड़ के एकांत में!
यात्रा - टिकिट लिए खड़ा रहा
एक मैं, स्वप्न से ज़िंदगी तक!
तुम्हारी वो ट्रेन, नहीं आयी कभी
जिसमें चढ़ना था, तुम्हारे साथ
आगे सफ़र के लिए !
हड़बड़ाते बादलों की भगदड़ में
बारिशें
मरती रहीं कुचल कर !
आसमान टर्राता रहा
मेंढकों की छूटती रही हँसी !
खौलती हवाओं में
उबल कर गलते हुए
भौंथरी पड़ती रही
खिले हुए फूलों की महक !
ट्रेनें गुज़रती रहीं ...!
मैं सुबह शाम
भरता रहा चाय के घूँट ...
इंतज़ार में चाय का स्वाद
लेते हुए कई गुना !
मरी हुई बारिशें
बेचारा आसमान
गली हुई महक
इन सबको समेटना है अभी ...!
अभी , एक दो चाय और
बस!
(2 )
ठीक से पढ़ नहीं सका मैं
दरख्¸तों के हरेपन को
क्योंकि पाँव में चरमराते
सूखे पत्तों पर लिखा हुआ था
ठूंठ!
ठीक से गा नहीं सका मैं
तमाम रंगों को
क्योंकि वे गड्डमड्ड थे तेज़ हवाओं में
सब के सब!
ठीक से छू नहीं सका मैं
काँपती हुई आवाज़ों को
क्योंकि नमक बहुत तेज़ था!
ठीक से देख नहीं सका मैं
अपने होने का आस्वाद
क्योंकि कोई और ढूँढ रहा था मुझे!
ठीक से जी नहीं सका मैं
नींदों को
क्योंकि वे टूट चुकी थी
अपने गीलेपन से
भीग कर बारिशों में!
ठीक से बीत नहीं सका मैं
क्योंकि रास्ता
वक्त को
बहुत तज़ी से पार कर गया!
तालाब के ठहरे हुए पानी पर
आ जाती है काई!
ठीक से आ रहा हूँ मैं
सकुशल!
( 3 )
हम घर बनाते हैं
फिर तमाम उम्र घर से छिटकते रहते हैं
और तमाम उम्र घर में ही लेते हैं आश्रय !
हम जब भी निकलते हैं घर से
कहीं न कहीं पहुँचना होता है हमें
लेकिन हम हमेशा चलते हैं
और पहुँचते कहीं नहीं !
तमाम रास्ते एक दूसरे से
इस कदर उलझे हुए हैं
कि हम सिर्फ़ अपने ही
आसपास चक्कर काटते हुए
फिर फिर वहीं लौट आते हैं
जहाँ ठहरे हुए थे कुछ देर के लिए
अब से पूर्व !
इस भागमभाग में
न घर छूटता है न रास्ते
मगर ख़ुद हम
ख़ुद ही से बचते हुए गुम जाते हैं
अतीत की आड़ी तिरछी रेखाओं में !
और निकल जाते हैं अपने से बहुत दूर
कभी कभी घर और रास्ते
दोनों को ढूँढते हुए!
ए.एच.ई.सी.
आई.आई. टी. रूड़की
रूड़की -247667 उत्तराखण्ड
मोबाइल नं. - 09917888819
ईमेलः kktyagi.1954@gmail.com
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