इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

नवम्‍बर 2018 से जनवरी 2019

आलेख
प्रेम और द्वन्द की कहानी : यही सच हैे  : अनामिका /
छत्तीसगढ़ : सृजनशीलता के विविध आयाम :  गोरेलाल चंदेल

कहानी
 बहुरि अकेला : मालती जोशी
स्पंदन : प्रतिभा 
सिरफिरी : रणीराम कढ़वाली

छत्तीसगढ़ी कहानी
गिनती करोड़ केः
ललित नागेश

गीत गजल कविता
कब होबो सजोर : सुशील भोले
कभी नींद गहरी : सुशील यादव

लघुकथा  
अगले जनम मोहे कुतिया कीजो
अंधी का बेटा  

पुस्तक समीक्षा
कड़ा कागज का एक उत्कृष्ट  गीतिकृति :
समीक्षक डॉ. महेश दिवाकर
हथेलियों में सूरज उगाती कवियित्री, मंजू महिमा फेवरिट :
प्रणव भारती

प्रेम और द्वंद्व की कहानी : यही सच है

 अनामिका

      सुप्रसिद्ध कथाकार मन्नू भंडारी ने जब भी लिखा हिंदी कथा साहित्य में एक नया ही मार्ग निर्धारित किया। इनकी कहानियाँ आम और सामान्य लोगों के अभावों और पीड़ा की कहानियाँ हैं। चाहे तीसरे आदमी की उपस्थिति से पति - पत्नी के विचलित होते संबंध हो या आंतरिक घुटन से तप्त च् अकेली ज् की माँ हो या दो पीढ़ियों के बीच बढ़ते अंतर का प्रतिनिधित्व करती कहानी च् सजाज् या फिर नारी के दो प्रेम संबंधों के बीच ऊहापोह वाली स्थिति तथा नारी मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण करने वाली कहानी च् यही सच हैज्।
प्रेम एक अनुभूति एवं अनुभव के आधार पर ही सच है, बाकी सब झूठ है। प्रेम के इसी स्वरूप को केंद्र में रखकर ' यही सच है ' कहानी की रचना हुई है। इस कहानी की नायिका च् दीपा ज् नामक भारतीय युवती है जो अतीत और वर्तमान के प्रेम संबंध के द्वंद्व में जीवन यापन करती है। दीपा अपने वर्तमान प्रेमी संजय के साथ कानपुर में रहती है। निशीथ उसके अतीत जीवन का प्रेमी रहा है जो उससे संबंध तोड़कर कलकत्ता चला जाता है। दीपा कभी - कभी अपने अतीत को दोहराते हुए सोचती है - अट्ठारह वर्ष की आयु में किया हुए प्यार भी कोई प्यार होता है। भला! निरा बचपन होता है महज पागलपन! उसमें आवेश रहता है पर स्थायित्व नहीं। गति रहती है पर गहराई नहीं। जिस वेग से वह आरंभ होता है, जरा सा झटका लगने पर उसी वेग से टूट भी जाता है। 1
दीपा निशीथ की बेवफाई से अपमानित महसूस करती है और वर्तमान जीवन में वह संजय के प्रति पूरी तन्मयता से समर्पित है। संजय हमेशा रजनीगंधा के फूलों के साथ ही दीपा से मिलने आता है। ऐसा लगता है कि रजनीगंधा का फूल, फूल न होकर संजय का प्रतीक है, जिसे अपने कमर में देखकर दीपा संजय की उपस्थिति का आभास करती है। रजनीगंधा के फूल दीपा के जीवन में विश्वास और उमंग को जगाते हैं उसे संजय के होने का एहसास दिलाते हैं। दीपा संजय के संपर्क में आकर निशीथ को एक तरह से भूल जाती है और संजय को लेकर नए जीवन का स्वप्न देखती है।
संजय का मन निशीथ को लेकर जब - तब सशंकित हो उठता है, किंतु निशीथ के नाम की चर्चा होने पर दीपा उसकी बेवफाई को यादकर गुस्से में भर जाती है और संजय से कहती है - देखो संजय, मैं हजार बार तुमसे कह चुकी हूँ कि उसे लेकर मुझसे मजाक मत किया करो! मुझे इस तरह के मजाक जरा भी पसंद नहीं। 2 दीपा जानती है कि निशीथ को लेकर संजय पूर्ण रूप से आश्वस्त नहीं है। वह निशीथ की ओर से संजय को पूर्ण रूप से आश्वस्त कर देना चाहती है कि निशीथ उसके बचपन का प्रेम है, बचपन में किया गया प्रेम, प्रेम नहीं होता, निरा बचपना होता है, महज पागलपन। ऐसा लगता है कि दीपा ऐसी बातें संजय को विश्वास में लेने के लिए नहीं कहती बल्कि निशीथ की ओर से स्वयं अपने मन को आश्वस्त करने के लिए सोचती है। उन्हीं दिनों एक इंटरव्यू के सिलसिले में दीपा को कलकत्ता जाना पड़ता है जहाँ उसकी मुलाकात निशीथ से होती है। इंटरव्यू के सिलसिले में उससे मिली सहायता और अपने प्रति उसके लगाव को देखकर दीपा को अतीत का स्मरण हो आता है। जीवन की इस नई परिस्थिति में दीपा कल्पना में बहुत कुछ देखती सोचती रहती है और निशीथ की ओर से कोई पहल करने पर दुखी होती है। जब निशीथ उसके सामने आता है, तो उसे लगता है कि यही प्रेम सच्चा प्रेम है। इसलिए निशीथ को लेकर सोचती है - तुम आज भी मुझसे प्यार करते हो। तुम मुझे सदा अपने पास रखना चाहते हो। जो कुछ हो गया, उसे भूलकर तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो! कह दो, निशीथ, कह दो। 3
निशीथ, दीपा को कलकत्ते में देखकर उत्साह और उमंग से भर जाता है। वह हर क्षण बड़ी तत्परता से दीपा की मदद करता है। वह फिर दीपा के मन पर छाने लगता है। दीपा संजय के बारे में उसे सब कुछ बता देना चाहती है, पर कुछ कह नहीं पाती। दीपा,निशीथ से किसी प्रकार का लगाव नहीं रखना चाहती लेकिन न चाहते हुए भी व निशीथ की ओर खिंचती चली जाती है। न चाहते हुए भी दीपा वही करती है जो निशीथ को पसंद है। वह निशीथ के द्वारा प्रशंसा किए जाने पर खुश भी होती है। ऐसे अवसरों पर वह संजय की तुलना निशीथ से करने लगती है -  पिछले ढाई साल से संजय के साथ रह रही हूँ, रोज ही शाम को हम घूमने जाते हैं कितनी ही बार मैंने श्रृंगार किए, अच्छे कपड़े पहने पर प्रशंसा का एक शब्द भी उसके मुँह से नहीं सुना। 4 जब निशीथ नौ बजे का समय देकर पौने नौ बजे ही आ जाता है तो वह सोचती है - संजय होता तो ग्यारह के पहले नहीं पहुँचता। समय पर पहुँचना तो वह जानता ही नहीं। 5 इस प्रकार दीपा संजय और निशीथ के बीच बह जाती है।
कलकत्ता में निशीथ से मिलने पर दीपा को लगता है निशीथ का प्यार ही सच्चा है,वास्तविक है। संजय को वह प्रियतम नहीं पूरक मानती है। वह सोचती है - प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है, बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने का,भरमाने का प्रयास मात्र होता है। 6 कानपुर लौटने पर संजय से मिलने पर जब वह अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती है तब उसे लगता है कि यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था भ्रम था। 7
इस प्रकार प्रस्तुत कहानी में क्षण की पूर्णता को चित्रित किया गया है, जो अस्तित्ववादी चिंतन का प्रभाव है। इस कहानी में दीपा के माध्यम से लेखिका मन्नू भंडारी ने क्षण की मनःस्थितियों को ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त किया है। जिस क्षण वह जो अनुभव करती है वही क्षण अपने लिए सत्य है।
च्यही सच है ज्कहानी का वैचारिक आधार कमजोर है। यहाँ दीपा के मन का द्वंद्व ही प्रमुख है जो अलग - अलग क्षणों में निशीथ और संजय दोनों को ही सच के अतिरिक्त कुछ और मानने से इनकार कर देता है। दीपा के प्रेम में न वह ऊष्मा है और न वह उदात्तता जो जीवन को वृहत्तर आशयों से जोड़ सके। दीपा के प्रेम के साथ आर्थिक सुरक्षा, स्वार्थ, वासना और अस्तित्व बोध के प्रश्न जुड़े हुए हैं। वस्तुतः दीपा का प्रेम दर्शन नैतिकता - अनैतिकता से परे सिर्फ  वर्तमान को पकड़ और भोग लेने वाला क्षणवादी दर्शन है, इसलिए जो भी उसके सामने होता है, चाहे वह निशीथ हो या संजय, वही एकमात्र सच लगता है इस प्रकार दीपा अतीत और भविष्य से कटकर पूरी तरह वर्तमान को ही समर्पित है।
यह कहानी परंपरागत प्रेम संबंधों से अलग हटकर लिखी गई है। जहाँ पहले की प्रेम कहानियों में एक आदर्श व नैतिक मूल्य दिखाई पड़ते हैं। वहीं मन्नू भंडारी की इस कहानी में सर्वथा उनका अभाव है। दीपा के प्रेम का दर्शन बहुत कुछ उपभोक्तावादी संस्कृति से जुड़ा हुआ है। प्रेम में भोग का तर्क ही नहीं होता, उसमें त्याग का एक स्थायी आदर्श भी होता है। प्रेम के क्षणों में केवल तन ही सक्रिय नहीं होता, बल्कि हृदय और मन भी सक्रिय होता है। यही कारण है कि प्रेम विषयक कहानियों में त्याग और बलिदान का एक आदर्श मिलता है। गुलेरी जी की कहानी च् उसने कहा थाज् में लहना सिंह की त्याग और बलिदान की भावना को महत्व दिया गया है। इसी प्रकार प्रसाद की कहानी च् पुरस्कार ज् में मधुलिका का वैयक्तिक प्रेम राष्ट्र प्रेम की ओर उन्मुख होता है। किंतु मन्नू भंडारी की इस कहानी में प्रेम के किसी आदर्श या मूल्य को स्थापित नहीं किया गया है। इस कहानी के बारे में राजेंद्र यादव जी लिखते हैं - जब मैंने मन्नू की कहानी च् यह सच हैज्की एक और ढंग से व्याख्या करते हुए बताया कि यह प्यार और भावनात्मक अंतर्द्वंद्व की या दो प्रेमियों को स्वीकारती लड़की की कहानी नहीं, सन 50 - 60 के बीच की उस खंडित मानसिकता की कहानी है जहाँ भारतीय मन अपने को दो मनःस्थितियों में एक साथ बँटा पाता था। एक ओर उसका अतीत था,पहला प्रेमी, जो आज भी उसके लिए सच या और दूसरी ओर था वर्तमान, दोनों उसके लिए समान सच थे और उसे एक को चुनना था।
च् यही सच हैज् डायरी शैली में लिखी गई उत्कृष्ट कोटि की कहानी है जो कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से पाठकीय चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ती है। प्रेम के पारस्परिक त्रिकोणात्मक स्थिति को आधुनिक नारी और सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि यहाँ संजय, निशीथ और दीपा का प्रेम त्रिकोण है। किंतु इन दोनों पुरुषों के द्वंद्व के बीच अपने को, अपने प्रेम के अस्तित्व को तलाशती एक बेबस नारी को देखा जा सकता है। दीपा बेबस है सिर्फ  अपने मन से अपनी सामाजिक स्थितियों के कारण नहीं। इस प्रकार इस कहानी में संजय और निशीथ दोनों के बीच प्रेम का सच नारी मन की विवशता के साथ उजागर हुआ है।
संदर्भ सूची
1. प्रतिनिधि कहानियाँ, मन्नू भंडारी, यही सच है। पृ.13
2. वही, पृ.12
3. वही, पृ.24
4. वही, पृ.20
5. वही, पृ.18
6. वही, पृ.27
7. वही, पृ.30

बहुरि अकेला

मालती जोशी

स्टाफ  रूम में गरमागरम बहस चल रही थी। मुझे देखकर क्षणभर को सन्नाटा खिंच गया। मुझे लगा कि कहीं बहस का मुद्दा मैं ही तो नहीं हूँ। तभी मिसेज झा ने कहा - लो ये आ गई मिस स्मार्टी। इन्हें भेज दो। बहुत काबिल आयटम है। कैसी भी सिच्यूएशन हो ब्रेवली हैंडल करती हैं।
मिसेज सक्सेना मुँह बनाकर बोली - वे दिन गए मिसेज झा। अब तो ये मिस प्रिविलेज्ड हैं। इन्हें कोई हाथ भी नहीं लगा सकता।
- क्या हुआ भई! सुबह - सुबह मुझ पर इतनी कृपादृष्टि क्यों हो रही है? मैंने आखिर पूछ ही लिया।
- अरे हम गरीब क्या कृपादृष्टि करेंगे। कृपादृष्टि तो आप पर मैम की है। इसीलिए तो आपको कोई असाइनमेंट नहीं दिया जा सकता।
खासकर संडेज को। मिसेज सक्सेना कुटिलता से आँखें नचाकर बोलीं।
- कुछ पता भी तो चले कि माजरा क्या है। मैंने कुर्सी खींचते हुए कहा। उत्तर में सब ने एक साथ बोलना शुरू किया। बड़ी देर बाद मेरी समझ में जो आया उसका सार यह था कि शुक्रवार को एम.ए. फाइनल की लड़कियाँ अजंता - एलोरा जा रही हैं। पर इंचार्ज मिसेज गुप्ता के श्वसुर जो आज अचानक कूच कर गए। अब सवाल यह है कि उनके स्थान पर किसे भेजा जाए। सबकी अपनी परेशानियाँ थीं। मिसेज सक्सेना की बिटिया वायरल में पड़ी थी।
रविवार को किरण के देवर की सगाई थी। मिसेज कृपाल की सास पैर में प्लास्टर बँधवाकर पड़ी थीं। खंडेलवाल के पूरे दिन चल रहे थे। दासगुप्ता के दोनों बच्चों के सोमवार से टर्मिनल्स शुरू हो रहे थे और बिसारिया पहले से छुट्टी पर थीं।
स्टाफ  में दो तीन अति बुजुर्ग सदस्य थीं जिन्हें इस मिशन पर भेजना बेकार था। एकाएक मुझे याद आया - विभा तो जा रही है न! या उसके यहाँ भी कोई प्रॉब्लम है।
विभा तो जा रही है पर वह तो खुद बच्ची है। लड़कियों को क्या सँभालेगी? कोई जिम्मेदार व्यक्ति भी साथ होना चाहिए।
और तुम्हें कोई हाथ नहीं लगा सकता। मैडम की चहेती जो हो। उनकी सख्त हिदायत है कि अंजु शर्मा को छुट्टी के दिन कोई काम न सौंपा जाए।
देर से शादी करने का यही तो फायदा है। सबकी सिम्पैथी मिल जाती है।
मैं चकित - सी देखती रह गई। ये सबकी सब मेरी कुलीग्स थीं, सालों से हम साथ काम कर रहे थे। हमेशा कैसी शहद घुली बातें करती हैं। आज पता चला कि सबके मन में कितना जहर भरा हुआ है। उन सबके पास व्यस्तताओं की एक लंबी लिस्ट थी। एक मैं ही फालतू नजर आ रही थी पर उनके शब्दों में प्रिविलेज्ड थी। इसलिए सबकी जबान पर जैसे काँटे उग आए थे।
भला हो मिसेज देशपांडे का। मेरा पक्ष लेते हुए बोलीं- अभी तक तो यही बेचारी सारी बेगार ढो रही थी। अब इसके साथ मैडम थोड़ी सिम्पैथेटिक हो गई है तो तुम लोगों को जलन हो रही है। अरे यह तो सोचो कि इतनी देर से उसने शादी की है। पति भी साथ नहीं रहते। एक छुट्टी के दिन ही मेल - मुलाकात हो पाती है, वह भी तुम लोगों से देखी नहीं जाती।
उनकी बुजुर्गियत का ख्याल करके सब चुप हो गई। पर सबके चेहरे पर यह भाव था कि इसने देर से शादी की है तो उसका खमियाजा हम क्यों भुगतें। मिसेज सक्सेना से तो आखिर रहा नहीं गया। बोलीं - आँटी, अब साल भर तो हो गया। इतना तो कोई नई नवेली बहू को भी नहीं सहेजता।
मेरा तो जैसे खून खौल गया। आप लोग यही चाहती हैं न कि इस बार मैं लड़कियों के साथ जाऊँ। तो चली जाऊँगी। उसके लिए इतने तानों - उलाहनों की क्या जरूरत है ?
- और मिस्टर हबी? उनका क्या होगा?
- उसकी चिंता आपको क्यों हो रही है? दैट इज माय प्रॉब्लम!
उसी तैश में मैं मैडम के कमरे में चली गई और कह दिया कि मिसेज गुप्ता के न आने से कोई परेशानी हो रही हो तो मैं तैयार हूँ। वे कुछ देर तक मुझे देखती रहीं। फिर बोली - इट इज व्हेरी स्पोर्टिंग ऑफ यू। दरअसल मैं तुम्हें बुलाने को सोच ही रही थी। अकेली विभा पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता ना।
- तो आप इतना संकोच क्यों करती है मैम। यू आर द बॉस। आप जिसे कहेंगी उसे जाना ही पड़ेगा। आप नहीं जानतीं, आपके इस सौजन्य का लोग कितना गलत अर्थ निकालते हैं।
- आय डोंट केयर। मैं तो सिर्फ शर्मा जी के बारे में सोच रही थी।
मैं चार - पाँच बार उन्हें बतला चुकी हूँ कि वे मि. कश्यप हैं, शर्मा नहीं। पर उन्हें याद ही नहीं रहता। अब तो मैंने टोकना भी छोड़ दिया है। इसलिए उनके सुर में सुर मिलाकर कहा - आप शर्मा जी की चिंता न करें। मैं उन्हें फोन कर दूँगी। वे भी सरकारी नौकर हैं, ड्यूटी का मतलब समझते हैं।
- ओ .के. एंड गुड लक टू यू।
घर लौटते समय बहुत हलका महसूस कर रही थी। अच्छा लगा कि मेरे प्रस्ताव के बाद मैडम के चेहरे पर राहत के भाव उभरे थे। पर ईमानदारी की बात यह थी कि उनसे भी ज़्यादा राहत का अहसास मुझे हो रहा था। पिछले दो हफ़्ते श्रीमान जी नहीं आए थे। आखिरी बार जिस मूड में यहाँ से गए थे, लगता था इस बार भी नहीं आएँगे। दो रविवार लगातार मैं स्नेही पड़ोसियों की प्यार भरी पूछताछ से तंग आ गई थी। इस हफ़्ते फिर वही सब दोहराना संकट लग रहा था। शायद इसलिए आगे बढ़कर मैंने यह जिम्मेदारी ले ली थी। मुझे एक बहाना चाहिए था, सो मिल गया।
कभी - कभी लगता है मैंने नाहक शादी की। जिंदगी अच्छी भली गुजर रही थी। न कोई तनाव था न पछतावा। बस एक शादी की चिंता थी जो मुझसे ज़्यादा मेरे भाइयों को खाए जा रही थी। अपनी भरी - पूरी गृहस्थियों के बीच बेचारे एक अपराध बोध के साथ जी रहे थे। बड़े भैया की पिंकी के बी. ए. कर लेने के बाद तो सबके सब जैसे एकदम व्यग्र हो उठे। कम से कम उसकी शादी से पहले मेरी हो जाना लाजमी था। सो श्रीमान कश्यप को घेरा गया। दस और बारह साल के दो बच्चों के बाप से शादी करना मेरे लिए कतई रोमाँचक नहीं था पर भाई आश्वस्त थे कि मुझे अपना एक घर मिल गया है।
पर उस घर से जुड़ कहाँ पाई। किसी ने मौका ही नही दिया। शादी के बाद चार पाँच दिन रही थी। बाद में दीपावली पर लक्ष्मीपूजन के लिए गई थी बस। छुट्टियों में वे मुझे एकाध महीना घुमाने ले गए थे। एक महीना मुझे भाइयों के पास रहने के लिए कह दिया था। भाइयों के पास तो हर छुट्टी में जाती थी। पर इस बार का अनुभव नया था। पीहर आई बहन - बेटी का स्वागत सत्कार। लाड दुलार पहली बार ही पाया था। शादी के बाद भी मैं तो उसी घर मैं बनी रही। पर हाँ मिस्टर कश्यप को जरूर एक अतिरिक्त घर मिल गया था। उनकी सारी छुट्टियाँ यहीं गुजरतीं। केंद्र सरकार की नौकरी थी। शनिवार, रविवार छुट्टी होती। वे भोपाल से शुक्रवार को इंटरसिटी से आते और सोमवार की सुबह उसी ट्रेन से लौट जाते। साल भर से मेरा दांपत्य जीवन इसी साप्ताहिक तर्ज पर चल रहा था।
उस रविवार की रात को भी वे घड़ी में अलार्म भर रहे थे कि मैंने कहा- सुबह चले जाएँगे।
- जाना तो पड़ेगा ही। कल सोमवार है, भूल गई क्या?
- सोमवार को कैसे भूल सकती हूँ। मुझे भी तो कॉलेज जाना है। पर मुझे और भी कुछ याद आ रहा है।
- क्या?
- कल शाम मैंने कुछ लोगों को खाने पर बुला लिया था।
- कल क्यों? आज ही बुला लेतीं न।
- यों ही बुलाना अच्छा नहीं लगता। कोई मौका भी तो हो।
- तो कल क्या है?
- आपकी याददाश्त तो इतनी अच्छी है। आपको यहां बैठकर भी अपने बच्चों के ही नहीं, भांजे - भतीजों के, मामा मौसियों के जन्मदिन याद आ जाते हैं।
- कल तुम्हारा जन्मदिन है ?
- नहीं, मेरा जन्मदिन तो कब से आकर चला गया। जिन्हें याद था उन्होंने मना भी लिया। आपके लिए मुझे सौ - सौ बहाने गढ़ने पड़े। एक साड़ी अपनी ओर से खरीदकर आपके उपहार के तौर पर पेश करनी पड़ी। मेरा जन्मदिन आपको याद नहीं रहा। कोई बात नहीं। पर कल की तारीख तो आपको याद रखनी चाहिए या कि उसका भी आपके निकट कोई महत्व नहीं है, न चाहते हुए भी मेरी आवाज थोड़ी तल्ख हो गई थी।
उन्होंने कैलेंडर की ओर नजर डाली - ओह! कल 11 नवंबर है। मतलब अपनी शादी को एक साल पूरा हो गया।
- धन्य भाग्य! आपको याद तो आया। पर आपने इस तरह मुँह क्यों लटका लिया? मैंने र्स्कने के लिए कहा जरूर है पर कोई समस्या हो तो रहने दीजिए। सेलिब्रेशन का मूड अगर है तो मैं साथ चली चलती हूँ नहीं तो उसकी भी कोई जरूरत नहीं है।
- तुम चलना चाहो तो जरूर चलो। उन्होंने कहा, पर स्वर में कोई आग्रह नहीं था, ऐसा है कि बच्चों की परीक्षाएँ चल रही हैं। मंगलवार को शौनक का गणित का पेपर है इसीलिए मेरा कल जाना जरूरी है।
- सेलीब्रेशन से मेरा मतलब किसी पार्टी से नहीं था। हम सब मिलकर बाहर खाना खा सकते थे या एकाध पिख्र देख सकते थे। बच्चों की परीक्षाएँ चल रही हैं तो कोई बात नहीं। हम लोग दिनभर साथ ही रह लेते। यह प्रस्ताव आपकी ओर से आता तो मैं उतने ही में खुश हो जाती। पर आपको तो याद ही नहीं था। आपको अम्माजी के ठाकुरजी तक की याद रहती है। पिछली रामनवमी और जन्माष्टमी पर श्रृंगार का सारा सामान यहीं से ले गए थे। बस आपको मेरा जन्मदिन या अपनी शादी की सालगिरह याद नहीं रही।
- बार - बार बच्चों का, अम्मा का ताना क्यों दे रही हो? वे लोग मेरी जिम्मेदारी हैं।
- और मैं क्या हूँ ? सिर्फ जरूरत ?
- कैसी जरूरत ?
- यह भी बताना पड़ेगा ?
कुछ देर तक कमरे में भीषण स्तब्धता छाई रही। फिर मैंने ही कहा - आप बच्चों के सामने एक आदर्श पिता बने रहना चाहते हैं। इसीलिए मुझे तरजीह नहीं देते, जानती हूँ। इसीलिए आज तक आपने मेरे स्थानांतरण के लिए प्रयत्न नहीं किया। आश्चर्य तो यह कि अम्माजी ने भी कभी इसके लिए जोर नहीं दिया।
- लीज़ लीव्ह माय मदर अलोन।
- मैं कोई उन्हें गाली थोड़े ही दे रही हूँ, एक बात कह रही हूँ। कोई भावुक महिला होती तो कहती - बहू, तुम आकर जल्दी से अपना घर - बार सम्हालो और मुझे छुट्टी दो। पर वे बड़ी प्रैक्टिकल हैं। उन्हें यही व्यवस्था रास आ गई है। घर में उनका एकछत्र शासन भी बना रहता है और बेटे को कोई परेशानी भी नहीं होती। वह आदर्श बेटा बना रहता है। आदर्श पिता बना रहता है और उसकी साप्ताहिक आनंद - यात्रा भी निर्विघ्न चलती रहती है।
- आनंद यात्रा? वाह! तुम क्या सोचती हो तुम कोई हुस्नपरी हो जिसके लिए मैं दीवाना हो चला आता हूँ।
ठक्क! लगा जैसे किसी ने कलेजे पर एक घूँसा जड़ दिया हो। बड़ी मुश्किल से मैं उस पीड़ा को जज़्ब कर पाई। फिर अत्यंत कसैले स्वर में कहा - मैं हुस्नपरी होती तो चौंतीस साल तक अनब्याही न बैठी रहती। और न ही दो बच्चों के बाप से शादी करती।
यह बात कहने के साथ ही मैं दीवार की ओर मुँह करके लेट गई थी इस कारण उनका चेहरा नहीं देख पाई। पर वह जरूर स्याह पड़ गया होगा। वे उस रात कब कहां सोए मैं नहीं जानती। सुबह अलार्म बजा था पर मैं नहीं उठी। उन्होंने शायद अपने से ही चाय बनाई थी। पर मैं दम साधे पड़ी रही। जाते समय उन्होंने मुझे आवाज दी भी हो तो पता नहीं।
सुबह उठी तो लगा जैसे एक भयानक स्वप्न देखकर जागी हूँ।
उसके बाद आज तीसरा शुक्रवार है, जनाब की कोई खबर नहीं। रूठकर गए हैं, सोचा होगा मना लेगी। पर हम मिट्टी के नहीं बने हैं। बल्कि गुस्सा तो हमें आना चाहिए था। अपमान तो हमारा हुआ है।
सच तो यह है कि उनके न आने से मुझे राहत ही मिली थी। क्योंकि मुझे लग रहा था कि अब मैं उस व्यक्ति का स्पर्श या सामीप्य सहन नहीं कर पाऊँगी।
सुबह बैग भर रही थी कि फोन खड़काए मैं बोल रहा हूँ।
- मैं? कितना जबरदस्त अहम है। जैसे आवाज सुनते ही पहचान लिए जाएँगे।
- अच्छा आप हैं? कहिए।
-हम लोग रात को नौ बजे तक पहुँच रहे हैं। फोन इसलिए किया कि खाना बनाकर रख सको।
पिछले दो शुक्रवार से मेरा खाना बरबाद हो रहा था। पर मैंने उसका ज़िक्र न करते हुए कहा - हम लोग मतलब ?
- बच्चे भी साथ आ रहे हैं। इसीलिए बस से आ रहा हूँ। ट्रेन बहुत लेट पहुँचती है।
मैं पसोपेश में पड़ गई। मेरी चुप्पी से वे भी थोड़े विचलित हो गए। क्या हुआ? कोई समस्या? कहो तो बच्चों को न लाऊं। बड़ी मुश्किल से उन्हें राजी किया था।
- बच्चे आ रहे हैं तो दे आर मोस्ट वेलकम। लेकिन सचमुच एक समस्या आ गई हैं। मैं आज शाम को अजंता एलोरा जा रही हूँ।
- प्रोग्राम बदल नहीं सकतीं?
- नहीं। क्योंकि ये प्लेजर ट्रिप नहीं है। कॉलेज की लड़कियों के साथ इंचार्ज बनकर जा रही हूँ।
- पर तुम्हीं क्यों ?
- मैं क्यों नहीं? पिछले सालभर से तो उन्होंने मुझसे कोई काम नहीं लिया। मेरे सारे संडेज़ फ्री रक्खे। कॉलेज में इतनी परीक्षाएँ होती हैं पर कभी इनविजीलेशन की ड्यूटी भी नहीं दी। पर किसी की सदाशयता का ज़्यादा फायदा उठाना अच्छा थोड़े ही लगता है। आखिर ये मेरी नौकरी है।
इस बार उधर चुप्पी छाई रही।
फिर दो हफ़्ते से आप आए नहीं थे तो मैंने सोचा इस बार भी नहीं आएँगे।
- मैं दो हफ़्तों से नहीं आया तो तुमने कोई खोज खबर भी तो नहीं ली। एक बार फोन ही कर लेतीं।
- कारण मुझे मालूम था इसीलिए फोन नहीं किया।
- मैं बीमार भी तो हो सकता था।
- बीमार होते तो फोन करते। आप तो नाराज थे। मैं तो आज भी आपकी आशा नहीं कर रही थी। शायद अम्माजी ने ...।
- हर बार अम्मा को बीच में क्यों ले आती हो?
- बहुत श्रद्धायुक्त अंतःकरण से कह रही हूँ कि शायद अम्माजी ने ही समझाया होगा कि कमाऊ बीबी से बनाकर चलना चाहिए।
उधर से फोन पटकने की आवाज आई। मैंने भी परवाह नहीं की। अगर आप कड़वी बात कहते हो तो सुनने का भी हौसला रखो। जब सुन नहीं सकते तो कहते क्यों हो?
कॉलेज से लौटते हुए अचानक ख्याल आया कि सफर के लिए कुछ जरूरी चीजें ले लूँ। घर की ओर मुड़ने की बजाए मैं बाजार की ओर मुड़ गई। वह शायद मेरी होनी ही थी जिसने मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया था। क्योंकि उस ओर मुड़ते ही एक स्कूल बस मेरे सामने आ गई। उसे बचाने के लिए मैं सड़क के इतने किनारे चली गई कि गिर ही पड़ी। क्षणभर को आँखों के सामने अँधेरा छा गया। पलभर में वहाँ भीड़ जुड़ आई थी।
चार सहृदय लोगों ने मुझे स्कूटर के नीचे से निकाला और पास के अस्पताल में पहुँचाया। मैंने तुरंत एक फोन पड़ोस में किया और एक कॉलेज में। नीतू और उसकी मम्मी फौरन दौड़ी चली आई और पूरे समय मेरे साथ बनी रहीं। कॉलेज में फोन करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ यह था कि लोग मेरे भरोसे न रहें। पर खबर मिलते ही प्रिंसीपल मैडम भी दो तीन लोगों के साथ आ गई और जाते समय अपनी कार वहीं छोड़ गई। रात दस बजे जब घर लौटी तो मेरे बाएँ हाथ में प्लास्टर था बाएँ पैर की पिंडली में 6 -7 टाँके थे और घुटने और कंधे पर खरौंचें थी। सौभाग्य से सिर पर कोई चोट नहीं थी पर वह बेतरह घूम रहा था।
घर आते ही पस्त होने से पहले मैंने बड़े भैया को फोन लगाया। मेरे कुछ कहने से पहले वे ही बोल उठे - अरे इतनी देर तुम कहाँ थी? मैं कब से फोन लगा रहा हूँ।
उनके स्वर में उल्लास फूट पड़ रहा था। मैंने अपनी बात कुछ देर को मुल्तवी कर के कहा- थोड़ा बाजार तक गई थी। पर आप मुझे क्यों ढूँढ़ रहे थे?
- अरे वो बीकानेरवाले पिंकी को देखकर गए थे न! उनके यहाँ से हाँ आ गई है।
- अरे वाह! बधाई।
- लड़का तीन महीने के लिए जापान जा रहा है। इसलिए माँ के साथ एक बार मिलने आ रहा है। मेरी इच्छा थी कि कल तुम दोनों भी आ जाते तो लड़के को देख लेते।
- दरअसल क्या है भैया कि मैं कॉलेज की लड़कियों के साथ टूर पर जा रही थी तो इन्हें आने के लिए मना कर दिया था।
- कब जा रही हो ?
- आज ही जाना था पर पता नहीं कैसे स्कूटर से गिर पड़ी। पट्टी वगैरह करवाकर अभी लौटी हूँ।
- ज़्यादा चोट तो नहीं आई ?
- चोट तो ज़्यादा नहीं है पर आना जरा मुश्किल लग रहा है।
- ख़ैर कोई बात नहीं। टेक केअर। इन लोगों से निपट लूँ फिर आता हूँ।
नीतू मुझे देखती रह गई। यह क्या? आपने ठीक से बताया क्यों नहीं?
- वे बिटिया का रिश्ता तय कर रहे हैं इस समय मैं उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहती।
- जीजाजी को तो फोन कर दिया होता।
- नहीं रे। यहाँ नहीं आना था इसलिए उन्होंने टूर प्रोग्राम बना लिया था। घर पर अम्माजी और बच्चे अकेले होंगे। इतनी रात को फोन करूँगी तो परेशान हो जाएँगे।
- जीजाजी के पास मोबाइल नहीं है?
- यही तो सोच रही हूँ इस जन्मदिन पर उन्हें प्रेजेंट ही कर दूँगी। बहुत परेशानी होती है। अच्छा नीतू, आज की रात तुम मेरे पास रह जाओगी। कल से मैं वासंती को बोल दूँगी।
- कैसी बात कर रही हो? आज तो मुझे रहना ही है। अपने घर पर खबर की भी होती तो सुबह से पहले कोई आता थोड़े ही।
वह रात बड़ी मुश्किल से कटी।
उपचार के समय उन्होंने जरूर कोई निश्चेतक दवा दी होगी। उसका असर धीरे - धीरे कम हो रहा था और दर्द अपना अस्तित्व जताने लगा था। यों तो दर्द निवारक गोलियाँ भी दी गई थीं। पर उन्हें कारगर होने में थोड़ा समय लगता ही था। घर का कोई साथ में होता तो मैं उसे सारी रात सोने नहीं देती। पर पराई लड़की को परेशान कैसे करती सो सहनशीलता का नाटक करना ही पड़ा। दर्द के घूँट पीते हुए मैं बारबार उस एक व्यक्ति को कोस रही थी - मि. कश्यप! आपने सालभर में कोई और तोहफा तो नहीं दिया। पर शायद बद्दुआएँ दिल खोलकर दी हैं। उसी को भुगत रही हूँ। नहीं तो दस साल से गाड़ी चला रही हूँ। कभी एक खरौंच भी नहीं आई।
बमुश्किल तमाम रात के तीसरे पहर थोड़ी - सी आँख लगी। पर नीतू ने सात बजे ही चाय के लिए जगा दिया। उसका कहना भी ठीक था। बोली- आप हाथ मुँह धोकर तैयार हो जाइए। अड़ोस - पड़ोस में खबर लगते ही आने वालों का ताँता शुरू हो जाएगा। आप परेशान हो जाएँगी।
फिर उसी ने मेरे मुँह हाथ धुलवाए, बाल ठीक किए। उसी की मदद से मैंने कपड़े बदले। फिर उसने मेरे हाथ में कॉर्डलेस थमा कर मुझे सोफे पर लाकर बिठा दिया। आसपास तकिए लगाकर ऐसी व्यवस्था कर दी कि मैं अधलेटी रह सकूं। बोली कि हर किसी को बेडरूम तक लाना ठीक नहीं लगता।
उसका तर्क ठीक था और जैसा कि उसने कहा था। आठ बजे से आने वालों का सिलसिला जो शुरू हुआ। दस साढ़े दस तक चलता ही रहा। बेचारी नीतू नहाने धोने घर भी न जा सकी। ग्यारह बजे मैंने उसे जबरदस्ती घर भेजा। कहा कि दरवाज़े में चेन लगा दो। आने वाला अपने आप खोल लेगा।
नीतू गए मुश्किल से दस मिनट हुए होंगे कि दरवाजा अपने आप खुल गया। मैं तो चकित थी कि न दस्तक, न घंटी, ऐसे औचक कौन आ गया। पर जब आगंतुक को देखा तो देखती रह गई। कमर पर दोनों हाथ रखे, दरवाजे में खड़े होकर श्रीमान मुझे घूर रहे थे। उस दृष्टि में रोष था, उपालंभ था, उपहास था और शायद तिरस्कार भी।
आय न्यू इट। मुझे मालूम था, तुम्हें कहीं आना - जाना नहीं था। सिर्फ मुझे टालने के लिए बहाना बनाया गया था। आय वॉज डेड श्योर।
वे जिस तरह मुझे घूर रहे थे, मैं भी एकटक उन्हें देख रही थी। मेरी आँखों में उपालंभ की मात्रा शायद ज़्यादा गहरी थी। क्योंकि थोड़ी देर बाद उन्होंने अपनी नज़रें फेर लीं। उनकी नज़रें हटते ही मैंने कॉर्डलेस पर पड़ोस का नंबर मिलाया। सॉरी नीतू डार्लिंग, तुम्हें फिर से कष्ट दे रही हूँ। पर क्या है कि तुम्हारे जीजाजी आ गए हैं। एक कप चाय बनाकर दे जाओगी तो अच्छा रहेगा।
- मेरे लिए पड़ोसियों को कष्ट देने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने कसैले स्वर में कहा। अब वे दरवाजा छोड़कर सामने कुर्सी पर बैठ गए थे। अगर घर में चाय बनाने में कोई प्रॉब्लम है तो मैं बाहर पी सकता हूँ। वैसे भी मैं यहाँ रुकने वाला नहीं हूँ। सिर्फ देखने चला आया था।
मैं भी उन्हें चाय पिलाने के लिए बहुत व्यग्र नहीं थी। बस चाहती थी कि इस समय हम दोनों के बीच में कोई तीसरा आकर बैठ जाए। मुझे पता था कि जीजाजी का नाम सुनते ही नीतू दौड़ी चली आएगी।
और वही हुआ। पाँच मिनट में नीतू दो कप चाय लेकर हाज़िर हो गई।
- हाय जीजाजी। नीतू ने चहककर स्वागत किया और हुलसकर पूछा - आपको कैसे पता चला? दीदी तो फोन ही नहीं कर रही थीं।
- पता करने वाले पता कर ही लेते हैं। इन्होंने कुटिल मुस्कान के साथ कहा। बेचारी नीतू! इनका मंतव्य समझ नहीं पाई। अपनी ही रौ में बोली- मम्मी यही तो कह रही थीं कि दिल से दिल को राह होती है। फोन करने की क्या जरूरत है।
फिर इन्हें चाय पकड़ाते हुए मुझसे बोली- दीदी! अब आप भी उठकर जरा - सी चाय पी लो। सुबह से बोल - बोलकर दिमाग चकरा गया होगा।
वो मुझे सहारा देकर उठाने लगी और इनके चेहरे का रंग बदलने लगा। मेरी अधलेटी मुद्रा को वे अनादर का प्रदर्शन समझ रहे थे। अब उन्हें कुछ - कुछ समझ में आ रहा था। उठने की प्रक्रिया में जब मेरा शॉल कंधे से खिसक गया तो उनकी प्लास्टर पर नजर पड़ी। अरे! ये हाथ को क्या हो गया?
- गनीमत है कि सिर्फ हाथ ही टूटा है। आप खुशकिस्मत है जीजाजी कि ये सही सलामत बच गई। वरना क्या से क्या हो जाता।
- तुम्हें मैं सही सलामत नजर आ रही हूँ?
- अरे हाथ ही तो टूटा है। सब लोग कह रहे थे कि किस्मतवाली थी जो सड़क के किनारे गिरीं। अगर बीच में गिरती तो सोचो क्या होता?
उस कल्पना मात्र से ही मुझे झुरझुरी हो आई। मैंने नीतू से कहा- थोड़ी हेल्प कर दोगी तो भीतर जाकर थोड़ा लेट लूँगी।
- हाँ, अब आप बिल्कुल आराम करो। कोई आएगा तो जीजाजी निपट लेंगे।
बिस्तर पर लेटते हुए मैंने कहा- बसंती को दो दिन की छुट्टी दे दी थी। अगर किसी के हाथ खबर भिजवा दोगी तो वे आ जाएगी। दो रोटी ही डाल जाएगी।
- बसंती को मैं खबर कर दूँगी। पर आप रोटी की इतनी चिंता क्यों कर रही हैं? हम लोग क्या इतना भी नहीं कर सकते?
- तुम्हीं लोग तो कर रहे हो।
- पड़ोसी और होते किसलिए हैं?
नीतू जब चली गई तो ये कमरे में आकर बोले- इतना सब हो गया तो क्या मुझे फोन नहीं कर सकती थी?
मैंने एक क्षण उनकी ओर देखा और कहा -फोन कर भी देती तो क्या आप विश्वास कर लेते? या इसे भी एक बहाना समझते?
वे चुप हो गए। फिर बड़ी देर तक एक मौन हम दोनों के बीच पसरा रहा। फिर कुछ देर बाद फोन बजा। मेरा कॉर्डलेस बाहर ही छूट गया था इसलिए फोन इन्हें ही उठाना पड़ा। शायद बड़े भैया का था। मेरा हालचाल पूछ रहे थे। मैं जब तक उन्हें सावधान करती वे सब ब्यौरा दे चुके थे। फिर तो मेरी पेशी होनी ही थी।
- ये क्या कर बैठीं तुम? और रात को मुझे बताया क्यों नहीं? मैं उसी समय चला आता।
मुझे मालूम था इसीलिए नहीं बताया। आप आ भी जाते तो सुबह फिर मेहमानों के लिए भागना पड़ता अब आपकी उम्र इतनी भागदौड़ करने की नहीं है। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है। पड़ोसी बहुत अच्छे हैं, और अब तो ये भी आ गए हैं।
- हाँ, अभी फोन पर उनकी आवाज सुनकर थोड़ा संतोष तो हुआ। अच्छा तो हम लोग सुबह आते हैं। टेक केअर।
भैया के फोन के बाद फिर से सन्नाटा छा गया। ये पेपर पढ़ते रहे। मैं सोने की कोशिश करती रही। नीतू दोनों की थालियाँ लेकर आई तभी यह नीरवता भंग हुई।
नीतू बोली- मम्मी तो कह रही थीं जमाई जी को यहीं बुला लो। ठीक से खा लेंगे। पर मैंने कह दिया कि दीदी अकेली बोर हो जाएँगी। वो अच्छी हो जाएँ फिर दोनों को एक साथ बुलाकर खूब खातिरदारी कर लेना।
एक बात और। जाते हुए मैं बाहर से ताला डालकर जा रही हूँ। नहीं तो मोहल्ले भर की आँटी लोग तंग करने आ जाएँगी। रातभर की जागी हो, थोड़ा आराम कर लो।
- खोलोगी कब?
- चार बजे चाय लेकर आऊँगी न!
और सचमुच वह हमें ताले में बंद करके चली गई। वह जब तक रहती है पटर - पटर करती रहती है। घर भरा - भरा लगता है। उसके जाते ही एक निचाट सूनेपन ने घेर लिया। उस असहज एकांत से निजात पाने के लिए मैंने कहा- आप तो आज ही जाने वाले थे न! तो दिन में निकल जाते। रात में ठंड से परेशान हो जाएँगे।
वे एक क्षण मुझे घूरते रहे। फिर बोले - मुझे क्या इतना गया- गुज़रा समझ लिया है कि तुम्हें इस हाल में छोड़कर चला जाऊँगा।
एक तरह से बात यहीं पर एक अच्छे बिंदु पर समाप्त हो जानी थी। पर मेरे मन में तो प्रतिशोध की आग धधक रही थी। वह हुस्नपरी वाला डायलॉग मेरे कलेजे में कील की तरह गड़ा हुआ था। उसी ने मुझे चुप नहीं बैठने दिया। मैंने बड़े नाटकीय अंदाज़ में कहा- मेरी ऐसी हालत है तभी तो कह रही हूँ, रुककर क्या करेंगे।
वे अवाक होकर मुझे देखते रह गए। व्हॉट डू यू मीन?
-कुछ नहीं। एक पुरानी बात याद आ गई। एक बार आए थे और मैं संकोच के मारे मैं क्षणभर को चुप रह गई। उस दिन आप कितना नाराज हुए थे। कहा था कि फोन तो कर देतीं। बेकार में दो ढाई सौ रुपए को चूना लग गया।
उनका चेहरा फक पड़ गया। डूबती सी आवाज में बोले - उस बात को अब तक गाँठ बाँध बैठी हो?
- यही क्यों? और भी बहुत - सी हैं। सारी गाँठे खोलने बैठूँगी तो सुबह से शाम हो जाएगी।
- तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं तुम पर बहुत अत्याचार करता रहा हूँ।
प्रचलित मायनों में जिसे अत्याचार कहते हैं वह तो आप कर नहीं सकते थे क्योंकि मैं उतनी बेचारी नहीं हूँ। आपका तरीका बड़ा सोफिस्टिकेटेड है और एप्रोच बहुत ही प्रेक्टिकल। बहुत आसानी से आप सामने वाले की भावनाओं को अनदेखा कर देते हैं।
- मसलन?
- मसलन, अब कहाँ से शुरू करूँ। चलिए शुरू से करते हैं। याद है जब शादी के बाद पहली बार हम लोग इस घर में आए थे। मेरी सहेलियों ने घर को बहुत कलात्मक ढंग से सजाया था। हमारा स्वागत भी बहुत शानदार हुआ था। हार फूल, संगीत, उपहार, मिठाई और लोग इतने कि पैर रखने को जगह नहीं थी। उसके बाद जब हम अकेले हुए तो आपका प्रश्न था - फ्लैट तो बहुत सुंदर है, कितने का पड़ा?
- क्या मुझे यह पूछने का हक नहीं था?
- जरूर था पर आपकी टाइमिंग गलत हो गई। उस निभृत एकांत की अवहेलना कर आप इंदौर और भोपाल की कीमतों की तुलना करते रहे। बातों - बातों में आपने यह भी पूछ लिया कि मैंने लोन बैंक से उठाया था या जी. पी. एफ .से लिया था? और यह भी कि किश्तें पट गई हैं या कि अभी बाकी है!
- मेरे खयाल से मुझे यह भी पूछने का हक नहीं था।
- हक सौ फीसदी है। पर यह विषय उस दिन के लिए नहीं था। मुझे मालूम है मेरी शादी में मेरी नौकरी, मेरा वेतन, मेरा फ्लैट प्लस पाइंटस थे। पर वे ही अहम मुद्दा होकर रह जाएँगे और मैं गौण हो जाऊँगी यह नहीं सोचा था। अगली बार आप जब आए तो आपने नॉमिनेशन के बारे में पूछा था। मैंने दोनों भाइयों के बेटों को फ्लैट और जीपीएफ के लिए नॉमिनेट किया था। आपने कहा कि अगर नामाँकन बदलना है तो फुर्ती करनी होगी। नहीं तो बाद में बहुत परेशानी होती है।
- इसमें गलत क्या था। सरकारी दफ्तर में काम करता हूँ। रोज देखता हूँ कि लोग बाद में किस तरह परेशान होते हैं।
- मैं भी जानती हूँ। पर महीने भर पहले ब्याही औरत भविष्य के सपने देखती है। उसे वसीयत के बारे में सोचना जरा अच्छा नहीं लगता। बदली हुई परिस्थिति में शायद मैं खुद इस विषय में पहल करती। पर आपकी उतावली देखकर वितृष्णा हो आई। इसके बाद तो शोषण का एक अनवरत सिलसिला शुरू हो गया। मेरे टेलीफोन का बिल दुगुना तिगुना आने लगा। सब लोग छेड़ते कि रात - रात भर मियाँ से बात करती होगी। उन्हें क्या पता कि मियाँ ने घर पर बात करने के लिए एकदम मना किया हुआ है। और दफ्तर में बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता। उन्हें कैसे बताती कि यहाँ आकर श्रीमान को सारे दोस्तों के, भाई भतीजों के जन्मदिन याद आ जाते हैं। सारे रिश्तेदारों की मिजाजपुरसी और मातमपुरसी यहाँ से होती है।
- यह तो शायद तुम्हें भी पता होगा कि लांग डिस्टेंस कॉल्स संडेज को सस्ती पड़ती है। और अक्सर संडेज को मैं यही होता हूँ।
- हाँ, मुझे पता है और मुझे यह भी पता है कि इंदौर का कपड़ा मार्केट बहुत अच्छा है। इसलिए चादरें और परदे यहीं से खरीदना चाहिए। यहाँ के रेडीमेड गारमेंट्स की मंडी भी बहुत मशहूर है इसलिए बच्चों के जन्मदिन के कपड़े यहीं से लेना चाहिए। यहाँ जब तब गरम कपड़ों की सेल लगती है इसलिए अम्माजी के लिए शाल और स्वेटर यहीं से जाएगा। इसके अलावा और भी फर्माइशी चीजे हैं। जैसे फरियाली सामान, नमकीन, राहुल के लिए कैमरा, एटलस, रीना के लिए बार्बी का सेट, कलर बॉक्स वगैरह, और मुझे यह भी मालूम है कि आपने घर पर यह कभी नहीं जताया होगा कि ये फर्माइश कौन पूरी कर रहा है।
- देखो ज़्यादा एहसान जताने की जरूरत नहीं है। हिसाब लगाकर रखना, अगली बार आऊँगा तो सब चुकता कर जाऊँगा।
- हिसाब करने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह सब मैंने अपने घर के लिए, अपने बच्चों के लिए किया था। जिस तरह शादी के बाद यह घर आपका हो गया। मैंने सोचा कि वह घर भी अब मेरा ही है। इसलिए एहसान की कोई बात नहीं है। बात अधिकार की है। राहुल को जन्मदिन पर डांस करना था। आप यहाँ का म्यूज़िक सिस्टम ले गए। बच्चों को गर्मियों में पिर्ख्स देखनी थीं। आप यहाँ से वीसीडी प्लेयर ले गए। बार - बार बिजली गुल होने से बच्चों की पढ़ाई हर्ज़ होती है इसलिए मेरा इमर्जेंसी लैंप भी भोपाल पहुँच गया। मैं शिकायत नहीं कर रही हूँ। आपको अधिकार था और आपने उसका उपयोग किया। पर यह तो वन - वे ट्रैफिक हो गया। मुझे तो कोई अधिकार मिला ही नहीं। मेरा तो सिर्फ क्सप्लायटेशन किया गया।
- वाह।
- सुनने में बुरा लगता है न? शोषण कहूँगी तो और भी बुरा लगेगा। पर मेरे साथ यही हो रहा था और वह मेरी समझ में भी आ रहा था। पर मैंने मन को बहला लिया था कि मैं घर की किश्तें चुका रही हूँ। घर, जिसकी मुझे अरसे से तलाश थी। घर जो रिश्तों की मजबूत जमीन पर खड़ा हो, घर जो आपसी सामंजस्य और सद्भाव के सहारे टिका हो। पर वह घर तो मुझे मिला नहीं। आपने दिया ही नहीं।
- देखो, तुम्हारी तरह मैं साहित्यिक भाषा तो बोल नहीं सकता। लेकिन...
- आप खूब बोल सकते हैं। आपका हुस्नपरी वाला जुमला तो अब तक मेरे कलेजे में गड़ा हुआ है। कल रातभर मैं दर्द के मारे सो नहीं पाई थी। पर यह दर्द उस दर्द के मुक¸ाबले कुछ नहीं था जो उस रात आपने मुझे दिया। ये घाव तो कल को भर भी जाएँगे पर यह घाव ताउम्र हरा रहेगा। और आज तो आपने कमाल ही कर दिया?
- आज? आज मैंने क्या किया? वे हैरान थे। आज आप सिर्फ मेरे सच को परखने यहाँ चले आए। मान लो मैं चली ही गई होती तो। तो आपकी क्या इज़्ज़त रह जाती? या मेरी ही क्या इमेज बनती? आपकी तो यह दूसरी शादी है। इतना तो आप भी समझते होंगे कि दांपत्य का आधार होता है विश्वास। और मिस्टर कश्यप, आपने उसे ही नकार दिया। फिर शेष क्या रहा?
तभी दरवाजा खड़का। नीतू शायद चाय लेकर आई थी। हम दोनों अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप बैठ गए। वैसे भी बोल - बोल कर मैं इतना थक गई थी कि कुछ देर आँख बंद करके लेटने को जी चाह रहा था। और चाय पीकर मैं सचमुच लेट गई। नीतू बोली- जीजा जी! शाम को क्या खाना पसंद करेंगे बताइए।
व्यंग्यपूर्ण मुस्कुराहट के साथ वे बोले- मैं गरीब क्या बताऊँगा, अपनी दीदी से पूछो। गेस्ट ऑफ ऑनर तो वो हैं और इतना कहकर वे बाथरूम में घुस गए। नीतू थोड़ी देर बैठी बतियाती रही पर मेरी ओर से कोई प्रोत्साहन न पाकर चुपचाप उठकर चली गई।
वे फ्रेश होकर आए और बालों में कंघी फेरते हुए बोले- अच्छा मैं निकल रहा हूँ।
मैंने प्रश्नार्थक नजरों से उनकी ओर देखा।
- रतलाम वालों के आने तक रुकने का इरादा था। पर देखता हूँ उसकी कोई खास जरूरत नहीं है। तुम्हारे अड़ोसी - पड़ोसी बहुत अच्छे हैं। खूब अच्छी सेवा टहल कर रहे हैं। मेरी वजह से बल्कि असुविधा ही हो रही है। और हाँ, तुम्हारी सारी चीज़ें अगली बार ले आऊँगा। अगर आया तो वरना किसी के हाथ भिजवा दूँगा।
मैंने उठने का उपक्रम किया तो बोले - लेटी रहो। मेरे लिए फॉर्मेलिटीज़ करने की जरूरत नहीं है। वैसे भी आदर मान बहुत हो चुका है।
- सी ऑफ  करने के लिए न सही, दरवाजा बंद करने के लिए तो उठना होगा।
मैं लड़खड़ाते हुए उठ खड़ी हुई। लंगड़ाते हुए जब तक दरवाजे पर पहुँची, ये दो मंजिल उतरकर बिल्डिंग के गेट तक पहुँच चुके थे। खिड़की से मैं उन्हें जाते हुए देखती रही।
फिर मैंने बहुत मुश्किल से दरवाजा बंद किया। इतने से श्रम से भी मैं हांफ गई थी। देर तक बंद दरवाजे के सामने वहीं खड़ी रही जहाँ से मैंने उन्हें जाते हुए देखा था। मुझे लगा, वे मेरे घर से ही नहीं जीवन से भी चले गए हैं।
अलविदा मि. कश्यप मैंने कहा। आज से मेरे घर और मेरे मन के दरवाजे आपके लिए बंद हो चुके हैं। घर का दरवाजा तो शायद कभी मजबूरी में खोलना भी पड़ेगा क्योंकि इस शादी को इतना आसानी से मैं नकार नहीं सकती। इसके लिए मेरे भाइयों ने बहुत सारा श्रम और पैसा खर्च किया है, इसलिए इस शादी को तो मुझे ढोना ही पड़ेगा। पर मेरे मन का दरवाजा अब आपके लिए कभी नहीं खुलेगा,कभी नहीं।

स्‍पंदन

प्रतिभ्‍ाा
फूलो जैसे अहिल्या हो गई थी। सोसायटी के बाहर शीशम के पेड़ के नीचे युगों से बैठी शिला, फूलो। जाने कितने कालखण्ड बीत गए, जाने और कितने बीतेंगे। यूँ प्रतीक्षारत, अनगिनत कदमों की थाप कानों को भेद कर अन्तस तक पहुँचती पर फूलो जैसे ही पलटकर देखती सूनी राहें ही दृष्टि के अन्तिम छोर तक नजर आतीं ... वीरान ... सुनसान ... किसी अज्ञात टापू पर मचलती नई नवेली साँझ की तरह। भीतर की स्थिरता जवाब दे रही थी। पल - पल खिन्नता के बोरे ढोता मन अब थक चुका था। किसी भी कोण से जीवन की इस विद्रूपता के लिए वह अपने को जिम्मेवार नहीं पाती थी। जीवन के इस खुरदरेपन ने उसके तन, मन, आत्मा सब छील कर रख दिए थे और हर पल रिसता बेबसी का मवाद वह न देख पाती थीए न सह पाती थी।
फूलो को इंतजार था राम का। जो उसे जीवन के इस श्राप से मुक्त कराएगा। राम शिला को स्पर्श भर करेंगे और वह नारी शरीर में परिवर्तित हो जाएगी। उसका जीवन ही बदल जाएगा। जीवन की असारता समाप्त हो जाएगी। वह खुली हवा में साँस ले पाएगी। अपनी जिन्दगी को जिन्दगी कह पाएगी, कोई निकास होगा घुटन का, भेद पाएगी उलझनों को, लड़ पाएगी बदकिस्मती से, विरोध कर पाएगी शोषण का, जूझ पाएगी अपने भीतर से, कुछ कर पाएगी अपने बच्चों के लिए, मोनी के लिए, शिक्षित कर पाएगी मोनी को। पर इंतजार था कि खत्म ही नहीं होता था। आँखें पथरा गई थीं पर राम न आए थे। जाने कितने युग लगाएँगे। फूलो के लिए तो एक - एक पल, एक - एक युग जैसा था।
मोनी की बढ़ती उम्र उसके लिए सतत प्रवहमान चिन्ता की एक नदी थी जिसमें वह डूबती उतरती जा रही थी। कहीं कोई सम्बल नहीं था। कोई सूत्र, कोई सिरा फूलो के हाथ नहीं लगता था। उसके हाथ पानी में छप - छप करके रह जाते थे पर वह उबर नहीं पाती थी।
सन्न सी बैठी थी फूलो। एकदम निढाल, बेदम। दोनों घुटनों के बीच अपना औंधा सिर फंसाए। बार - बार एक ही विचार उठता - तिवारी जीत गया तो? और असहायता का एक असहनीय कम्पन पूरे वेग से सारे रक्त में मिल जाता। वह जबरन उस विचार को निकालती। बार - बार अपने मन को कहती - शुभ - शुभ बोल, शुभ - शुभ सोच? पर विचार तो उस रबड़ की तरह होता है जिसे जितने वेग से खींचा जाए उतने ही वेग से वह वापिस लौट आता है। परन्तु...
काँप उठी थी इस विचार से कि यदि राम नहीं आए और तिवारी आ गया तो ...। भीतर की असुरक्षा और भय ने अपने पैने दाँतों को उसके सीने के भीतर गढ़ा दिया था वह चारों खाने चित्त थी। डर के इस क्रन्दन के साथ चस्पा था तो बर्तन और झाड़ू पोछा करती मोनी का चेहरा। बिखरे सूखे बाल, मैली- कुचैली साड़ी, बेमेल कपड़े, मायूस आँखें, पिचके गाल, खुशी को शर्मिन्दा करता बेरौनक चेहरा जैसे मोनी के चेहरे में आकर सिमट गए थे। फूलो जैसी मौनी। बस यही उसे स्वीकार्य नहीं था। किसी भी कीमत पर नहीं। अपनी तरह नहीं होने देगी मोनी को। अपनी भाग्यरेखा के समानान्तर मोनी की हूबहू भाग्यरेखा को आगे नहीं बढ़ने देगी।
मोनी जरूर पढ़ेगी। उम्र थोड़ी बड़ी हो गई तो क्या। फिर एकाएक विचार आया कि यदि मोनी को स्कूल भेजना है तो राम को भी आना पड़ेगा। वह और शिला नहीं बनी रह सकती। अब युग बदल गया है। इस युग में इतना इंतजार नहीं हो सकता। समय बदल गया है। समय की माँग और चाल भी बदल गई है। समय की जरूरतें और मान्यताएँ भी बदल गई हैं। मान्यताओं का स्वरूप भी बदल गया है। राम को अब जल्दी आना होगा।
फूलो ने सुबह घर से निकलते ही सोच लिया था कि आज जल्दी - जल्दी सब घरों का काम निबटा देगी। किसी का कोई फालतू काम नहीं करेगी। किसी के साथ कोई गप्पबाजी नहीं। काम निबटाकर बस गार्ड के कमरे के पास बने फर्श पर बैठी रहेगी। वही एक जगह थी जहाँ से सारी सोसायटी की गतिविधियाँ नजर आती थीं।
दस बजे सोसायटी के चुनाव शुरू होंगे। बार - बार मन दादा -देव मन्दिर पहुँच रहा था। बार - बार बस एक ही प्रार्थना, भीतर मन की आँख बंद हो जाती और मन के हाथ जुड़ जाते। दादा देव, तिवारी को हराना, वह जीता तो मोनी अनपढ़ रह जाएगी। गुड़ की भेली चढ़ाऊँगी। प्रार्थना जरूर सुनना, दादा देव।
उस हरामी, नरपिशाच के घर सबसे ज्यादा टाइम लगता और एक पैसा न देता। जब पैसा माँगू, हर बार बोलता - सोसायटी के प्रैज़ीडेंट के घर में काम करती है तू। तेरे लिए अभिमान की बात है।
गरीब क्या अभिमान करेगा साब? गरीब को रोटी खानी है। अभिमान से पेट नहीं भरता। मोनी को स्कूल भेजना है। अभिमान से स्कूल की फीस न दी जाती।
-ज्यादा ना बोल।
- बिना पैसे तो मैं काम ना करूँगी। मोनी की फीस के पैसे तो चाहिए। कापी, किताब का भी खर्चा होता है। बड़े साहस के साथ कह दिया था फूलो ने।
- काम छोड़ेगी तो तेरी एंट्री बंद हो जाएगी सोसायटी में। फिर तुझे सारे घर छोड़ने पड़ेंगे। फिर बाकी बच्चे भी नहीं पढ़ पाएंगे।
हरामी धमकी दे के चला गया था और तभी से फूलो शिला बन गई थी। आदमी कोई काम करता होता तो तभी छोड़ देती सोसायटी, किसी और जगह काम कर लेती पर उसकी बीमारी का खर्चा, बच्चों की पढ़ाई, राशन कहाँ से होगा। मन मसोस कर रह जाती फूलो। जीवन के रास्ते में पड़े इन बड़े - बड़े पत्थरों को कैसे हिलाए। कोई विकल्प नहीं सूझता फूलो को। उसे समझ नहीं आता ऐसी दुरूह स्थितियाँ उसके जीवन में ही क्यों। गीता के दोनों बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते। खोजने पर भी कोई उत्तर नहीं मिलता। खीझ उठती फूलो और फिर खीझ मिटाने को काम में लग जाती।
मोनी घर का काम करे और फूलो सोसायटी का। रात में घर पहुँचते ही सब्जी लेने जाए। इतना सा भी सुख ना है आदमी का। उसे अगर फूलो कह दे बाजार से सब्जी ले आ मैं पैसे दे रही तो फौरन मर्दानगी की गठरी लाद ले सिर पर। औरत की कमाई की शराब पीने से मर्दानगी पे कोई आँच न आए, औरत के कहने से सब्जी बाजार से लाने में मर्दानगी कम हो जाए। फूलो को लगता कैसी दलदल है। वह जितना निकलने का प्रयास करती उतना ही भीतर धँसती। उसे लगता वह उस पेड़ की डाल है जिसकी जड़ ही कमजोर है इसलिए सब डालियाँ भी कमजोर हैं। जड़ को मजबूत बनाने का कोई साधन भी नहीं है। हवा का हर झोंका उस पेड़ को मिट्टी में मिलाने को तैयार बैठा रहे।
दोपहर तक सब काम निबटाकर फूलो खाली हो गई। आज शाम के बर्तन नहीं करेगी। बोल आई थी सब मैडमों को। बस अब इंतजार था तो अपनी किस्मत बदलने का। शिला से नारी बनने का, राम के आने का, क्रन्दन के करवट लेने का। फूलो को विश्वास होने लगा था कि इस बार दादा देव उसकी जरूर सुनेंगे। फूलो के साथ पत्थर थोड़े ही हो जाएंगे। वो तो सब देखते हैं। पल भर को एक ऐसी दुनिया रच ली फूलो ने दादा देव की मदद से जिसमें तिवारी हार चुका था। मोनी की खिलखिलाहट से सारा आकाश गूँज उठा था और फूलो का मन चैन पा गया था। फूलो के भीतर की माँ को शान्ति पड़ गई थी।
अगर ये हरामी हार गया तो आज ही उसका घर छोड़ देगी फूलो। फिर एक हजार रूपया बढ़ जाएगा। मोनी का खर्चा बड़े आराम से निकल जाएगा। पढ़ लिख जाएगी तो आदमी भी ढंग का मिलेगा और जिन्दगी भी इज्जत से कटेगी। कोई सपना नहीं देख रही थी फूलो,बस जीने के रास्ते तलाश रही थी। संकरी बंद गुफाओं में चलने की कोशिश कर रही थी और रास्ते में आए कंकड़ों पत्थरों को किनारे लगाने का साहस बटोर रही थी।
फूलो गार्ड के कमरे के पास खड़ी हो गई। थोड़ी देर खड़ी रही फिर वहीं फर्श पर बैठ गई।
- यहाँ क्यों खड़ी है फूलो? मूछड़ गार्ड बोला।
- ऐसे ही खड़ी।
फूलो जानती थी मूछड़ पढ़ा लिखा भी है और रौब वाला भी है। सारे गार्डों पर उसका कंट्रोल है। तिवारी का मुँहलगा भी है। फूलो के दिमाग में आया उससे ही पूछे कौन जीतेगा। पर वह तो तिवारी का आदमी है। चुप रह गई फूलो। घुटनों पर बाजू चढ़ा के बैठ गई। क्या देखती, काम हो गया तो जा। मूछड़ फिर बोला।
- अभी रहता, मैडम ने आध घंटे में आने को बोला। फूलो ने झूठ ही बोला। सारी सोसायटी में गहमागहमी बढ़ गई थी। गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ थीं। बहुत लोग बाहर से आ रहे थे।
- कौन जीतेगा? एक और गार्ड से फूलो ने धीरे से पूछा।
- पता नहीं कौन जीतेगा। अभी तो वोट ही डल रहे। शाम के चार बजे तक तो वोट ही डलेंगे। फिर गिनती शुरू होगी।
- अभी कितना बजा है? फूलो बेताब थी।
- अभी तो दो ही बजा।
- अभी तो दो घंटा बचा है।
फूलो बैठी रही। दो तीन काम वाली और बैठ गई उसके पास।
- ऐ जाओ यहां से। मूछड़ को जाने क्या तकलीफ थी।
- काहे, तेरे बाप की जमीन है। साथ बैठी गीता चुपचाप नहीं सुनने वाली।
- तेरे बाप की है क्या? मूछड़ उखड़ कर बोला।
- तेरे बाप की भी तो ना है। गीता मुँह बना कर बोली। तभी फोन बजने लगा। मूछड़ उसमें लग गया। थोड़ी देर बैठ के गीता, श्यामा दोनों चली गई।
फूलो अकेली रह गई। वह खुद ही उठ गई वहाँ से। मूछड़ फिर कुछ बोले उससे तो अच्छा है। फूलो का रोम - रोम जैसे कराह रहा था। हर पल अपने ही कराहने की आवाज सुनाई पड़ती फूलो को। सोते - जागते, उठते - बैठते। बदन की टीस पे तो मलहम भी लगे पर मन की टीस, रोम - रोम की कराह, उसका क्या करे फूलो? क्या उपाय करे?
फूलो सोसायटी के बाहर शीशम के घने पेड़ के नीचे बैठ गई।
शोर मचा था सोसायटी में। फूलो की तंद्रा टूटी। जिज्ञासा और बढ़ गई थी। क्या हुआ, कौन जीता?
वह बाहर से सोसायटी में भागी आई थी।
कुछ लोग खुशी से नाच रहे थे।
फूलो को कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसका शोषित मन बदलाव चाहता था। शाम बीत रही थी अभी कुछ भी पता नहीं चला था। आज वह दिन में घर भी नहीं गई। एक दाना पेट में नहीं गया। फूलो सोसायटी के गेट पर ही बाहर की ओर कोने में खड़ी हो गई। वहाँ से चुनाव वाला पांडाल साफ  नजर आ रहा था। आज तो धीरज धरना भी मुश्किल हो रहा था फूलो को। लोग फिर खुशी से नाचने लगे।
यह तो 507 वाले साहब हैं। ये तो तिवारी के घर में ही बैठे रहते हैं। ये जीत गए हैं। फूलो का मन बैठने लगा था। मन फिर भाग कर दादा देव की शरण में था। मन की आँख बंद थी और मन के हाथ जुड़े थे। हे दादा देव, अबकी तिवारी को हराना, बस अबकी बार। गुड़ की भेली चढ़ाऊँगी। कहीं ...फूलो डर गई थी। भीतर तक काँप गई थी। लोग फिर खुशी से नाचने लगे।
407 वाले साहब जीते थे। ये भी तिवारी के साथ सारा दिन घूमते हैं।
फूलो की टाँगे कांपने लगी थीं। वह वहीं बैठ गई। गेट की छड़ों को पकड़े फूलो ऐसे लग रहा था जैसे किसी जेल की सलाखों के पीछे हो और झांक रही हो बाहर। सच, जेल में ही तो थी। तिवारी की जेल में। तभी सब लोग खुशी से नाच उठे। तिवारी जीत गया। वह नर पिशाच फिर जीत गया। फूलो धम्म से वहीं बैठ गई। उससे न हिलते बनता था न चलते। साँस जहाँ थी वहीं थम गई न ऊपर गई न नीचे। आस का टूटना कितना रीता कर देता है कोई फूलो से पूछे।
वह रो पड़ी थी। कैसी किस्मत पाई फूलो। राम नहीं आए। वह शिला की शिला रह गई। झाड़ू पोछा करती मोनी, बिखरे बालों के साथ सामने थी। फूलो की सांस तो जैसे रुकने को थी। दादा देव भी पत्थर हो गए। फूलो अभिशप्त थी शिला होने को पर दादा देव वे क्यों पत्थर हो गए।
रात हो गई थी।
जीवन में भी अंधकार छा गया।
आज घर नहीं आना। वह घबरा का मुड़ी तो पीछे आदमी खड़ा था। अंधेरे का फायदा उठा कर फूलो ने आँसू छिपा लिए थे।
वह खामोश थी।
बस धीरे - धीरे चल पड़ी थी घर की ओर।
इतना खाली, खोखला, उसने कभी जीवन में अनुभव नहीं किया था। सत्त बचा ही नहीं था भीतर। सत्त नहीं तो कुछ नहीं। ज्यों आत्मा हो शरीर के लिए।
कुरूक्षेत्र में उसकी हार हुई थी। यह कलयुग का कुरूक्षेत्र है। यहां असत्य की ही जीत होती है। जब तक कुरूक्षेत्र में कृष्ण न हों असत्य ही जीतेगा। पर कहाँ से लाए फूलो कृष्ण को, कहाँ ढूँढे कृष्ण को।
घर पहुँची तो बस अधमरी सी थी। तबीयत तो ठीक है? आदमी पूछ रहा था। फूलो ने बस हाँ में गर्दन हिला दी।
मोनी रोटी सब्जी ले आई।
- तुम खा लो, मुझे नहीं खाना।
- माँ, सुबह से नहीं खाया। मोनी रुआंसी हो उठी थी। उसका मन रखने को फूलो ने एक रोटी खा ली थी। रोटी खाकर वह आँख बंद किए लेट गई।
उसे नींद नहीं आ रही थी।
सब सो गए थे। फूलो बहुत थकी थी। पलभर को झपकी आती फिर नींद खुल जाती। उम्मीद का टूटना हर इंसान के लिए कष्टकर होता है। फिर चाहे कोई अमीर हो चाहे गरीब,चाहे राजा हो चाहे नौकर।
आखिर फूलो उठ खड़ी हुई। उसने बिस्तर छोड़ दिया। ऐसी बेचैन रात उसने जिन्दगी में नहीं बिताई। इतनी हलचल तो भीतर कभी नहीं मची, न ऐसी उठापटक कभी हुई। जाने भीतर क्या था? भूकम्प था या ज्वालामुखी, तूफान था या सुनामी। कुछ समझ न आया फूलो को। बस इतना ही समझ पाई कि भीतर सब अस्त - व्यस्त हो गया है। जिन पत्थरों को हटाकर रास्ता साफ  करने की कोशिश फूलो ने की थी वे सब के सब फिर रास्ते पर थे।
कमरे से बाहर आ गई। बाहर की हल्की ठंडक भी कुछ सामान्य न कर पाई।
रात का सन्नाटा था या सुबह की एकान्तता, कुछ पता नहीं चल रहा था फूलो को। आसमान में देखा तो समझ नहीं पाई कि कितनी रात बीत गई कितनी अभी बाकी है। या जाने भीतर बोध की ताकत ही नहीं रही थी या फिर बोध की ताकत बिखर रही थी लेकिन फूलो बड़ी शिद्दत से यह महसूस कर रही थी कि ऐसा जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था।
थोड़ा डर भी लगा पर वापिस कमरे में नहीं घुसी। कमरे के बाहर ही कोने में पल भर बैठी रही। मकान मालिक के बेटे के कमरे की बत्ती जल रही थी। वह लड़का बड़ा होशियार है पढ़ाई में। सवेरे जल्दी उठ कर पढ़ता रहता है। थोड़ा उजाला होने लगा था। उसने चूल्हा सुलगा लिया और दाल चढ़ा दी। जितने दाल बनेगी वह चावल चुनके भिगो देगी। भीगा चावल अच्छा भी बनता, जल्दी भी बनता, लकड़ी भी बचाता। फूलो को अपनी मैडमों की रसोई याद आ गई। सबके पास चार चूल्हों वाली गैस है। दाल, सब्जी, चावल, रोटी सब एक साथ बन जाता है। पर ...।
उसी समय वह तिवारी जाने कहाँ से अवतरित हो गया। फूलो का मन हुआ इसी चूल्हे में उसे उठा के झोंक दे। हरामी, सारा काम फ्री में करवाता है। कमीना सोसायटी का प्रैजीडेंट है तो क्या हुआ? गरीब का पैसा मार के क्या करोड़पति बन जाएगा। काम करने को मना करो तो कहता है सोसायटी में घुसने नहीं देगा। फूलो मन ही मन बुड़बुड़ाने लगी।
कैसे चलाएगी घर? कैसे पालेगी बच्चों को? कैसे कमरे का किराया देगी? बच्चों की पढ़ाई के खर्चे और फूलो घिर जाती इतने सारे सवालों में।
कुढ़ जाती फूलो। फूलो को लगता वह एकाएक वह बाँझ पेड़ बन गई है जिस पर फल और फूल आएँगे ही नहीं। आदमी भी तो किसी काम का नहीं। हारा हुआ आलसी आदमी क्या हराएगा गरीबी को। बिल्कुल आज के जमाने का आदमी नहीं। कितना समझाया था दो बच्चे ही करेंगे। सब मैडमों के एक या दो बच्चे ही हैं पर नहीं हर साल बच्चा चाहिए, भरा पूरा परिवार चाहिए, बच्चे तो भगवान की देन है। कितना समझाया था भरा - पूरा परिवार भूखा और अनपढ़ हो तो क्या फायदा? पर नहीं। भगवान ने भी इसी गंवार का साथ दिया।
हर बार गर्भ ठहरता तो वह सब कुछ करती जो इन नौ महीने में नहीं करना चाहिए। कितना पपीता खाती थी बजट गड़बड़ा गया था पर पपीता खाना नहीं छोड़ा। तेज - तेज चलती, एक घर और पकड़ लेती, खूब सीढ़ी चढ़ती। हर बार चाहती कि गर्भ अपने आप गिर जाए पर ऐसा कभी नहीं हुआ। पाँच बच्चों के बाद जब बिना पूछे आपरेशन करा लिया तो भी इतना पीटा था फूलो को कि चार दिन चारपाई पर ही पड़ी रही थी।
कुढ़ जाती फूलो। पर ...।
फूलो को बड़ा अच्छा लगता जब सोसायटी की मैडमों के आदमी अपनी बीबियों की बात सुनते भी और मानते थी। फोकट में मर्दानगी की टोकरी उठा के नहीं घूमते।
असली घर तो वही होता जहाँ दोनों मिल के गृहस्थी की गाड़ी खींचें। पर ... दाल के जलने की बास सब ओर आने लगी थी। उसने फटाफट हांडी उतार दी और कढ़ाई चढ़ा दी। रसोई का सब काम निबटाकर, नहा धोकर अब वह पूरी तरह तैयार थी। उसका युद्धक्षेत्र और कर्मक्षेत्र उसे बुला रहा था। उसने खुद ही अपना तिलक किया था। खुद ही भीतर से अपने लिए आशीर्वाद और दुआएँ जुटाई थीं। खुद ही अपने आपको साहस और आत्मबल के हथियारों से लैस किया था।
आदतन वह बढ़ चली दादा देव मन्दिर की ओर। मन्दिर की ओर बढ़ते हुए भी भीतर कहीं गहरा द्वन्द्व था। कितनी तकलीफें झेलीं फूलो ने। कभी दादा देव ने समाधान नहीं निकाला तो फिर आज ...।
रुक गए थे उसके कदम। मुड़ गई थी फूलो। और अकेली हो गई थी फूलो। निराशा एक पुंज बन कर उसके वजूद पर छाने लगी थी।
कैसी विडम्बना है, आदमी कुरूक्षेत्र में उतरे तो औरत उसके लिए दुआ करे, उसे विजयी होने की शक्ति भेजे और अगर औरत उतरे तो निपट अकेली। वह सड़क पर चल रही थी पर भीतर कुछ रुंदता चला जा रहा था। चल रही थी या भीतर जीवन की दिशा बदलने की कोशिश कर रही थी,यह कोई नहीं जानता या शायद अपने ही कदमों की शक्ति की थाह ले रही थी। उनके बल को नाप रही थी। भीतर के शून्य की आवाजों को पकड़ रही थी। इन्हीं आवाजों में उसे कृष्ण का स्वर सुनाई पड़ रहा था। आज कृष्ण का उपदेश अर्जुन के लिए नहीं फूलो के लिए था।
फूलो के कदम ठिठक गए थे।
कुरूक्षेत्र सामने था।
सोसायटी का गेट खुला था।
कदम जरूर ठिठके थे फूलो के। पर फूलो ने तो मन के द्वार बन्द कर लिए थे। उसे तो बस मोनी के कन्धे पर बस्ता देखना था। सोसायटी के गेट के भीतर कदम रखने का मतलब था वो बादल बनना जिसमें पानी न हो जो धरती को गीला भी न कर सके। धरती के सूखे होंठों पर एक बूँद पानी भी न धर सके। परन्तु फूलो को वो बादल बनना था जो धरती को नहला सके, पानी में उसको डूबो सके। उसकी फसलों को हँसता हुआ देख सके, उसकी हरी घास को शबनम दे सके।
- का होई, आज सोसायटी नहीं आ रही का। तिवारी जी का फोन आइ रहा। सबसे पहले उनके घर जाए बड़े मेहमान आए हैं उनके घर। मूछड़ गार्ड गेट पर से ही बोल रहा था। जबकि फूलो अभी सड़क पर ही थी सोसायटी की ओर मुड़ी भी नहीं थी।
पर फूलो ने तो आज अपने जीवन का नया इतिहास रचना था।
- मेहनत करने वालों के दो हाथ कुछ भी कर सकते हैं? एक मैडम के घर टी0वी0 पर सुना था। बस इन्हीं शब्दों को फूलो ने अपना मूलमंत्र बना लिया था। इन्हीं शब्दों का बल उसके हाथों में आकर दुबक गया था। एकाएक उसे अपने हाथ बड़े ताकतवर लगने लगे थे। इतने ताकतवर कि मोनी के कन्धे पर बस्ता लटका सकें। उसे लगा कृष्ण ने हवाओं के जरिए संदेश भेजा है ... फूलो को छू कर जाती हवा उसे सबल बना रही थी।
फूलो अन्दर आई थी पर तिवारी के घर जाने के लिए नहीं। बाकी मैडमों को बताने कि अब वह काम पर नहीं आएगी।
- दो सौ इक्कीस वाली मैडम को फोन मिलाय दो।
- काहे, पहले तिवारी जी के घर जा। मूछड़ बोला।
- तिवारी के घर न जाई और किसी और के घर भी मुफ्त में काम न करी।
मूछड़ मुँह बाए देखता रहा।
- बस दो सौ इक्कीस वाली मैडम को बताय रही फोन मिला जल्दी। जाने कहां से भीतर आत्मविश्वास जाग उठा था।
दूसरे गार्ड ने फोन मिला दिया था।
- मैडम, फूलो बोल रही हूँ, आज से काम नहीं करूँगी। किसी और को लगा लो।
- क्यों, क्या हुआ? क्यों नहीं करेगी काम? पैसों का मामला है तो पैसे बढ़ा ले।
- नहीं मैडम जी, वो तिवारी सारा काम कराता पर पैसे ना देता। काम छोड़ने की बात करो तो कहता सोसायटी में एंट्री न होगी। मैडम जी मैं फ्री में काम न करी।
- तिवारी कौन होता है तेरी एंट्री बंद करने वाला। तू सीधी मेरे घर आ मैं तिवारी को ठीक करती हूँ। सोसायटी का प्रैसिडेंट ही तो बना है कोई देश का प्रैसिडेंट नहीं बना।
मैडम गुस्से में चिल्लाई थी। उनको ऑफिस जाने में देर हो रही थी। फूलो मैडम के घर की ओर बढ़ चली थी।
मूछड़ आँखें फाड़े देख रहा था।
मूछड़ फूलो - फूलो पुकार रहा था पर फूलो तो अपने हाथों की ताकत को अपने दिलो दिमाग में बसा चुकी थी।
फूलो सोच रही थी बराबर की सोसायटी में दीनू गार्ड है। वह फूलो के ही गाँव का है और नेक आदमी है। फूलो साथ की सोसायटी में भी घर पकड़ लेगी। जितना टेम तिवारी के घर लगता था उतने टेम में दो घर निपटा देगी फूलो।
फिर मोनी को भी स्कूल भेज पाएगी। उसकी ट्यूशन भी लगा देगी ताकि पिछली पढ़ाई भी पूरी हो सके।
भीतर दादा देव का धन्यवाद करते - करते रुक गई थी फूलो। एक कम्पन, एक स्पन्दन से शिला भर उठी थी और नारी रूप हो गई थी। फूलो ने धन्यवाद किया था उन हवाओं का जो भीतर शक्ति बन कर आ विराजी थीं। फूलो पत्थर से औरत बन गई थी। जीती जागती औरत साँस लेने वाली औरत।

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नई दिल्ली110075

छत्तीसगढ़ : सृजनशीलता के विविध आयाम

डॉ गोरेलाल चंदेल

छत्तीसगढ़ अपनी विरासतों के लिए देश-विदेश में जाना जाता है। ये विरासत लोकजीवन और लोकसंस्कृति की तो है ही साथ ही साहित्य सृजन की भी लंबी परंपरा इस अंचल की है। राष्ट्रीय साहित्यिक परिदृश्य और विभिन्न कालों की वैचारिकता, चिंतन की मूलधारा तथा सामाजिक चेतना का प्रभाव इस अंचल के साहित्यकारों में दिखाई देता है। इस अचल के रचनाकार अपनी रचनाधर्मिता के प्रति न केवल ईमानदार रहे हैं वरन् सामाजिक चेतना की गहराई तथा संवेदनात्मक दृष्टि से समाज तथा सामाजिक जीवन की बारीकियों को पकड़ने में भी सक्षम दिखाई देते हैं। यही वजह है कि छत्तीसगढ अंचल के रचनाकारों को हिन्दी साहित्य के रचनाकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करनें में कोई संकोच नहीं होता।
1634 से छत्तीसगढ क्षेत्र में हिन्दी साहित्य के सृजन का इतिहास मिलता है। इसके पूर्व संस्कृत साहित्य की पुष्ट परंपरा इस क्षेत्र में रही है। कई शिलालेख एवं ताम्रपत्रों में संस्कृत साहित्य की विरासत आज भी मौजूद है। 1634 में रतनपुर के ख्यातिनाम कवि गोपाल चन्द्र मिश्र की खूब तमाशा, जैमिनी अश्वमेघ, भक्ति चिंतामणि, सुदामा चरित और राम प्रताप जैसी कृति सामने आती है। इस युग की रवनाओं में हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन कवियों का स्पष्ट प्रभाव दिखई देता है। 1650 से 1850 तक भक्त कवियों की एक लंबी परंपरा इस अंचल में दिखाई देती है। 1650 से 1850 के काल को छत्तीसगढ के कवियों का आरंभ काल माना जा सकता है। इस काल के प्रमुख कवियों में गोपाल चन्द्र मिश्र, माखनचन्द्र मिश्र, रेवाराम बाबू, उमराव बख्शी और रघुवर दयाल को माना जा सकता है। इन कवियों ने साहित्य की तत्कालीन मूलधारा के अनुरूप भक्ति को केन्दि्रय शक्ति के रूप में निरूपित करते हुए कविताएँ लिखी। इस काल के कवियों ने भक्ति के माध्यम से सामन्तवादी व्यवस्था की प्रताड़ना से हताश और निराश जनमानस में एक नई चेतना और नई ऊर्जा पैदाकर नवजागरण का शंखनाद किया।
1850 से 1915 तक का काल छत्तीसगढ के काव्य साहित्य में मध्ययुग के नाम से जाना जा सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन से उसकी संगति भले ही न बैठ पाए किन्तु काव्य की अवधारण और विषयवस्तु की दृष्टि से इस काल में उसी तरह की कविताएँ लिखी गईं जिस तरह की कविताएँ हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल में लिखी र्गइं। इसकी शुरूआत आरंभकाल के कवि माखनचन्द्र मिश्र से हो चुकी थी। उन्होंने ’छंद विलास’ नामक ग्रंथ लिखकर ’लक्षण ग्रंथ’ की रचना का श्रीगणेश किया था। रघुवर दयाल ने ’छंद रत्नमाला’, उमराव बख्शी ने ’अलंकार माला’, खेमकरण ने ’सुभात विलास’ और भानु कवि ने ’छंद प्रभाकर’ की रचना कर हिन्दी साहित्य के लक्षण ग्रंथों की वृद्धि में अपना योगदान दिया। मध्यकाल के प्रमुख कवियों में बिसाहू राम, बनमाली प्रसाद श्रीवास्तव, जगन्नाथ प्रसाद भानु, दशरथ लाल, सैयद मीर अली मीर, पुन्नी लाल शुक्ल, विश्वनाथ प्रसाद दुबे, लोचन प्रसाद पाण्डेय, सरयू प्रसाद त्रिपाठी, प्यारे लाल गुप्त, मावली प्रसाद श्रीवास्तव, बल्देव प्रसाद मिश्र, राजा चक्रधर सिंह, द्वारिका प्रसाद तिवारी ’विप्र’ आदि हैं। इस युग की कविता में साहित्य की मूलधारा के साथ ही साथ जन-संस्कृति की मनोरम झांकी दिखाई देती है। लोक का दुख, पीड़ा, शोषण तथा आशा-निराशा के अतिरिक्त जन मानस में मैजूद जीवन शैली और उनके सामाजिक संबंधों को लेकर बेबाक कविता लिखने की परंपरा दिखाई देती है। इसी युग में सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को संपूर्णता में अभिव्यक्ति देने वाले महाकाव्यों की रचना हुई। बिसाहू राम, सुखलाल पाण्डेय, बलदेव प्रसाद मिश्र, सरयू प्रसाद त्रिपाठी, मधुकर आदि को प्रमुख महाकाव्यकार के रूप में देखा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ के काव्य साहित्य के 1915 से 1950 के काल को आधुनिक युग की संज्ञा दी जा सकती है। इस काल में छत्तीसगढ से हिन्दी साहित्य के सर्वथा नये युग का सूत्रपात होता है। काव्य के क्षेत्र में नई अभिव्यंजना शैली, नए चिंतन, नए प्रतीकों और बिंबों का उद्भव और विकास इसी युग में होता है। साहित्येतिहास में इस काव्यधारा को छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के प्रथम कवि और जनक के रूप में पं. मुकुटधर पाण्डेय को माना जाता है। बावजूद इसके इस काल के कवियों ने अपने आप को सामाजिक जीवन से अलग नहीं किया। अन्य छायावादी कवियों की तरह काव्य के माध्यम से वायवीय छाया बुनने के बजाय इन कवियों ने जमीन से जुड़कर सामाजिक यथार्थ की बुनावट को पहचानने की कोशिश की। उनकी संवेदनात्मक दृष्टि और संवेदनात्मक ज्ञान से जीवन के सत्य को पकड़ने और पहचानने का निरंतर प्रयास किया। इस काल के अन्य कवियों में पं. शेषनाथ शर्मा ’शील’, कुंजबिहारी चौबे, रामेश्वर शुक्ल ’अंचल’, स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, घनश्याम प्रसाद ’श्याम’, केदार नाथ चंद, लाला जगदलपुरी, जयनारायण पाण्डेय, हेमनाथ यदु, गोविन्द लाल अवधिया, वेणुधर पाण्डेय आदि प्रमुख हैं।
1950 के बाद के युग को छत्तीसगढ के साहित्य इतिहासकारों ने नये स्वर-युग का नाम दिया है। वस्तुतः इस नामकरण की सार्थकता भी है। इस युग में कविता वस्तु और शिल्प की दृष्टि से नये अर्थगांभीर्य के साथ सामने आई। अपने युग के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक घटनाओं पर कविता की स्पष्ट प्रतिक्रिया दिखाई देने लगी थी। कविता का सामाजिक उद्देश्य और सामाजिक प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट होती जा रही थी। भाववादी कविता का दौर लगभग समाप्त हो रहा था और इसके स्थान पर यथार्थवादी कविता सामने आ रही थी। यह सही है कि इस दौर की कविता जटिल सामाजिक यथार्थ की पारदर्शिता की कसौटी पर पूर्णतः खरी भले ही न उतरती हो, संवेदना के तलदर्शी स्वरूप की कमी भले ही इन कविताओं में दिखाई देती रही हो, जीवन सत्य को परत-दर-परत खोलने में कविता भले ही उतनी सक्षम न दिखाई देती रही हों, फिर भी इन कविताओं में काव्यात्मक ईमानदारी के साथ ही साथ समाज के साथ ईमानदार जुड़ाव अवश्य दिखाई दे रहा था। इस युग के कवियों में हरि ठाकुर, गुरूदेव कश्यप, सतीष चौबे, नारायण लाल परमार, ललित मोहन श्रीवास्तव, देवी प्रसाद वर्मा, राजेन्द्र मिश्र, राधिका नायक, विद्याभूषण मिश्र, अशोक वाजपेयी, मोहन भारती, प्रभंजन शास्त्री, मुकीम भारती, सरोज कुमार मिश्र, प्रभाकर चौबे, ललित सुरजन आदि प्रमुख थे।
सामाजिक चेतना और संवेदना की तलदर्शिता तक पहुँचने का प्रयास करने वाले इस काल के वरिष्ठ कवियों की ऊपरी सतह को तोड़कर, अंदर तक जाकर गहरी संवेदना तथा सामाजिक चेतना की पहचान नई पीढ़ी के कवियों ने की। इन कवियों की कविताओं में समाज के तलदर्शी यथार्थ को न केवल अभिव्यक्ति मिली वरन् वर्ग विभाजित समाज की वर्गीय संरचना भी अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ सामने आई। नई पीढ़ी के ऐसे कवियों में जीवन यदु, एकांत श्रीवास्तव, बसंत त्रिपाठी, रवि श्रीवास्तव, महावीर अग्रवाल, शरद कोकाश, आलोक वर्मा, स्व. लक्षमण कवष आदि प्रमुख हैं। इन कवियों ने सामाजिक संरचना को बेहद सरल बिंबों में बांधकर प्रस्तुत किया। मुक्तिबोध की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले इन कवियों की सामाजिक प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट रही है।
छत्त्ीसगढ़ में हिन्दी काव्य साहित्य की तरह ही गद्य साहित्य की भी समृद्ध परंपरा रही है। कथा साहित्य के क्षेत्र में 1901 में ’छत्त्ीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधवराव सप्रे की कहानी ’टोकरी भर मिट्टी’ को मील के पत्थर के रूप में माना जाता है। कथ्य, तथ्य और भाषा शैली की दृष्टि से कई समीक्षकों ने इसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है। इसी क्रम में लोचन प्रसाद पाण्डेय की कहानियों को याद किया जा सकता है। ’गरूड़माला’ में प्रकाशित उनकी ’जंगल रानी’ कहानी पर उन्हें स्वर्ण पदक मिला था। 1905 में लोचन प्रसाद पाण्डेय की ’दो मित्रा’ नम से कथा संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसे इस अंचल का प्रथम कहानी संग्रह कहा जा सकता है। मुुकुटधर पाण्डेय और कुलदीप सहाय की कहानियाँ उस दौर की महत्वपूर्ण पत्रिका ’माधुरी’ में प्रकाशित हो रही थी। मावली प्रसाद श्रीवास्तव की कहानी साहित्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई और सरस्वती कहानी प्रतियोगिता में उन्हें तृतीय पुरस्कार मिला। पदुमलाल पुन्नलाल बख्शी तो हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे ही। इसके अतिरिक्त प्यारेलाल गुप्त, शिवप्रसाद, काशीनाथ पाण्डेय, घनश्याम प्रसाद, केशव प्रसाद वर्मा, केदारनाथ झा ’चन्द्र’ प्रमुख कहानीकार हैं। बाद की पीढ़ी में मधुकर खेर, प्रदीप कुमार प्रदीप, नारायण लाल परमार, लाला जगदलपुरी, पालेश्वर शर्मा, प्रमोद वर्मा, रमाकांत श्रीवास्तव, चन्दि्रका प्रसाद सक्सेना, इन्द्रभूषण ठाकुर, देवी प्रसाद वर्मा आदि कहानीकारों ने इस अंचल के कथासाहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
1956 में कथासाहित्य के क्षेत्र में एक नया आन्दोलन प्रारंभ होता है, जिसे नई कहानी अन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इस अंचल के शरद देवड़ा और शानी को नई कहानी आन्दोलन का महत्वपूर्ण कहानीकार माना जा सकता है। सचेतन कहानी आन्दोलन के कहानीकार के रूप में इस अंचल के महनकर चौहान और श्याम व्यास का नाम प्रमुख कहानीकार के रूप में लिया जा सकता है। कथासाहित्य के क्षेत्र में श्रीकान्त वर्मा बेहद चर्चित नाम रहे हैं। कई समीक्षक उसे अकहानी आन्दोलन के साथ जोड़ते हैं। श्रीकान्त वर्मा इसी अंचल के कथाकार थे। महिला कहानीकारों में शशि तिवारी और मेहरून्निसा परवेज की कहानियाँ हिन्दी कथासाहित्य के क्षेत्र में काफी चर्चित रहीं। इसके अतिरिक्त प्रभाकर चौबे, नरेन्द्र श्रीवास्तव, श्याम सुन्दर त्रिपाठी ’पथिक’, जयनारायण पाण्डे, गजेन्द्र तिवारी आदि इस अंचल के प्रमुख कहानीकार रहे हैं।
नई पीढ़ी के कहानीकारों में लोक बाबू, परदेसी रामवर्मा, मनोज रूपड़ा, कैलाश बनवासी, नासिर अहमद सिकन्दर, आनंद हर्षुल, ऋषि गजपाल आदि की कहानियाँ इस दौर की सशक्त कहानियाँ मानी जाती हैं। इनकी कहानियों में सामाजिक अंतर्विरोध, समाज की वर्गीय संरचना, सामाजिक विडंबना, शोषक और शोषित के चरित्र का यथार्थपरक चित्रण हुआ है तथा कहानियों से जनमानस में नई सामाजिक चेतना जागृत करने में उन्हें सफलता मिली है।
छत्तीसगढ़ अंचल के निबंध विधा पर लेखन की परंपरा भी काफी पुष्ट रही है। प्रारंभिक दौर में धार्मिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर निबंध लेखन हुआ। प्रारंभिक दौर के निबंधकारों में बिसाहू राम और अनंत राम पाण्डेय प्रमुख हैं। इस दौर में अनंतराम पाण्डेय के समालोचनात्मक निबंध भी देखने को मिलते हैं। वास्तव में निबंध की सुदृढ़ परंपरा माधवराव सप्रे से शुरू होती है। उन्होंने ’छत्तीसगढ़ मित्रा’ के माध्यम से निबंध के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, पं. राम दयाल तिवारी और बाबू कुलदीप सहाय ने इस विधा को आगे बढ़ाया। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने विविध विषयों पर निबंधों की रचना कर निबंध विधा का विस्तार किया। उन्होंने आत्म परक, संस्मरणात्मक तथा मनोवैज्ञानिक विषयों पर बेहद सहज, सरल निबंधों की रचना की तथा सरस्वती के संपादक के रूप में निबंध साहित्य को नई दिशा देने की कोशिश की। पं. मुकुटधर पाण्डेय ने छायावादी निबंधों की रचना कर हिन्दी साहित्य को चिंतन का सर्वथा नया आयाम दिया। यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव, केशव प्रसाद वर्मा, जयनारायण पाण्डेय, शारदा तिवारी, नारायण लाल परमार, पं. रामकिशन शर्मा डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, धनंजय वर्मा आदि विद्वानों को निबंधकार के रूप में राष्ट्रीय ख्याति मिली।
समकालीन निबंध लेखन में अधिकांशतः समीक्षात्मक लेखों के रूप में निबंध लेखन हो रहा है। हिन्दी की महत्वपूर्ण राष्ट्रीय  एवं अंतराष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के समीक्षात्मक लेख निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। डॉ. राजेश्वर सक्सेना, डॉ. धनन्जय वर्मा, डॉ. प्रमोद वर्मा. प्रभाकर चौबे, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव, रमेश अनुपम, डॉ. गोरेलाल चंदेल, जय प्रकाश साव आदि के समीक्षात्मक लेख पहल, सापेक्ष, वसुधा, वर्तमान साहित्य, साक्षात्कार, पल-प्रतिपल, जिज्ञासा आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, एकांकी आदि विधाओं में भी छत्तीसगढ़ में लगातार उच्चस्तरीय लेखन हो रहा है।
विगत 15-20 वर्षों से छत्तीसगढ़, प्रदेश की साहित्यिक गतिविधयों का केन्द्र रहा है, कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस अंचल में नई-नई साहित्यिक प्रतिभाओं की रचनाओं पर निरंतर गोष्ठियाँ एवं सेमीनार आयोजित हो रहे हैं और उनकी रचनात्मकता को विकसित होने का अवसर मिल रहा है। अंचल की रचनाशीलता को प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य रायपुर से प्रकाशित दैनिक देशबंधु और उसके संपादक ललित सुरजन ने किया है। साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन में भी उनकी अग्रणी भूमिका रही है। इसी दिशा में ’सापेक्ष’ पत्रिका और श्री प्रकाशन के माध्यम से महावीर अग्रवाल का प्रयास भी सराहनीय है। छत्तीसगढ़ अंचल में साहित्यिक संभावनाओं की कमी नहीं है; केवल उनकी सृजनशीलता को प्रकाश में लाने के साधनों की आवश्यकता है।
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151, दाऊ चौरा, खैरागढ़
जिला - राजनांदगाँव
पिन 491881
मो. 078202 34214

सिरफिरी

रवीन्‍द्र कड़वाली 

एकाएक आरती का नाम सुन कर मेरी आंखों की नींद उड़ गई। एक साल मेरे साथ रहने के बाद वह गांव चली गई थी। इस दौरान वह छह महीने तक जिंदगी और मौत से लड़ती रही। जब उसका हंसना, खिलखिलाना पहले की तरह फिर से शुरू हुआ, तो मैंने उसे गांव भेज दिया था। आरती के बारे में सोचते हुए मुझे वह दिन याद आया जब गांव जाने के बाद एक दिन मैं ननिहाल जा रहा था, तो प्यास से मेरा बुरा हाल था। उस वक्त आरती झरने पर पानी लेने आई हुई थी। उसे देखते ही मैंने कहा - प्यास लगी है, पानी मिलेगा।
- हां मिलेगा।
मैंने जैसे ही अपनी हथेली अपने मुंह पर लगाई, वह अपनी कसेरी से मेरी हथेली में पानी डालने लगी। उसे कसेरी हटाने के लिए मैंने अपना सिर हिलाया तो वह कसेरी का पूरा पानी मेरे ऊपर डालते हुए जोर - जोर से हंसने लगी। उसे हंसता देख कर मुझे लगा कि शायद यह पागल है। पर जब उसकी हंसी नहीं रुकी तो मैं भी जोर - जोर से हंसने लगा। एकाएक मुझे हंसता देख कर बोली - तू क्यों हंसा?
- तू क्यों हंसी?
- हमारे गांव का उसूल है। जब कोई झरने पर आकर पानी मांगता है तो बाकी के बचे पानी से उसे नहलाना पड़ता है।
- हमारे गांव का भी एक उसूल है कि जब कोई लड़की पहली बार पानी डाले तो उससे शादी कर लेनी चाहिए।
- तो तू मुझसे शादी करेगा?
- हां।
- ऐ कमला,ऐ बिमला, ऐ सकोती, ऐ देवी, इधर आना। कुछ दूरी पर पेड़ की छाया में बैठी लड़कियों को आवाज देकर उसने पुकारा तो वे सब उसके पास आकर बोलीं - क्या हुआ? छेड़ा इसने क्या?
- नहीं, मुझसे शादी करना चाहता है।
- तो कर ले न! अच्छा है, सुंदर है, गोरा है, जोड़ी बहुत अच्छी है। कह कर खिलखिलाती वे सभी लड़कियां उसे छेड़ने लगीं। पता नहीं, मुझे क्या हुआ कि मैंने उसकी पानी भरी कसेरी उसी के ऊपर उलट दी। एकाएक ठंडा पानी पड़ने से वह चिल्लाई - उई मां, और फिर वह जोर - जोर से सांसें लेने लगी थी। मुझे लगा कि उसकी सांसें अब अटकी तब अटकी। जबकि उसकी सहेलियां ताली बजाती हुई बोलीं - मिला न सेर को सवा सेर! अब बता लड़का ठीक है न?
आरती उन्हें चिढ़ाते हुए, अपनी कसेरी लेकर चली गई। लड़कियां हंसती हुई मेरी ओर देख कर बोलीं - पागल!
ननिहाल की ओर बढ़ते हुए मैंने देखा कि आरती बार - बार पीछे मुड़ कर मुझे देखती जा रही है। मुझे उसका मुड़ - मुड़ कर देखना बहुत अच्छा लग रहा था।
शाम के वक्त मैं श्यामू के साथ घूमने निकला तो वह फिर मुझे झरने पर दिखाई दी। मुझे देख कर उसने मुंह बनाते हुए श्यामू से कहा - ऐ श्यामू, ये कौन है?
- मेरी बुआ का लड़का है, दिल्ली रहता है।
- परेदशी है!
अचानक मेरे मुंह से निकला, वाह! कितनी सुंदर है।
- क्या कहा तूने? श्यामू ने मेरी ओर देखते हुए कहा।
- मैं कह रहा था कि यह झरना कितना सुंदर है।
मेरे शब्दों को सुन कर हंसते हुए वह बोली - पागल, सुनाता मुझे है और कहता झरने को है। कसेरी को एक हाथ से पकड़े वह मेरी ओर देखते हुए बोली - श्यामू मेरी कसेरी मेरे सिर में रखवा दे न?
उससे पहले कि श्यामू उसकी कसेरी पर हाथ लगाता, मैंने कसेरी को उसके सिर पर रखते हुए कहा - झरना इतना सुंदर नहीं, जितनी तुम हो।
वह मुस्कराती हुई चली गई और मैं अपनी जगह खड़े - खड़े उसको जाते हुए देखने लगा तो श्यामू ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा - सुंदर है न?
- हां, सचमुच इन पहाड़ों में इस जैसी खूबसूरत कोई नहीं है।
श्यामू मुस्करा दिया। शाम को जब अंधेरा घिरने लगा तो श्यामू मुझे उसके घर ले गया। मुझे देख कर आरती के चाचा ने श्यामू से पूछा - श्यामू ये तेरे साथ कौन है?
- मेरी बुआ का लड़का है। दिल्ली में रहता है। मिलने आया है। मैंने सोचा कि सारा गांव घुमा दूं।
- बहुत अच्छा किया तूने। आरती कुर्सी ला और चाय बना बेटा?
आरती कुर्सी रख कर चाय बनाने फिर से ओबरे में चली गई।
कुछ ही देर बाद वह गिलासों में चाय ले आई थी। चाय का घूंट लेते ही मैं झनझना गया था। चाय में चीनी की जगह मिर्ची थी। हकीकत जानने के लिए मैंने श्यामू के कान में धीरे से कहा-चीनी कुछ ज्यादा हो गई है।
- नहीं, ठीक ही है। हम लोग इतनी ही मीठी पीते हैं।
चाय में मिर्च इतनी तेज थी कि मेरी आंखों से आंसू निकल गए। कई बार मन में आया कि पानी मांगू, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा सका। जब नहीं रहा गया तो मैंने पानी मांगा।
- बेटा, चाय के ऊपर पानी नहीं पीना चाहिए। आरती की मां ने कहा।
- दरअसल, मैं इतनी ज्याद मीठी चाय नहीं पीता। ऐसा लग रहा है कि जैसे जीभ तालू से चिपक गई है।
आरती पानी लेकर आ। आरती की मां ने उसे आवाज देते हुए कहा - पता नहीं कब इसे अकल आएगी? कितनी बार इसे समझाया है कि जब घर में कोई आता है तो चीनी कम डाला कर। लेकिन यह अपनी हठ नहीं छोड़ती।
- मुझे क्या पता कि कौन कितनी मीठी चाय पीता है?
उसकी बातें सुन कर मुझे गुस्सा आ रहा था। मेरा मिर्च के कारण बुरा हाल हो रहा था और वह खुश होकर किसी पहाड़ी चिड़िया की तरह चहकते हुए मिर्च का पहाड़ा पढ़ रही थी। मिर्ची एकम मिर्ची, मिर्ची दुना दो मिर्ची।
और फिर मैं उठ खड़ा हुआ। आधे रास्ते आने पर श्यामू ने कहा - भैया आप बार -बार रुमाल से अपना मुंह क्यों दबा रहे थे?
मैंने श्यामू को जब हकीकत बताई तो वह भी आरती की तरह जोर -जोर से हंसते हुए बोला - वाह! क्या कमाल की लड़की है, मजा आ गया। बड़ा मजेदार इश्क रहा भैया। पहली मुलाकात में ही झरने से लेकर आंगन और आंगन से लेकर ओबरे तक पहुंच गए।
- ओए, ओबरे तक कौन गया।
- भैया, नमक मिर्च तो ओबरे में ही रहता है न। अब मिर्च का स्वाद ले लिया तो समझो कि ओबरे में पहुंच गए!
- तू कहना क्या चाहता है?
- वाह भैया, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। इतना जान लो कि प्यार में लक्कड़ पत्थर सब हजम। अपने प्यार के लिए वक्त आने पर मिर्च क्या, जहर भी पीना पड़ता है। श्यामू की बातें सुन कर मैं तिलमिला गया। घर पहुंचते ही उसने मामी से कहा - मां, भैया की और मेरी मिर्च खाने की शर्त लगी थी। भैया ने पूरी दो मिर्चें खा ली हैं। उनके मुंह और पेट में बहुत जलन हो रही है। मामी ने बिना कोई प्रश्न किए दही का बर्तन और चीनी मेरे सामने रखते हुए कहा - सारी की सारी दही चीनी मिला कर पी जा। दूसरा बर्तन भी दही से भरा है, पी लेना।
दही पीने के बाद मुंह की जलन शांत हो चुकी थी। उसके बाद तो मैं पूरा एक हफ्ता ममकोट में ही रुका रहा। फिर आरती के साथ - साथ उसके चाचा परू से भी मेरी दोस्ती हो गई थी। एक हफ्ते बाद वापस घर आने के तीन दिन बाद मैं दिल्ली चला आया था। उन तीन दिनों में मुझे खोया - खोया देख कर नलनी ने जब इसका कारण पूछा तो मैंने उसे आरती के बारे में बताया। उसने हंसते हुए कहा - वाह भैया, मेरी सहेली को ही दिल दे आए। अगर प्यार हो गया तो देर किस बात की। चट मंगनी और पट ब्याह।
मैं सोच में डूबा था। गांव से आने के बाद मुझे अभी एक साल हुआ था कि एक दिन नलिनी ने मुझे फोन पर कहा - आरती बहुत भयानक दौर से गुजर रही है भैया। उसके माता - पिता ने उसे अपनी गोशाला में रखा हुआ है। उसकी मां उसे वहीं खाना दे आती है। लोग कह रहे हैं कि उस पर किसी प्रेत का साया है। एक दिन जब मैं नानी के घर गई तो मुझे प्रेत और जिन्न का भय बता कर आरती से मिलने नहीं दिया गया। मैं वहां तीन दिनों तक रही। उन तीन दिनों में मैं रात को आरती के साथ ही रही। सच कहूं तो इस वक्त उसे आपकी सख्त जरूरत है भैया। मुझे नहीं लगता कि उस पर किसी प्रेत या जिन्न का साया है। मुझे ऐसा लगता है कि वह किसी ऐसी बीमारी से ग्रस्त है, जिसका इलाज यहां नहीं है। आप आरती से प्यार करते हैं तो उसे बचाने के लिए कुछ कीजिए। झाड़खंडियों की मार ने उसे बेहाल कर दिया है। एक झाड़खंडी ने तो उसे लाल मिर्चों की धूनी तक दे दी। उस रात मैं और श्यामू उसके साथ ठंडी हवा में बाहर बैठे रहे तब कहीं उसकी जान बची। अगर इसी तरह इन झाड़खंडियों का इलाज चलता रहा तो वह कुछ ही दिनों में मर जाएगी। नलनी की बातें सुन कर आरती की हंसी, उसका खूबसूरत चेहरा और उसके साथ बिताए दिन मुझे झिंझोड़ने लगे थे। अवश्य वह ऐसे समय मुझे याद कर रही होगी। दिल्ली आने के बाद श्यामू से मैं लगातार बातें करता रहा, लेकिन उसने कभी मुझे आरती की तबियत के बारे में नहीं बताया। मगर नलिनी का फोन आने के बाद जब मैंने उसे डांटते हुए सच्चाई बताने को कहा तो उसने कहा कि आरती की कई महीनों से तबियत खराब चल रही है। लगातार वैद्य कक्का की दवाइयों से भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है बल्कि उसकी तबियत दिन - प्रतिदिन और ज्यादा खराब होती जा रही है। एक दिन एक जोगी गांव में आया तो उसने बताया कि इस लड़की पर प्रेत के साथ - साथ जिन्न का साया है। जिस घर में यह लड़की रहेगी उस घर में प्रेतों का वास होगा। उस घर का सर्वनाश हो जाएगा। गांव में जिस पर भी इसका साया पड़ेगा वह बे - मौत मरेगा। उस दिन से आरती के घर वालों ने उसे गौशाला में रख दिया है। श्यामू की बातें सुन कर मैंने उसे समझाते हुए कहा - अगर परू अपने घर वालों को समझाए तो मैं आरती को दिल्ली लाकर उसका इलाज करवाना चाहता हूं। तुम एक बार उससे बात करके देखो।
रात को श्यामू ने जब परू से मेरी बात कराई तो पहले वह अकड़ने लगा था। एक जवान लड़की को हम आपके पास कैसे भेज सकते हैं, वगैरह। लेकिन जब मैंने उसे बताया कि हो सकता है कि आरती को कोई गंभीर बीमारी हो, जिसका इलाज वैद्य के पास नहीं है। अगर उसे कुछ हो गया तो उसके जिम्मेवार तुम होगे। अगर तुम आरती को बचाना चाहते हो तो तुम्हें मेरी मदद करनी होगी। ताकि मैं उसे दिल्ली लाकर उसका इलाज करवा सकूं। कुछ देर शांत रहने के बाद परू ने फोन पर अपनी स्वीकृति दे दी। मैंने उसी वक्त नलनी को फोन पर हकीकत बताते हुए कहा कि वह आरती को दिल्ली आने के लिए तैयार करे। मैं तीन दिन बाद सीधे आरती के पास ही पहुंचूंगा, ताकि मां और पिताजी को यह पता न चले कि मैं गांव आया था।
- मैं ठीक तीन दिन बाद आरती के पास पहुंच गया था। मुझे देखते ही आरती के नीरस चेहरे पर बुझी - बुझी और निर्जीव मुस्कान तैर गई। वह लेटी - लेटी मुझे टुकुर -टुकुर देखती रही। जैसे ही मैंने उसके चेहरे पर अपना हाथ रखा, उसकी आंखें बहने लगीं। तभी श्यामू के साथ परू और आरती के माता - पिता भी आ गए। उन्हें समझाने के बाद हम आरती को लेकर बस अड््डे के लिए निकले। खुशी इस बात की थी कि नलनी के साथ - साथ आरती के माता - पिता भी हमें बस अड््डे छोड़ने आए थे। दिल्ली आने के बाद मैंने आरती को अपने पास के ही एक क्लीनिक में दिखाया, खून की जांच आने के बाद डॉक्टर ने बताया कि आरती को टीबी है और वह खतरनाक स्थिति मैं है। डॉक्टर की बातें सुन कर मैं सन्न रह गया। पलभर की देर किए बिना मैंने आरती को दिल्ली के एक बड़े टीबी अस्पताल में भर्ती करा दिया। उसके खून, बलगम और थूक की जांच होने के बाद उसे इंजेक्शन लगने शुरू हो गए थे। डॉक्टर का कहना था कि उसे एमडीआर टीबी हो चुकी है। इस बीच मैंने आरती की मां को भी दिल्ली बुला लिया। आरती को अस्पताल में देख कर और उसकी हालत में सुधार देख कर उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। एक महीने के बाद उसे अस्पताल से छुट््टी देते हुए डॉक्टर ने कहा - बाकी इंजेक्शन इसे रोज नियमित रूप से घर में लगाएं और रोज इसका बुखार और वजन चैक करते रहें। महीने में एक बार इसे ओपीडी में जरूर लाएं।
एक साल तक मेरे पास रहने के बाद आरती गांव चली गई थी। उसे गांव गए तीन महीने से ऊपर हो चुका था। पर आज नलनी ने लगातार फोन करते हुए मुझे परेशान कर दिया। वह फोन करती और फिर फोन कट जाता। रात के दो बजे दुबारा जब फिर नलनी का फोन आया तो मैंने उसे डांटने के अंदाज में कहा - ये चुटिया की चोटी, फोन मत काटना। तूने आज मुझे परेशान कर दिया है, बोल क्या बात है?
भैया आरती के साथ आपका रिश्ता तय हो गया है। अगले हफ्ते आपकी सगाई का दिन निकला है। सुबह होते ही गांव चले आओ।
- ऐ झूठी! घर आकर तेरी चुटिया पकड़ कर चक्कर घिन्नी की तरह घुमा दूंगा।
- मत आओ, लेकिन बाद में पछताना नहीं। फिर मैं फोन रखूं
- ऐ चुटिया की चोटी, तेरे फोन की घंटियों ने मेरी नींद उड़ा दी है और तू मुझे चिढ़ा रही है।
- नींद तो आपकी आरती ने चुरा ली है भैया। जैसे तुम बचपन में दही चुराया करते थे। ये लो बात कर लो। उसके बाद दूसरी तरफ से आरती की आवाज सुनाई दी। जब आरती ने मुझे बताया कि सगाई का दिन निकल आया है तो मैं खुशी से उछल पड़ा। अचानक मेरे हाथ से फोन छिटक कर दूर गिर पड़ा और उसका कवर उसकी बैटरी सब अलग - अलग हो गए। स्क्रीन में दरारें पड़ चुकी थीं। मैंने घड़ी में समय देखा तो अचानक मेरे मुंह से निकला - ओ माई गॉड! पहली बस तो पांच बजे की है। और फिर मैं गांव जाने के लिए अपना जरूरी सामान अटैची में ठूंसने लगा था।

कड़ा कागज का एक उत्कृष्ट गीतिकृति

समीक्षक : डॉ महेश दिवाकर डी लिट

आजादी के पश्चात् भारत में विविध क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन हुआ है। संस्कृति और साहित्य का क्षेत्र भी इस दृष्टि से अछूता नहीं है। आजादी के बाद साहित्य की विविध विधाओं में भी शिल्प की दृष्टि से प्रचुर परिवर्तन आया है। कविता के क्षेत्र में ष्नयी कविता निबन्ध के क्षेत्र में ललित निबन्ध तो कहानी के क्षेत्र में नयी कहानी के रूप में शिल्पगत परिवर्तन आया है। इसी प्रकार हिन्दी की बहुचर्चित काव्य.विधा गीत के शिल्प में जो परिवर्तन आया है उसे गीतकारों ने नवगीत की संज्ञा से विभूषित किया है। नवगीत.सृजन के साथ - साथ नवगीत के कुछ पुरोधाओं ने नवगीत की संस्थापना के लिए भी आलोचनात्मक आलेख लिखे हैं और नवगीत की शिल्पगत महत्ता एवं विशिष्टता पर प्रकाश भी डाला है। वैसे तो सभी नवगीतकार गीत का शैल्पिक रूप से विकसित होना नवगीत के रूप में मानते हैं अर्थात् नवगीत को गीत की अत्यन्त विकसित विधा मानने के दावे करते रहे हैं। ऐसे नवगीतकारों ने नवगीत सृजन पर कम अपितु उसके संस्थापन पर अधिक ध्यान केन्दि्रत किया है, फलतः नवगीत की इस जमात में परस्पर विरोधी स्वर भी गूँजने लगे हैं।
यही नहीं, कुछ लोग तो अपने को महान नवगीतकार भी मानने लगे हैं। परिणाम यह हुआ है कि नवगीत के क्षेत्र में दावों प्रतिदावों के चलते खेमेबाजी भी शुरू हो गयी है। जब सृजक स्वंय को महान और दूसरे को हेय मानने लगता है तो खेमेबाजी हो जानी सुनिश्चित है। इनमें एक खेमा स्व डॉ शम्भुनाथ सिंह का अनुगमन करता है तो दूसरा खेमा श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह को अपना आदर्श मानता है। मुझे बड़ी पीड़ा होती है कि आज नवगीत के समर्थक क्षेत्र और जातियों में बंट गये हैं और अपने मुख्य दायित्व से विमुख हो गये हैं। प्रचुर लेख लिखे रहे हैं, आलोचनात्मक अंक प्रकाशित हो रहे हैं, ग्रंथ आ रहे हैं सम्पादन भी हो रहे हैं इन्हें देखें तो आपको वस्तुस्थिति का आभास हो जायेगा। मानो हर नवगीतकार अपने को स्थापित करने में लगा है।
मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि इन सब विद्रूपताओं के बीच कुछ सृजक ऐसे भी हैं जो नवगीत की खेमेबाजी से प्रायः दूर हैं और अपना उत्कृष्ट सृजन देने में रत हैं ऐसे नवगीतकारों में मुझे युवा पीढ़ी के हस्ताक्षर अवनीश सिंह चैहान भी दिखायी देते हैं। श्री अवनीश सिंह चैहान युवा नवगीतकार हैं, उनकी अभी एक ही नवगीत कृति टुकड़ा कागज का प्रकाश में आयी है जिसे देखकर नवगीत के सुन्दर भविष्य की कल्पना की जा सकती है। सबसे बड़ी बात जो मुझे अत्यन्त प्रभावित करती है, वह उनका खेमेबाजी से पृथक होना है, और यही वह बिन्दु है जो उन्हें एक सार्थक एवं विशुद्ध नवगीतकार कहने को बाध्य करता है। वैसे भी साहित्यकार को खेमेबाजी अथवा राजनीति से क्या लेना देना है। वह जाति, धर्म और क्षेत्र से भी ऊँचा होता है। ऐसा साहित्यकार किसी बन्धन को नहीं मानता है। निःसन्देह टुकड़ा कागज का की रचनाओं से यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। टुकड़ा कागज का की ये पंक्तियाँ देखें.
कभी फसादों - बहसों में
है शब्द - शब्द उलझा
दरके - दरके शीशे में
चेहरा बाँचा - समझा
सिद्धजनों पर
हँसता जाए
टुकड़ा कागज का ;पृष्ठ. 25
और ये पंक्तियाँ भी देखे -
घड़ियालों का
अपना घर है
उनको भी तो जीना
पानी तो है
सबका जीवन
जल की मीन - नगीना
पंख सभी के छुएँ शिखर को
प्रभु दे वह पर परवाज़ ;पृष्ठ. 46
अस्तु उपर्युक्त नवगीतों की पंक्तियाँ कहीं पर भी सटीक बैठ सकती हैं,क्योंकि आज का परिवेश ही इतनी विषमता ग्रस्त और गुरूर हो गया है। ऐसे विषम वातावरण में भी टुकड़ा कागज का रचनाकार निरन्तर सृजन करता हुआ, दृढ़ता के साथ एक - एक कदम फूँक - फूँक कर चल रहा है। निस्सन्देह, उसकी इसी साधना विश्वास और दृढ़ता को एक दिन नवगीत का उच्च अदृश्य लक्ष्य प्राप्त होगा। वह स्पष्ट कहता भी है उसकी सर्वोत्तम उद्योग रचना की ये पंक्तियाँ देखें -
गलाकाट इस
कम्पटीशन में
मुश्किल सर्वप्रथम आ जाना
शिखर पा गए किसी तरह तो
मुश्किल है उस पर टिक पाना
सफल हुए हैं
इस युग में जो
ऊँचा उनका योग ;पृष्ठ. 47
वस्तुतः स्वातत्रंर्त्योत्तर भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि परिवेश में जो गिरावट आयी है, उसे टुकड़ा कागज का उसके यथार्थ रूप में अंकित कर रहा है। आर्थिक विषमता ने व्यक्ति, परिवार, समाज और मानवीय मूल्यों तक को चूर - चूर कर डाला है। नवगीतकार अवनीश सिंह चैहान की दृष्टि से यह कुछ छिपा नहीं है क्योंकि वे गाँव की धरती से जुड़े और नगर एवं महानगर के जीवन को भी क्रमशः देख और भोग रहे हैं जहाँ चारों ओर अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार, शोषण, कदाचार, दुराचार, जातिवाद, भाई -भतीजावाद, क्षेत्रवाद, रिश्वत, झूठ, मक्कारी, अपहरण, लूट, डकैती, हत्या आदि के राक्षस विचरते हुए दिखायी देते हैं, तो उनका संवेदनशील मन चीत्कार कर उठता है। आदमी मर रहा है, राक्षस मुस्करा रहा है और कुछ लोग हैं जिन्होंने इन राक्षसों से साँठ - गाँठ कर ली है। फलतः वे मौज - मस्ती मना रहे हैं। ईमानदार, श्रम का पूजक और मानवीय मूल्यों में विश्वास रखने वाला निरन्तर अपमानित ही नहीं हो रहा है, अपितु उसका दिन - प्रतिदिन का जीवन भी दुष्कर हो चला है। अपना गाँव - समाज चुप बैठा धुनिया श्रम की मण्डी किसको कौन उबारे बाजार समंदर चिंताओं का बोझ ज़िन्दगी पंच गाँव का जिन्दगी एक तिनका हम आदि नवगीत रचनाओं में स्वातंर्त्योत्तर परिवर्तन को देखा जा सकता है।
ऐसे संक्रमणशील परिवेश में अनुभव के मोती नामक नवगीत रचना के द्वारा नवगीतकार युवा पीढ़ी को सन्देश भी देना नही भूलता है.
बनकर ध्वज हम
इस धरती के
अंबर में फहराएँ
मेघा बनकर
जीवन जल दें
सागर - सा लहराएँ
पथ के कंटक बन को
आओ
मिलकर आज जराएँ
चुन - चुनकर
अनुभव के मोती
जोड़ें सभी शिराएँ
वस्तुतः इस प्रकार की नवगीत रचनाएँ टूटे और सर्वहारा वर्ग के थकित मजदूर, किसान, युवा, आदमी, सबको नया जीवन जीने की प्रेरणा ,देती हैं। निराशा में भी आशा की किरण बनकर उभरती हैं।
सारत टुकड़ा कागज का नवगीतकार अवनीश सिंह चैहान की कुल 44 नवगीत रचनाएँ हैं जो नवगीत के क्षेत्र में उनकी भाव - भाषा और शिल्प के वैविध्य की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन रचनाओं में रचनाकार के अनुभव,चिन्तन और कल्पना ने यथार्थ जीवन की अनुभूतियों को चार चाँद लगा दिए हैं। प्रभावोत्पादकता के साथ अभिव्यक्त कर दिया है क्लिष्टता अथवा दूरूहता इस नवगीत कृति में कहीं नहीं दिखाई दी है। सारी नवगीत रचनाएँ सहज सम्प्रेषणीय हैं। इन नवगीतों में वाक्लय शब्द लय और अर्थलयों ने नवगीतों के सृजक अवनीश सिंह चैहान को नवगीत का प्रखर हस्ताक्षर बना दिया है। वस्तुतः आम बोलचाल की हिन्दी में प्रस्तुत अपनी अनुभूतियों की सार्थक अभिव्यक्ति के कारण ष्टुकड़ा कागज काष् रचनाकार एक उत्कृष्ट नवगीत कृति देने में सफल हुआ है। फलतः भावपक्ष और कला पक्ष के अनूठे संगम के कारण यह नवगीत की एक उल्लेखनीय कृति बन गयी है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षरों में संख्यात्मक कृतियों के कारण नहीं अपितु अपनी इस सार्थक एवं रचनात्मक नवगीतों की प्रभावी प्रस्तुति के कारण श्री अवनीश सिंह चैहान भारतीय नवगीतकारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं, सफल होंगे। टुकड़ा कागज का निस्सन्देह, एक संग्रहणीय और उत्कृष्ट नवगीत कृति के रूप में अपनी पहचान अंकित करेगी। 
पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष
गुलाब सिंह हिन्दू पी जी कॉलेज
चाँदपुर ;बिजनौर उ प्र

हथेलियों में सूरज उगाती कवयित्री :मंजु महिमा फेवरिट

प्रणव भारती

हथेलियों में सूरज यूँ  ही नहीं उग जाता। हथेलियों को इस काबिल बनाना पड़ता है कि वे सूरज की गर्माहट, ऊर्जा तथा रौशनी को अपने भीतर समेट सकें!
मंजु महिमा एक संवेदनशील कवयित्री है। नारी - सुलभ संकोच, सहनशीलता, भद्रता, गंभीरता, करुणा उनके व्यक्तित्व के अंग हैं और उनका यही व्यक्तित्व उनकी ठहरी हुई सोच को जन्म देकर अनायास मन के भीतर के कपाट खोलकर पाठक को उनसे बाबस्ता करता है। पाठक कविता के साथ - साथ चलते हुए निरंतर उनका सानिध्य महसूस करता है।
हथेलियों में उतरे हुए सूरज का बिंब उनके भीतर की रौशनी और ऊर्जा है जिसे उन्होंने न जाने कितने - कितने अंधेरों से जूझकर अपने भीतर समोया है। कवयित्री अपनी भाषा हिन्दी की जबरदस्त पक्षधर हैं। हिन्दी को बिंबित करना उनकी अपनी भाषा के प्रति आत्मीयता का स्पंदन है जो उनकी रगों में बह रहा है।
नारी की स्वाभाविक संवेदनशीलता तथा करुणा से ओत - प्रोत मंजु महिमा की कविता चाहे च् मुझे पतंग न बनाओज् हो चाहे च् चिड़िया न बनना ज् हो या फिर च् माँ आ अब लौट चलें ज्सबमें नारी के स्वतन्त्र परन्तु एक ऐसे बंधन की स्पष्ट छाप प्रदर्शित होती है जो मर्यादित  स्वतंत्रता की चाह में भी एक कोमल बंधन की आशा रखता है।
खूब छूट दो उड़ने की
पर डोर से बांधे रखो अपनी
तुम्हारे प्यार की डोर से बंधी
मैं तुम्हारी हथेलियों पर
चुग्गा चुगने चली आऊँगी ।
यह उड़ने की चाह और साथ ही एक ही हथेली पर चुग्गा चुगना उनके भीतर की कोमल संवेदना को  पाठक के समक्ष अनायास ही एक ऐसी चिड़िया के समीप ला खड़ा करता है जो पिंजरे से निकलकर अनंत अवकाश में अपने पर फैलाती तो है पर विश्राम करने अपने पिंजरे में स्वेच्छा से अपनेपन के अहसास में लिपटी लौट आती है। यह च् मुक्त बंधन ज्की चाह तथा अपनेपन का गहरा अहसास उनकी नारी - संवेदना को प्रखर करता है।
नारी - जीवन के विभिन्न आयामों को उद्घाटित करती हुई उनकी कविताएं नारी - हृदय के कितने समीप हैं, यह उनकी कविताओं में बहुत स्पष्ट है। ये अंतर को एक पावस अहसास से भर देती हैं। नारी के स्वतन्त्र व्यक्तित्व की पक्षधर मंजु महिमा अपनी सीमाओं में रहकर अपने अधिकार के लिए चुनौती  देती दृष्टव्य होती है, कहती हैं ....
मुझे उड़ना ही होगा,
मैं बिना उड़े नहीं रह सकती
मुझे देखना ही होगा
मैं अनदेखा नहीं कर सकती।
शिद्द्त के साथ अपनी इस भावना को सरेआम न केवल रखना वरन उस पर जमकर च् हथेलियों में सूरजज् के बारे में पाँव रखना तथा दृढ़ता से चलना उनकी श्रेष्ठ कविता से पूर्व उनकी एक संवेदनशील श्रेष्ठ नारी के सम्मान को गौरवान्वित करते हैं।
मंजु महिमा की यह कोमल स्त्रीयोचित  करुणा उनकी रचना च् माँ अब लौट चलेंज् में स्त्री की करुणा, आज के युग में भी बेचारगी की साक्षी बनकर पाठक के समक्ष आ उपस्थित होती है।
च् माँ अब लौट चले ज्में उनके मन  की गहराई में उतरी पीड़ा कितने स्प्ष्ट शब्दों में मुखरित हुई है ....
जहाँ तुम्हें सदैव
औरत होने का कर्ज चुकाना पड़ता है ।
और  इससे भी अधिक ..................
तुम एक भोग्या हो,
खर्चे की पुड़िया
जब तुम पैदा हुईं थीं,
तब थाली नहीं बजी थी ......
कितनी गहन पीड़ा !!
तुम्हारे होने की ख़बर
शोक -सभा में तब्दील हो गई थी
सदियों से चला आ रहा शाश्वत सत्य
भीतर से पीड़ित, स्त्री के नैसर्गिक अहसास के सम्मान को महसूसते हुए मंजु कभी भी कमजोर अथवा बेचारगी का जामा पहनकर करुणा तथा दया की याचना नहीं करती दिखाई देती। वे अपने व्यक्तित्व के लिए हर पल एक खामोश युद्ध के लिए तत्पर रही हैं इसीलिए वे अपने बच्चों की ढाल बनकर उनके व्यक्तित्व को पुचकारती हुई उन्हें विमर्श देती हैं ....
चिड़िया बनना मेरी नियति थी
पर, मेरे बच्चों!
तुम कभी चिड़िया न बनना!
साथ ही वे माँ को कितनी शिद्द्त से, साहस से भरोसा देती हुई दिखाई देती हैं ...
माँ! डरो नहीं, मैं उतनी कमजोर नहीं।
जो दुनिया का सामना नहीं कर पाऊँगी।
मंजु जी की रचनाओं में मुझे वे सदैव एक कैनवास पर लिखे गए एक चित्र की भांति प्रतीत हुई हैं जिनमें उनके प्रतिबिंबित होने का अहसास हर पल बना रहता है ।
प्रकृति के सानिध्य में नैनीताल के चार प्रहरों को उन्होंने जिस प्रकार समय के विभिन्न कालों में विभाजित किया है, वह उनकी स्त्री के प्रति एक गहरी तथा कोमल अनुभूति का प्रतीक लगता है ...
नैनीताल की झील उन्हें
प्रातःकाल में .....अल्हड़ कन्या
मध्यान्ह में .....सुघड़ गृहिणी
संध्या में ....भाल पर सिंदूरी टीका लगाए
आतिथ्य करती प्रसन्नवदन सधवा
रात्रि में .....दुल्हन - सी संवरी
स्वयं पर मोहित समर्पण की आतुरता लिए
कोमलांगी प्रतीत होती है।
जीवन के विभिन्न आयामों को सहेजे उनकी कविताएं चाहे इस संग्रह में हों या न हों मुझे सदा उनकी पारदर्शिता एक झीना अहसास दिलाती हैं। यही पारदर्शिता मैंने मंजु के व्यक्तित्व में सदा से पाई है जो उन्हें एक अच्छी कवयित्री से भी पूर्व एक अच्छे संस्कारी इंसान के रूप में उद्घाटित करती है। मेरे च् हथेलियों में सूरज ज् के बारे में मन में, जीवन में कुछ भी अच्छा बनने से पूर्व एक अच्छे इंसान होने का मोल बहुत ऊँचा है।
मंजु च्महिमाज् की पुस्तक लोकार्पित हो चुकी है, हम सब उनकी इस तत्पर चेष्टा में उनके साथ हैं। मन के भीतर अपने शब्दों के माध्यम से उतर जाने वाली यह कवयित्री अपने पारदर्शी स्नेहिल व्यक्तित्व से भी सबको सदा जीतती आई है।
हमारे हजारों सलाम
हैं उनके नाम
जो चलते नहीं ....किसी के बनाए रास्तों पर
बनाते हैं स्वयं अपनी राह
और ....छोड़ जाते हैं एक छाप
दिलों की जमीन पर .....
स्वागत है च् हथेलियों पर उगते सूरजज् का जो हमें भी एक नयी ऊर्जा तथा दिशा देगा। मंजु महिमा के साहित्यिक गौरवपूर्ण कदम का स्वागत है। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि  इस पुस्तक में संगृहित उनकी कविताएं पाठक को उनके अहसासों से जुड़ने के लिए बाध्य कर देंगी...!

गिनती करोड़ के

ललित नागेश
पान ठेला म घनश्याम बाबू ल जईसे बईठे देखिस, परस धकर - लकर साइकिल ल टेका के ओकर तीर म बईठगे। पान वाला बनवारी ल दू ठिन पान के आडर देवत का रही भईया तोर म काहत घनश्याम ल अंखियईस। दू मिनट पहिलीच एक पान मुहु म भरके चिखला सनाय भईसा कस पगुरात बईठे रिहीस। बरोबर सुपारी ह घलो चबाय नइहे अउ एति पान के आडर। अभीच भरे हंव काहत घनश्याम बाबू मना करत मुड़ी हलइस फेर परस के दरियादिली के आगु ओकर कंजुसी चलबे नइ करय। जइसे बनवारी पान ल चिपोटत लौंग के काड़ी म भोस के दिस,परस ऊंट कस मुहु ल फारत ओमा हुरस दिस। अउ बगल म तुरते पच ले मार दिस।
फेर घनश्याम बाबू तिरन गसियावत धीरलगहा पुछथे - करोड़ रुपिया कतेक अकन होत होही भईया? घनश्याम बाबू अकचकागे, पहिली तो आंखी ल बटेर के ओकर मुड़ी ले गोड़ देखिस। फेर कथे - तोला कांही बाय भूत तो नी धर लेहे? कईसे आज करोड़ के गिनती पुछत हस? सौ दू सौ के कमईया कब ले करोड़पति बनगे। परस कहुं अनीत - सनीत काम धंधा म तो नी लगगे हस। रयपुर वाला बेंक के तिजोरी ल फोरिन तिंकरे संग संगत म तो नइ परगे हस? अइसने धड़धड़ धड़धड़ घनश्याम के मुंहु ले सवाल छुटगे। अतेक अकन सवाल एक संघरा सुनके परस बक खागे।
फेर थोरिक एति ओति देखके कहिथे - अइसन बात नइ होय भईया एतहु मन का ले का सोंच डारथव। मे तो सिरीफ  कतका होथे इही पुछे हंव। तरी उपर होवत सांस ल घनश्याम धीरज देवत कहे लागिस - करोड़ के गिनती गिने के न तोर औकात हे परसु अउ न मोर बताय के ,फेर अइसे का बात, जेमा तोला करोड़ के संउक लागत हे। तहुं भईया बात ल कहां ले कहां ले जाथस? गोठबात ल घुमात परस किहिस। टीवी नी देखस का? कइसे एक ठिन सवाल म एक लाख,दू ठिन म दू लाख,पांच सवाल म दस लाख,कनहो सवाल तो पचास लाख के घलो होथे। देखते देखत करोड़पति बन जाथे। अंखमुंदा खेल बरोबर! परस फेर आगु कहिथे - हम तो एला सिरीप मनोरंजन समझत रेहेन, फेर बताथे सिरतोन म पईसा जीत के लानथे। उपराहा म पुछथे घलो कोन - कोन करोड़पति बनही। अइसने अइसने सवाल के जुवाप ले कई ठिन परीक्छा के पेपर ल पोते हन। करोड़ ल कोन काहय बरोबर हजार रुपिया देखे ल नी मिले।
घनश्याम बाबू परस के गोठ ल सुनत भोकवाय हूं हूं हूंकारु देवत हे अउ परस के बात चलतेच हे। सरकार कांही घोसना करही तहू ह हजार करोड़। लाख लाख करोड़ के योजना निकलथे, बजट बनाथे, अतका करोड़ वोतका करोड़! जब गिनतीच ल नी जानबे, त काला समझबे? अउ ते अउ कोनो कलेचुप रिश्वत मांगही वहु ह करोड़ के उही पार। भरस्टाचार करही वहू करोड़ ले उपर, अपन परचार बर, मुहुकान ल बने देखाय बर बिग्यापन घलो करोड़ ले उपर। हड़तालिया मन बर घलो एके जुवाप, करोड़ो रुपिया के लागा करे ल परही तुंहर बर। अइसे लागथे करोड़ ले कम ह पइसाच नी होय! तिही पाय के भईया मे गिनती पुछत रेहेंव!
परस के गोठ म हुंकारु देवत घनश्याम बाबू मुड़ी हलात कथे- सिरतोन बात ए भाई! फेर हमर भाग म अइसन कहां जेन जीते जीयत अतेक अकन रुपिया देखे ल मिलही? इंहा तो नून तेल गोंदली ह रोवा डारथे। पाछु हप्ता के पेपर ल परस धरे राहय, ओमा छपे समाचार ल देखात कहिथे- ले देख, एकर ऊपर म पांच करोड़ के इनाम हे। पता बता अउ बन जा करोड़पति! इनाम देवईया कोनो गंगू तेली नही राजा राठी आय। समझ जा राजा के आदेश आय! घनश्याम बाबू परस ल इंच्चट देखे, भीतरे - भीतर पछीना छुटे लागिस। थरथरावत जबान म घनश्याम बाबू परस ल घुड़कथे - त करोड़पति बने बर काकरो मुड़ी ल काट देबे का? अरे पइसा खातिर काकरो लहु रकत बोहाना गलत बात आय! कोनो ल रोआ के सुख नइ मिले! परस हांसत कहिथे - तै नइ जानस भईया! बाहुबली ल मारिस तभे तो पांच सौ करोड़ कमईस हे गा।
बहेराभांठा,छुरा
गरियाबंद (छ .ग)