इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 27 अगस्त 2018

आपहुदरी में स्त्री-विमर्श और बोल्ड लेखन

- प्रीति दुबे

     आदिवासी-विमर्श की महान् लेखिका रमणिका गुप्ता की आत्मकथा भाग-2 ‘आपहुदरी’ (एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा) 2014-15 ई. स्त्री आत्मकथा-साहित्य की ही नहीं बल्कि हिंदी-साहित्य की सद्यः प्रकाशित आत्मकथा है। ‘आपहुदरी’ यह कथा लेखिका के जीवन में घटित तमाम घटनाओं, टकराहटों, संघर्षों और भटकावों का आकलन है। यह आत्मकथा रमणिका गुप्ता के जीवन दर्द को बयां करते हुए सामन्ती समाज की पोल खोलती है।
     ‘आपहुदरी’ रमणिका गुप्ता के जीवन की वास्तविकता को परत दर परत खोलती बोल्ड एवं निर्भीक आत्मस्वीकृति की साहसिक गाथा है, जिसमें लेखिका के बचपन से लेकर धनबाद तक की यात्रा कला, साहित्य, समाज-सेवा और राजनीति संघर्षों को चीन्हती रचनाकार की अनोखी दुनिया भी। इस आत्मकथा में रमणिका गुप्ता अपने विरुद्ध खड़ी सामाजिक रूढि़यों, परम्पराओं और तथाकथित संस्कारों की बाढ़ से उबरने के लिए छटपटाती है अपने पर लगे लांछनों को स्वीकार नहीं करती सत्य की विध्वंसक एवं रहस्यमयी मारक शक्तियों का प्रयोग स्वयं के बचाव के तौर पर करती हुई वापिस उसी समाज को वह सारे लांछन, आरोप लौटा देती है। इस आत्मकथा का समय बहुत लम्बा, स्पेस व भूगोल विशाल है।
     पंजाब के सुनाम में जन्मी रमणिका गुप्ता के पिता पटियाला रियासत में (मिलिट्री) डाॅक्टर थे। नाना दीवान दीनानाथ खोसला इसी रियासत के बड़े जमीदार थे। लेखिका का जन्म सामन्ती समाज में हुआ था। इस समाज में पुरुषों को पूर्ण स्वतंत्रता, अधिकार प्राप्त थे, वहीं महिलाओं पर अनेक पाबन्दियाँ, रोक-टोक, पितृसत्तात्मक समाज द्वारा लगाई गई थी। लड़कों के जीवन के तौर-तरीके अलग थे और लड़कियों के अलग। लेखिका अपनी इच्छानुसार कार्य करने का साहस करती है, सबका विरोध झेलती है, परम्पराओं को स्वयं ही तोड़ती है, माँ द्वारा सिर ढंककर चलो की हिदायत देने पर वह तीखे तेवरों से उनका विरोध प्रकट करते हुए कहती है 'नहीं ढकूंगी सिर! क्यों ढकूं? क्या लड़के सिर ढक कर चलते हैं? रवि को क्यों नहीं कहती अपना सिर ढकने को? मैं कोई उससे कम हूँ क्या? नाना जी के हवेली और क्लब में इतनी मेमें आती हैं, वे ‘चुन्नी’ (दुपट्टा) नहीं ओढ़तीं। मैं क्यों नहीं उनकी तरह बिना ‘चुन्नी’ ओढ़े चल सकती?" यह अच्छे घर की लड़कियों का रिवाज़ नहीं है। माँ मुझे समझाते हुए कहती।
      ”मुझे नहीं चाहिए अच्छे घर के रिवाज। मैं नहीं बनूंगी अच्छे घर की लड़की। यह सब पुरानी बातें है। मैं नहीं मानूंगी, कोई पुरानी बात। मैं अपना ही रिवाज़ चलाऊंगी, खुद अपने आप।" मैं ज़ोर देकर कहती।1

     बचपन से ही परिवार में सबसे जिद्दी लड़की रही लेखिका को ‘आपहुदरी’ कहा जाता था। यह एक पंजाबी शब्द है जिसका अर्थ होता है अपने मन की करने वाली अर्थात् जिद्दी लड़की।
    सामन्ती समाज में स्त्री को भोग्या मानकर भोगा जाता था। एक पुरुष के एक से अधिक प्रेम प्रसंग परिवार में उनकी मर्दांनगी का प्रमाण होता था। पत्नियाँ, बहनें, माएँ भी बिना विरोध किए बड़ी सरलता से ऐसे अमान्य संबंधों को स्वीकार कर लेती थी। रियासतों में ये आमतौर पर होता था। लेखिका के पिता जो कि पेशे से मिलिट्री में डाॅक्टर थे वे अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते किन्तु अवसर हाथ लगने पर घर से बाहर भी पर स्त्रियों से संबंध स्थापित करते रहते थे। नाना के रूप में रमणिका एक ऐसा जीता जागता जमींदाराना उदाहरण देखती है। जो घर में ही अपनी बेटी से ही संबंध स्थापित करता है जो कि भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है रिश्तों का यह घिनौंना रूप, बेटी की इज्जत पर अपने पौरुष का दम भरता यह सामन्ती समाज जिसे अपने किए कुकृत्यों पर जरा-भी ग्लानी नहीं होती बल्कि शोषित-पीडि़ता ही स्वयं को कसुरवार मानकर मानसिक संताप झेलती रहती हैं अपने समाज में स्त्री की इस विवशता को प्रकट करते हुए लेखिका लिखती हैं कि- ”घर में औरत को आदर, प्रचुर प्रेम के चश्मे (झरने), बाहर ऐय्याशी से सराबोर सागर। औरत का दोनों रूपों में भोग। पत्नी का पावन रूप, प्रेमिका का अनुराग, वीरांगना की आसक्ति, पुरुष सभी का बिना अपराध बोध के उपभोग करता था। स्त्री अपराध-बोधों की पिटारी थी। अपनी ज़रा-सी बेवफ़ाई उसे अपनी ही निगाहों में चोर बना देती थी और चोर बनाने वाला पुरुष बेदाग रहता था।“2


      भारतीय संस्कृति में यौन संबंधों की चर्चा खुले आम करना जहाँ निषेध माना गया है, वहीं सामन्ती समाज में ये संबंध घर से बाहर ही नहीं अपितु घर के भीतर भी बनते थे। इनका शिकार कभी नौकरानियों तो कभी बहुएँ, बेटियाँ, हुआ करती थी। लेखिका अपने बाल्यकाल से ही यौन उत्पीड़न का शिकार होती रही अपने स्तर पर उसका विरोध भी प्रकट करती रही। अपने साथ हुई इन सारी ज्याततियों को इस तरह सरे आम बयां करना एक जोखिम भरा कदम है यह सच एक स्त्री के निन्तात निजी है रमणिका गुप्ता अपने बचपन की कुछ ऐसी ही घटनाओं का उल्लेख करती है क्योंकि वह यौन संबंधों से जुड़ी है सामन्ती परिवारों के धनाढ्य या पेशेवर पुरुष ही नहीं अपितु इनके यहाँ काम करने वाले नौकर पुरुष भी यौन संबंध उसी घर में काम करते हुए उसी घर की बच्चियों, बहुओं से स्थापित करते। पाखण्ड का चोला ओढ़े धर्म के ठेकेदार जो समाज को धार्मिक शिक्षा देने का दावा करते पाखण्ड की आड़ में वे भी न जाने कितनी लड़कियों का कौमार्य भंग कर चुके होते थे। स्वयं लेखिका कई बार इसका शिकार हो चुकी थी पुरुष के इस रवैये ने उनके भीतर आज इतना साहस एवं आत्म विश्वास भर दिया है कि वे सामाजिक स्तर पर इन सारी घटनाओं को लिखने का साहस ही नहीं कर पाई अपितु अपनी बेबाक लेखनी से विरोध भी प्रकट करती रही है इसी संदर्भ में लिखती हैं कि- ”मेरे प्रतिवाद का यही तरीका रहा है पहले झेल लेना, बाद में झुंझलाना, पछताना और आगे प्रतिरोध करना, आवृत्ति नहीं होने देना। सम्भवतः हर लड़की का यही तरीका है। यह तो अब समझ आ रहा है कि वह सब क्या था, जिसने बचपन में ही मेरे भीतर भय, असुरक्षा और भीखता के बीज बोने की कोशिश की। ये अप्रिय संस्कार मुझे नौकरों ने, सगे सम्बन्धियों या घर आए मेहमानों ने दिए, जिनकी स्मृति मेरे विद्रोही तेवरों से उभारने में सहायक तो जरुर हुई....मेरे अवचेतन में बैठ गया। मेरी शुचिता बार-बार टूटी....इस टूटन का अपराध बोध मुझे हीनता से भरता रहा। बहुत बाद में जाकर मैं इससे उबर पाई।“3
     सामन्ती समाज में यौन संबंध, बलात्कार स्त्री शोषण, अन्याय, अत्याचार कोई नई बात नहीं शिकार होती पीडि़ता को ही चुपचाप सब कुछ सहने सहते रहने की नसीहतें दी जाती रही है स्त्री जाति की इसी सहते रहना बुराई या अत्याचारों के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठाना अपराधी के तेवर बुलन्द करते रहना है। लेखिका समाज की स्त्रियों को बताना चाहती है कि जब तक हम स्वयं इनका विरोध नहीं करेंगें अपराधियों के हौंसले बुलन्द होते रहेंगें। सच को स्वीकारना ही सबसे बड़ा साहस है हम जब तक सच कहने या सच का साथ देने से दूर भागेंगें मृत्यु के उतने ही निकट पहुँचेगें और अपराधी दुनिया को हमारा सच बता देने का भय दिखाकर हमें ब्लैकमेल करता रहेगा। जरुरी है सच कहने की हिम्मत और कुव्वत। सच सुनने में जितना कटु होता है उतना ही बड़ा होता है। जितना बड़ा सच होता उतनी लम्बी, प्रभावशाली उसकी गूंज होती है। सत्य की विराटता शक्ति को व्यक्त करते हुए लेखिका लिखती है कि- ”सत्य जितना सपाट और स्पष्ट होता है, उतना ही बड़ा रहस्य छिपा होता है उसके भीतर। वह जितना रहस्यमय होता है, उतना ही मारक होता है। बदलाव के सब शर्तें, सत्य के गर्भ में छिपी होती हैं। मैंने सत्य की इसी रहस्यमयी मारक और विध्वंसक शक्ति का प्रयोग किया-अपने खिलाफ खड़ी सामाजिक परम्पराओं, रूढि़यों और तथाकथित संस्कारों की बाढ़ से उबरने के लिए। बहुत हमले हुए, बहुत आरोप लगे, लांछन उछाले गये। मैंने उन्हें स्वीकार नहीं किया और वापिस उसी समाज को लौटा दिया। बूमरैंग कर गये सबके सब उन्हीं पर। मैं अगली मुहिम के लिए फिर से उठ खड़ी होती रही।“4

‘आपहुदरी’ रमणिका गुप्ता के प्रेम प्रसंग की कहानी होने के साथ-साथ बोल्ड-लेखन का अद्भूत दस्तावेज भी है। बचपन में दैहिक शोषण का शिकार होती रमणिका गुप्ता मासूमियत खो बैठती है। 11-12 वर्ष की आयु में निरन्तर दैहिक शोषण ने रमणिका गुप्ता के भीतर यौन की अतृप्त प्यास पैदा कर दी। इसी संदर्भ में रमणिका गुप्ता लिखती हंै कि ”अपने को अतृप्त रखना, पूर्ण न होने देना, असन्तुष्ट रहना, बचपन में ही मैंने सीख लिया था और इसी अपूर्णता और अतृप्ति को मैं पूर्णता और तृप्ति के रूप में स्वीकारती थी। असन्तोष मुझे गति देता था। कुछ पाने की इच्छा मेरी इच्छा-शक्ति को ऊर्जा देती थी। तृप्ति मुझे गतिहीनता का प्रतीक लगती थी। तृप्ति मुझे मुर्दापन का अहसास कराती थी। एक ऐसा अहसास जहाँ सब खत्म हो जाता है और करने को कुछ शेष नहीं रह जाता। हासिल करना मेरा लक्ष्य जरुर या लेकिन हासिल करके सन्तुष्ट हो जाना, न मैंने जाना, न ही मैंने सीखा।“5

‘आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता रिश्तों में छिपे दुराचार भाई-बहन जैसे पावन रिश्तों को भुलाने की पुंसवादी मानसिकता को स्पष्ट करती है। अपने चचेरे भाई द्वारा दैहिक स्तर पर बालपन में घटी उनके कुँवारेपन में योनि के क्षत-विक्षत होने की घटना को अत्यनत बेबाक ढंग से अभिव्यक्त करते हुए लिखती हैं कि- भाई-बहन के रिश्ते का एक अलग आदर्श था मेरे मन में, जिसे तोड़ा था उसकी इस हरकत ने। यह बड़ा सवाल था जो मुझे प्रायः कचोटता रहता था, इसी कचोट ने मेरे आदर्शों के पारदर्शी पदों की ओर को तार-तार कर दिया था। रिश्तों के पर्दे चाक-चाक हो गये थे। यौन-वर्जनाएँ जैसे उपहास उड़ा रही थीं वर्जना लगाने वालों या मानने वालों का या रिश्तों का। मेरे मन में पैठे रिश्तों की कसौटी में गहरी दरार पड़ गयी थी। उसी दिन शायद यौन के प्रति जिज्ञासा भी तीव्र हुई थी। वर्जनाएँ जो यौन संबंधों पर लगी थीं, ढहने लगी थीं या ढह गयी थीं। अंकुश ही मुचक गया था।6
     ‘आपहुदरी’ में स्त्री बोल्ड लेखन का फलक बहुत व्यापक है। इस आत्मकथा का एक प्रमुख आयाम ‘स्त्री-मुक्ति’ से भी संबंधित है। मास्टर के शोषण से मुक्त होने के लिए झटपटाती रमणिका प्रेम-यात्रा पर निकल पड़ती है। जहाँ उनकी मुलाकात वेद प्रकाश से होती है। समाज, जात-पात की परवाह किए बिना प्रकाश से अन्तरजातीय विवाह करती है। प्रकाश ही वह राजकुमार था जो जिन्न रूपक आर्य समाजी मास्टर से रमणिका को मुक्ति दिला सकता था। रमणिका गुप्ता लिखती हंै कि- ”मेरे भीतर कोई शहजादा-राजकुमार या नाइट बसता था, जो मेरे भीतर बैठी एक डरी-सी लड़की को मुक्ति दिलाने के लिए सदैव तत्पर रहता था। मेरे कानों में राजकुमार की आहट अनवरत गूंजती थी। पता नहीं क्यों एक अंतरंग साथी बनकर एक पुरुष मेरी मदद में आ जाता था, जबकि पुरुष से ही त्रस्त थी मैं।“7

     रमणिका गुप्ता पुरुष की संस्कारबद्धता एवं संदेह करने की पुरुष प्रवृत्ति से त्रस्त आकर यौन वर्जनाओं, निषेधों के सभी प्रतिमान, नैतिकता के सभी मानदण्डों को तोड़ते हुए प्रेम की अतृप्त प्यास को, यौनाकांक्षा एवं सेक्स-भावना को अत्यन्त बेखौफ एवं बोल्डनेस के साथ प्रस्तुत करती है - ”मैं जितना भी वफादार रहूं, प्रकाश तो मुझ पर शक करेगा ही, फिर क्या जरुरत है उस निष्फल, बेमतलब वफादारी की, जब वफादार होने पर भी शक की नज़रों से ही देखा जाना है। फिर शक को ही सच होने दो। क्या हर्ज है?“8प्रकाश के साथ बनते बिगड़ते रिश्तें जीवन जीने की उन्मुक्त चाह रमणिका को संवेदनाविहीन बना देती है और हर क्षण वह उन मौकों की खोज में रहती है जिनके माध्यम से वह अपने स्वप्नों को पूरा कर सकें। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति रमणिका को बार-बार दैहिक शोषण की गुमनाम गलियों में ला खड़ा करती है। जहाँ वे बार-बार गर्भवती होती है। हर बार एवाॅशर्न करवाती है। अपनी बेटी के जन्म की सच्चाई की स्वीकारोक्ति उनके बोल्ड लेखन का ही परिणाम है- ”मैं पति नाम के खूंटे से बंधी थी, पर उसे मैं एक रस्मी रिश्ता मानकर निभा रही थी। इसलिए अपने प्रेम के रिश्ते गोपनीय रखती थी, पर अगर प्रकाश को पता चल जाए तो मैं सच-सच कह भी देती थी। भक्ष्य-अभक्ष्य क्या है, यह संबंधित व्यक्ति ही तय करता है। अपने यौन-सुख के किस्से सुनाकर वह मुझे उत्तेजित करता था या मैं ही उसके सेक्स-सुख का अन्दाजा लेते-लेते स्वयं ही उस सुख के लिए आतुर हो उठती थी, यह मैं नहीं कह सकती।“9

     ‘आपहुदरी’ रमणिका गुप्ता के भोगे हुए जीवन की खुली किताब है जिसके अन्तर्गत उन्होंने अपने साथ घटित लेस्बियन संबंध को भी बोल्ड रूप से प्रस्तुत किया है। युवा होती भाभी अपनी देह की भूख मिटाने के लिए रमणिका को कसकर अपनी बाँहों में कस लेती, लेस्बियन संबंध बनाती है। डरी सहमी रमणिका दादी के पास भागकर अपने को बचाने की कोशिश करती है इस घटना से रमणिका के मन में पुरुष के साथ-साथ औरत के साथ सहवास का बीज भी पड़ जाता है। रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि- ”पुरुष तो स्त्री को प्रायः इस दृष्टि से ही देखता है भाभी से ‘लेस्बियन’ रिश्ते की तो शुरुआत हुई, पर उस रिश्ते के प्रति घृणा और भय की प्रेतछाया भी मेरे मन में पलने लगी।“10
      रमणिका गुप्ता प्रतिशोधवश (पुंसवादी समाज से) अथवा बचपन से यौन उत्पीड़न की शिकार होते रहने के कारण प्रेम की तलाश करते हुए एक के बाद एक प्रेम-यात्रा पर निकल पड़ती है। कई पुरुषों के सम्पर्क में आती है। अनेक पुरुषों से ‘फीजिकल रिलेशनशिप’ रखने के बावजूद भी यौनाकांक्षा से पूर्ण संतुष्टि नहीं हो पाती। इस यात्रा में उनके जीवन में एक के बाद एक पुरुष आते रहते हैं वह एक ऐसी पगडंडी बन जाती है जिसका कोई अन्त नहीं होता। बकौल रमणिका गुप्ता- ”वे क्षण मुझे ज्यादा अच्छे और तर्क लगते थे, जिन्हें मैं मुक्त होकर जिऊं और निभाऊं, बजाय उन क्षणों के जिन्हें मैं मात्र इसलिए जिऊं या निभाऊं कि कहीं मैं बेवफा या विश्वासघाती न कहलाऊं। मैं नहीं जानती, क्यों ऐसा हुआ, जब एक ही समय में मुझे एक से अधिक लोगों के साथ प्यार का अहसास होने लगा। ये मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूँ कि जितने भी क्षण, पल, दिन या महीने मैंने जिसके साथ गुजारे, वे पूरी तरह उसी के साथ जिए और गुजारे। तब दूसरे या किसी और का ध्यान मुझे नहीं आया। जब कोई दूसरा मेरे नज़दीक आता तो मेरा समय उसी के लिए हो जाता।“11
      ‘आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता का बोल्ड रूप न सिर्फ अपने प्रेम प्रसंगों और यौन संबंधों का खुलासा करने में नज़र आता है, अपितु पीरियड रुकने पर प्रेगनेंट होने पर एवाॅशर्न कराने में भी प्रकट होता है। बच्चा न होने का आॅपरेशन मुक्त होकर प्रेम सुख प्राप्त करने के लिए करवाती है। रमणिका गुप्ता को इस आॅपरेशन से सारे झंझटों से मुक्ति मिल जाती हैं सामाजिक एवं पारिवारिक लोक-लाज की रक्षा भी हो जाती है स्वतंत्र सोच एवं दृढ़ निश्चिय की धनी रमणिका लिखती हैं कि- ”माँ, जिसका बनना कब गौरव बन जाता है और कब कलंक, यह स्त्री नहीं जानती। यह समाज के हाथ में हैं, पुरुष के हाथ में है। चूंकि ‘मां’ देवी है या कुलटा, इसकी मुहर पुरुष ही लगाता है, जो बाप कहलाता है। मैं ‘माँ’ की सृजनशक्ति को बच्चा पैदा करने की क्षमता को गौरवमय मानती थी। किसने बीज डाला, यह मेरे लिए गौण था। मैंने खेत ही बंजर रखने का फैसला लिया, फिर कोई विवाद नहीं होगा। फसल ही नहीं उगेगी तो मिल्कियत कैसी? जमीन है? धरती है, उस पर दावे करते रहे पुरुष! उन दावों से क्या होगा। धरती तो धरती है। वह अपने अस्तित्व के कारण है किसी मालिक या पुरुष के कारण धरती धरती नहीं बनती? औरत भी किसी पुरुष के कारण औरत नहीं होती।12

      आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता का बोल्ड रूप लज्या नामक दूसरी बेबस लड़की को मास्टर के चंगुल से मुक्त कराने में भी नज़र आता है। डरी सहमी वह लड़की मास्टर की उन गलत हरकतों का विरोध नहीं कर पाती। रमणिका गुप्ता को जब इस घटना का पता लगता है तो वह मास्टर का पर्दाफाश करते हुए अपने पिताजी, बीबीजी को कहती है कि- ”आप तो मुझ पर विश्वास नहीं करते थे, पर आपकी आँख तले यह हमारा शोषण करता रहा और अब लज्या का कर रहा है। मुझे भी ब्लैकमेल कर रहा है। अब या तो यह मास्टर घर में रहेगा या मैं रहूंगी।“13
    ‘आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता व प्रकाश की शादी में गवाह की भूमिका निभाने वाले मिलिट्री का रिटायर्ड अफसर को उसकी माँग पर यौन सुख प्रदान करने की स्वीकारोक्ति बोल्ड लेखन है बकौल रमणिका गुप्ता ”पता नहीं मुझे उस वक्त क्या हो गया था? सेक्स को पुरुष का अधिकार और पहल मानने वाली मैं, उस दिन स्वयं पुरुष बन बैठी और मैंने स्वयं प्रयास करना शुरु कर दिया।“14
    ‘आपहुदरी’ आत्मकथा में सेक्स का खुला एवं व्यापक चित्रण रमणिका गुप्ता के बोल्ड लेखन का दस्तावेज है।



संदर्भ सूची
1.    रमणिका गुपता, आपहुदरी (एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा), सिर ढंक कर चलो, सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं.-33
2.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, दोहरे मापदंड, पृ.सं.-70
3.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, अतीत के सांप, पृ.सं.-77-78
4.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, भूमिका से, पृ.सं-18
5.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, बदलती देह, पृ.सं.-120
6.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, अपराध बोध का बीज, पृ.सं.-84
7.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, सच बोलना क्यों जरुरी, पृ.सं.-16
8.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, वफादारी की कसम टूटी, पृ.सं.-261
9.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, मद्रास, पृ.सं.-336
10.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, भाभी, पृ.सं.-125
11.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, आँखों से झलकता प्यार, पृ.सं.-272
12.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, मद्रास, पृ.सं.-339
13.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, जब रिश्तों की गरिमा टूटी, पृ.सं.-300
14.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, यू आर माई लिटिल एंजेल, पृ.सं.-220

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