ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
मन ही मन देखो तिमिर को खल रही हैं,
दीप मालाएँ जो अविरल जल रही हैं।
हे मनाही राम के मधु आगमन पर,
आश्रमों में ताड़काएँ पल रही हैं।
बढ़ रहा है शोर हर पल उल्लुओं का,
लोग कहते हैं कि रातें ढल रही हैं।
किस तरह टूटे धनुष ये रूढ़ियों का,
आदमी को लालसाएँ छल रही हैं।
अक्षरों के गाँव में दीपावली है,
भावनाएँ पर सदा काजल रही हैं।
लीक से कोई हटेए तो किस तरह,
बाध्यताएँ लोक पकड़े चल रही हैं।
मन ही मन देखो तिमिर को खल रही हैं,
दीप मालाएँ जो अविरल जल रही हैं।
हे मनाही राम के मधु आगमन पर,
आश्रमों में ताड़काएँ पल रही हैं।
बढ़ रहा है शोर हर पल उल्लुओं का,
लोग कहते हैं कि रातें ढल रही हैं।
किस तरह टूटे धनुष ये रूढ़ियों का,
आदमी को लालसाएँ छल रही हैं।
अक्षरों के गाँव में दीपावली है,
भावनाएँ पर सदा काजल रही हैं।
लीक से कोई हटेए तो किस तरह,
बाध्यताएँ लोक पकड़े चल रही हैं।
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