इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

बुधवार, 16 मई 2018

हम नहीं सुधरेंगे

अम्‍बरीष श्रीवास्‍तव

बिरादरी में ऊँची नाक रखने वाले, दौलतमंद पर स्वभावत: अत्यधिक कंजूस, सुलेमान भाई ने अपने प्लाट पर एक घर बनाने की ठानी। मौका देखकर इस कार्य हेतु उन्होंने एक परिचित के यहाँ सेवा दे रहे आर्कीटेक्ट से बात की। आर्कीटेक्ट नें उनके परिचित का ख्याल करते हुए बतौर एडवांस, जब पन्द्रह हजार रूपये जमा कराने की बात कही तो सुलेमान भाई अकस्मात ही भड़क गए, और बोले - मैं पूरे काम के किसी भी हालत में एक हजार से ज्यादा रूपये नहीं दूंगा! यह सुनकर वह आर्कीटेक्ट वापस चले गए। इधर सुलेमान भाई ने भी सस्ते में ही, एक दो मंजिला शानदार घर बनवा डाला। इस बात को एक महीना भी नहीं बीता, तभी किसी व्यापारिक कार्यवश दिल्ली प्रवास के दौरान, सुलेमान भाई को खबर मिली कि उनके शहर में एक तेज भूकंप आया है। हड़बड़ी में गिरते - पड़ते किसी तरह जब वे अपने घर पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि परिचित का घर तो सीना ताने उनके सामने खड़ा था पर मलवे की शक्ल में तब्दील उनके सपनों का घर, सारे परिवार को स्वयं में दफन किये हुए, उनकी कंजूसी को लगातार मुँह चिढ़ा रहा था। यह देखकर वे विक्षिप्त से हो उठे और अपना सिर जमीन पर पटकने लगे।
अकस्मात कन्धे पर किसी का सांत्वना भरा हाथ पाकर, उन्होंने आँसुओं से भरा हुआ स्वयं का चेहरा ऊपर उठाया, तो पाया कि वही आर्कीटेक्ट, स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से, मलवे से सुरक्षित निकाली हुई, उनकी तीन वर्षीय जीवित पोती को गोद में उठाये हुए, उन्हें सकुशल सौंप रहे थे ... जिसे उन्होंने एकबारगी तो अपने कलेजे से लगा लिया किन्तु अगले ही पल उसे गोद से उतारा और आसमान की तरफ  हाथ उठाकर बोले ऐ पाक परवरदिगार! ये क्या किया! इससे तो अच्छा था मेरे फरीद को बचा लेते ...आखिर मेरा वंश तो चलता !

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