- संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ी मुहावरों पर अट्ठारहवीं सदी के अंतिम दशक में लिखी गई हीरालाल
काव्योपाध्याय की ‘छत्तीसगढ़ी बोली का व्याकरण’ में जो लोकोक्तियां
संग्रहित हैं उन्हें कहावतें कहा गया है। सन् 1969 में प्रकाशित
डॉ.दयाशंकर शुक्ल शोध ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य का अध्ययन’ में
शुक्ल जी नें कहावतों को लोकोक्ति का एक अंग कहा है एवं लगभग 357 कहावतों
का संग्रह प्रकाशित किया है। सन् 1976 में डॉ. चंद्रबली मिश्रा के द्वारा
प्रस्तुत शोध ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी मुहावरों और कहावतों का सांस्कृतिक अनुशीलन’ में
कुछ शंका का धुंध छटा है। हालांकि यहां भी स्पष्ट रूप से इन्हें
विभाजित नहीं किया गया है किन्तु फिर भी पूरे शोध ग्रंथ के अध्ययन से बात
कुछ समझ में आती है। डॉ.अनसूया अग्रवाल के शोध ग्रंथ सन् 1990, ‘छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन’ में
इसके बीच के अंतर को स्पष्ट तरीके से अलग नहीं किया गया है बल्कि दोनों
को लोकोक्ति के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है। सन् 2008 में प्रकाशित
चंद्रकुमार चंद्राकर की किताब ‘छत्तीसगढ़ी मुहावरा कोश’ में इन्हें
संयुक्त रूप से मुहावरा ही कहा गया है।
सबसे महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ 'छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन' सन् 1979 में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ में 940 लोकोक्तियों का संग्रह और शोध, स्मृतिशेष डॉ. मन्नूलाल यदु ने प्रस्तुत किया है। यदु जी ने लोकोक्ति को समझाते हुए लिखा है कि लोक की उक्तियां इस प्रकार होती हैं कि एक गवंई पंच, बैरिस्टर को तर्क से हतप्रभ कर दे। वे आगे लिखते हैं कि लोकोक्तियां प्राय: संक्षिप्त, सारगर्भित और सप्रमाण होती हैं। लोकोक्ति का शब्द विच्छेद लोक की उक्ति है। इसे अर्थ की पूर्णता के लिए अतिरिक्त शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती अर्थात लोकोक्तियां स्वयं में पूर्ण होती हैं। वे इसे बेहतर तरीके से समझाते हुए एक जगह लिखते हैं कि 'लोकोक्ति का एक-एक शब्द नपा-तुला होता है। वह बहुमूल्य रत्नों द्वारा पिरोया ऐसा अद्भुत हार है जिसका एक रत्न टूटा या बदला, कि हार की चमक धूमिल पड़ी।' उन्होंने ग्रंथ के परिभाषा खंड में इस पर विस्तृत विश्लेषण करते हुए लोकोक्ति को कहावत कहा है और उसे मौखिक लोक साहित्य माना है। उन्होंने विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं के आधार पर इसके छः तत्व निरूपित किए हैं। 1. बंधा हुआ लोक प्रचलित कथन 2. अनुभव की बात संक्षेप में 3. अलंकृत भाषा 4.सूत्रात्मक शैली 5. जीवन की आलोचना 6. लोक की उक्ति।
सबसे महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ 'छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन' सन् 1979 में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ में 940 लोकोक्तियों का संग्रह और शोध, स्मृतिशेष डॉ. मन्नूलाल यदु ने प्रस्तुत किया है। यदु जी ने लोकोक्ति को समझाते हुए लिखा है कि लोक की उक्तियां इस प्रकार होती हैं कि एक गवंई पंच, बैरिस्टर को तर्क से हतप्रभ कर दे। वे आगे लिखते हैं कि लोकोक्तियां प्राय: संक्षिप्त, सारगर्भित और सप्रमाण होती हैं। लोकोक्ति का शब्द विच्छेद लोक की उक्ति है। इसे अर्थ की पूर्णता के लिए अतिरिक्त शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती अर्थात लोकोक्तियां स्वयं में पूर्ण होती हैं। वे इसे बेहतर तरीके से समझाते हुए एक जगह लिखते हैं कि 'लोकोक्ति का एक-एक शब्द नपा-तुला होता है। वह बहुमूल्य रत्नों द्वारा पिरोया ऐसा अद्भुत हार है जिसका एक रत्न टूटा या बदला, कि हार की चमक धूमिल पड़ी।' उन्होंने ग्रंथ के परिभाषा खंड में इस पर विस्तृत विश्लेषण करते हुए लोकोक्ति को कहावत कहा है और उसे मौखिक लोक साहित्य माना है। उन्होंने विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं के आधार पर इसके छः तत्व निरूपित किए हैं। 1. बंधा हुआ लोक प्रचलित कथन 2. अनुभव की बात संक्षेप में 3. अलंकृत भाषा 4.सूत्रात्मक शैली 5. जीवन की आलोचना 6. लोक की उक्ति।
डॉ. मन्नूलाल यदु जी नें ही अपने शोध ग्रंथ में आगे लोकोक्ति और मुहावरे के
बीच अंतर को भाई-बहन का अंतर बताते हुए उदाहरण सहित स्पष्ट किया है।
पाठकों को इसे समझना आवश्यक है इसलिए हम इसे संक्षिप्त रूप में समझाने का
प्रयास करते हैं-
1. व्याकरण कलेवर में वाक्य गठन की दृष्टि से लोकोक्ति पूर्ण वाक्य हैं वही
मुहावरे खंड वाक्य। उदाहरण देखिए लोकोक्ति देखिए 'थैली के चोट ल बनिया
जाने' (धन की थैली का चोट धनिक ही जानेगा), 'लोभी चमरा ल बाघ धरय'(चमड़े की
लालच में बाघ द्वारा मारे गए ढोर का चमड़ा उतारने वाले को बाघ खाता है),
'सावन म आँखी फुटिस, हरियर के हरियर'। मुहावरा 'करलई मातब' (बड़ा दुःख)
-सियान के मरे ले घर म करलई मात गए। 'छाती के पीपर' (घर का जबर शत्रु जो
छाती को विदीर्ण कर दे) - का बतावव रे छाती के पीपर जाम गए।
2. अर्थ की दृष्टि से लोकोक्तियां पूर्ण हैं वही मुहावरे किसी शब्द के साथ
पूर्ण होते हैं। (अर्थ की दृष्टि से लोकोक्तियां स्वालंबी होती हैं जबकि
मुहावरे परमुखापेक्षी होती हैं।) उदाहरण लोकोक्ति 'हाथ के अलाली म मुंह म
मेंछा जाय' (मूछ को दिशा नहीं दोगे तो बाल मुँह के अंदर जाएंगे ही,अति
आलस्य), 'पांडे के पोथी-पतरा, पंड़इन के मुअखरा' (पंडिताइन का ज्ञान पंडित
से ज्यादा), 'कउँवा के रटे ले ढोर नइ मरय' (लालची के रटते रहने से अपेक्षित
वस्तु नहीं मिलता), 'औंघात रहिस जठना पागे' (जिन खोजा तिन पाइयां)।
कहावत 'धुंगिया देखब' (मौत देखना) - रोगहा तोर धुंगिया देखे ले मोर जीव
जुड़ाही।
3. शब्द संख्या की दृष्टि से लोकोक्तियां ज्यादा शब्दों की होती हैं जबकि मुहावरों में शब्द कम होते हैं।
4. शब्द परिवर्तन की दृष्टि से लोकोक्तियों में शब्द परिवर्तित नहीं होते
बल्कि वह जैसा है वैसा ही प्रयोग होता है। जबकि मुहावरे अन्य शब्दों के साथ
प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण लोकोक्ति 'चलनी म गाय दुहय, करम ल दोस देवय'
(भाग्यवादी लोगों के विरुद्ध), 'हपटे बन के पथरा, फोरे घर के सील', 'दुब्बर
ल दु असाढ़'। 'कान काटना', 'बीड़ा उठाना', 'बाना उचाना'।
5. लोकोक्ति का प्रयोग सामान्यतया खंडन-मंडन या उपदेश के लिए होता है। जबकि
मुहावरे का प्रयोग अर्थ में चमत्कार और वैशिष्ट लाने के लिए होता है।
मुहावरे के प्रयोग से सामान्य कथन में प्रभाव आता है और वह सशक्त एवं
प्रभावशाली हो जाता है। यथा 'तेजी से भागा', 'सिर पर पैर रख कर भागा'।
उदाहरण लोकोक्ति'डोंगा के अगाड़ी अउ गाड़ी के पिछाड़ी', 'कुकूर भूँके
हजार, हाथी चले बाजार', 'दूसर ल सिखोना दय, अपन बइठ रवनिया लय', 'कुकूर के
पूछी जब रही त टेडगा के टेडगा', 'कन्हार जोते, कुल बिहाये'
6. लोकोक्ति एक प्रकार का अलंकार है। जबकि मुहावरा लक्षणा और व्यंजना युक्त शब्द समुच्चय है। मुहावरा सभी अलंकारों में हो सकता है।
7. लोकोक्तियाँ पद्यात्मक, लयात्मक, छंद युक्त युक्त होते हैं। जबकि मुहावरे गद्यात्मक होते हैं।
अब हमारे विमर्श का विषय 'हाना' किसे कहते हैं, यह प्रश्न सामने आता है।
इसके लिए हम एक दूसरे महत्वपूर्ण ग्रंथ 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण' पर अपना ध्यान
केंद्रित करते है, जिसे मंगत रविंद्र जी ने लिखा है। इसमें 482कहावतों का
संकलन है। मंगत रविंद्र जी ने हाना और भांजरा दोनों के बीच अंतर को स्पष्ट
करने का प्रयास किया है। उन्होंने मुहावरे के लिए 'हाना' शब्द का इस्तेमाल
किया है। जबकि कहावतों के लिए 'भांजरा'और 'जोगवा' शब्द का इस्तेमाल किया
है। उन्होंने'भांजरा' को बांटना और 'जोगवा' को योग करना या मिलाना बताया
है। यानी जो छत्तीसगढ़ की कहावतें हैं वे'भांजरा' और 'जोगवा' हैं। आगे
वे 'हाना' और 'भांजरा'दोनों को लोकोक्ति कहते हैं क्योंकि दोनों लोक की
उक्ति है। उन्होंने अपने अनुसार छत्तीसगढ़ी में इसे विश्लेषित करते हुए
लिखा हैं कि, हाना-भांजरा अर्थात लोकोक्ति,लोकवाणी से लोक जीवन में रचा बसा
है। लोक और लोकोक्तियां संपृत हैं। इन्होंने भांजरा यानी कहावतों को गीता
जैसा और हाना यानी मुहावरों को अंधेरी रात में पूर्णिमा का चांद निरूपित
करते हुए लिखा है कि, 'भांजरा' में छंद की झलक भी होती है, 'हाना' में
भविष्य के लिए आगाह की झलक।
हमारा यह विमर्श 'हाना' यानी मुहावरे पर केंद्रित है। ऐसे लोक प्रचलित शब्द
युग्म पर जो अपने अंदर विलक्षण अर्थ छुपाए हो, जो लक्षणा और व्यंजना शक्ति
से सुनने वाले पर प्रभाव जमाये। उपर दिए गए अंतर के अनुसार ‘भांजरा’ यानी
कहावतों पर चर्चा कर ली जाए तो इन दोनों के बीच के अंतर को भली भांति समझा
जा सकेगा। डॉ. चंद्रबली मिश्रा नें अपने शोध ग्रंथ में कुछ छत्तीसगढ़ी
मुहावरों और कहावतों का उल्लेख किया है जो समानार्थी हैं। वे इस प्रकार
हैं –छत्तीसगढ़ी में एक मुहावरा है ‘मन मसकई’ अर्थात मन ही मन अकारण क्रोध
करना। इससे मिलता जुलता एक कहावत है ‘हपटे बन के पथरा, फोरे घर के
सील’ अर्थात अन्य कारण से अन्य पर क्रोध उतारना। ज्यादा बोलने या अपना
ही झाड़ते रहने पर छत्तीसगढ़ी मुहावरा है ‘पवारा ढि़लई’, इसी पर
विस्तारवादी कहावत है ‘बईठन दे त पीसन दे’ जो हिन्दी के अंगुली पकड़ कर
गर्दन पकड़ना का समानार्थी है। लालच को प्रदर्शित करने के लिए मुहावरा
है ‘लार टपकई’ और ‘जीभ लपलपई’, इसी से मिलता जुलता एक कहावत है ‘बांध लीस
झोरी, त का बाम्हन का कोरी’ हालांकि यह यात्रा में बाहर निकलने पर भोजन
करने के संबंध में है किन्तु यह लालच के लिए भी प्रयुक्त होता है।
निर्लज्जता को प्रदर्शित करने के लिए मुहावरा है ‘मुड़ उघरई’, इससे
संबंधित कहावत है ‘रंडी के कुला म रूख जागे, कहै भला छंइहा होही’ वेश्या
कब किसका भला करती है, किसे छांव देती है। आदत से संबंधित मुहावरा है ‘आदत
ले लाचार होवई’, इसी से संबंधित कहावत है ‘जात सुभाव छूटे नहीं, टांग उठा
के मूते’ और ‘रानी के बानी अउ चेरिया के सुभाव नई छूटे’एवं ‘बेंदरा जब
गिरही डारा चघ के’।
अव्यक्त मजबूरी के लिए मुहावरा है ‘मन के बात मने म रहई’, इसी से संबंधित
कहावत है ‘चोर के डउकी रो न सकय’। बेइमानी पर मुहावरा है ‘नमक हरामी
करई’ और‘दोगलई करई’, इस पर कहावत है ‘जेन पतरी म खाए उही म छेदा करय’।
संदिग्ध आचरण से संबंधित मुहावरा है ‘पेट म दांत होवई’, इससे संबंधित
कहावत है ‘उप्पर म राम राम भितरी म कसई’। यह मुह में राम बगल में छूरी का
समानार्थी है। जो मिल ना पाये उसकी आलोचना करने संबंधी हिन्दी के समान ही
छत्तीसगढ़ी में भी मुहावरा है ‘अंगूर खट्टा होवई’, इससे संबंधित कहावत
है‘जरय वो सोन जेमा कान टूटय’ अर्थात मुझे वह सोन की बाली नहीं चाहिए उससे
कान टूठ जाता है।
अत्याचार करने के संबंध में मुहावरा है ‘आगी मुतई’,इससे संबंधित कहावतों
में ‘डहर म हागे अउ आंखी गुरेड़े’, ‘आगी खाही ते अंगहरा हागही’, ‘पानी म
हगही त ऊलबे करही’। अनुवांशिकता से संबंधित मुहावरा है ‘बांस के
जरी, बांसेच होही’ और ‘तिली ले तेल निकलई’, इससे संबंधित कहावतें हैं ‘गाय
गुन बछरू, पिता गुन घोड़ा,बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा’, ‘जेन बांस के बांस
बंसुरी उही बांस के चरिहा टुकनी’, ‘जइसे दाई वइसे चिरा, जइसे ककरी वइसे
खीरा’।
आशा है उपरोक्त विवेचन से हाना एवं भांजरा के बीच का भेद स्पष्ट हुआ होगा।
दुर्ग ( छ.ग.)
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