इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

मंगलवार, 22 मई 2018

लील न जाए निशाचरी अवसान

- डॉ0 दीपक आचार्य

दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya          नई सुबह अब आने ही वाली है। जिस सुबह का इंतजार सभी को रहता है उस सुबह के आगमन का वक्त करीब आता जा रहा है।
       हमारे वर्ष का नया सवेरा भले ही प्रकृति के साथ प्रभाती गाता हुआ शुरू होता हो लेकिन दुनिया के बहुत से लोगों के लिए पाश्चात्यी सवेरा आने का समय हो चुका है।
यों भी अपने यहां संकल्पों के लिए हर साल कई बार कोई न कोई नव वर्ष आता ही रहता है। लेकिन इन सभी में पश्चिम के साथ, जमाने के साथ चलने वाले लोगों के लिए इस नव वर्ष का महत्व है जिसका अक्सर हर इंसान इंतजार करता है जो कि समझदार हो चुका है।
        बहुत सारे लोग संकल्प लेते और निभाते भी हैं, खूब सारे दो-चार दिन तक ही ठीक-ठाक रह पाते हैं फिर वही ढाक के पात। हमारी पूरी जिन्दगी में कितने सारे वर्ष आए और चले गए, हम वहीं के वहीं ठहरे हुए हैं, उम्र गुजार कर।
        समय बार-बार चक्र पूरा करता जा रहा है, और हम अपनी आयु के बहुमूल्य क्षणों का क्षरण करते हुए वहीं के वहीं अटके हुए हैं। हर साल हम यही करते हैंं। दिसम्बर के अंतिम दिनों मेें अपने आधे-अधूरे कामों को पूरा करने की सोचते हैं, आने वाले दिनों के लिए संभावनाओं को तलाश कर विचारों के ताने-बाने बुनते हैं और फिर फुस्स हो जाते हैं।
        पुराने ढर्रे पर चल निकलते हैं।  इस लिहाज से इन दिनों चल रहा यह समय हम सभी के लिए संक्रमण का महाकाल कहा जा सकता है जहां हम अपने आपमें बदलाव लाने के तमाम रास्तों की ओर तकिया रहे हैं। अपने भविष्य के सपनों को बुन रहे हैं, संकल्पों की फेहरिश्त बनाने में लगे हुए हैं और इससे भी अव्वल बात यह है कि हम पुराने वर्ष से विदा लेने से पहले कुछ प्रायश्चित एवं पश्चाताप भी करने का मानस बना चुके हैं।
       हम सभी की जिन्दगी में अच्छा-बुरा वक्त सभी का आता है लेकिन स्थिर कभी नहीं रहता।  समय, परिस्थितियां और पात्र वही होते हैं फिर भी हमारी मनोवृत्ति में बदलाव अक्सर आया करता है।
        कई बार मन के वहम और दुःखों को अतिरंजित कर देखने की हमारी परंपरागत आदत के शिकार होकर हम सामान्य विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों तक को भारी मान बैठते हैं, कई बार अच्छी परिस्थितियों में ही संतोष कर लिया कर उन्हें स्थायी भाव देने की कोशिश में नूतन परिवर्तनों से दूरी बनाए रखने की आदत पाल लिया करते हैं और बहुत सी बार हमें यह सूझ ही नहीं पड़ती कि क्या करना चाहिए, क्या हो रहा है, और क्यों हो रहा है।
        इस स्थिति को हमारे जीवन के लिए शून्य काल कहा जा सकता है। वर्ष का यह अवसान काल सभी के लिए संक्रमण काल का द्योतक है। यह पखवाड़े-सप्ताह भर का समय जोश में होश खो देने के लिए सभी संभावनाओं को खुला रखे हुए है।
        बहुत से लोग जी भर कर जोश में होश गंवा बैठते हैं और फिर आने वाले कई वर्षों तक पछताने को विवश होना पड़ता है। अंधकार से जुड़े हुए तमाम पवोर्ं के साथ ऎसा ही होता है। इन पर्वो का आनंद न दैवीय होता है न दिव्य। बल्कि यह संक्रमण काल अंधकार के साये में बदलाव का प्रतीक काल है जिसमें निशाचरी माया का प्रभाव साफ-साफ झलकता है।
        और जहाँ निशाचरी परंपराओं की काली छाया होगी वहां आसुरी भावों का साम्राज्य अधिक होगा। यही कारण है कि हमारे लिए यह संक्रमण काल बहुत ज्यादा सतर्क और सुरक्षित होकर जीने का है जहाँ पग-पग पर इंसान का क्षरण करने के सभी साधन और अवसर बिना किसी मेहनत के सर्वसुलभ हैं और अवसर भी ऎसा कि इसके नाते पर सब कुछ जायज है, कुछ भी कर डालो।
         वैसे भी अंधानुचरों के लिए कोई मर्यादा नहीं होती, जैसा वे करते जाते हैं, हम बिना कुछ सोचे समझें उनके पीछे हो लेते हैं।  ये दिन कोई सहज नहीं हैं। इनमें संभलने और धीर-गंभीर होकर रहने की जरूरत है। ऎसा नहीं हो पाया तो हमारे दिमाग और शरीर को बहलाने और बहकाने के तमाम इंतजाम यहां उपलब्ध है।
दिमाग कभी भी खराब हो सकता है, शरीर कभी भी फिसल सकता है, कहीं भी फिसल सकता है। और ऎसा भी फिसल सकता है कि दोबारा उठ ही न पाए या नीम बेहोशी खुले तो खुद को आईसीयू में पाएं। हमारी युवा पीढ़ी के लिए यह संक्रमण काल कुछ बिगाड़ा न कर पाए।
        इसके लिए सभी को सतर्क, सुरक्षित एवं मर्यादित जश्न मनाने में जुटना होगा। अन्यथा इस बार समय कुछ ज्यादा ही खराब चल रहा है।  निशाचरी संक्रमण काल के तमाम खतरों के प्रति सचेत रहना हम सभी का फर्ज है।


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