इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

गल्‍पाहार का अर्थशास्‍त्र

कमलनाथ

किसी भी समारोह का सबसे अहम भाग हमेशा अंतिम होता है। कहने का मतलब है, अंतिम भाग हमेशा अहम होता है। क्योंकि समारोह के अंत में जो होता है वह अल्पाहार, हाई टी, रिफै्रशमेंट, जलपान आदि के स्वादिष्ट नाम से अलंकृत होता है। यह पिछले दो - तीन घंटों में पहुंचाई गई पीड़ा को केवल भुलाने में क्या, अक्सर जड़ से ही मिटा देने में मददगार साबित होता है। मंदबुद्धि को भी समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि यह कार्यक्रम सबसे अंत में ही क्यों रखा जाता है। संक्षेप में, हॉल में लोगों की मौजूदगी और उनकी Ó रुचिÓ बनाये रखने का यही एकमात्र गुर है।
जितनी बड़ी समारोह आयोजित करने वाली संस्था, उतना ही बड़ा समारोह का अंतिम कार्यक्रम। अर्थात् वह बहुप्रतीक्षित आयोजन और उतनी ही अधिक संख्या खाने की सामग्री की। इस गतिविधि में उपभोक्ताओं की विशेष रुचियां कई बार भगदड़ की स्थिति पैदा कर देती हैं। लोग अधिक Ó मूल्यवानÓ आइटम पर पहले हाथ साफ  करने के लिए चुनाव करते वक्त शुरू से ही इधर -  उधर दौड़ लगाते नज़र आते हैं कि पहले कहाँ जाया जाये? स्थिति म्यूजि़कल चेयर की तरह हो जाती है, जब एक आइटम को बिना देर किये गिटक कर दूसरे पर कब्जा जमाने के लिए दौड़ना पड़ता है। लेकिन सब चीजें एक जगह रखी होने पर भी महाभारत का सा दृश्य पैदा हो जाता है। तलवारों की जगह प्लेटों के वार करते हुए या इससे ढाल की तरह दूसरे के प्रहार से बचते हुए यहाँ कोई भी व्यक्ति एक - एक करके वह आइटम नहीं लेता, बल्कि कई हाथ एक साथ लपकते हैं। अगर पहली बार में ही पूरी प्लेट भर ली जाये तब भी धक्कमपेल में हनुमानजी की तरह संजीवनी बूटी वाले द्रोणगिरि पर्वत जैसी प्लेट को हाथ में सम्हालना शायद उनके बाद किसी मदारी के बस की बात ही होती है।
अल्पाहार स्थल ऐसा स्थान होता है, जहाँ आकर आदमी को न सर्दी की फिक्र होती है और न गर्मी से टपकते हुए पसीने की चिंता सताती है। ऋग्ग्वेद वाक्यÓ उप न: पितवा चर शिव:Ó कि हे पालनकर्ता अन्नदेव! आप कल्याणकारी, सुखप्रद, विद्वेश रहित, मित्र के सामान हितैषी, भलीभांति सेवनीय हैं। आप मंगलकारी संरक्षणयुक्त पोषक तत्वों से युक्त होकर हमारे समीप आयें ... का यहाँ उपस्थित सभी लोग बड़ी श्रद्धा के साथ अनुसरण करते हैं। यह ही स्थान है जहाँ न राजनैतिक झगड़ा रहता है न लोगों में धर्मों का भेदभाव और न ऊंच नीच का फर्क। सब केवल एक ही नजर से, एक ही चीज को, एक ही सोच और उद्देश्य से देख रहे होते हैं - अल्पाहार।
अगर आप किसी न किसी रूप में ऊपर मंच पर बैठा दिए गए हैं, तब तो सेवा के बदले मेवा दिलवाने के लिए ईश्वर ही आपका मालिक है जो किसी कार्यकर्ता या आयोजक की सहानुभूति के जरिये ही कार्यक्रम के अंत में आप तक अल्पाहार की एक प्लेट के रूप में पहुंचा सकता है, वर्ना जो सम्मान आपको मंच पर बैठा कर दे दिया गया था, सिर्फ  उससे ही सब्र कीजिये। अल्पाहार की मेजों के इर्द - गिर्द जो मारामारी हो रही होगी, उसमें भीड़ को चीर कर सबको धकेलते हुए अल्पाहार छीन पाना आपके सम्मान के लिए भी ठीक नहीं है और आपके बस की बात भी नहीं है। बहरहाल अगर आप घटनास्थल तक पहुँच भी सकें तो यहाँ आकर आपको आश्चर्य के साथ नया ज्ञान मिलेगा कि केवल कानून के ही हाथ लंबे नहीं होते। यहाँ आपसे पीछे चौथे नंबर वाला आदमी भी बेसब्री के वशीभूत वहीं से लंबा हाथ करके आप से पहले गुलाब जामुन, समोसा अपनी प्लेट में समेट रहा होगा।
कुछ संस्थाओं के ऐसे कार्यक्रमों में जो दिन भर चलते हैं, जैसे पेपर बांचने, लेक्चर, ट्रेनिंग आदि के प्रोग्राम तो उनमें अमूमन बीच में भोजन भी रखा जाता है। जिसे लंच कहते हैं। सत्र के अंत होने से पहले तक यानी दोपहर एक बजे तक तो लंच के स्थल पर पूरी तरह व्यवस्था नजर आती है। सत्र के खत्म होने पर जैसे ही लंच की घोषणा हुई कि अचानक माहौल ऐसा हो जाता है जैसा स्कूलों में खेल घंटी के बजते ही होता है या सीमा पर युद्ध की घोषणा करते ही होता है - आक्रमण। प्रतिनिधि, जवान, बूढ़े और अशक्त प्रतिभागी यहाँ तक कि आयोजकों के स्वयंसेवक भी उस दिशा की ओर पूरी शक्ति से दौड़ते दिखाई देते हैं।
लंच की टेबल तक दौड़ की प्रतिस्पर्धा में प्रथम तीन भाग्यशालियों की पहाड़ सी भरी प्लेट देख कर बाकी सभी पीछे वालों को लगातार यह भय सताता रहता है कि कहीं ये आगे वाले पूरी खाद्य सामग्री पर ही हाथ साफ  न कर गुजरें। इस आशंका के मद्देनजर मुकाबले में कतार के पीछे वाले प्लेटें उठा कर भोजन के अंत में खाई जाने वाली गुलाबजामुन, चमचम, रसमलाई या आइसक्रीम की तरफ धावा बोल देते हैं,जो दनादन रोटी, सब्जी, दाल, चावल निगल रहे आगे वाले लोगों के लिए शीघ्र ही चिंता का सबब बन जाती है। तात्पर्य ये कि आगे वाले या पीछे वाले, फिक्रमंद सभी रहते हैं। मुश्किल से चौथाई लोग ही निबटे होते हैं कि दुबारा प्लेटें भरने के सिलसिले में अभी भी लाइन में लगे बेचारे Ó भूखेÓ लोगों को धकेलते हुए टेबलों के पास फिर से मारामारी शुरू हो जाती है। पता नहीं कल हो, न हो! लंच की झपटमारी के बाद शीघ्रातिशीघ्र दूसरी Ó सर्विंगÓ हासिल कर लेने की जुगत के लिए हर डेलीगेट की एक आँख अपनी प्लेट और दूसरी आँख मेज पर बची हुई सामग्री का अंदाजा लेने पर रहती है। केटरर के बेचारे फौजी सिपाही इन नए योद्धाओं के सामने सर्व करने के अपने कड़छीनुमा अस्त्र सरेंडर करके रसद सप्लाई करने में जुट जाते हैं।
ऐसे कार्यक्रमों में जिनके अंत में अल्पाहार होता है, श्रोताओं की मानसिकता अलग - अलग तरह की होती है। उनमें से ज्यादातर तो मुख्य प्रोग्राम की शुरुआत से लेकर अंत तक का, यानी अल्पाहार के शुरू होने तक का समय बड़ी मुश्किल से निकाल पाते हैं। कभी ऊँघते हुए, कभी - कभी तो पूरी तरह खुर्राटे लेते हुए, कभी पास बैठे साथी से बात करते हुए। कभी नींद भगाने के लिए आँख मिचमिचाते हुए। कभी यह सोचते हुए कि जब ओखली में सर डाला है तो फिर किसी तरह भाषण भी सुन ही लो और कभी इस Ó महावाक्यÓ से तसल्ली करते हुए कि Ó दिस टू शैल पासÓ यह समय भी किसी तरह निकल ही जाएगा और उसके बाद आने वाला Óगल्पाहारÓ का समय तो आनंद ही आनंद का होगा। डायबिटीज वाले भी अपने मन को आश्वस्त करते हुए कि कभी - कभी तो मिठाई खाई जा ही सकती है, उस दिन के लिए नि:संकोच हो कर संयम को घर पर ही ताक पर रख कर आते हैं। कॉलेस्ट्रोल से लबालब जिन Ó तंदुरुस्तÓ महानुभावों को डॉक्टर सेे Óजंक फूडÓ की सख्त मनाई की हुई है, वे भी इतनी देर तक भाषण सुनने के बदले कचोरी - समोसों पर जम कर दुश्मनी निकाल कर ही हिसाब बराबर करते हैं। जो पेशेवर श्रोता होते हैं, वे वास्तव में श्रोता से अधिक दर्शक होते हैं। आम श्रोता तो वक्ता के शब्दों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देते हैं पर ये Óश्रोताÓ  मंच से आ रही ध्वनि के आवागमन तक के लिए कानों का उपयोग नहीं करते। देखते वे भले ही मंच और वक्ता की ओर हैं पर उनके कान बखूबी केवल पीछे प्लेटों की मधुर ध्वनि ही सुनते हैं और उनकी नाक शीघ्र ही मु_ी में आने वाले खुशनुमा समय के इंतजार में बाहर समोसों से आ रही खुशबू से आनंदित होती रहती है।
ऐसी सभाओं और कार्यक्रमों में जिनके अंत में निमंत्रण पत्र के द्वारा बाकायदा अल्पाहार की घोषणा हुई हो, अपने बैठने का स्थान चुनने में काफी सावधानी और समझदारी बरतनी होती है। समझदार, अनुभवी या पेशेवर श्रोतागण सभास्थल में पहली, दूसरी या आगे की पंक्तियों में बैठने का लालच कभी नहीं किया करते। वे हमेशा सबसे पिछली वाली लाइन में, और अगर खाली हो तो सबसे कोने वाली सीट पर, स्थापित होंगे। इसका कारण साफ है। यही वह सीट है जो उनको कार्यक्रम के अंत में सबसे कम समय में अल्पाहार की मेज तक पहुंचायेगी और खाने की प्लेट में जितनी भी जगह हो, पहाड़ का आकार प्रदान करवाने में सहायता करेगी। कई बार कुछ संभ्रांत से लगने वाले व्यक्ति भी आगे बैठने की बजाय बड़ी शालीनता और नम्रता दिखाते हुए आगे की लाइन में जगह होते हुए भी पीछे ही बैठते हैं। अगर वे समारोह के अंत तक बैठे रहते हैं तो समझ जाइए असली माजरा क्या था।
यह मजाक का विषय नहीं है, बल्कि अर्थशास्त्र के व्यावहारिक पक्षों को सीखने का गुर है। लेन - देन की समीकरण आप ऐसे कार्यक्रमों में जा कर ही समझ पाते हैं। श्रोता के रूप में आप अपने कान और अपना ध्यान वक्ता को देते हैं और उसकी एवज में आप अल्पाहार के रूप में उसकी कीमत वसूलते हैं। आदान - प्रदान के इसी अर्थशास्त्रीय आधार पर कई मुहावरे और नारे बने हैं, जैसे इस हाथ अपनी उपस्थिति दे, उस हाथ अल्पाहार ले। जैसी कार्यक्रम आयोजित करने की करनी वैसी अल्पाहार खिलाने की भरनी, तुम मुझे सुनने की यंत्रणा के रूप में कान और ध्यान रूपी खून दो, मैं तुम्हें भरपेट अल्पाहार उड़ाने की आजादी दूंगा आदि।
आशा है, भविष्य में उक्त सिद्धान्त के अनुसार पाठक कार्यक्रमों में शामिल होने की यंत्रणा का हिसाब बाद में उसी अनुपात में अल्पाहार उर्फ  गल्पाहार से वसूल करके बराबर कर सकेंगे।

401, विंग, रिवियेरा टॉवर, लोखंडवाला, कांदिवली
पूर्व, मुंबई.400 101 (महाराष्ट्र)

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