दीप शांतिदीप
पोर पोर में भरी थकन हो, उखड़ी साँसे हारा मन हो
दूर बहुत मंज़िल हो तब फिर, तुम्हे छोड़कर किसे पुकारूँ
कौन हिसाब लगाये, कितना
अर्जन, कितना गया गवांया।
जब तुमको खोया सब खोया
जब तुमको पाया सब पाया।
सब निधियों के तुम हो सागर, जाना तुमको खोकर पाकर
शेष रहा क्या खोना पाना, अब मैं क्या जीतू क्या हारुँ
ये देखे अनदेखे सपने,
गंध सुमन की चुभते कांटे।
खट्टे मीठे फल जीवन के
जो दुनियाँ ने मुझको बांटे।
और नयन सीपों के मोती, जिनसे धरती जगमग होती
युग युग से संचित यह निधियां तुम्हे छोड़ कर किस पर वारूँ
यह वह ही दीपक है जिसको,
तुमने उर का स्नेह पिलाया।
दे आँचल की ओट शलभ से,
झंझाओ से सतत बचाया।
माना मुझसे दूर बहुत हो, यह भी सच मजबूर बहुत हो,
फिर भी तुम्हे छोड़ कर जग में मैं किसकी आरती उतारूँ
पोर पोर में भरी थकन हो, उखड़ी साँसे हारा मन हो
दूर बहुत मंज़िल हो तब फिर, तुम्हे छोड़कर किसे पुकारूँ
कौन हिसाब लगाये, कितना
अर्जन, कितना गया गवांया।
जब तुमको खोया सब खोया
जब तुमको पाया सब पाया।
सब निधियों के तुम हो सागर, जाना तुमको खोकर पाकर
शेष रहा क्या खोना पाना, अब मैं क्या जीतू क्या हारुँ
ये देखे अनदेखे सपने,
गंध सुमन की चुभते कांटे।
खट्टे मीठे फल जीवन के
जो दुनियाँ ने मुझको बांटे।
और नयन सीपों के मोती, जिनसे धरती जगमग होती
युग युग से संचित यह निधियां तुम्हे छोड़ कर किस पर वारूँ
यह वह ही दीपक है जिसको,
तुमने उर का स्नेह पिलाया।
दे आँचल की ओट शलभ से,
झंझाओ से सतत बचाया।
माना मुझसे दूर बहुत हो, यह भी सच मजबूर बहुत हो,
फिर भी तुम्हे छोड़ कर जग में मैं किसकी आरती उतारूँ
कौन दूसरा था जो जग में
खण्डहर को भी गले लगाता।
अपने स्नेह सलिल से धोकर,
पत्थर को भगवान् बनाता।
तुमने किया लौह को कंचन, बना बबूल सुवासित चंदन,
किसके द्वार पडूँ तज तुमको, किसकी जग में बॉट निहारूँ
खण्डहर को भी गले लगाता।
अपने स्नेह सलिल से धोकर,
पत्थर को भगवान् बनाता।
तुमने किया लौह को कंचन, बना बबूल सुवासित चंदन,
किसके द्वार पडूँ तज तुमको, किसकी जग में बॉट निहारूँ
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