यशपाल जंघेल
दूब
दूब
कितनी भयानक त्रासदी
कुछ भी न रहा शेष
कुछ भी ....
बाढ़ और काल
पयार्यवाची हो गए
इस बाढ़ के बाद
सहम गई सभ्यताएं
सिंधुघाटी सभ्यता को
याद करके
ऊब गई चीटियां
चोटी मे डेरा डाले
थक गई गौरय्या
ठीहा ढूंढते - ढूंढते
देखी नहीं कभी
ऐसी विभीषिका
मनराखन बुदबुदाता
ढह गया मकान,
बह गए मवेशी,
फसलें हो गई बर्बाद
कुछ भी न रहा
शेष कुछ भी ...
उखड़ गया बबूल
और, उसकी सांसें
धराशायी हो गया महुआ
और ढह गया एक बूढ़़ा
बरगद,
बाढ़ के बाद मैं भी
गहरी संवेदना व्यक्त करता हूं
कुछ भी न रहा शेष
कुछ भी...
तभी दिख जाती है एक दूब
पैरों के पास
कराहती, जूझती,हरियाती,
मुझको झुठलाती
एक दूब।
बाजार
मैं खेत जाता हूं
मैं जंगलों और पहाड़ों में भी
जाता हूं
मैं जाता हूं हर दिन
नदियों के पास
मैं न जाऊँ,
तो क्या मेरे घर आएंगे?
खेत, जंगल, पहाड़ और नदी
मैं बाजार भी जाता हूं
मैं न जाऊं बाजार
तो क्या बाजार
नहीं आएगा मेरे घर
जब बंद रहते हैं
घर के दरवाजे,
खिड़कियाँ
तब भी मेरे घर में
घुस आता है बाजार
बाजार आता है
बिना बुलाए
मेरे घर में,
मेरे रास्तें में,
खेत, जंगल, पहाड़, नदी
और मेरे बीच में
घर
भूकंप आया
मेरा घर खड़ा रहा
बाढ़़ आई
मेरा घर खड़ा रहा
तूफान आया
मेरा घर खड़ा रहा
सुनामी आई
मेरा घर खड़ा रहा
एक दिन,
अविश्वास का एक झोंका आया
मेरा घर ढह गया।
आँख
क्या आँख को सिर्फ
आँख होनी चाहिए
वह जीभ भी तो हो सकती है,
कान और नाक भी होती है
क्या आपने आँख को
पेट बनते देखा है?
मैंने तो आँखों को
पंजों मे तब्दील होते देखा है
यहां इस समय
अंधेपन को परिभाषित करना उतना ही मुश्किल है
जितना कि शहर में गांव ढूंढना
शायद खतरनाक भी
जबकि हम यहां कई अँधों को
आँखे दिखाते हुए देख रहे हैं
और आँख वालों को
आँखे चुराते हुए
विचित्र स्थिति बन रही है
आँखें खुली रखने की सलाह
मंच से दी जाती है
और बंद कमरों मेें
आँखें मूंदी रहने की हिदायतें
हिदायतें सुनो तो
आँखों का तारा
न सुनो तो आँख की किरकिरी
इस समय अंधेरे पर यकीन
हरगिज नहीं किया जा सकता
यकीन तो रौशनी पर भी
नहीं किया जा सकता
उधेड़ना होगा
रौशनी का रेशा-रेशा
न जाने किस तह में
छिपा बैठा हो धृतराष्ट्र
हमें सबसे ज्यादा
स्वयं पर यकीन करना होगा
देखना होगा आँखें उठाकर
जबकि सभाओं में
तेजी से पनप रहा है गंधारीपन
हम अपनी आँखें
जितनी नीची करते हैं
लोगों की आँखें
हम पर उतनी ही गड़ती हैं
आज हम
जब अपनी ही आँखों में
गिरते जा रहे हैं
शकुनि ने फेंक दिया है पासा
पितामह भीष्म खुद से
आँखें मिला नहीं पा रहा है
ऐसी स्थिति में
आँख जीभ हो या न हो
वह नाक,कान,पेट और पंजा
रहे या न रहे
कम से कम
आँख को
आँख होनी ही चाहिए
घास
घास उगाई नही जाती
उग आती है
मैदानों में,
पठारों, जंगलों, पहाड़ों में
पाखरों, पगडंडियों, खेत की मेड़ों
और खंडहर की दीवारों में
धास घूरे में भी खोज लेती है
अपने लिए जगह
पीपल के कंधों पर बैठकर
सेंकती वह धूप
यात्रियों की थकी नींद में
शामिल हो जाना चाहती है घास
वह जगह पाना चाहती है
गाय के सपनों में
दूध बनकर उसकी थनों में
इतराना चाहती है वह
घास उगाई नहीं जाती
उग आती है
एक दिन आदमी की छाती में
पीती नहीं खाद का पानी
वह चट्टानों से रस खींचती है
हजारों बार हुई उसे मिटानें की साजिश
रौंदा गया वह कई बार
लेकिन उसनें हर बार दिखाया ठेंगा
आंधियों को
भूकंप और बाढ़ को
घास उगाई नही जाती
उग आती है
राजा के आंगन में भी
और जब वह उखाड़कर
फेंक दिया जाता है
एतिहातन
तब एक दिन वह उग आती है
राजमहल के गर्दन में
उसके ईटों के बीच
अपनी जड़ें धंसाती
घास उगाई नही जाती
न ही मिटाई जा सकती है।
पता
सहायक शिक्षक
पी:एस: - बैगा साल्हेवारा
जिला - राजनांदगाँव (छत्तीसगढ )
मो- 9009910363
कुछ भी न रहा शेष
कुछ भी ....
बाढ़ और काल
पयार्यवाची हो गए
इस बाढ़ के बाद
सहम गई सभ्यताएं
सिंधुघाटी सभ्यता को
याद करके
ऊब गई चीटियां
चोटी मे डेरा डाले
थक गई गौरय्या
ठीहा ढूंढते - ढूंढते
देखी नहीं कभी
ऐसी विभीषिका
मनराखन बुदबुदाता
ढह गया मकान,
बह गए मवेशी,
फसलें हो गई बर्बाद
कुछ भी न रहा
शेष कुछ भी ...
उखड़ गया बबूल
और, उसकी सांसें
धराशायी हो गया महुआ
और ढह गया एक बूढ़़ा
बरगद,
बाढ़ के बाद मैं भी
गहरी संवेदना व्यक्त करता हूं
कुछ भी न रहा शेष
कुछ भी...
तभी दिख जाती है एक दूब
पैरों के पास
कराहती, जूझती,हरियाती,
मुझको झुठलाती
एक दूब।
बाजार
मैं खेत जाता हूं
मैं जंगलों और पहाड़ों में भी
जाता हूं
मैं जाता हूं हर दिन
नदियों के पास
मैं न जाऊँ,
तो क्या मेरे घर आएंगे?
खेत, जंगल, पहाड़ और नदी
मैं बाजार भी जाता हूं
मैं न जाऊं बाजार
तो क्या बाजार
नहीं आएगा मेरे घर
जब बंद रहते हैं
घर के दरवाजे,
खिड़कियाँ
तब भी मेरे घर में
घुस आता है बाजार
बाजार आता है
बिना बुलाए
मेरे घर में,
मेरे रास्तें में,
खेत, जंगल, पहाड़, नदी
और मेरे बीच में
घर
भूकंप आया
मेरा घर खड़ा रहा
बाढ़़ आई
मेरा घर खड़ा रहा
तूफान आया
मेरा घर खड़ा रहा
सुनामी आई
मेरा घर खड़ा रहा
एक दिन,
अविश्वास का एक झोंका आया
मेरा घर ढह गया।
आँख
क्या आँख को सिर्फ
आँख होनी चाहिए
वह जीभ भी तो हो सकती है,
कान और नाक भी होती है
क्या आपने आँख को
पेट बनते देखा है?
मैंने तो आँखों को
पंजों मे तब्दील होते देखा है
यहां इस समय
अंधेपन को परिभाषित करना उतना ही मुश्किल है
जितना कि शहर में गांव ढूंढना
शायद खतरनाक भी
जबकि हम यहां कई अँधों को
आँखे दिखाते हुए देख रहे हैं
और आँख वालों को
आँखे चुराते हुए
विचित्र स्थिति बन रही है
आँखें खुली रखने की सलाह
मंच से दी जाती है
और बंद कमरों मेें
आँखें मूंदी रहने की हिदायतें
हिदायतें सुनो तो
आँखों का तारा
न सुनो तो आँख की किरकिरी
इस समय अंधेरे पर यकीन
हरगिज नहीं किया जा सकता
यकीन तो रौशनी पर भी
नहीं किया जा सकता
उधेड़ना होगा
रौशनी का रेशा-रेशा
न जाने किस तह में
छिपा बैठा हो धृतराष्ट्र
हमें सबसे ज्यादा
स्वयं पर यकीन करना होगा
देखना होगा आँखें उठाकर
जबकि सभाओं में
तेजी से पनप रहा है गंधारीपन
हम अपनी आँखें
जितनी नीची करते हैं
लोगों की आँखें
हम पर उतनी ही गड़ती हैं
आज हम
जब अपनी ही आँखों में
गिरते जा रहे हैं
शकुनि ने फेंक दिया है पासा
पितामह भीष्म खुद से
आँखें मिला नहीं पा रहा है
ऐसी स्थिति में
आँख जीभ हो या न हो
वह नाक,कान,पेट और पंजा
रहे या न रहे
कम से कम
आँख को
आँख होनी ही चाहिए
घास
घास उगाई नही जाती
उग आती है
मैदानों में,
पठारों, जंगलों, पहाड़ों में
पाखरों, पगडंडियों, खेत की मेड़ों
और खंडहर की दीवारों में
धास घूरे में भी खोज लेती है
अपने लिए जगह
पीपल के कंधों पर बैठकर
सेंकती वह धूप
यात्रियों की थकी नींद में
शामिल हो जाना चाहती है घास
वह जगह पाना चाहती है
गाय के सपनों में
दूध बनकर उसकी थनों में
इतराना चाहती है वह
घास उगाई नहीं जाती
उग आती है
एक दिन आदमी की छाती में
पीती नहीं खाद का पानी
वह चट्टानों से रस खींचती है
हजारों बार हुई उसे मिटानें की साजिश
रौंदा गया वह कई बार
लेकिन उसनें हर बार दिखाया ठेंगा
आंधियों को
भूकंप और बाढ़ को
घास उगाई नही जाती
उग आती है
राजा के आंगन में भी
और जब वह उखाड़कर
फेंक दिया जाता है
एतिहातन
तब एक दिन वह उग आती है
राजमहल के गर्दन में
उसके ईटों के बीच
अपनी जड़ें धंसाती
घास उगाई नही जाती
न ही मिटाई जा सकती है।
पता
सहायक शिक्षक
पी:एस: - बैगा साल्हेवारा
जिला - राजनांदगाँव (छत्तीसगढ )
मो- 9009910363
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