इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

फरवरी 2017 से अप्रैल 2017

सम्पादकीय

आलेख
सार्थक व्यंग्य के आवश्यक है व्यंग्यात्मक कटाक्षों की सर्वत्रता
मनोज मोक्षेन्द्र

शोध लेख
हिन्दी गज़ल का इतिहास एवं छंद विधान: हिन्दी की
 - डॉ. माणिक विश्वकर्मा '' नवरंग ''

कहानी
सीमांत 
रविन्द्र नाथ टैगोर
उसका बिस्तर
मनोहर श्याम जोशी

अनुवाद (उडि़या से हिन्दी)
अनसुलझी
 मूल लेखिका : सरोजनी साहू
अनुवाद : दिनेश कुमार शास्त्री

छत्तीसगढ़ी कहिनी

फोंक - फोंक ल काटे म नई बने बात
ललित साहू  ' जख्मी '

बाल कहानी
1 . अनोखी तरकीब
2 . मेंढक और गिलहरी
पराग ज्ञान देव चौधरी

व्यंग्य
मन रे तू काहे न धीर धरे
सुशील यादव
ललित निबंध होली पर
त्रिभुवन पांडेय

कविता/ गीत/ गजल
वफा तू तो :  (गज़ल)खुर्शीद अनवर ' खुर्शीद '
घन छाये क्या रात : (गज़ल) श्याम ' अंकुर '
फरेबों और फसानों को :( गज़ल) महेश कटारे  ' सुगम '
वो जुगनुओं को :(गज़ल) जितेन्द्र ' सुकुमार '
यही शहादत भारत माँ के : (गज़ल)विवेक चतुर्वेदी
सुशील यादव के दो छत्तीसगढ़ी गीत
संत कवि पवन दीवान की रचनाएं
तुम्हारे घर के किवाड़ (कविता)रोज़लीन
चउमासा बर दोहा (छत्तीसगढ़ी दोहा)डॉ. जीवन यदु
(दो नवगीत) टीकेश्वर सिन्हा ' गब्दीवाला '
राह दिखाये कौन : (गीत) बृजभूषण चतुर्वेदी ' बृजेश '

पुस्तक समीक्षा
इतिहास बोध से वर्तमान विसंगतियों पर प्रहार
समीक्षा : एम. एम. चन्द्रा
मौन मंथन: एक समीक्षा
समीक्षा: मंगत रवीन्द्र
जल की धारा बहती रहे
डॉ. अखिलेश कुमार  ' शंखधर '

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राजिम कुंभ 2017

सार्थक व्यंग्य के आवश्यक है व्यंग्यात्मक कटाक्षों की सर्वत्रता

मनोज मोक्षेन्‍द्र 

     अधुनातन परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य एक अत्यंत जनप्रिय विधा है। यह भी सर्वस्वीकार्य होता जा रहा है कि यह प्रधानतया गद्यात्मक विधा है। काव्य में व्यंग्य - प्रयोग संक्षिप्त और विरल होता है क्योंकि कवि व्यंग्यात्मकता का प्रयोग काव्यांगों के सौष्ठवीकरण के रूप में करता है। इस तरह जब हम किसी अन्य गद्यात्मक और पद्यात्मक विधाओं में विरलता से कोई कटाक्ष या व्यंग्य का संपुट पाते हैं तो ऐसा प्रयोग निर्विवाद रूप से एक शैली है जिसके जरिए व्यंजना शक्ति उत्पन्न की जाती है। इसे किसी निबंध या कहानी या कविता में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग ही कहा जाता है। व्यंग्येतर विधाओं में व्यंजना शक्ति उत्पन्न करने के लिए किसी व्यक्ति, समुदाय, स्थिति या व्यवस्था पर व्यंग्य के माध्यम से चलते - चलते सुधारात्मक कटाक्ष किए जाने की परंपरा किसी रचनाकार के लिए नई नहीं है। हिंदी साहित्य के आदि काल, भक्ति काल तथा रीति काल से लेकर आज तक की रचनाओं में व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग वक्रोक्ति के रूप में किया जाता रहा है। रचनाकार में व्यंग्यात्मक कटाक्ष करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है जिससे रचनाकार कथ्य को प्रभावशाली और रुचिकर बना पाता है। कटाक्षपूर्ण व्यंग्यात्मक शैली वक्रोक्ति का उपांग है। वक्रोक्ति में अन्य प्रकार के सौष्ठवीकरण प्रयत्नलाघव के साथ - साथ व्यंग्यात्मक शैली में कथ्य का वजनदार संप्रेषण करना एक आवश्यक लेखकीय योग्यता है।
     वस्तुत: यह आवश्यक नहीं है कि किसी भी विधा में कटाक्षपूर्ण व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग हो ही, यह लेखक के स्वभाव और व्यक्तित्व पर भी निर्भर करता है। कतिपय लेखक स्वभावानुकूल कटाक्षपूर्ण चुटकियाँ लेने के आदी होते हैं जबकि अधिकतर गंभीर व्यक्तित्व वाले रचनाकार व्यंग्यात्मक कटाक्ष से उतना ही परहेज़ करते हैं जितना कि मधुमेह रोगी शर्करा से करता है। इसके अतिरिक्त किसी विधा में कटाक्षपूर्ण व्यंग्यात्मक उल्लेख छिटपुट ही दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचन्द्र के कथा - साहित्य में छिटपुट व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष विरलता से उपलब्ध हैं क्योंकि वे मनोविनोदी स्वभाव के थे और सामाजिक विद्रूपताओं की जमकर खबर लेते थे। कटाक्षपूर्ण चुटकियों के जरिए पाठक को सामाजिक विसंगतियों के प्रति विद्रोही बनाने के लिए उकसाने की चेष्टा करते थे। इस प्रकार यत्र - तत्र उनकी व्यंग्यात्मक चेष्टाएं उनके कथा - साहित्य को जीवंत और अभिरुचिपूर्ण बनाती हैं। पर  इससे उन्हें मूल रूप से एक व्यंग्यकार की कोटि में नहीं रखा जा सकता। इसी प्रकार कबीर की साखियों और भारतेंदु के नाटकों में भी व्यंग्य - तत्व विरलता से उपलब्ध हैं। कविवर बिहारी के दोहों में व्यंग्यात्मकता शृंगार - रस - प्रभाव को तीक्ष्ण बनाती है। किंतु विरल तथा प्रकीर्ण रूप से कटाक्षकर्ता,रचनाकार को व्यंग्यकार नहीं कहा जा सकता।
     मेरा यह प्रतिपाद्य निर्णय है कि जिस आलेख या कथात्मक निबंध में व्यंग्यात्मक कटाक्ष की छिटपुटता या प्रकीर्णता न होकर, व्यंग्य और कटाक्ष की अविरल सर्वत्रता हो, उसे निर्विवाद रूप से व्यंग्य माना जाए। इसके अलावा व्यंग्यकार के रूप में स्थापित लेखक की किसी भी रचना को व्यंग्य नहीं कहा जा सकता। जब तक कि उसमें सांगोपांग व्यंग्यपूर्ण विवेचन न हो। अर्थात उसके शीर्षक से ही स्पष्टतया निरूपित हो जाना चाहिए कि वह व्यंग्य - रचना है या नहीं। यदि शीर्षक में ही व्यंग्य का पुट न हो तो रचना में क्या होगा? समीक्षक - आलोचक के सोच की त्रासदी यह है कि वह व्यंग्यकार की किसी भी धीर - गंभीर कहानी या ललित निबंध को भी व्यंग्य के मानदंडों पर तौलने लगता है।
     अरे भाई, एक व्यंग्यकार एक अच्छी रोमांटिक कविता भी लिख सकता है किसी महत्वपूर्ण सामाजिक विषय पर विचारोत्तेजक कहानी भी लिख सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि व्यंग्य की भाषा ही अलग होती है जिसे व्यंग्यकार सतत अभ्यास के अतिरिक्त जन्मजात हासिल करता है। व्यंग्यालेख का आरंभ ही घोषित कर देता है कि वह पूर्ण रूप से व्यंग्य है। यह व्यंग्यात्मक भाषा ही है कि जैसे - जैसे पाठक व्यंग्यालेख के प्रवेशद्वार से होकर उसके अंतरंग में दाखिल होता है, उसे यकीन होता जाता है कि वह प्रचुरता और परिपूर्णता में व्यंग्यात्मकता का आस्वादन कर रहा है। उसमें सम्मिलित कथा पात्रों का चरित्रांकन, देशकाल, स्थितियों का विवरण, लेखक का उद्देश्य पात्रों का वार्तालाप तथा कथोपकथन एवं लेखक का ख़ुद का निरूपण सभी यह प्रतिपादित करते हैं कि वह एक आदर्श व्यंग्य - रचना है। ऐसी रचना के उपसंहार की परिणति भी अत्यंत व्यंग्यपूर्ण ढंग से होनी चाहिए ताकि सतत व्यंग्यपूर्ण विवरणों से उद्भूत पाठकीय तनाव पिघलकर उसके आनन्दातिरेक में परिणत हो जाए। इस आनन्द का अनुभव पाठक को तब होता है जबकि व्यंग्यकार के विष बुझे व्यंग्य - बाण बुराइयों का चुन - चुन कर शिरोच्छेदन करते हैं तथा पाठक को आश्वस्त करते हैं कि लो हो गया बुराइयों का मूलोच्छेदन।
     पाठक को आनन्द - गंगा में अघाकर स्नान कराना ही व्यंग्यकार का उद्देश्य होता है। समाज के बुरे तत्वों, भ्रष्ट व्यवस्थाओं और हानिकर सामाजिक तंत्रों को व्यंग्यास्त्रों के बारम्बार प्रहार से धराशायी करके पाठक को यह अहसास दिलाते हुए कि अब समाज में जो कुछ है, वह सर्वजनहिताय और सकारात्मक है। उसके लिए सुखात्मक और आनन्ददायक मन:स्थिति पैदा की जाती है। एक सफल व्यंग्य - रचना सामाजिक विसंगतियों और दुरावस्थाओं का समूल प्रच्छालन करते हुए अंततोगत्वा लोकोन्मुख और लोकोपयोगी वातावरण स्थापित करने का दमखम भरती है। जहाँ अन्य विधाएं व्यक्ति, समाज और व्यवस्था का सिर्फ  विवरण प्रस्तुत करती हैं, व्यंग्य - विधा सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त नकारात्मक प्रवृत्तियों और तत्वों पर प्रत्यक्षत: वार करती है और समाज में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इस प्रकार अन्य विधाओं के लेखकों की तुलना में व्यंग्यकार के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारियाँ होती हैं।
     व्यंग्यात्मकता की अविरल सर्वत्रता एक रचना को पूर्ण व्यंग्यालेख का दर्जा प्रदान करती है। व्यंग्यात्मकता की अविरल सर्वत्रता से आशय यह है कि व्यंग्यालेख में ऐसी स्थितियाँ वर्णित हों जिन पर लेखक का हर पल आमूल - चूल व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष करना अत्यावश्यक हो जाता हो तथा यह कटाक्ष तब तक चलता रहे जब तक कि पाठक को भ्रष्ट स्थितियों के मरणासन्न होने का सुखद अनुभव न हो जाए। व्यंग्यात्मकता की सर्वत्रता का अहसास तभी होगा जबकि पात्रों का प्रस्तुतीकरण भी व्यंग्यात्मक शैली में हो। हाँ, उनका नामकरण भी व्यंग्यात्मक हो।
      शब्दावलियों में भी व्यंग्य की छटा हो और ऐसा तभी संभव है जबकि तत्सम शब्दावलियों तथा पांडित्य प्रदर्शन करने वाले क्लिष्ट प्रयोगों के बजाए लोक शब्दावलियों और बहुप्रचलित शब्दों एवं उक्तियों का प्रयोग किया जाए ताकि व्यंग्य की भाषा लोकरंजक हो सके। दरअसल व्यंग्य एक लोकतांत्रिक विधा है। इसलिए व्यंग्य के कटाक्ष की भाषा आम आदमी की भाषा हो क्योंकि साहित्य की यही एक ऐसी विधा है जिसे आम आदमी का साहित्य कहा जा सकता है जिसे वह तसल्ली और शिद्दत से पढ़ना चाहता है।
      एक सार्थक और सफल व्यंग्य - रचना में उन शब्दावलियों का प्रयोग प्रचुरता से हो जिनका प्रयोग आम आदमी चलते - फिरते चुटकियाँ लेने के लिए करता है। लोकोक्तियाँ और लोक शब्दावलियाँ व्यंग्य के पाठकों के लिए अक्षुण्ण आनन्द का सबब बनती हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया की सर्वव्याप्तता के चलते लोक शब्दावलियाँ ज़्यादातर हर वर्ग और हर संप्रदाय के पाठकों के लिए सहज ग्राह्य बन चुकी हैं। लोक शब्दावलियाँ जबान पर सहज ही चढ़ जाती हैं। यहाँ तक कि ग्रामीणों और आदिवासियों में प्रचलित अनेकानेक शब्दावलियाँ भी जन - जन में रच बस गई हैं। वे हमारे बोलचाल में इतनी घुलमिल गई हैं कि हम उन्हें हिंदीतर मानने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकते हैं। ये शब्दावलियां शुद्ध मनोभाव प्रस्फुटित करती हैं और जब ये व्यंग्यालेख में हास - परिहास के लिए सजती हैं तो लेखक का भाव - विचार स्पष्टतया मुखर हो जाता है।
     उनमें एक प्रकार से कवित्त रस पैदा करने की क्षमता होती है। इस प्रकार व्यंग्य - कटाक्ष हेतु हिंदी व्यंग्य में प्रचलित संथाली, सिंधी, नेपाली, बोड़ो, डोंगरी, भोजपुरी, मैथिल, पहाड़ी आदि के देशज शब्दों का प्रयोग शुद्ध रूप से व्यंग्यात्मक प्रभाव उत्सर्जित करता है। इतना ही नहीं, आम बोलचाल में प्रयुक्त उर्दू, अरबी, $फारसी और अंग्रेजी की शब्दावलियों का प्रयोग भी व्यंग्यास्त्र की तीक्ष्णता को धारदार बनाता है। लोक - लुभावनी बोलियों और लोकभाषाओं से गृहीत शब्दावलियाँ तथा इनकी सादगी व्यंग्य - रचना को प्रखर और चमकदार बनाती हैं।
जब से व्यंग्य को हास्य से जोड़ा गया है, यह आम आदमी का साहित्य बन गया है। व्यंग्य का कद, इसका दायरा और इसके पाठकों की संख्या में निरंतर बर$कत हो रही है। नए - नए लेखकों द्वारा व्यंग्य - लेखन का चस्का भी बढ़ता जा रहा है। यह बात अलग है कि उनमें से ज़्यादातर लेखक व्यंग्य - लेखन का दामन छोड़कर कहीं और चले जाते हैं। लेकिन जो लेखक व्यंग्य - लेखन में संजीदगी के साथ दत्तचित्त बने रहते हैं, उनकी लेखनी से सतत सार्थक व्यंग्य - रचनाएं उत्पादित हो रही हैं। जरूरत है .. उन्हें प्रोत्साहित और दिशा - निर्देशित करने की तथा खाद - पानी देकर उनकी उर्वरता बढ़ाने की, न कि उन्हें हतोत्साहित करने की। वरिष्ठ व्यंग्यकारों की ओर से एक बात आपत्तिजनक लगती है कि वे नवोदितों को परंपरा से जुड़े रहने तथा दिग्गज व्यंग्यकारों की लीक पर ही चलने की सलाह देते हैं और जो नव - लेखक ऐसा नहीं करता, उसे आड़े हाथों लेते हैं।
     उनका मानना है कि बढ़िया व्यंग्य तभी लिखे जाएंगे जबकि पुराने वरिष्ठ लेखकों के अनुशरण में व्यंग्य लिखे जाएं। यदि परंपरा और लीक पर ही चलने की जि़द होती तो आज कथा - साहित्य और काव्य - साहित्य ने विकास के इतने सोपान न देखे होते और वैश्विक मंच पर हिंदी कहानियों तथा कविताओं की तूती न बोल रही होती। नि:संदेह, इस प्रवृत्ति से व्यंग्य - लेखन के सिमटने का भय बन जाता है। अभी हमें यह मानकर चलना चाहिए कि व्यंग्य - लेखन अपनी शैशवावस्था से थोड़ा - सा ही आगे बढ़ पाई है, यद्यपि इसे सजाने - संवारने और दिशा - निर्देशित करने में व्यंग्यकारों की कम - से- कम चार जागरुक पीढ़ियाँ अपना महत्वपूर्ण योगदान कर चुकी हैं। चुनांचे व्यंग्य को साहित्य के राजपथ पर दौड़ लगाने के लिए अभी इसे बहुत चुस्त - दुरुस्त बनाने की आवश्यकता है। काव्य गोष्ठियों और कहानी - पाठ गोष्ठियों की भाँति बड़े स्तर पर व्यंग्य - पाठ गोष्ठियों का आयोजन रोज़मर्रा बनना चाहिए जिसके लिए मेरा दावा है कि श्रोताओं का अकाल कभी नहीं पड़ेगा। ध्यातव्य है कि व्यंग्य - गोष्ठियों की संख्या नगण्य होते हुए भी व्यंग्य के पाठकों की संख्या अन्य साहित्यिक विधाओं के पाठकों की संख्या के मुकाबले उत्साहजनक है। हाँ, अभी व्यंग्य को अनेकानेक विकास - सोपानों से गुजरना है जिसके लिए इसमें भी नव - प्रयोगों की आजमाइश की जानी चाहिए जैसे कि कविता - विधा में की गई है जहाँ इसके उत्साहजनक परिणाम देखने को मिले हैं। मौज़ूदा माहौल में नव - प्रयोग के क्षेत्र में नई पीढ़ी महती योगदान कर सकती है।
     अस्तु, नई पीढ़ी के व्यंग्य - लेखकों को बेशुमार आलोचनाओं और उपेक्षाओं का शिकार होना पड़ रहा है। क्या कोई वरिष्ठ व्यंग्यकार उनकी पीठ पर हौसला - आ$फज़ाई का हाथ रखने आगे आएग? अभी हाल ही में एक आलोचक का लेख पढ़ने में आया है जिसमें उसने नई पीढ़ी के व्यंग्यकारों का उलाहना देते हुए व्यंग्य के भविष्य पर घड़ों आँसू बहाते हुए इस बात को रेखांकित किया है कि वर्तमान समय हिंदी व्यंग्य की अवसान बेला है। चुनांचे, अभी तो व्यंग्य का भविष्य निर्धारित ही हो रहा है और इसके प्रति हमें अभी से निराशावादी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए। इसके अवसान की इच्छा करना कुछ - कुछ वैसा ही है जैसे कि गर्भस्थ शिशु की भ्रूण - हत्या करने की चेष्टा करना। अभी जिस शिशु को बेहतर ढंग से पालित - पोषित करने के लिए चिंतापूर्ण देखभाल की जरूरत है, उसके लिए यह कामना की जा रही है कि वह यथाशीघ्र काल - कवलित हो जाए। उसका मानना है कि व्यंग्य लगभग दिशाहीन और निस्तेज अवस्था में है। मान लिया जाए कि व्यंग्य दिशाहीन है पर यह बात भी गौर - तलब है कि व्यंग्य - विधा पूरी शिद्दत और मनोयोग से एक निर्दिष्ट गंतव्य की तलाश में भटकने का सुख बटोर रही है। इस सुखानुभूति में उसे थकान का तनिक भी अहसास नहीं हो रहा है।
     दिशाहीनता में भटकने से ही इसके लिए नए मार्ग खुलेंगे तथा ये मार्ग व्यंग्य को साहित्य के वैभवशाली राजमार्ग पर अग्रसर करेंगे। वह शरद जोशी के राजनीतिक भ्रष्टाचार पर लिखे गए व्यंग्यों को इस विधा के लिए इस लिहाज़ से घातक बताता है कि जोशी के बाद से ही सि$र्फ  राजनीतिक व्यंग्य लिखने की परंपरा निकल पड़ी है और व्यंग्यकारों को व्यंग्य - लेखन के लिए राजनीतिक विषय ही मिल रहे हैं। बहरहाल यह सच है कि जब राजनीतिक तंत्र ही सबसे ज़्यादा भ्रष्ट है तो इसी मुद्दे पर तो सर्वाधिक व्यंग्य लिखे जाएंगे। देश की राजनीति सचमुच अत्यंत भ्रष्ट है और सभी मंचों से इसकी गलाफोड़ भर्त्सना की जा रही है। वह अन्य सभी सामाजिक समस्याओं और विसंगतियों की जननी भी है। ऐसे में अगर व्यंग्यकार राजनीति को बारंबार आड़े हाथों लेता है तो इसमें बुराई क्या है? आखिर, मिसालिया तौर पर राजनीतिक गलियारों को साफ - सुथरा बनाकर ही तो एक आदर्श समाज की संकल्पना की जा सकती है।
      लिहाजा मौज़ूदा दौर में राजनीतिक मुद्दों को छोड़कर धार्मिक आडंबरों, जातीय विषमताओं, सांप्रदायिक द्वेषों, सामाजिक उच्चावचों, पूंजीवादी समस्याओं, उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों, कमजोर होते नागरिक बोधों, लिंग - आधारित असमानताओं, बालिका भ्रूण - हत्या आदि जैसे विषय भी व्यंग्यकारों के व्यंग्य - परास में शामिल होते जा रहे हैं। हाँ, इन विषयों पर कम व्यंग्य लिखे जा रहे हैं जिसके लिए वरिष्ठों को अत्यंत आत्ममंथन करना होगा और उन्हें व्यंग्यकारों की सेनाएं गठित करनी होगी। व्यंग्य - गोष्ठियों के माध्यम से उन्हें अभिप्रेरित करना होगा कि उन्हें सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध एक निर्णायक लड़ाई लड़नी है। बेशक नई पीढ़ी के व्यंग्यकारों को समाज के अन्य विषयों से कतई परहेज नहीं करना है। समाज के सर्वांगीण सुधार हेतु समाज के हर पक्ष की सुध लेनी है। यह उनकी जिम्मेदारी है।
     बहरहाल, व्यंग्य - विधा दिशा - निर्देशित हो चुकी है। अधिकतर व्यंग्यकारों को अपने कर्तव्य का भली - भाँति बोध है। जब वे कहते हैं कि व्यंग्य दिग्भ्रमित हो रहा है तो इसका आशय स्पष्टतया यह भी है कि वे इस बात से अच्छी तरह अवगत हैं कि उनके द्वारा इसे किस दिशा में अग्रसर किया जाना चाहिए और वे इस काम में दत्तचित्त भी हैं। व्यंग्यकारों का यह आत्मबोध इस विधा के लिए अच्छा शकुन है। अत: वरिष्ठ व्यंग्यकार और व्यंग्य - शुभेच्छु बेवजह दकियानूस नुकताचीनी में संलिप्त न हों। वे नए व्यंग्यकारों को उपयुक्ततया दिशा - निर्देशित करें। वे यह मानकर न चलें कि उन्हें मौज़ूदा व्यंग्यकारों में हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, मनोहर श्याम जोशी या रवींद्र नाथ त्यागी ही नजर आने चाहिए। यदि उनकी ऐसी चाह है तो व्यंग्य - विधा विकास के नए और बेहतर सोपान नहीं देख पाएगी। ऐसी मानसिक अवधारणा रखना व्यंग्यकारों की पिछली और वर्तमान पीढ़ियों के बीच जेनरेशन गैप जैसा होगा जो सर्वथा अनुचित है। इससे इस विधा की सतत प्रगति अवरुद्ध होगी।

सी 66, विद्या विहार,  
नई पंचवटी पवन सिनेमा के सामने,
जी टी रोड  गाजियाबाद

अनसुलझी

उडि़या से हिन्‍दी अनुवाद

मूल लेखिका : सरोजिनी साहू
अनुवाद : दिनेश कुमार माली

सरोजनी साहू
      सारी रात अच्छी तरह से सो नहीं पाई थी झूमका। सनऊ एक - एक कर दरवाजा और खिड़की पीट रहा था जिससे बच्चे भी डरकर उठ गए थे। जो मने में आए वह गाली देने करने की इच्छा हो रही थी,झूमना को अपने निक्कमे कोड़ी मर्द को। आधी रात में उन दोनों में जो चिल्ला - चिल्ली हो रही थी कि सारे पड़ोसी जगकर अगर उन दोनों को वहाँ से निकाल दे तब भी वह कुछ नहीं कह पाती। बहुत ही छटपटाहट और बेचैनी के साथ गुजरी थी उसकी वह रात।
      पिताजी आए थे, दीपावली का उपहार लेकर और भाइओं के लिए व्रत रखा था उसने। पिताजी कह रहे थे - चलो, दीपावली इस बार हमारे साथ मनाना। तब भी झूमका नहीं गई। महीने - पन्द्रह दिन बाप के घर रहने से हाथ से दो - दो घर निकल जाएंगे। आने तक तो बेटा - बेटी भूख प्यास से तड़पकर मर जाएंगे। वह मास्टराणी तो और ज्यादा मर जाएगी। उसके घर दिन में एक बार नहीं जाने पर वह जमकर गाली देती थी। महीने में पन्द्रह दिन के लिए गई तो वह सहन नहीं कर पाती। उसके घर में तो काम भी कम। वह आनन - फानन में घर में दस जगह ताला लगाकर जाती है। साढ़े नौ बजे वहाँ से चली जाती है। अग्रवाल के घर में बहुत काम है। पांव से सिर तक। दो - दो झोड़ी झूठे बर्तन। नवजात शिशु को लेकर चार बच्चों के दो - दो कपड़े गिने से कपड़े हो जाते थे दो बाल्टी। मालकिन भी बहुत चालाक, कहती है वाशिंग मशीन मैं चला देती हूँ, तुम धोए हुए कपड़ों को खंगाल कर सूखा दो। अगर कहीं कोई मैल छूटा हो तो उस कपड़े पर तुम ब्रश फेर देना। दस तारीख को पैसा देते समय कहती है कि कपड़े तो मैं मशीन से साफ  करती हूँ। और दो बर्तन और घर पोछने के लिए क्या तुम्हें तीन सौ रूपए देंगे? रख, ये दो सौ पचीस रुपए।
झूमका सोच रही थी- अगर उस दिन वह अपने पिताजी के साथ चली गई होती, तो आज यह दुर्दिन नहीं देखना पड़ता। उसने सब तो बेच बाच कर खा लिया। अब उसके पास बचा ही क्या है?
शराबी, जुआरी, सट्टेबाज,सभी गुण थे उसमें। अभी दो घंटे पहले पैसे छीनकर लेकर गया। जाते समय कहकर गया - इन चंद पैसों के लिए मर क्यों रही हो? रूको, आज देखना मैं जीतकर कितने सारे पैसे लेकर आता हूँ। दिवाली के दिन रात में जुआ खेलने से लक्ष्मी घर में आती है। पैसा जीतने के बाद हम लोग दिल्ली चले जाएंगे।
दिल्ली जाने की बात सुनकर झूमका की छाती धड़क उठी। जहां हर दिन सिर छुपाने की जगह नहीं, खाना बनाने का घर में सामान नहीं। हाथ में जितने पैसे थे, वे सब खत्म हो गए तब घर में काम - काज कर बहुत ही कष्ट के साथ पैसे कमाकर वे लौटे थे, ओड़िशा को। और फिर एक बार दिल्ली जाएंगे इस बेवकूफ के साथ? साथ में होंगे और दो बच्चें।
उस समय तो दिल्ली जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। नौ भाइयों की एक बहिन। पिता स्टील प्लांट में सफाई का काम करते थे। शादी के लिए एक अच्छा वर ढूंढ रखा था। झूमका की छोटी भाभी से सनऊ राखी बंधवाने के लिए उसके घर गया था। एक दिन रूकने की जगह पर पांच दिन रूका था। चाकलेट, अमचूर, जूड़ा बांधने वाले तरह - तरह के रबर - बैंड लाकर दिए थे उसने झूमका के लिए। उस दिन से उसका मन उस पर आ गया था। सनऊ ने कहा था -चलो, यहां से दिल्ली चले जाते हैं, नहीं तो तुम्हारे पिता तुम्हारी दूसरे के साथ शादी कर देंगे। जितना भी पैसा हाथ में था। वे लेकर दोनो ट्रेन में बैठकर दिल्ली चले गए थे। जिसकी भनक भाइयों को तक नहीं लगी।
दिल्ली से लौटते समय झूमका पेट से थी। पिता के घर न लौटकर सीधी चली गई थी सनऊ के घर। शादी - ब्याह नहीं होने के कारण वह सास की आंखों में खटकने लगी। मेरे बेटे को मुझसे अलग करने वाली नागिन। पिता को खबर लगने से मिलने आये थे। कह रहे थे - भाइयों को समझा - बुझाकर तुम्हें घर बुलाएंगे। सनऊ को बैठाकर समझाया था। उसका शादी - ब्याह करने के लिए धांगड़ा की व्यवस्था कर दी थी। स्टील प्लांट में मेरे साथ काम करता था। तुम तो उसे लेकर फरार हो गए। बैठकर खाने से क्या तुम्हारा संसार चलेगा। जाओ कुछ काम - धाम करो और अपना पेट पालो।
सनऊ ठेकेदार के बंगले पर काम करने जाता था। एक दिन की सत्तर रूपए मजदूरी। झूमका को आधा देता था और आधा पी - पाकर उड़ा देता था। तब झूमका कुछ भी कमाती नहीं थी। नहीं पीने से उसके शरीर की थकान कैसे मिटेगी, तब वह सोचती थी। मजाक - मजाक में एक दिन मिस्त्री ने करणी से उसके हाथ को खरोंच दिया। उस दिन वह उससे मारपीट कर गुस्से से काम छोड़कर आ गया। बहुत समझाने के बाद कभी ट्रेक्टर से बालू उतारना तो कभी मन होने से घर द्वारा की पुताई करना आदि काम करता था। उसके बाद हफ्ते में एक दिन या दो दिन। पांच - छ: दिन बैठकर रह गया घर में।
सास ने उसको खाना नहीं दिया। घर से बाहर निकाल दिया। किसी घर के बरामदे में पोलीथीन ढंक कर दो दिन आश्रय लिया था। आखिर में शिरीधारा ने खोली जुगाड़ कर दिया था, सौ रुपए भाड़े में। वह देख रही थी, जब सनऊ पेट भरने के लिए खाना की व्यवस्था नहीं कर पा रहा है तो वह भाड़े की क्या व्यवस्था करेगा?
शिरीधारा के पास रो - धोकर अपना दुख दर्द बयान करने पर मास्टराणी के घर में काम दिलवा दिया था। झूमका के काम करने से सनऊ और आलसी हो गया। बच्चे को संभाल रहा हूँ, दिखाने के लिए घर में बैठा रहता था। जब तक झूमका घर नहीं आ जाती थी। क्या नाश्ता लाई हो, कहकर खुद खोजने लगता था। झूमका का ससूर अच्छा आदमी था। बेटे को उत्पात समझ रहा था। सनऊ के लिए कहीं न कहीं से काम का बंदोबस्त कर लिया। मगर वह आलसी आदमी काम पर नहीं जाता था। एक समय जाने से दूसरे समय छुट्टी। फिर एक बार बाप और बेटे ने मिलकर एक होटल बनाई। जंगल से लकड़ी काटकर तथा टोकरी में मिट्टी पत्थर ढोकर एक दीवार बनाई। किवाड़ भी जोड़ दिया था। ठेके का काम। बिहारी ट्रक वालों को चाय और खुचरा पेट्रोल बेचेगा, सोचकर बीच रास्ते में दुकान डाली थी। कुल मिलाकर डेढ़ हजार रूपया मिलता था बाप - बेटे को। झूमका के लिए एक पीस ब्लाऊज खरीद कर लाया था सनऊ और बाकी पैसों को बाप - बेटे ने मिलकर दारु में उड़ा दिया।
झूमका को लगता था, वही एक हफ्ता उसके सबसे ज्यादा खराब दिनों का था। नहीं तो सनऊ इस तरह बातों - बातों में रूठकर दिल्ली चला जाता। पिता ने तो उसके लिए नौकरी वाला लड़का खोजा था। सनऊ ने क्या मंत्र फूंका कि क्या ऐसी बात कही कि उसका मन किसी और की तरफ  नहीं गया, केवल मन में यही विचार आ रहा था कि बिना सनऊ को पाए जीवन व्यर्थ है।
झूमका अपने साड़ी के आंचल को बच्चों को ओढ़ा दिया। बाहर में कुछ - कुछ बातें सुनाई दे रही थी। बस्ती के सारे आदमी सो नहीं थे। पुलिस के डर से सामने वाले दरवाजे पर एक ताला लगाकर पिछवाड़े बैठकर जुआ खेल रहे थे। घर से तार खींचकर पिछवाड़े में बल्ब लटका दिया था। कैसे खेलते हैं ये खेल, झूमका को पता नहीं था। उसका पिता, भाई ये खेल नहीं खेलते थे। खदानी इलाकों से राऊरकेला ज्यादा शिक्षित जगह है। उस घर में टी.वी. भी था। उसके भाई के पास लूना थी। यहां टी.वी. सीरियल देखने के लिए झूमका शिरीधारा को बीस रुपए भाड़ा देती थी। यह जगह मूर्ख लोगों की जगह थी। वे अपने बेटों को राऊरकेला भेज देंगे।
झूमका ने कपाल पर हाथ रखकर जुहार किया- ऐ माँ, आज सनऊ जीतकर आएगा तो प्रसाद चढ़ाऊंगी। इसके बाद वह उन पैसों से फेरीवाले से एकाध कंबल खरीदूंगी। इस खपरीली झोली में जितने भी पोलिथीन ढंकने से सुबह - सुबह ठंडी हवा आती है।
तरह - तरह की बातें सोचते हुए न जाने कब उसकी आंख लग गई। बाहर से चिल्लाने की आवाज सुनकर हठात् उसकी नींद खुल गई। वह उस आवाज को पहचान गई थी। ऐसा लगता है दूर कुरैसर के घर में कुछ हुआ है। इतना नजदीक से कभी नहीं सुनी। लडाई - झगड़ा हुआ होगा। कुरैसर की औरत लंगड़ी है। लंगडाते - लंगड़ाते वह ज्यादा काम नहीं कर सकती थी। एक घर पकड़ी थी जो उसको निपटाने में दोपहर हो जाती थी। बिचारी गर्भवती भी थी। उसका आदमी बड़ा गुस्सैल था। लंगडी को पीटता था। फिर भी वह कम बदमाश नहीं थी। पक्की चोरनी थी। चुपके - चुपके सामान उठाकर कब कमर के खोसे में रख लेगी, किसी को पता तक नहीं चलता था। कितनी बार तो हाथ घड़ी तो कितनी बार नथिनी। कितनी बार दो आलू तो कितनी बार मु_ी भर सर्फ । जितना वह हथिया कर लाती थी, कलमुंहा कुरैसर जुएं में उड़ा देता था। चोरनी के लिए अच्छा ही हुआ है।
देखते - देखते बेटी ने गुदड़ी के अंदर पेशाब कर दिया। एक बार तो झूमका के कपड़े भी भींग गए थे। भींगा खोसा खोलकर आंचल को बदल पहन लिए झूमका ने। कपड़े का टुकड़ा लाकर गुडडी के ऊपर डाल दिया था। उसके पास दो साडियां थी मगर उसकी बेटी पेशाब करके भींगा देती थी। कल काम पर जाऊँगी तब अगर इसी को पहनकर जाऊँगी। मास्टरनी नाक - भौं सिकोड़ेगी, नाक - भौं क्या सिकोड़ेगी, कहेगी - उसकी बेटी तो और नाक फुलाएगी। कहेगी - झूमका! तुम इधर से जाओ। क्या महक रहा है। मास्टरनी कुछ भी बोल सकती है। बेशर्म होकर पूछेगी - तुम्हारी बेटी का पेशाब, इतनी गंदी होकर तुम ऑफिसर लोगों के घर काम करने आती हो। तुम्हें खराब नहीं लगता है? तुम्हारे कहने पर तो रखी, तुम्हें और कोई घर नहीं घुसाएगा। अहा रे! दयावती, हफ्ते में पांच दिन मांस बनाती है मगर कभी थोड़ा झोल तक खाने को नहीं देती है। रविवार के दिन हड्डीवाला मांस खरीदा था। दो टुकड़े मांस दिया था। तब कितनी बार कहा था - ऐ झूमका! जाते समय मांस ले जाना, मांस ले जाना। समऊ पठान के पास काम करते समय एक दिन आंतों के साथ रान या चाप के दो टुकड़े छुपाकर लाया था। अब तो वह दर्जी के पास काम करता है। उस हटली में। कितनी बार कहा बचा खुचे कपड़ों से बच्चों के शर्ट सिल दे, मगर सुना नहीं। कहता था - दुआस कटिंग करता है। कपड़ा बचाकर वह उसे बेचता था और दारू पीता था। कहां से और कपड़ा मिलेगा, जो तुम मांग रहे हो। आजकल उसका मुझ पर विश्वास हो गया। इसलिए दुकान उसके भरोसे छोड़कर वह जाता है। चोरी करने पर रखता किवाड़ पर सांकल की झनझनाहट सुनकर झूमका समझ गई थी यह निश्चय ही सनऊ है। चिड़चिड़ा कर पूछने लगी।
- क्यों दरवाजा खटखटा रहे हो? बच्चें उठ जाएंगे?
- तू दरवाजा खोल।
- तुम्हें क्या चाहिए, कहो, सोना हो तो आओ, नहीं तो जाओ सुबह उठना।
- दूंगा अभी खींचकर। बाहर से सनऊ उसे धमकाने लगा।
अवश्य ही यह आदमी जुए में हारा है, नहीं तो इस तरह की दादागिरी नहीं दिखाता। हा... हा... मेरे महीने की कमाई को भी जुए में उड़ा दिया। जैसे झूमका के भीतर आग जल रही हो। वह कहने लगी - तुम जाओ गड्डे में पड़ो, हरामी, मैं तुम्हारे लिए दरवाजा नहीं खोलूंगी।
दरवाजे पर जोर से पैरों से धक्का दिया था सनऊ ने। उसकी आवाज सुनकर दोनों बच्चें डरकर उठ गए थे। झूमका ने दोनों को अपनी गोद में लेकर पुचकारा था।
- ए माँ! भूख लग रही है? बच्चे ने कहा।
- कल मास्टरनी के घर पीठा मिलेगा। दीपावली का पीठा लाऊँगी खाना। अब सो जा।
- वह तुम्हारी माँ है?
- हाँ।
- तुम्हारी माँ ने मुझे बिस्कुट दिए थे।

- हाँ, कल और मांगकर लाऊंगी। अब सो जा।
झूमका के माँ की बिस्तर पर पड़ गई थी। हर समय कफ  और खांसी। राउरकेला जाती तो एक बार देखकर आ जाती। झूमका की माँ और सास दोनों बहिनें लगेगी मामा और मौसी के बेटी। मगर झूमका सास को फूटी कौड़ी भी नहीं सुहाती थी। स्कूल के सामने भूजे हुए चने बेचती थी। नाति को अपने पास रख। मैं काम पर जाती हूँ। कहने से वह उलटा - पुलटा बोलना शुरु कर देती थी। एकदम झगड़ालू। अपनी बेटी की शादी के लिए उसने एक जोड़ा पायल खरीद कर रखा था। किस समय उसे ले जाकर सनऊ जुए में हार गया। कहकर बुढ़िया दिन - रात तक झगड़ती रही। मेरा आदमी है मगर तुम्हारा बेटा था। मैं तो तुम्हारे कमरे में नहीं गई थी? तुम मेरे ऊपर क्यों बिगड़ रही हो? झूमका ने कहा था मगर बुढ़िया कहां सुनती।
झूमका की दाहिनी आंख फड़कने लगी। थंूक लगाया था उस आंख पर। इस जुआरी ने पैसे भी डुबा दिए होंगे, नहीं तो यह आंख इस तरह क्यों फड़कती? जुआरी को किसी ने मार तो नहीं दिया? झूमका के मन में तरह - तरह के ख्याल आने लगे। धीरे से उसने सांकल खोल दी। कहां जाऊंगी, पिछवाड़े में खूब सारे आदमी बाहर अंगने में बैठकर जुआ खेल रहे थे। औरत को वहां देखकर क्या कहेंगे। खिड़की और दरवाजे ऐसे ही खुले रख दिए थे झूमका ने। कब वह शराबी आकर सोएगा। ठिठुराने वाली ठंड में किसके बरामदे में जाकर सोएगा?
रात खत्म होने में दो घंटे का समय रहा होगा। गहरी नींद में सो गई झूमका। किसी के हाथ लगने से उसकी नींद टूट गई थी। कौन कहकर आँखें खोली तो देखा सनऊ सामने था। सनऊ उसको हिला - हिलाकर उठा रहा था।
- क्या हुआ? सो नहीं रहे हो, चिटकनी लगा दी? नींद में झूमका ने पूछा था।
- तुम्हारे से काम था।
- क्या काम?
- मेरी बात सुनो।
- जीत कर आए हो? क्या लाए हो? कितना ला हो?
- तुम उठो न। सनऊ ने कहा था।
तुरंत उठकर बैठ गई थी झूमका। सच में, उसकी आंखों से नींद भाग गई थी। क्या - क्या लाए हो दिखा तो दो। मुंह उतारकर बैठ गया सनऊ। हां समझ गई तुम हार गए हो। मुझे पता था। कब जीतकर आए थे, जो आज जीतते। कल के लिए चावल नहीं है। मेरी कमर दर्द कर रही है तो डॉक्टर के पास दवाई - दारु करवाऊंगी, सोचकर पैसा खोज रही थी मगर तुमने तो सब उडा दिए।
जम्हाई लेते हुए झूमका ने कहा - छोड़ो, सो जाओ कल की बात कल देखेंगे।
- झूमका, झूमका!
- क्या हुआ? चिढ़ गई थी झूमका इस बार। सारी रात सोने नहीं देते हो। सुबह काम करने जाऊंगी या नहीं? पैसे तो तुम सारे हार गए। काम पर जाऊंगी तो नाश्ता - वाश्ता मिलेगा, जिससे मेरे बच्चों का तो पेट भरेगा।
- तुम मेरी बात क्यों नहीं सुन रही हो? तब से बकबक कर रही हो। मैं और क्या बोलूंगा? बड़ी दुविधा में पड़ गया हूँ। क्या करूंगा मुझे बता झूमका की आंखों से नींद गायब - सी हो गई।
- आह! उठकर बैठ गई थी वह। क्या दुविधा है, मेरे घर में है क्या, जो चिंता की बात है। साफ  - साफ  कहो।
- सारी गलती मेरी है। सनऊ ने कहा। मैं लोभ में पड़ गया था। पता नहीं, मेरी मति कहां मारी गई थी जो सारे पैसे हार गया। मेरा सब कुछ लूट लिया साले दर्जी ने, छतिसगढ़िया से मैं हारूंगा? मेरी औरत को रख लेना जा। यह मेरी लास्ट बाजी है।
- क्या कहा, क्या कहा तुमने? झूमका चहक उठी।
- तुम्हारा न खा रही हूँ, न पी रही हूँ। तुमने क्या सोच कर मुझे बंदी रखा। तुम्हारी इतनी बड़ी हिम्मत। इसलिए तुमने मेरे हाथ पकड़े थे, समझी। मेरा दिमाग खराब हो गया था जो तुम्हारे जैसे निकम्मे कुड़िया आदमी के साथ शादी की। मेरे पिता ने मेरे लिए स्टील प्लांट में एक आदमी देखा था। मैं कलमुंही अपने भाग्य को लात मारकर तुम्हारे साथ आई। और तुमने मुझे गिरवी रख दिया? हरामजादे, तुमने अपनी बहिन को क्यों गिरवी नहीं रख दिया। मुझे खरीदकर लाकर लाया था क्या? गुस्से में झूमका तुम से तू पर उतर आई थी।
- तूझे मरना है तो मर, जो करना है कर, मेरा क्या जाता है? मेरा हाथ पकड़कर शादी की थी,आज तुमने ऐसी मर्दानगी दिखा दी?
- चुप ..चुप, इतनी चिल्ला क्यों रही हो? बच्चे उठ जाएंगे। पास - पड़ोस को पता चलेगा।
- तूने तो अपनी औरत को गिरवी रख दिया, जिसे पांच लोग भी नहीं जानेंगे क्या? कल बात फैलेगी नहीं? सही कह रही हूँ, कल सुबह की गाड़ी से मैं राऊरकेला जा रही हूँ।
- दो थप्पड़ मारूंगा, राऊरकेला याद आ जाएगा। सनऊ ने कहा।
- हाथी के दांत और मरद की बात, समझी। तू जाएगी उस दर्जी के पास।
- तुमने नशा किया है। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।। नहीं तो कोई अपनी औरत को परपुरुष को सुपुर्द करता है। तुझे जरा भी अक्ल नहीं है, बुद्धू। अपने औरत और बच्चों का पेट नहीं पाल सकते हो इसलिए यह ऊपाय खोजा है। कल तुम इस बस्ती में मुंह नहीं दिखा पाओगे। मैं मुंह दिखा पाऊंगी। कहो, तुम्हारा बाप तुझे रखेगा। बस्तीवाले छींटाकशी नहीं करेंगे? तेरी बुद्धि पर राख पड़े। आंखों से पानी निकल आया झूमका के। - तुम जैसे जुआरी लोगों के बाल बच्चे नहीं, तुम्हारी कोई जाति - बिरादरी नहीं? क्या खेल खेलता है, जो खेल खेलता है, वह भाड़ में जाए। जो मेहनत करके लक्ष्मी लाई थी, उस लक्ष्मी को तुमने घर से बाहर निकाल दिया। मैं जा रही हूँ, दर्जी के घर, और आयंदा तुम्हारे घर में कदम नहीं रखूंगी। सुबह - सुबह अपना सामान लेकर राऊरकेला चली जाऊँगी।
झूमका का उत्तर सुनकर सनऊ थोड़ा नरम पड़ गया था। कहने लगा - और दो घंटे बाद रात खत्म हो जाएगी। तू मैदान गई थी या दर्जी के घर। कौन जानता है कहो तो, तेरे वहां पांव रखने से हो गया। अगर उसने तूझे छू लिया तो साले को एक झटके में काट डालूंगा। मैं क्यों तुझे इतना जोर देकर कह रहा हूं। तुम नहीं समझ रही हो। अब मुझे दर्जी छोटे - मोटे कपड़े सिलने को दे रहा है। और किसी दिन मैं उससे कटिंग सीख लूंगा। ट्रेनिंग हो जाने पर हम भी एक मशीन खरीद लेंगे। तब मैं मास्टर हो जाऊंगा। मेरी दुकान पर दो - दो बच्चे रखूंगा काज और बटन सिलाने के लिए।
सनऊ की बात सुनकर झूमका ने मुंह मोड़ लिया - तुम्हारी इन घटिया बातों पर मुझे विश्वास नहीं है। बहुत देख लिया है। कुछ समय के लिए दोनो चुपचाप बैठे रहे। झूमका सोच रही थी कि वह किसकी शरण में जाए। पूरी की पूरी बस्ती तो नशे से ग्रस्त है। आंखे होने पर भी सब अंधी।
- तुम्हारा घरवाला कह रहा है तो तुम जाओ।
सनऊ ने अपना मुंह खोला - तुझे डर लग रहा है,जाओगी तो मैं तूझे रास्ता दिखा देता हूँ।
झूमका की आंखों से मानो आग निकल रही हो। यह आदमी है या...  मन कर रहा था कि मुंह पर थंूक दूं। गुस्से से वह तमतमा उठी। आंचल में बेटी सो रही थी। धीरे से खिसक कर उसकी तरफ  आई। जैसे - तैसे साड़ी पहनकर मन ही मन सोच रही थी - मैं उधर जाऊंगी जहां मेरे कदम ले जाएंगे। रेल लाइन पर अपना सिर रख दूंगी। संभाल अपने बच्चों को। दरवाजा खोलकर एक - एक कदम रखकर वह बाहर चली गई। कहीं दूर पटाखे फूटने लगे। पिछवाड़े में जुए के खेल का एक दौर पूरा हो गया लगता है, तभी तो बस्ती में कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही है। टेकरी पर चढ़ते समय उसे डर लग रहा था। उसे ज्यादा डर लग रहा था उस अधेड़ उम्र के दर्जी के बारे में सोचकर। पियक्कड जुआरी, बच्चे और औरत को बिलासपुर में छोड़ दिया है उसके बेटे को चित्ती सांप काटने के बाद। उसका बेटा सांप काटने से मर गया था। इतनी उम्र होने के बाद भी औरतों पर डोरे डालता है। इसलिए अपने बालों में खिजाब लगाता है। किसी जन्म में पाप किया होगा तभी तो इस जन्म में बेटा मरा है, फिर भी पाप संचय कर रहा है।
मैं क्या करूं, सोच रही थी झूमका। नशेड़ी के पास मेरी इज्जत जाएगी? गुस्से - गुस्से में मैं घर छोड़कर बाहर तो आ गई। मेरी अक्ल पर ताला पड़ गया था। पीछे मुड़कर देखने लगी थी झूमका। पीछे केवल अंधकार, आगे में दर्जी दुआस का मकान।
दुआस उसी समय शायद पहुंचा था उसके घर। खिड़की, दरवाजे खुले थे। खूं - खूं कर खांस रहा था। यदि उस आदमी ने उसे खींच लिया तो? अगर बाघ की गुफा में बकरी आएगी तो वह क्या उसे छोड़ेगा? पूरी की पूरी निगल जाएगा। आगे का सोचकर पता नहीं क्यों झूमका को बहुत डर लग रहा था। कलमुंहे दुआस! तू मर क्यों नहीं गया। तू यहां किवाड़ खोलकर बैठा है। इस बुढ़ापे में तेरे आशिकपने को धिक्कार!
मेरी बदनामी होने से होगी। कल यदि मैं तुम्हारा नाम काउंसिलर के पास शिकायत न कर दी और तूझे अगर पुलिस की हाजत में नहीं बैठाया तो मुझे मत कहना, हरामजादे।
झूमका लौटने लगी थी। सनऊ ने कहा था- तू तो केवल अपने कदम रखकर आ जाना। उसने कदम रख दिया। पीछे से दुआस ने आवाज लगाई.
- कौन है, कौन है वहां?
- मैं सनऊ की औरत।
- तुम आ गई? दुआस ने कहा।
झूमका कांप उठी। उसका शरीर पसीने से तर - बतर हो गया। दरवाजे की चौखट पर आकर खड़ा हो गया दुआस। उसके मटमैले दांतों की हंसी - अरे अरे! खेल - खेल में हार गया तो सच में तुम आ गई। जा जा, घर को जा।
आंखें बंद करके वहां से भागी झूमका। उसे भीतर ही भीतर एक अपमान अनुभव होने लगा। किस जगह वह अपना मुंह छुपाएगी। झटपट लौटते समय उसका पेट काटने लगा। मैदान की ओर जाना था मगर वह पानी का लोटा तो साथ में नहीं लाई थी। अच्छा, दुआस को देखो, बाबाजी की तरह बैठा है, अपने मठ में। औरत उसके आगे समर्पण कर रही थी। फिर भी लौटा दिया? मेरे शरीर में मलमूत्र की गंध से, मेरे काले कलूटे हाथ देखकर।
घर के दरवाजे तक वह आ गई थी। धीरे से घर के अंदर चली गई झूमका। और कौन सोएगा, रात खत्म होने लगी थी। सनऊ सोया ही था शायद। उसने पूछा - आ गई क्या झूमका?
- हूँ।
उठकर बैठ गया सनऊ - मुझ पर गुस्सा कर रही हो?
झूमका ने कुछ नहीं कहा।
- एक बात पूंछू - गुस्सा नहीं होगी तो? सनऊ कहने लगा। सच सच बताना, उसने तुझे छूआ तो नहीं?
क्रोध से आगबबूला हो उठी झूमका। मन ही मन कहने लगी - तेरे ऊपर बिजली गिरे!

हिन्दी गज़ल का इतिहास एवं नव छंद विधान - हिन्दी की

डॉ. माणिक विश्‍वकर्मा '' नवरंग '' 

     हिन्दी गज़लों का इतिहास बहुत पुराना है। जिस तरह आज की उर्दू गज़लों का विकास एक बहर वाली कविता जिसे अरबी में बैत एवं फारसी में शेर कहते हैं के साथ शुरू हुआ था ठीक उसी तरह हिन्दी गज़लों का विकास भी दोहेनुमा कविता से शुरू हुआ था।
     हिन्दी गज़ल के इतिहास में दृष्टि डालें तो पता चलता है कि हिन्दी में गज़ल लिखने की परंपरा बहुत पुरानी है। कविता में अंत्यानुप्रास,तुकांत परंपरा की शुरुआत सन 690 के आसपास सिद्ध सरहपा ने की थी। जिसे आधुनिक कविता का प्रारम्भिक रूप माना जा सकता है। सिद्ध सरहपा द्वारा रचित दोहे शेर,बैत के समान ही थे। उदाहरण के तौर पर जेहि वन पवन न सचरई, रवि ससि नाह प्रवेस। तेहि वट चित्त विश्राम करूँ,सरहे करिय उवेस।। कबीर 1398 - 1318 की निम्नलिखित गज़ल पर सबसे पहले डॉ.गोविंद त्रिगुनायत का ध्यान गया। जिसके आधार पर कबीर को पहला हिन्दी गज़लकार माना गया। हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या,रहें आज़ाद यों जग में हमन दुनियाँ से यारी क्या कबीरा इश्क का मारा दुई को दूर कर दिल से, जो चलना राह नाजुक है हमन सिर बोझ भारी क्या। हालांकि बाद के कवियों ने भी कबीर की तरह छंदबद्ध कविताओं को समृद्ध किया है। रहीम 1556 - 1627 का दोहा - रूठे सूजन मनाइ, जो रूठे सौ बार। रहिमन फिर फिर पोइए टूटे मुक्ताहार।। एकै साधे सब सधे सब साधे सब जाय। रहिमन मूलहिं सीचिबों फूलें फलै अगाय।। बिहारी 1603 - 1664 ने भी अच्छे दोहे लिखे। सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर।। जिस तरह हिन्दी दोहों से हिन्दी गज़लों का विकास हुआ ठीक उसी तरह बैत या शेर से उर्दू गज़लों का विकास हुआ है। आरंभिक उर्दू गज़लों के उद्गम की तुलना तुकांत हिन्दी कविताओं, दोहो से की जा सकती है। बहुत से समीक्षक भारतेन्दु हरिश्चंद्र 1850 - 1885 को पहली हिन्दी गज़ल लिखने वाला कवि मानते हैं। बानगी के तौर पर उनकी गज़ल का एक शेर - रूखे रौशन पे उनके गेसू - ए - शबगूं लटकते हैं, कयामत है मुसाफिर रास्ता दिन में भटकते हैं। निराला1896 - 1961की गज़लें हिन्दी गज़लों के बहुत करीब दिखाई देती हैं जैसे- जमाने  की रफ़्तार में कैसा तूफाँ मरे जा रहे हैं जिये जा रहे हैं,खुला भेद विजयी कहा हुए जो लहू दूसरों का पिये जा रहे हैं। बहुत कवियों ने बेहतरीन हिन्दी गजलें लिखीं हैं एवं आज भी लिख रहे हैं। शमशेर बहादुर सिंग,सूर्यभानु गुप्त,कृष्णा बक्शी,चंद्रसेन विराट,रघुवीर सहाय,जानकी वल्लभ शास्त्री,भवानी प्रसाद मिश्र, नरेंद्र वसिष्ट,गोपालदास नीरज,चन्द्रभान भरद्वाज,अदम गोंडवी, डॉ.दरवेश भारतीय, डॉ.गिरिराज शरण अग्रवाल, मुकीम भारती,राज मालिकपुरी, अब्दुल सलाम कौसर, जहीर कुरैशी, विज्ञान व्रत, हरीश निगम, ज्ञान प्रकाश विवेक, इसाक अश्क, देवी नागरानी, डॉ. माणिक विश्वकर्मा,नवरंग,गुलाब खंडेलवाल,विजय राठौर, महेश अग्रवाल, रमेश मेहता, आलोक श्रीवास्तव,मनोज आजिज़ राजकुमारी रश्मि,नवाब देवबंदी, अशोक अंजुम, माधव कौशिक,हंसराज रहबर,सुशील साहिल एवं बड़ी संख्या में हिन्दी साहित्य से जुड़े कवि सम्मिलित हैं जिनकी रचना धर्मिता से हिन्दी गज़ल संसार समृद्ध हुआ है और निरंतर हो रहा है। वैसे तो हिन्दी गज़लें बरसों पहले से लिखीं जा रहीं हैं लेकिन हिन्दी काव्य संसार में साये में धूप के माध्यम से इसे स्थापित करने का श्रेय स्वर्गीय दुष्यंत कुमार को दिया जाता है। उनकी हिन्दी गज़लों को जो लोकप्रियता हासिल हुई उससे साहित्य जगत में हिन्दी गज़लों की सशक्त उपस्थिति दर्ज हुई। इसका परिणाम यह भी हुआ कि उर्दू लिखने वालों ने इसका जमकर विरोध किया। उर्दू व्याकरण शास्त्र का हवाला देते हुये दुष्यंत की हिन्दी गज़लों को खारिज कर दिया गया। हिन्दी गज़लों के विरुद्ध तब से चला ये अभियान आज भी जारी है। इसका मुख्य कारण है हिन्दी गज़ल लिखने के लिए छंद विधान का न होना। हिन्दी गज़लों की व्याख्या समय समय पर हिन्दी गज़लकारों द्वारा इसे अलग - अलग नाम देकर की जाती रही है। गीतिका,मुक्तिका,नविता,हिंदकी एवं सजल आदि। दुष्यंत जी ने स्वयं इसे नई कविता की एक विधा माना था। कुछ लोगों ने इसके गीत एवं नवगीत के करीब होने की बात कही थी। हिन्दी एवं विभिन्न भाषाओ में लिखी जा रहीं गज़लों का अवलोकन करने के पश्चात मैंने हिन्दी गज़ल लेखन के लिए नए छंग की रचना करके उसे हिंदकी नाम दिया है और एक साधारण मानक स्वरूप तैयार किया है। इसके अन्वेषण का मुख्य उद्देश्य भारत की विभिन्न भाषाओं में लिखी जा रही हिन्दी गजलों, हिंदकी को मान्यता दिलाना, बढ़ावा देना एवं हिंदुस्तान में उर्दू गज़लों से अलग नई पहचान दिलाना है। छंदों की उत्पत्ति वेदों से हुई है अरबी,फारसी एवं उर्दू भाषाएँ बहुत बाद की भाषाएँ हैं। हिंदकी छंद आयातित छंदों जैसे रुबाई,ग़ज़ल,मुक्त छंद,नवगीत,प्रयोगवदी कविता एवं हाइकू से भिन्न पूरी तरह हिंदुस्तानी अर्थात भारतीय छंद है।
      हिंदकी छंद- हिंदकी हिन्दी ग़ज़ल, मात्रिक छंद की वह विधा है जिसमें चार से अधिक पद होते हैं। प्रथम युग्म सानुप्रास होता,तुकांत है एवं शेष युग्म के दूसरे पद चरण या पंक्तिद्ध का तुक पहले युग्म के दोनों पदों के तुक से मिलता है। युग्मों की न्यूनतम संख्या तीन एवं अधिकतम संख्या सुविधानुसार कितनी भी बढ़ाई जा सकती है। कवि यदि चाहे तो अंतिम पद में अपने नाम का प्रयोग कर सकता है लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है। हिंदकी मात्रिक छंद को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। सम मात्रिक छंद एवं विषम मात्रिक छंद।
     सम मात्रिक हिंदकी छंद, युक्तिका। इसकी संरचना निश्चित मात्रा भार पर आधारित होती है इसमे सभी पद 8 से 40 मात्राओं में निबद्ध हो सकते हैं । सामान्यत: 12 से 36 मात्रिक हिंदकी छंद प्रभावशाली लिखने में आसान होते हैं। ये छंद स्वभाव में गीत एवं नवगीत के करीब होते हैं। इसमे तुकांत के पश्चात पदांत हो भी सकता है और नहीं भी। उदाहरण:
गाँव छोड़ा नहीं करते शहर के डर से,
नांव छोड़ा नहीं करते लहर के डर से?
जड़ों को सींचते रहना फलों की ख़ातिर,
छाँव छोड़ा नहीं करते कहर के डर से?
                ...
पथ पे गिरने लगे नज़र वाले,
आज उड़ते हैं बिना पर वाले?
थक गए हैं सभी को समझा के,
नहीं सुधरेंगे ये शहर वाले?
उपरोक्त पदों में शहर,लहर, कहर, तुकांत एवं डर से पदांत हैं।
     विषम मात्रिक हिंदकी छंद मुक्तिका इसकी संरचना निश्चित मात्रा भार पर आधारित नहीं होती। इसमें सभी पदों की मात्राएं विषम होती है। आंशिक अंतर होता है। विषम मात्रिक छंदों मे शब्दों का संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि मात्रा का अंतर दो या तीन से अधिक न हो। ये छंद स्वभाव में नई कविता के करीब होते हैं लेकिन अंतर केवल इतना होता है कि इन्हें सम मात्रिक हिंदकी छंद की तरह आसानी से गाया जा सकता है। इसमे भी तुकांत के पश्चात पदांत हो भी सकता है और नहीं भी।
उदाहरण :
हाल मौसम का बरसात बता देती है,
रिश्तों की आयु मुला$कात बता देती है?
मिलने जुलने का सलीका भी जरूरी है,
जुबां पलभर में औकात बता देती है?
               ....
इन पुराने खण्डहरों में क्या धारा है,
वो नहीं बिकता यहाँ पर, जो खरा है?
उर्वरा ये भूमि है सुनते थे लेकिन,
अंकुरित जो भी हुआ है, वो मारा है?
           ....
     उक्तिका यदि विषम मात्रा भार का अंतर तीन से अधिक हो, युग्मों के तुक भी न मिलते हों तो इसे उक्तिका की श्रेणी मे रखा जाएगा।
     मात्रा गणना- हिंदकी छंद की मात्रा गणना हिन्दी छंद शास्त्रानुसार के अनुसार होनी चाहिए ।
अंत्यानुप्रास या तुक - हिंदकी छंद में हिन्दी में प्रचलित विभिन्न प्रकार के तुकों को अलग अलग या एक रचना में संयुक्त रूप से प्रयोग किया जा सकता है। शर्त ये है कि आखिरी के दो अक्षर का तुक जरूर मिलना चाहिए। जैसे - मुलाक़ात ,बरसात ,औकात ,शुरुआत ,बिसात , सौगात ,हयात ,बात ,घात ,रात ,साथ ,कायनात ,हिला ,खिला ,मिला ,काफिला ,सिलसिला , दूर ,नूर  ,हूर दस्तूर आदि।
     हिंदकी छंद की विशेषता- भाषा सरल,सहज एवं सुबोध। प्रतीक,बिम्ब एवं मुहावरों का सटीक प्रयोग। भाषिक अभिव्यक्ति का सौष्ठव, अभिव्यक्ति की कलात्मकता, विषय वस्तु की मौलिक गरिमा, मानव जीवन से जुड़ी समस्याओं की अधिकता,मार्मिकता का जीवन के संस्कारों एवं संस्कृति से गहरा एवं गंभीर सरोकार होना चाहिए। आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होने वाले किसी भी भाषा का प्रयोग किया जा सकता है। हिंदकी के प्रत्येक युग्म के भाव एक भी हो सकते हैं और अलग अलग भी। छंद में निहित गति,लय एवं प्रवाह के कारण गीत की तरह गेय अर्थात गाने योग्य है। इस छंद में लिखी रचना को शीर्षक दिया जा सकता है।
     विभिन्न भाषाओं में लिखी जा रहीं गज़लों को पहचान देने के लिए हिंदकी छंद का प्रयोग जरूरी है अन्यथा अलग अलग नाम जैसे-गीतिका,मुक्तिका,नविता आदि देने के बावजूद हिन्दी गज़लें उर्दू छंदशास्त्र के आधार पर ख़ारिज होती रहेंगी।
संदर्भ
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास:श्याम चन्द्र कपूर
2. हिन्दी  गज़ल की परंपरा: डॉ.जानकी प्रसाद शर्मा
3. हिन्दी  गज़ल का स्वरूप :डॉ.महावीर सिंह
पता
क्वार्टर नंबर ए.एस.14,पावरसिटी,जमनीपाली,
अयोध्यापुरी, 
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सीमांत

रविन्‍द्र नाथ टैगोर

     उस दिन सबेरे कुछ ठण्ड थी,परन्तु दोपहर के समय हवा गर्मी पाकर दक्षिण दिशा की ओर से बहने लगी थी। यतीन जिस बरामदे में बैठा हुआ था, वहां से उद्यान के एक कोने में खड़े हुए कटहल और दूसरी ओर के शिरीष वृक्ष के बीच से बाहर का मैदान दिखाई पड़ता है। वह सुनसान मैदान फाल्गुन की धूप में धू - धू करके जल रहा था। उसी से सटा हुआ एक कच्चा रास्ता निकल गया है। उसी पर एक खाली बैलगाड़ी धीमी चाल से गांव की ओर लौट रही थी और गाड़ीवान धूप से बचने के लिए सिर पर लाल रंग का गमछा लपेटे मस्ती में किसी गीत की कड़ियां दोहराता हुआ जा रहा था।
     ठीक इसी समय पीछे से किसी नारी का मधुर और हास्य स्वर फूट पड़ा - क्यों यतीन, क्या बैठे - बैठे अपने पिछले जन्म की किसी बात को सोच रहे हो? यतीन ने सुना और पीछे की ओर देखकर कहा - क्या मैं ऐसा ही हतभागा हूं पटल जो सोचते समय पिछले जन्म के विचारे बिना काम ही नहीं चलेगा।''
     अपने परिवार में पटल नाम से पुकारी जाने वाली वह बाला बोल उठी - झूठी शेखी मत मारो यतीन, तुम्हारे इस जन्म की सारी बातें मुझे मालूम हैं। छि:! छि:! इतनी उम्र हो गई, फिर भी एक बहू घर में न ला सके। हमारा जो धनेसर माली है, उसकी भी एक घरवाली है। रात - दिन उसके साथ लड़ - झगड़कर मोहल्ले भर के लोगों को वह कम - से - कम इतना तो बता देती है, कि उसका भी इस दुनिया में अस्तित्व है। तुम तो मैदान की तरफ  मुंह करके ऐसे भाव दर्शा रहे हो, मानो किसी पूनम के चांद से सलोने मुखड़े का ध्यान करने के लिए बैठे हो। तुम्हारी इन चालाकियों को मैं खूब समझती हूं। यह सब लोगों को दिखाने के लिए ढोंग रच रखा है। देखो यतीन, जाने - माने ब्राह्मण के लिए जनेऊ की आवश्यकता नहीं पड़ती। हमारा वह धनेसर माली तो कभी विरह का बहाना करके इस सुनसान मैदान की ओर दृष्टि गड़ाये बैठा नहीं रहता। जुदाई की लम्बी घड़ियों में भी उसे वृक्ष के नीचे हाथों में खुरपी थामे समय काटते देखा है, किन्तु उसकी आंखों में ऐसी खुमारी नहीं देखी। एक तुम हो, जिसने सात जन्म से कभी बहू का सलोना मुखड़ा नहीं निहारा। बस, अस्पताल में शव की चीर - फाड़ करके और मोटे - मोटे पोथे रट - रटकर उम्र के सुहावने दिन काट दिये। अब आखिर, इस चिलचिलाती दोपहरी में तुम इस प्रकार ऊपर की ओर टकटकी बांधे क्या देखते रहते हो। कुछ तो कहो, नहीं, ये सब व्यर्थ की चालाकियां मुझे अच्छी नहीं लगतीं। देख - देखकर सारा बदन - अन्तर की ज्वाला से जलने लगता है।''
     यतीन ने सुना और हाथ जोड़कर कहा- चलो, रहने भी दो। मुझे व्यर्थ में वैसे ही लज्जित मत करो। तुम्हारा वह धनेसर माली ही सब प्रकार से धन्य रहे। उसी के आदर्शों पर मैं चलने का यत्न करूंगा बस, अब देर नहीं। सवेरे उठते ही सामने लकड़ियां बीनने वाली जिस किसी बाला का मुंह देखूंगा उसी के गले में स्नेह से गुंथी हुई फूलों की माला डाल दूंगा। तुम्हारे ये कटाक्ष भरे शब्द अब मुझसे नहीं सहन होते।''
- बात निश्चित रही न .... ।'' पटल ने पूछा।
- हां।''
- तब चलो मेरे साथ।''
यतीन कुछ भी न समझ सका। उसने पूछा - कहां ?''
पटल ने उसे उठाते हुए कहा -चलो तो सही।''
     परन्तु यतीन ने हाथ छुड़ाते हुए कहा - नहीं, नहीं अवश्य तुम्हें कोई नई शरारत सूझी है। मैं अभी तुम्हारे साथ नहीं जाने का हूं।''
- अच्छा, तो यहीं पड़े रहो।'' पटल ने रोष - भरे शब्दों में कहा और शीघ्रता के साथ अन्दर चली गई।
     यतीन और पटल की आयु में बहुत थोड़ा अन्तर है और वह है सिर्फ एक दिन का। पटल यतीन से बड़ी थी, चाहे उसे यह बड़प्पन एक ही दिन का मिला हो, लेकिन इस एक दिन के लिए यतीन को उसके लिए लोकाचार हेतु सम्मान दिखाना होगा। यह यतीन को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं। दोनों का सम्बन्ध चचेरे भाई - बहन का है और बचपन एक साथ ही खेलकूद में बीता है। यतीन के मुख से दीदी शब्द न सुनकर पटल ने अनेकों बार पिता और चाचा से उसकी शिकायत की, परन्तु किसी प्रकार से भी इसका खास फल निकला हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। संसार में इस एक छोटे भाई के पास भी पटल का छोटा - सा मामूली नाम पटल आज तक नहीं छिप सका।
पटल देखने में खासी मोटी - ताजी, गोल - मटोल लड़की है। उसके प्रसन्न मुख से किये जाने वाले आश्चर्यजनक हास - परिहासों को रोकने की ताकत समाज में भी नहीं थी। उसका चेहरा सास - मां के सामने भी गम्भीरता का साम्राज्य स्थापित नहीं कर सका। पहले - पहल वह इन बातों के कारण इस नये घर में चर्चा का केन्द्र बनी रही। अन्त में स्वयं पराजित होकर परिजनों को कहना पड़ा - इस बहू के तो ढंग ही अनोखे हैं।
     कुछ दिनों के बाद तो इसकी ससुराल में यहां तक नौबत आ गई कि इसके हास्य के आघात से परिजनों का गाम्भीर्य भूमिसात हो गया। क्योंकि पटल के लिए किसी का भारी जी और मुंह लटकाना देखना असम्भव है।
पटल के पति हरकुमार बाबू डिप्टी मजिस्ट्रेट हैं। बिहार के एक इलाके से उनकी तरक्की करके उन्हें कलकत्ते के आबकारी विभाग में उच्च पद पर ले लिया गया है। प्लेग के भय से कलकत्ता के बाहर उपनगर में एक किराये के मकान में रहते हैं और वहीं से अपने काम पर कलकत्ते आया - जाया करते हैं। मकान के चारों ओर बड़ी चारदीवारी है और उसी में एक छोटा - सा बगीचा है।
     इस आबकारी के विभाग में हरकुमार बाबू को अक्सर दौरे के रूप में अनेक गांवों का चक्कर काटना पड़ता है। पटल इस मौके पर अकेली रह जाती है, जो उसे खलता है। वे इस बात को दूर करने के लिए किसी आत्मीयजन को घर से बुलाने की सोच रहे थे कि उसी समय हाल ही में डॉक्टरी की उपाधि से सुशोभित यतीन चचेरी बहन के निमन्त्रण पर एक सप्ताह के लिए वहां आ पहुंचा।
     कलकत्ते की प्रसिध्द अंधेरी गलियों में से होकर पहली बार पेड़ - पत्तों के बीच आकर आज यतीन इस सूने बरामदे में फाल्गुन की दुपहरिया से आत्मविभोर बैठा था कि पटल पीछे से आकर यह नई शरारत कर गई। पटल के चले जाने के बाद वह कुछ देर के लिए निश्चिंत होकर बैठ गया। लकड़ी बीनने वाली लड़कियों का जिक्र आ जाने के कारण यतीन का मन बचपन में सुनी परी - देश की रोचक कथाओं के गली - कूचों में चक्कर काटने लगा।
     पर कहां ? अभी कुछ क्षण भी नहीं बीते होंगे कि पटल का हास्य से भरा हुआ चिर - परिचित स्वर यतीन के कानों में पड़ा। उसे सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने मुड़कर देखा पटल किसी बालिका को खींचे ला रही थी। इतना देखकर यतीन में मुख फेर लिया। तभी पटल ने उस बालिका को यतीन के सामने करके पुकारा- चुनिया!'' बालिका ने अपना नाम सुन करके कहा - क्या है दीदी ?''
पटल ने चुनिया का हाथ छोड़ते हुए कहा - मेरा यह भाई कैसा है ? देख तो भला।''
     चुनिया जो अब तक गर्दन झुकाये हुए थी नि:संकोच यतीन के चेहरे की ओर निहारने लगी।
उसे ऐसा करते हुए देख,पटल ने पूछा - क्यों री, देखने में तो अच्छा लगता है न ?''
चुनिया ने शान्त स्वर से सिर हिलाते हुए कहा - हां! अच्छा ही है।''
यतीन ने देखा और सुना, फिर लज्जावश कुर्सी से उठता हुआ बोला - ओह पटल! यह क्या लड़कपन है।''
- मैं लड़कपन कर रही हूं या तुम व्यर्थ में ही बुढ़ापा दिखला रहे हो।'' पटल ने यतीन के शब्दों को सुनकर नि:संकोच कहा।
     '' अब बचना मुश्किल है।'' यतीन के होंठों से शब्द निकले और वह वहां से भाग गया। पटल ने उसका पीछा किया और भागती हुई बोली - अरे! सुनो तो, भय की कोई बात नहीं है, यकीन तनिक भी नहीं है। कौन तुम्हारे गले में अभी माला डाल रहा है,फाल्गुन - चैत में तो इस बार कोई लगन ही नहीं पड़ती। अभी बहुत समय है।''
वे दोनों उस जगह से चले गये, परन्तु चुनिया आश्चर्यचकित अवस्था में वहीं खड़ी रह गई। उसके इकहरे बदन ने तनिक भी जुम्बिश न की। उसकी आयु लगभग 16 ही वर्ष की होगी। उसके सलोने मुख का वर्णन पूर्णतया लेखनी से नहीं किया जा सकता, पर इतना अवश्य लिखा जा सकता है कि उसमें ऐसी आकर्षण शक्ति है, जो देखते ही वन की मृगी की याद दिला देती है। साहित्यिक भाषा में कहने की आवश्यकता पड़े तो उसे निर्बुध्दि भी कहा जा सकता है, किन्तु मूर्ख के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती है। हां, अपने समाधान के लिए यह अवश्य सोचा जा सकता है कि बुध्दिवृत्तिपूर्ण विकसित नहीं हुई है लेकिन इन सब बातों से चुनिया का सौन्दर्य घटा नहीं, अपितु उसमें एक विशेषता ही आ गई है।
     संध्या को हरकुमार बाबू ने कलकत्ते से लौटकर यतीन को देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उसी मुद्रा में बोले - तुम आ पहुंचे, चलो बड़ा ही अच्छा हुआ।''
     और फिर दफ्तर के कपड़े बदलकर जल्दी से उसके पास बैठकर कुछ व्यस्त भाव बोले - यतीन! तुम्हें जरा डॉक्टरी करनी होगी। अकाल के दिनों में जब हम पश्चिम की ओर रह रहे थे तभी से एक लड़की को पाल रहे हैं। पटल उसे चुनिया कहकर पुकारती है। उसके मां - बाप और वह, सब बाहर मैदान के पास ही एक पेड़ के नीचे पड़े हुए थे। सूचना मिलते ही मैंने बाहर जाकर देखा, तो बेचारे मां - बाप दुनिया के झंझटों से मुक्ति पा चुके थे, सिर्फ  लड़की के प्राण अभी बाकी थे। मैंने उस लड़की को वहां से उठाकर पटल को सौंप दिया। पटल ने अपना उत्तरदायित्व समझा और बड़ी सेवा - जतन के बाद उसे बचाने में समर्थ हुई।
     उसकी जाति के विषय में कोई कुछ नहीं जानता। यदि उस ओर से कोई ऐतराज भी करता है तो पटल कहती है वह द्विज है। एक बार मरकर फिर से जो इस घर में जन्मी है। इसलिए इसकी मूल जाति तो कभी की मिट चुकी है।
     पहले पहल उसने पटल को मां कहकर पुकारना शुरू किया था, पर पटल को इसमें लज्जा का भास होता था। अत: पटल ने उसे धमकाते हुए कहा - खबरदार! मुझे अब से मां मत कहना। दीदी कहकर भले ही पुकार सकती हो। पटल कहती है - अरे, इतनी बड़ी लड़की यदि मुझे मां कहेगी तो मैं अपने आपको बुढ़िया समझने लगूंगी।''
हरकुमार बाबू ने लम्बी सांस खींचकर पुन:कहा - यतीन एक बात और भी है। शायद उन अकाल के दिनों में या फिर किसी अन्य कारणवश चुनिया को रह - रहकर एक शूल की तरह पीड़ा उठा करती है। असल बात क्या है, सो तुम्हीं को अच्छी तरह डॉक्टरी परीक्षा करके समझना होगा। अरे , ओ तुलसी, चुनिया को तो बुला ला।''
     हरकुमार बाबू के इस लम्बे व्याख्यान की समाप्ति पर यतीन खुलकर सांस भी न ले सका था कि चुनिया केश बांधती हुई, अपनी आधी बंधी बेणी को पीठ पर लटकाये कमरे में दाखिल हुई। अपनी बड़ी - बड़ी गोली आंखों को एक बार दोनों व्यक्तियों पर डालकर चुपचाप खड़ी हो गई।
     हरकुमार बाबू सबकी चुप्पी को तोड़कर बोले - तुम तो व्यर्थ में ही संकोच कर रहे हो यतीन। यह तो देखने भर की बड़ी है। कच्चे नारियल की तरह इसके भीतर सिर्फ  स्वच्छ तरल द्रव्य ही छलक रहा है। कठोर गरी की रेखा मात्र भी अभी तक फूटी नहीं है। यह बेचारी कुछ भी समझती - बूझती नहीं है। इसे तुम नारी समझने की भूल मत कर बैठना। यह तो जंगल की भोली - भाली मृगी - मात्र है।
     यतीन चुपचाप अपने डॉक्टरी फर्ज को पूरा करने में लग गया। चुनिया ने भी किसी प्रकार का संकोच नहीं किया और न आपत्ति ही उठाई? यतीन ने थोड़ी देर तक चुनिया के शरीर की जांच - पड़ताल करके कहा - शरीर यंत्र में कोई विकार पैदा हुआ हो, ऐसा तो दिखाई नहीं देता।
     पटल ने उसी क्षण आंधी के समान वहां पहुंचकर कहा - हृदय - यंत्र में भी कोई विकार पैदा नहीं हुआ। यतीन परीक्षा करना चाहते हो क्या ...अच्छी बात है।
     और फिर वह चुनिया के पास जाकर उसकी ठोड़ी छूती हुई बोली - चुनिया! मेरा यह भाई तुझे पसंद आया न ? ''
चुनिया ने सिर हिलाकर कहा - हां।''
पटल ने फिर पूछा - मेरे इस भाई से विवाह करेगी ?''
चुनिया ने इस बार भी वैसे ही सिर हिलाकर कहा - हां।''
     पटल और हरकुमार बाबू दोनों ही हंस पड़े। चुनिया इस खेल के मर्म को समझकर भी इन्हीं का अनुकरण किए, हंसी से घिरा चेहरा लेकर एकटक ताकती रह गई।
     यतीन का चेहरा लज्जा से लाल हो उठा। वह कुछ परेशान - सा होकर बोला - ओह, पटल! तुम बहुत ज्यादती कर रही हो। यह तो सरासर अन्याय है। हरकुमार बाबू भी तो तुम्हें बढ़ावा दे रहे हैं।''
     पटल के कुछ कहने से पूर्व हरकुमार बाबू बोले - यदि ऐसा न करूं तो मैं इससे प्रश्रय पाने की प्रत्याशा कैसे कर सकता हूं। तनिक बताओ तो सही, लेकिन यतीन, चुनिया को तुम नहीं जानते हो। इसी कारण तुम इतने हैरान हो रहे हो। दिखाई देता है, तुम स्वयं लजा - लजाकर चुनिया को भी लजाना सिखा दोगे। ज्ञान वृक्ष का फल उसे दया कर मत खिलाओ। आज तक हम सब ने सरल भाव से उसके साथ खेल किया है। अब तुम यदि बीच में आकर गम्भीरता दिखाने लगोगे तो उसके लिए बड़ा असंगत - सा मामला हो जायेगा।''
     तभी पटल बोली उठी - इसी से तो यतीन के साथ मेरी कभी नहीं बनी। बचपन से लेकर आज तक सिर्फ झगड़ा ही हुआ है। यतीन आवश्यकता से अधिक गम्भीर है।''
     हरकुमार बाबू किसी रहस्य के मर्म को समझते हुए बोले - शायद इसी कारण से यह वाक्ययुध्द करना तुम्हारी आदत बन गई है। जब भाई साहब नौ दो ग्यारह हुए तो फिर मुझ गरीब...।''
     पटल ने तुनककर कहा - फिर वही झूठ! भला आपसे झगड़ा करने में कौन - सा सुख पा जाती हूं . इसलिए मैं उसकी चेष्टा ही नहीं करती।''
- मैं शुरू में ही हार मान लेता हूं '' -हरकुमार बाबू ने पटल को चिढ़ाने के अभिप्राय से उत्तर दिया।
- बड़ी बहादुरी दिखाते हो न शुरू में हारकर, यदि मेरी अंत में मान लेते तो कितनी खुशी मुझे होती। आपने कभी समझने का भी प्रयत्न किया है इसे।'' इतना कहकर पटल चुनिया को लेकर वहां से चली गई। उसके जाते ही कमरे में नीरवता का आवरण छा गया। वे दोनों एक - दूसरे को देखते हुए शान्त बैठ रहे। थोड़ी देर के बाद तुलसी ने भोजन की सूचना दी। हरकुमार बाबू यतीन को लेकर तुलसी के पीछे रसोईघर में पहुंच गये। पटल वहां न थी। चुनिया ने ही खाना परोसने का काम किया। दोनों भोजन करने बैठ गये। खाते समय बातें करना सभ्यता के विरुद्ध समझकर हरकुमार बाबू ने बोलना उचित नहीं समझा। इस प्रकार वह वातावरण शान्त ही बना रहा।
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     यतीन सारी रात अपने कमरे की खिड़कियां खोलकर जाने क्या - क्या सोचता रहा? जिस लड़की ने अपने मां - बाप को मरते देखा है। उसके जीवन पर कैसी भयंकर छाया आकर पड़ी होगी? ऐसी विदारक घटना के भीतर से आज वह इतनी बड़ी हुई है। उसे लेकर भला कहीं परिहास किया जा सकता है। यही अच्छा हुआ, जो विधाता ने कृपा करके उसकी विकसित बुद्धि पर एक आवरण डाल दिया। यदि किसी कारणवश वह आवरण कभी उठ जाये,तो भाग्य की रुद्र लीला का कैसा भयंकर चिन्ह लक्षित हो उठेगा।
     यतीन जब फाल्गुन की दुपहरिया में वृक्षों के अंतराल से आकाश की ओर निहार रहा था और कटहल की कलियों की मादक सुगन्ध से मृदुतर होकर गंध - शक्ति को चहुंओर से घेर रखा था तो उस समय उसके मन ने सारी दुनिया को माधुर्य के कुहरे से ढके हुए देखा था।  लेकिन अब इस बुद्धिहीन लड़की ने अपनी हिरनी जैसी आंखों द्वारा उस सुनहले कुहरे को मानो पानी की काई की तह के समान हटा डाला है।
     फाल्गुन के इस आवरण के पीछे जो विश्व भूख - प्यास से विकल, विषाद की भार - स्वरूप गठरी को देह पर लिये विराट प्रतिभा का रूप धरकर खड़ा है, आज वह उद्धाटित यवनिका के शिल्प - मधुरता के अंतराल से स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ है।
     कब सवेरा हुआ और पूरा दिन बीतकर शाम होने को आई यह यतीन को ठीक से याद ही नहीं रहा। वह तो पटल के बुलाने पर जब अन्दर गया तो उसने देखा कि चुनिया को वही पीड़ा उठी हुई थी। उसके हाथ - पांव सुन्न हो गये थे और उसका कोमल शरीर अकड़ गया था। यतीन ने दवा लाने के लिए तुलसी को भेजकर बोतल में पानी मंगवाया।  पर पटल झट से बोल उठी - कैसे डॉक्टर बने हो जी, पांवों में तनिक गर्म - गर्म तेल की मालिश भी तो करनी होगी। देखते नहीं, इस बेचारी के तलुवे कैसे बर्फ हो रहे हैं ?''
     यतीन ने विस्मित नेत्रों से पटल की ओर देखा और उसके हाथ में से गर्म तेल का बर्तन लेकर रोगिणी के तलुओं में पूरी शक्ति से उस तेल की मालिश शुरू कर दी। इलाज करते हुए रात भी बीतने को आई पर ... हरकुमार बाबू कलकत्ते से लौटने पर बार - बार चुनिया की अवस्था के विषय में पूछने लगे। यतीन समझ गया कि इस समय दफ्तर से लौटने पर पटल के बिना। हरकुमार बाबू की अवस्था कुछ ... इसीलिए बार - बार आकर चुनिया की अवस्था को पूछने का यही भेद है।
     वह परिहास करता हुआ पटल से बोला - हरकुमार बाबू छटपटा रहे हैं, तुम अब जाओ।''
     उसी समय पटल ने मुंह बनाते हुए गम्भीर मुद्रा में कहा - दूसरों की दुहाई तो दोगे ही। कौन छटपटा रहा है, सो मैं अच्छी तरह जानती हूं? मेरे चले जाने से ही अब तुम्हें रिहाई मिलेगी न। इधर बात - बात में चेहरे का रंग उषा की तरह लाल हो उठता है। तुम्हारे पेट में भी यह सब छिपा हुआ है, आज से पहले इसे कौन जान सका था ? ''
     यतीन,पटल के इस कटाक्ष से तिलमिला उठा। उसने हाथ जोड़ते हुए कहा - अच्छा, दुहाई तुम्हारी, तुम यहीं रहो। मुझे क्षमा करो। तुम्हारे मुंह पर गम्भीर्य रहने से ही मेरी जान बचेगी। मैंने समझने में भूल की थी। हरकुमार बाबू शायद इस समय सुख और शान्ति में हैं। ऐसा सुयोग उनके भाग्य में हमेशा नहीं बदा होता है।''
     चुनिया ने तनिक आराम पाकर जब आंखें खोलीं तो पटल ने प्यार भरे स्वर में कहा - पगली। तेरी हिरनी जैसी आंखें खुलवाने के लिए तेरा वर बड़ी देर से तलुवे सहलाकर तुझे मना रहा है। इसीलिए तूने देर की, अब समझी। छि:! छि:! उठ उसके पवित्र चरणों की धूलि ले।''
     चुनिया ने मानो अज्ञात प्रेरणा से उसी क्षण उठकर छुपी हुई श्रध्दा के साथ यतीन के चरणों की धूलि माथे में लगा ली।
     और दूसरे ही दिन से यतीन के साथ नये - नये उपद्रवों का श्री गणेश हो गया। यतीन जब भोजन के लिए बैठता तो चुनिया प्रसन्नचित्त विजन डुलाकर मक्खियों को दूर करने में जुट जाती। यतीन व्यस्त भाव से कह उठता- बस रहने दो, रहने दो, इसकी आवश्यकता नहीं।''
     चुनिया ऐसा सुनकर विस्मित नेत्रों से पार्श्व - कक्ष की ओर देखती और उसके बाद फिर से पंखा डुलाने लग जाती। यतीन जैसे खीज उठता और पटल को सुनाने के अभिप्राय: से कहता - पटल! तुम यदि इसी प्रकार मुझे तंग करोगी तो मैं कदापि भोजन नहीं करूंगा। यह लो, मैं उठता हूं।''
     लेकिन एक दिन यतीन के उठने का उपक्रम देखकर चुनिया ने विजन को एक ओर फेंक दिया। यतीन को उसी क्षण उसके चेहरे पर विषाद की रेखाएं दृष्टिगोचर हुईं। खिन्नावस्था में उसी क्षण वह फिर बैठ गया। चुनिया कुछ भी नहीं समझती है। लजाना उसे आता नहीं है। विषाद् का भार सम्भालने की उसमें क्षमता नहीं है। सबके समान इन बातों पर यतीन के हृदय ने भी विश्वास करना आरम्भ कर दिया था।
     किन्तु आज मानो उसे सहसा दिखाई दिया कि सारे नियमों का व्यक्ति - क्रम करके अकस्मात कब क्या घटित हो जाता है, इसे पहले से कभी नहीं जाना जा सकता है? चुनिया ने फिर विजन नहीं डुलाया। उसे वहीं फेंककर तत्काल ही दूसरे कमरे में चली गई।
     यतीन बरामदे में बैठा था। आम के पत्तों के बीच में छिपी हुई कोयल ने उच्च स्वर में अपना तराना छेड़ दिया था। आम मंजरियों की सुगन्ध से सवेरे की हवा भारी हो गई थी। तभी उसने देखा, चुनिया चाय का प्याला हाथ में लिये समीप आने से मानो कुछ झिझक - सी रही है। उसकी भोली और कजरारी आंखों के छोरों में कहां का एक सकरुण भय छुपकर आ बैठा है। उसके चाय लेकर आने से यतीन रीझेगा या खीझेगा, इसे जैसे वह ठीक - ठीक समझ ही नहीं पा रही थी।
     यतीन ने सुस्थिर चित्त से उठकर आगे बढ़ते हुए उसके हाथ से चाय का प्याला ले लिया। भला इस हिरनी जैसी आंखों वाली मानवी को किसी क्षुद्र कारणवश कहीं वेदना दी जा सकती है! किन्तु उसने चाय का प्याला हाथ में पकड़ा ही था, कि देखा बरामदे के दूसरे किनारे से सहसा प्रगट होकर पटल ने मौन हास्य द्वारा उंगली दिखाई। भाव बिल्कुल स्पष्ट थे। अब कैसे हारे तुम...।
      उसी संध्या को यतीन किसी पत्रिका के पृष्ठ पलट रहा था कि पुष्पों की सुगन्ध से चकित होकर उसने सिर उठाया। देखा मौलसिरी के पुष्पों का हार हाथ में लिये चुनिया धीरे - धीरे उसके कमरे में प्रविष्ट हो रही है।
यतीन के मन - ही - मन में सोचा। यह तो बहुत ज्यादती की जा रही है। पटल के इस निष्ठुर मनोरंजन को अब और अधिक बढ़ावा नहीं देना चाहिए। अत: उसने चुनिया से कहा- छि:- छि:! चुनी! तुम्हें बनाकर दीदी अपना मनोरंजन किया करती हैं, सो क्या तुम इतना भी नहीं समझ पाती ?''
     बात समाप्त होने से पहले ही चुनिया ने त्रस्त मन और संकुचित भाव से अन्दर की ओर लौट जाने का उपक्रम किया। यतीन ने तब शीघ्रता से उसे बुलाकर कहा - देखूं तनिक! तुम्हारे इस हार को।''
     हाथ आगे करके उसने हार ले लिया। चुनिया के मुख पर से विषाद के बादल फट गये और आनन्द की उज्ज्वल रेखा - सी फूट पड़ी। ठीक उसी समय दूसरे कमरे में से किसी के अट्टहास की उच्छ्वसित ध्वनि सुनाई दी।
     दूसरे दिन सवेरे उपद्रव करने के अभिप्राय: से पटल ने यतीन के कमरे में जाकर देखा कि कमरा सूना पड़ा है। सिर्फ  मेज पर पड़े कागज पर लिखा है - भागा जा रहा हूं, यतीन।''
- अरी ओ चुनिया! तेरा वर तो भाग निकला। उसे तू रोक भी नहीं पाई।'' बाहर जाकर पटल ने चुनिया की वेणी पकड़कर डुलाते हुए कहा और फिर घर के काम - धन्धों में लग गई।
     किन्तु चुनिया को इस छोटी - सी बात समझने में कुछ समय लगा। वह पाषाण प्रतिमा के समान खड़ी स्थिर दृष्टि से सामने की ओर देखती रही। इसके उपरान्त धीरे - धीरे यतीन के कमरे में जाकर उसने देखा। कमरा खाली पड़ा है और पिछली शाम को उसका दिया हुआ हार उसी तरह मेज पर रखा है।
     उस दिन फाल्गुन मास का सवेरा स्निग्ध एवं सुन्दर दिखाई पड़ रहा था। कम्पित कृष्ण वृक्ष की शालाओं के भीतर से छनकर और छाया के साथ घुल - मिलकर सवेरे की धूप बरामदे में आ रही थी। गिलहरी अपनी मुलायम पूंछ को पीठ की ओर मोड़े हुए इधर - उधर कुछ पाने की आशा में दौड़ रही थी। पक्षियों का समूह संगठित रूप में अपने मधुर रागों द्वारा भी अपने वक्तव्य को मानो किसी तरह सम्पूर्ण नहीं कर पा रहे थे, किन्तु महान विश्व के इस छोटे से कोने में इस पल्लव समूह काया और धूप के द्वारा बने विश्व के तनिक खंड के भीतर प्राणों का आनन्द पूर्णरूप से खिल उठा था।
     उसी एक कोने के बीच यह बुद्धिहीन लड़की अपने जीवन का अपने इर्द - गिर्द के सम्पूर्ण परिवेश का कोई समीचीन अर्थ नहीं खोज पा रही थी। उसके लिए सभी कुछ एक पहेली बन गया था। यह क्यों हो गया ... और ऐसा हुआ क्यों? फिर उसके बाद यह सवेरा, यह घर, सब कुछ एक साथ ही भला इतने सूने क्यों हो गये? जिसके अन्तर में समझने की शक्ति इतनी कम दी थी, उसी को अकस्मात एक दिन हृदय की अतुल वेदना के रहस्य - गर्भ के गाढ़ा अन्धकार में बिना ज्योति सहसा किसने उतार दिया? विश्व के इस सहज उच्छवसित जीवमय समाज में इन तरुपल्लवों, मृग - खगों के आत्म - विस्मृत कलरव के भीतर इस प्रगाढ़ अन्धकार से उसे फिर कौन खींचकर बाहर लायेगा।
     पटल ने एकाएक पहुंचकर विस्मित स्वर में कहा - यह क्या हो रहा है,चुनिया ?''
     चुनिया ने सुना मात्र लेकिन उठी नहीं। कुछ बोली भी नहीं, जैसी थी वैसी ही रही। पटल ने समीप पहुंचकर स्पर्श किया तो उच्छवसित हो वह फूट - फूट कर रोने लगी। अश्क आंखों के बांध को लांघकर अविरल गति से बहने लगे।
     पटल ने आश्चर्यचकित - सी अवस्था में कहा - अरी कलमुंही, तूने तो बिल्कुल ही सत्यानाश कर लिया। तू क्यों भला मरने गई थी ?''
     और फिर चुनिया की इस अवस्था से अवगत करने के अभिप्राय: से पटल ने अपने पति के समीप जाकर कहा - यह तो,अच्छी मुसीबत बैठे - बिठाये गले से बांध ली। आखिर! आपकी अक्ल पर भी क्या पत्थर पड़ गये थे, जो मुझे उस समय रोका नहीं।''
     हरकुमार बाबू ने पटल की खीझ पूर्ण बात को सुनकर कहा - तुम्हें रोकने की मेरी कभी आदत ही नहीं रही, फिर रोकने से ही ऐसा कौन - सा हल निकल आता ?''
- आप कैसे हो जी।'' पटल ने तुनककर कहा - मैं यदि गलती करूं तो आप जबर्दस्ती नहीं रोक सकते क्या ?''
     फिर वह उत्तर पाये बिना ही, दौड़ती हुई आकर यतीन के कमरे में विरह - व्यथा से पीड़ित लड़की को आलिंगनबद्ध करती हुई बोली - मेरी रानी बहन! तू क्या चाहती है, सो एक बार तो दिल खोलकर मुझसे कह ?''
परन्तु चुनिया के पास ऐसी कौन - सी भाषा है, जिससे वह अपने हृदय के व्याघात को बाणी के द्वारा सुना सके। वह हृदय की सारी वेदना लिये मानो किसी अनिर्वचनीय वेदना पर जा पड़ी है। यह कैसी वेदना है? विश्व में और भी किसी को क्या ऐसी ही अनुभूति होती है? संसार उसके विषय में क्या सोचता होगा? किसी भी विषय में चुनिया कुछ भी तो नहीं जानती वह तो केवल अपने इन आंसुओं के द्वारा ही कुछ कह सकती है। मन की पीड़ा को दर्शाने का और तो कोई उपाय उसका जाना हुआ नहीं है।
     फिर पटल के ही ओष्ठ हिले - चुनिया तेरी दीदी बड़ी उछृंखल है, लेकिन स्वप्न में भी नहीं सोचा था। कोई भी कभी उसकी बात पर भरोसा नहीं करता, फिर तूने ही ऐसी भयंकर भूल क्यों की, चुनिया! एक बार बस एक बार अपनी दीदी की ओर मुंह उठाकर तो देख, उसे क्षमा कर दे बहन।''
     किन्तु चुनिया का मन इस अकस्मात घटना से बिल्कुल ही विमुख हो चुका था। इसलिए वह किसी भी तरह पटल के मुख की ओर न देख सकी। सारी बातें अच्छी प्रकार से नहीं समझने पर भी उसने एक प्रकार के गूढ़ भाव से पटल पर क्रोध प्रकट किया था। वह उसी अवस्था में अपने हाथों में जोरों से सिर गढ़ाये रही।
     पटल तब धीरे - धीरे अपनी लम्बी भुजाओं को हटाकर चुपचाप उठकर चली आई। पाषाण प्रतिमा की तरह खिड़की के किनारे स्तब्ध भाव से आकर खड़ी हो गई। फाल्गुन की धूप से चिकनी चमकीली सुपारी वृक्ष की पल्लव को निहारते - निहारते उसके दोनों नेत्रों से अश्क बहने लगे।
     और अगले दिन चुनिया उसे बिल्कुल दिखाई नहीं दी। पटल उसे बड़े प्यार से अच्छे - अच्छे आभूषणों और वस्त्रों से अलंकृत किया करती थी। वह स्वयं बड़ी बेतरतीबी से रहती, अपनी स्वयं की सजावट के विषय में कोई यत्न नहीं करती थी, लेकिन सजावट की अपनी आकांक्षा को वह चुनिया को सजाकर ही पूरा कर लेती थी। आज बहुत दिनों के संचित वह सारे आभूषण और वस्त्र चुनिया के कमरे में पड़े हुए थे। अपने हाथों के कंगन और चूड़ियां तथा नाक की लोंग तक वह उतारकर डाल गई थी। अपनी पटल दीदी के इतने दिनों के लाड़ - प्यार को मानो उसने अपनी देह से बिल्कुल ही चिन्ह - रहित कर डालने का भरसक प्रयत्न किया है।
     हरकुमार बाबू ने पता लगाने के लिए पुलिस में सूचना भेजी। उन दिनों प्लेग की महामारी से भयभीत होकर इतने आदमी इतनी विभिन्न दिशाओं में जीवन की साध लेकर भाग रहे थे। उन भगोड़ों के समूह में से किसी खास व्यक्ति को ढूंढ निकालना पुलिस के लिए कठिन कार्य बन गया था। दो - चार बार गलत व्यक्ति का पता पाने पर हरकुमार बाबू को काफी दु:खी और लज्जित होना पड़ा।
     अन्त में उन्होंने चुनिया के मिलने की आशा को त्याग दिया। एक दिन जिसे अज्ञात की गोद में पड़ा पाया था। वही आज फिर किसी अज्ञात में ही अर्न्तध्यान हो गई थी।
     सरकारी प्लेग अस्पताल का डॉक्टर यतीन दोपहर का भोजन करके अस्पताल पहुंचा ही था कि सूचना मिली- जनाने वार्ड में कोई नई रोगिनी आई है। पुलिस उसे रास्ते से उठाकर लाई है।
     यतीन देखने गया। लड़की के मुंह का अधिकांश भाग चादर से ढंका हुआ था। यतीन ने हाथ उठाकर नाड़ी को टटोला। ज्वर अधिक नहीं था लेकिन कमजोरी अधिक थी। विशेष परीक्षा के अभिप्राय: से जब उसने मुख पर से चादर हटाकर देखा तो चकित रह गया। वह चुनिया थी।
     यतीन अब तक पटल से चुनिया के विषय में सब कुछ सुन चुका था। मरीजों की भीड़ से फुर्सत पाते ही यतीन के मानस पटल पर अव्यक्त हृदय तरंग के घूंघट से ढंकी हुई चुनिया की मृगी जैसी दोनों सुन्दर आंखें प्राय: सदा एक प्रकार की अश्कहीन कातरता को बिखरा दिया करती थी...।
     आज रोगी की नेत्रों की बड़ी - बड़ी पलकें न चुनिया के शीर्ण कपोलों पर गहरी छाया रेखा खींच रही है। देखते ही यतीन के वक्षस्थल के भीतर मानो किसी ने सहसा मेरु जैसे कोई बोझ दबाकर रख दिया है। इस एक लड़की को भगवान ने स्वयं ही फूल की तरह कोमल रूप में गढ़कर फिर दुनिया से खींचकर प्लेग जैसी महामारी के स्रोत में कैसे बहा दिया? आज उसके क्षीण मृदु प्राण इस रोग से ग्रसित होकर बिस्तरे पर पड़े हैं। उसकी इस छोटी - सी आयु ने विपदाओं के इतने बड़े आघात, वेदना का इतना भारी बोझ, आखिर कैसे सह लिया? यह सब समा कैसे गए ? यतीन ही भला उसके जीवन में तीसरे संकट की तरह कहां से आकर लग गया था।
     रुद्ध दीर्घ सांसें यतीन के रुद्ध द्वार पर निरन्तर धक्के देने लगीं किन्तु उसी आघात की वेदना से उसके हृदय के तार में किसी अज्ञात सुख की होड़ सी लग गई, जो स्नेह विश्व में मिलना कठिन होता है। वही फाल्गुन की किसी दोपहरिया में पूर्ण विकसित बसन्ती मंजरी के समान अयाचित और अकस्मात ही उसके चरणों के निकट खिसककर जा पड़ी है। जो निश्चल स्नेह इस प्रकार यम के द्वार तक आकर मूर्छित होकर गिर पड़ता है, ऐसे देवयोग नैवद्य का सच्चा अधिकारी दुनिया में इस तरह अनायास ही भला और कौन हो सकता है।
     यतीन चुनिया के पार्श्व में बैठकर उसे थोड़ा - थोड़ा गर्म दूध पिलाने लगा। पीते - पीते काफी देर के बाद चुनिया ने दीर्घ सांस लेकर नेत्र खोले। यतीन के चेहरे की ओर देखकर किसी सुन्दर स्वप्न की तरह उसने उसे याद करने का प्रयत्न किया, किन्तु यतीन ने जैसे ही उसके ललाट पर हाथ रखकर हिलाते हुए कहा- चुनिया।'' वैसे ही उसकी बेहोशी की आखिरी खुमारी भी अकस्मात टूट गई। यतीन को उसने पहचान लिया और उसी के साथ उसकी दृष्टि पर किसी सुकुमार मोह का आवरण आ पड़ा। पहले कजरारे बादलों के समागम के साथ आषाढ़ के सुगम्भीर गगन में जैसी गहरी छाया अंकित हो जाती है, चुनिया की काली आंखों पर वैसी ही सुदूर व्यापी सजल स्निग्धता घनीभूत हो गई।
     स्नेह और करूण मिश्रित स्वर में यतीन ने कहा - चुन्नी! यह थोड़ा - सा दूध और पी लो।''
    उसी क्षण चुनिया उठकर बैठ गई, फिर प्यार से प्यारे यतीन के मुख की ओर दृष्टि रखे हुए धीरे - धीरे दूध का शेष भाग भी खत्म कर दिया।
     अस्पताल का विशेष डॉक्टर यदि एक ही रोगी के सिरहाने बराबर बैठा रहे तो काम भी नहीं चले और अच्छा भी प्रतीत नहीं होता। इसलिए दूसरी जगहों पर भी अपना फर्ज निभाने के लिए यतीन जब उठा तो भय और निराशा से चुनिया की दोनों आंखें व्याकुल हो उठीं। यतीन ने उसका हाथ थामकर दिलासा देते हुए कहा - मैं अभी वापस आता हूं चुन्नी। भय की कोई बात नहीं है।''
     यतीन ने अस्तपाल के अधिकारी को सूचित किया कि इस नई रोगिनी को प्लेग नहीं है। वह केवल क्षुधा से पीड़ित होने के कारण ही इतनी क्षीण हो गई है। यहां प्लेग के अन्य रोगियों के साथ रखने से उस पर प्लेग के कीटाणु का आक्रमण हो सकता है। इस प्रकार समझा - बुझाकर उसे वहां से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए यतीन ने विशेष तौर से इजाजत ले ली और अपने आवास - गृह में ले आया। फिर इस समाचार से सूचित करने के लिए उसने उसी दिन पटल के पास एक पत्र डाल दिया।
3
     उस दिन संध्या को घर में रोगिनी और डॉक्टर के सिवा कोई नहीं था। सिरहाने के पास रंगीन कागज के आवरण से घिरा हुआ मिट्टी के तेल का लैम्प धीमी रोशनी फैला रहा था। कॉर्नस पर रखीं हुई टाइमपीस निस्तब्ध कमरे में टिक - टिक शब्द का सुन्दर राग अलाप रही थी।
      यतीन ने चुनिया के ललाट पर हाथ फेरते हुए पूछा - अब कैसा लगता है चुन्नी ?''
     चुनिया ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु यतीन का वह हाथ अपने क्षीण हाथों से ललाट पर ही दबा रखा।
यतीन ने पुन: पूछा - अच्छा लगता है।''
चुनिया ने सुन्दर आंखों पर पलकों के तनिक कपाट बन्द करते हुए कहा - हां।''
यतीन ने उस उंगली से संकेत करके पूछा -चुन्नी, तुम्हारे गले में यह क्या है।''
     चुनिया ने शीघ्रता के साथ साड़ी का पल्लू खींचकर उसे ढंकने का यत्न किया। यतीन ने देखा, उसके गले में मौलसिरी के फूलों का सूखा हुआ हार पड़ा है। टाइमपीस के टिक - टिक शब्द के बीच यतीन चुपचाप बैठा सोचने लगा। अपनी हृदय की बात को छिपाने का यह प्रथम प्रयास है। चुनिया मानो पहले एक मृगछोना थी। मालूम नहीं किस घड़ी हृदय भार से आतुर हो यौवन की मादकता का रूप धारण कर बैठी? किस धूप के उजाले में उसकी ज्वाला की तीक्ष्ण लपटों से चुनिया की समझ पर आच्छादित कुहरा हट गया। उसकी लज्जा, शंका, वेदना, सभी एकदम प्रकाशित हो उठे। और इन्हीं विचारों में खोये चौकी पर बैठे - ही - बैठे न जाने कब यतीन की पलकें नींद के बोझ से दब गईं। वह रात्रि के अन्तिम पहर में अचानक द्वार खुलने की आवाज से चौंककर उठ गया। उसकी आंखों ने देखा पटल और हरकुमार बाबू बड़ा - सा बैग लिए कमरे में दाखिल हो रहे हैं।
     हरकुमार बाबू ने बैग को कमरे में रखकर और यतीन के पास पहुंचकर कहा - तुम्हारा पत्र पाकर सवेरे ही चल देने का मैंने विचार किया था लेकिन जब रात को सो रहा था तो करीब ग्यारह - बारह बजे पटल ने जगाकर कहा - अजी, सुनते हो, कल सवेरे जाने पर चुनिया को नहीं देख पाएंगे। हमें इसी समय पहुंचना होगा। उसे मैं किसी प्रकार भी समझा नहीं पाया। तब चटपट एक गाड़ी भाड़े पर लेकर हम लोग उसी क्षण घर से निकले।''
     पटल ने तभी अपने पति से कहा - चलो, यतीन के बिछोने पर आप आराम करें।''
     हरकुमार बाबू तनिक - सी आपत्ति का भान करते हुए यतीन के कमरे में जाकर लेट गए और फिर पलक बन्द करते हुए तनिक भी देर नहीं लगी।
     रोगिनी के कमरे में वापस आने पर पटल ने यतीन को एक कोने में बुलाकर पूछा - कुछ आशा है।''
     यतीन ने चुनिया की नाड़ी को टटोल सिर हिलाते हुए जताया - नहीं।''
     पटल ने चुनिया के निकट अपने को प्रगट किये बिना ही यतीन को फिर ओट में करके पूछा - यतीन! सच कहना तुम क्या चुनिया को नहीं चाहते?Ó इस बार यतीन ने पटल के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। वह वहां से हटकर चुनिया के बिछौने के छोर पर बैठ गया। उसका हाथ अपने हाथों में धीरे से दबाता हुआ बोला -चुन्नी! चुन्नी! चुन्नी!''
     चुनिया ने आंखों पर से पलकों का आवरण हटाकर चेहरे पर शांत मधुर हंसी का आभास लाते हुए कहा - क्या है ?''
यतीन आशातीत स्वर में बोला - चुन्नी! अपना यह हार मेरे गले में पहना दो।''
वह निर्निमेष एवं विमूढ़ नेत्रों से केवल यतीन के चेहरे की ओर ताकती रह गई।
यतीन ने फिर कहा - अपना यह हार क्या मुझे नहीं पहनाओगी चुन्नी ?''
     यतीन के निकट इस तनिक से दुलार का सहारा पाकर चुनिया के मन में पहले किए गए अनादर का थोड़ा - सा अभिमान जाग उठा, बोली - इससे क्या होगा ?''
यतीन ने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में समेटते हुए कहा- मैं तुम्हें प्यार करता हूं चुन्नी।''
     यतीन के इस वाक्य को सुनकर पल भर के लिए चुनिया स्तब्ध रह गई। फिर उसके दोनों नेत्रों से अविरल खारा जल बहने लगा। यतीन बिछौने से उतरकर भूमि पर घुटने टेककर बैठ गया और चुनिया के हाथों के पास उसने अपना सिर रख दिया। चुन्नी ने अपने गले का हार उतारकर यतीन के गले में पहना दिया।
तब पटल ने चुनिया के पास आकर पुकारा-चुनिया।''
     स्वर को पहचानते ही चुनिया का कांतिहीन मुख चमक उठा, बोली - क्या है, दीदी ?''
पटल उसके क्षीण हाथों को अपने हाथों में थामकर बोली - अब तो तू मुझसे नाराज नहीं है बहन।''
चुनिया ने स्निग्ध कोमल दृष्टि पटल के चेहरे पर फेंकते हुए कहा - मैं नाराज कहां थी, दीदी ?''
     पटल की ओर कोई उत्तर नहीं मिला। वह मुड़कर यतीन से बोली - यतीन! तुम थोड़ी देर के लिए उधर वाले कमरे में जाकर बैठो।''
     यतीन बिना किसी संकोच के चुपचाप चला गया। पटल ने उसके जाते ही बैग खोलकर उसमें से सारे आभूषण और वस्त्र निकाले। फिर रोगिनी को बिना हिलाये - डुलाये खूब सावधानी से उसके कमजोर हाथों में कुछ चूड़ियों को पिरोकर दो कंगन भी पहना दिए। इसके बाद आवाज दी - यतीन!''
     यतीन आ गया। तब उसे शैया पर बिठाकार पटल ने उसके हाथों में चुनिया का एक सोने का हार थमा दिया। यतीन ने धीरे -धीरे चुनिया का सिर ऊंचा करके हार उसके गले में पहना दिया।
     उषा की लाली में जब सूर्य की प्रथम किरण चुनिया के चेहरे पर पड़ी, तब उसे देखने के लिए वह वहां नहीं थी। उसके अम्लान मुख की कांति देख कर ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि वह मरी पड़ी है। यही जान पड़ता था, मानो किसी अतलस्पर्शी सुखद स्वप्न में वह पूर्णरूप से लीन हो चुकी है।
     जब उसके शव को लेकर चलने का समय आया। तब पटल चुनिया की छाती पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी और क्रन्दन स्वर में बोली - बहन! तेरे भाग्य अच्छे थे जीवन की अपेक्षा तेरा मरण ही अधिक सुखद हुआ। और चुनिया की शान्त - स्निग्ध मृत्यु छवि की ओर निहारते हुए यतीन के अन्तर में बारम्बार यही भाव उठने लगा। जिसका यह धन था, उसी ने ही वापस ले लिया किन्तु उसने मुझे भी उससे वंचित नहीं रखा।
     श्मशान घाट पर पहुंचकर शव जल उठा। शोकातुर अवस्था में यतीन ने अज्ञात प्रेम की सीमा का अन्त कर दिया।

उसका बिस्‍तर

मनोहर श्‍याम जोशी 

     बहुत मुश्किल से एक अदद मामूली नौकरी पा लेने के बाद उसने महसूस किया कि अभी और भी कई चीजें हैं जिन्हें पा सकना आसान नहीं। सबसे पहले महानगरी दिल्ली में रहने के लिए जगह, यह मुश्किल एक परिचित के परिचित ने हल कर दी। नई दिल्ली के लगभग टूटने को तैयार एक क्वार्टर की बदनुमा, बदरंग और तकरीबन हिल चुकी जाफरी किराए पर दिलाकर। जाफरी में बस जाने के बाद घर - गिरस्ती के लिए आवश्यक वस्तुओं की एक लंबी फेहरिस्त उसके सामने मँडराने लगी। अच्छे कपड़े, बर्तन - भांडे, साइकिल, टेबल फैन, मेज - कुर्सी, अच्छी - सी बीवी, चारपाई और बिस्तर। इस फेहरिस्त में से और तमाम चीजों को आगे कभी अच्छे दिनों के लिए स्थगित किया जा सकता था, लेकिन चारपाई और बिस्तर का मसला टालना मुश्किल था। गर्मियों के दिन। लोग - बाग क्वार्टरों के बाहर के उजड़े लॉन में सोते थे। वहाँ बिना चारपाई के कैसे सोए, और बिना पंखे के इस मौसम में जाफरी में कैसे रात काटे? बजट चारपाई की अनुमति नहीं दे रहा था लेकिन चारपाई ही न होना शरीफ  मध्यवर्गीय लोगों के साथ रहना असंभव बना रहा था। लिहाजा सिगरेट की जगह बीड़ी अपनाने का संकल्प करके उसने सबसे सस्ती मूँज की एक चारपाई ले ली।
     जब इस नई चारपाई पर उसने अपना पुराना बिस्तर बिछाया तब उसे बहुत संकोच हुआ। उसने महसूस किया कि चारपाई पर उसका बिस्तर नहीं, उसकी दरिद्रता की नुमाइश लगी है। एक मैली - सी रजाई जिसमें रुई अब इकसार नहीं रह गई थी। एक उससे भी मैला गद्दा जो कई जगह से फटा था। एक मुड़ा - तुड़ा बिना खोल का चीकट तकिया। न दरी, न चादर। और इस बिस्तर में वह खास महक थी जो पहाड़ की सीलन में रह चुकने की सूचना देती है। बिस्तर का रंग - रूप, बिस्तर की गंध अनुभवी दर्शक के मन में खटमल - पिस्सू की आशंका को जन्म देती थी।
     अगले दिन सुबह क्वार्टर - मालिक ने बिस्तर को धूप दिखाने की नेक सलाह देकर इस आशंका को परोक्ष रूप से प्रकट कर दिया। उनकी बात सुनकर वह बहुत झेंपा। उसे लगा कि अपनी जात और अपने जिले के क्वार्टर - मालिक पर न सिर्फ  उसके बिस्तर के खटमल बल्कि घर के तमाम भेद जाहिर हो गए हैं। उसके बाप का शराब और जुए के कर्ज में डूबकर मरना, उसकी माँ के हिस्टीरिया के दौरे, उसके भगोड़े छोटे भाई का एक बार चोरी में पकड़ा जाना, उसकी बहन की बेबुनियाद मगर बहुत फैली बदनामी! उसने जितना ही सोचा उतना ही यह महसूस किया कि अपने कभी खुशहाल कुनबे की मौजूदा कंगाली का यह विज्ञापन, यह बिस्तर उसे फेंक ही देना होगा। लेकिन फेंक दे तो सोए किस पर? और नया बनाए तो कैसे? अभी तो चारपाई लेना तक मुश्किल हो गया था। पहला वेतन मिलने पर भी स्थिति लगभग यही रहेगी। नौकरी की खोज के दौरान लोगों का जो उधार हुआ है वह चुकाना होगा। घर में पिताजी के मरने, बदनामी के डर के कारण बहन के सेविका पद से मुक्त हो जाने और छोटे भाई के भाग जाने के बाद बेसहारा हुए छह जनों के परिवार की परवरिश के लिए कुछ भेजना होगा और अपना सारा महीने का खर्च निकालना होगा। ऐसे देखा जाए तो वह महीनों तक बिस्तर लायक पैसे नहीं जोड़ पायेगा।
वह बिस्तर की समस्या से आक्रांत रहने लगा और इस तरह आक्रांत रहने पर उसे खुद अपने से झुँझलाहट होने लगी। उसे अपनी बुनियादी मूर्खता का आभास सालने लगा। अगर चतुर होता तो क्या इतना मामूली - सा मसला हल नहीं कर पाता। अरे, लोग - बाग कैसे - कैसे मसले हल कर लेते हैं। लोटा लेकर घर से निकलते हैं और लखपति होकर लौटते हैं। वह एक बिस्तर तक का जुगाड़ नहीं कर पा रहा है। इस बारे में सलाह ले तो किससे? जो सुनेगा वही हँसेगा! एक बार उसके मन में थोड़ी चतुराई आई। सोचा, क्यों न केवल एक चादर और दरी ले लूँ और तकिए का खोल बनवा लूँ। इस चतुराई पर वह बहुत खुश हुआ हालाँकि चादर, दरी और खोल के लिए भी अभी उसके पास पैसे नहीं थे और न पहला वेतन मिलने पर हो सकते थे। मजबूरी ने सारी खुशी खत्म कर दी। तब उसे चतुराई में खामियाँ नजर आने लगीं। क्या केवल चादर और दरी को बिस्तर कहा जा सकता है? क्या चादर और दरी हो जाने पर वह पुराना गद्दा - रजाई फेंक सकेगा? अगर नहीं फेंकेगा तो क्या वे उसकी दरिद्रता की नुमाइश नहीं करते रहेंगे? अगर फेंक देगा तो मौसम बदलने पर क्या करेगा? तब की तब देखी जाएगी, कहने से काम नहीं चल सकता। अगर तब हालत बदतर हुई तो? उसने चतुराई को दुत्कार दिया और तय किया कि चाहे जैसे हो पूरा बिस्तर बनवाएगा और शीघ्र ही बनवाएगा। मगर कैसे? और इस सवाल का कोई चमत्कारी जवाब उसे नहीं सूझा। फिर एक दिन शाम को वह पहाड़गंज तक टहल आया। यह मालूम करने के लिए कि नया बिस्तर कम से कम कितने में बन सकता है? वहाँ पहुँचकर उसे संकोच ने धर दबाया। जब खरीदने के लिए पैसे नहीं तो बेकार दुकानदार से कैसे बात करे? आखिर बहुत हिम्मत करके वह एक ऐसी दुकान पहुँचा जिसका मालिक बुजुर्ग और सीधा - सा था। जाकर उसने सवाल यह किया कि नौकर के लिए बिस्तर बनवाना है। कम से कम कितने में बनेगा? दुकानदार ने बिस्तर का ब्यौरा पूछा और फिर बताया कि अगर आप कॉटन - वेस्ट का गद्दा - रजाई लें काम सस्ते में बन जाएगा। पूरा हिसाब पूछकर यह कहकर चला आया कि कल मैं नौकर को रुपये लेकर भेज दूँगा।
     इसके बाद वह टहलता हुआ ही अपने नियत ढाबे में खाने पहुँचा और वहाँ सहसा सस्ते बिस्तर बनवा सकने का एक गैर - चमत्कारी उपाय उसे सूझा। त्याग और तपस्या। आज से वह सब्जी वगैरह कुछ नहीं लेगा। केवल दाल और प्याज - चटनी के साथ रोटी खायेगा। दफ्तर आने - जाने के लिए बस नहीं लेगा, पैदल ही चला जाया करेगा। चाय दिन में कुल एक बार पिएगा। इस तरह यहाँ - वहाँ खर्च में कतर ब्योंत करके वह पहला वेतन मिलने पर नया वेतन मिलने का दुस्साहस कर डालेगा। संभव है इस दुस्साहस के कारण अगले महीने के अंत में सूखी रोटी के लाले पड़ जाएँ। लेकिन दुस्साहस करना ही होगा क्योंकि बिस्तर बनवाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है।
और पहला वेतन मिलने पर उसने बिस्तरा बनवा ही डाला। क्वार्टर मालिक ने जब कहा कि यह काम आपने अच्छा किया। तब उसे अपनी तपस्या सार्थक हुई जान पड़ी। बिस्तर पर लेटकर, उसके गुदगुदेपन पर हाथ - पाँव लंबे पसारकर उसके नए पन की गंध से नथुने भरकर वह और भी संतुष्ट हुआ। तभी उसकी दृष्टि लॉन पर केवल एक फटी दरी बिछाकर लेते हुए भौन सिंह पर पड़ी। भौन सिंह चपरासी की नौकरी की तलाश में भटकता एक बेकार नवयुवक था, जो फिलहाल क्वार्टर -मालिक का घरेलू काम करके क्वाटर के बाहर पड़े रहने और और सुबह - शाम सूखी रोटी खा सकने का अधिकार लिए हुए था। कुछ देर तक वह अपने नए बिस्तर पर लेटे - लेटे भौन सिंह के नाचीज बिस्तर को देखता रहा। फिर वह एक झटके से उठा। उसने जाफरी खोली और पुराना बिस्तर निकालकर भौन सिंह को बख्शीश कर दिया। बख्शीश दे सकने की इस क्षमता ने उसके संतोष को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। उस रात वह चैन की नींद सोया।
     अगले दिन तड़के उसकी नींद खुल गई। कुछ देर बिस्तर पर लेटे - लेटे वह यह सोचकर सुख का अनुभव करता रहा कि जैसे त्याग - तपस्या से उसने बिस्तर वाला मसला हल किया वैसे ही एक - एक करके अपने और परिवार के मसले हल कर डालेगा। सुबह के पक्षियों के स्वरों में उसने अपनी आगामी सफलताओं के सगुन सुने। तबियत तो यही हो रही थी कि इसी तरह लेता रहे और खुली आँखों से सपने देखता रहे। लेकिन क्वार्टर में घर के मेहमान और किराएदार इतने लोग थे कि सुबह पहले नहा - धो लिए बिना पैदल दफ्तर जाने की योजना चल नहीं सकती थी। तो वह उठ बैठा। एक विचार आया कि बिस्तर समेटकर जाफरी में रख आए। फिर सोचा कि ऐसी क्या जल्दी है। मन में शायद कहीं यह इच्छा भी थी कि आसपास के लोग भी उठकर उसकी खुशहाली के इस सबूत को देख लें।
     पंद्रह मिनट बाद जब वह नहा - धोकर लौटा तब चारपाई पर निगाह पड़ते ही उसका दिल धक् से रह गया। चारपाई पर बिस्तर नहीं था। किसी ने सँभाल दिया होगा। उसने अपने मन को समझाया। लेकिन नहीं। बिस्तर जाफरी में नहीं था। आसपास सब लोग सोए हुए थे। क्वार्टर मालिक और भौन सिंह उससे भी पहले उठ चुके थे और इस समय अंदर थे। उनसे जाकर कहा। पूछताछ शुरू की। और केवल घंटे भर तक पास - पड़ोस के कुतूहल का विषय रहने के बाद नए बिस्तर की चोरी का यह प्रसंग सबके लिए बासी पड़ गया। थाने में रपट दर्ज कराने की व्यर्थता - सार्थकता पर विचार - विमर्श भी बेमजा हो चला। कई समझदार लोग आपस में इस बात पर भी शंका व्यक्त करने लगे कि इन साहब के पास नया बिस्तर था भी!
    उसे महसूस हुआ कि लोग - बाग हमदर्दी नहीं जता रहे हैं, उस पर हँस रहे हैं। उसे नए सिरे से अपनी बुनियादी मूर्खता का बोध हुआ और यह बोध क्रोध और करुणा दोनों का कारण बना। उसने बिस्तर तुरंत पेटकर जाफरी में क्यों नहीं रखा? अब बिस्तर की चोरी पर रोने से क्या फायदा! बिस्तर जैसी मामूली सी चीज की चोरी पर कोई हमदर्दी भी कितनी देगा? बिस्तर चोरी चला गया, कोई पहाड़ तो नहीं टूट गया! अब वह किसी को कैसे समझाए कि उस पर तो सचमुच ही पहाड़ टूट गया। जो चोरी गया वह बिस्तर नहीं था, त्याग - तपस्या की सफलता का प्रतीक था। और अब उसके पास बिछाने के लिए भी तो कुछ नहीं है। उसने अपना पुराना बिस्तर बख्शीश कर दिया है!
     रात ढाबे में खाने के बाद वह देर तक इधर - उधर भटकता रहा। वह चाहता था कि सबके सो चुकने के बाद लौटे और चुपचाप जाकर जाफरी के फर्श पर लेट जाए। उसके कदम भटक रहे थे और विचार भी। बिस्तर के खोने का दर्द जैसे तमाम अस्तित्व के खोने का ही दर्द
     बनता जा रहा था। उसके पास इतना रुपया नहीं कि दूसरा बिस्तर बनवा सके। उसके पास इतना रुपया नहीं कि कभी कोई अप्रत्याशित आपत्ति आ जाने पर उसका मुकाबला कर सके। उसने कल्पना की कि वह सख्त बीमार पड़ गया है और दवा - दारू के लिए पैसे नहीं हैं। उसने कल्पना की कि उसकी माँ जिंदगी की अंतिम साँसें गिन रही है। तार आया है। लेकिन उसके पास इस लंबे सफर के लिए और सफर के बाद गाँव में हो सकने वाले खर्च के लिए रुपये नहीं हैं। ऐसी कल्पनाएँ कर - करके वह रुआँसा हो चला। फिर इन कल्पनाओं ने ऐसा रुख लिया जिसका हास्यास्पद आयाम भी था। मिसाल के लिए उसने सोचा कि उसकी इकलौती पतलून किसी सीट की उभरी मेख ने पीछे से फाड़ दी है और अब उसके पास दफ्तर पहन कर जाने के लिए कुछ नहीं है और नई पतलून सिलाकर खरीद सकने के लिए पैसे नहीं हैं। महीने का आखिरी दिन है। उसकी चप्पल चलते - चलते फट गई है। मोची ठीक करने के लिए पच्चीस पैसे माँग रहा है और उसके पास अब कुल दस पैसे बचे हैं वह चप्पल को हाथ में लेकर नंगे पाँव निकल पड़ा है। एक कील सहसा उसके पाँव में चुभ जाती है और दवा - दारू के अभाव में गैंग्रीन का खतरा पैदा हो जाता है।
     शुरू में इन कल्पनाओं का हास्यास्पद पक्ष उसके समक्ष उजागर नहीं हुआ। वह अपने वास्तविक और कल्पित दुखों को पोसता रहा और गहरे कहीं इससे उसे एक सहारा भी मिलता रहा। फिर उसे इस सोच - विचार का हास्यास्पद पहलू नजर आने लगा। जो अब तक अपनी सीधे, अपनी ग्रहदशा मालूम हो रही थी वह अपनी बुनियादी मूर्खता का रूप लेने लगी और मुँह बिराने लगी। उसे अपने पर गुस्सा आया। वह इसी तरह सारी रात टहलता रहेगा? बीमार पड़ना है? सोने का प्रबंध नहीं करना है।
     वह अपनी जाफरी को लौटा। भौन सिंह और क्वार्टर मालिक के अतिरिक्त सब सो चुके थे। भौन सिंह बर्तन माँज रहा था। क्वार्टर मालिक अपने गाँव की जमीन के कुछ कागजात से माथापच्ची कर रहे थे। उन्होंने कागजात फाइल में बंद किए। चश्मा उतारा और बोले - कहिए, आज बड़ी देर कर दी लौटने में। अब सोने की तैयारी है।
      वह कहना चाहता था कि मेरा बिस्तर तो चोरी चला गया है। लेकिन ऐसा कहना अपनी मूर्खता का एक और सबूत देने जैसा लगा। क्वार्टर मालिक को मालूम है कि बिस्तर चोरी चला गया है।
     उसके चुप रहने पर बिस्तर - मालिक ने बिस्तर की चोरी पर नए सिरे से सहानुभूति व्यक्त की और इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि उसके पास पुराना बिस्तर तो है। बोले - बात यह है कि मेरे पास भी गिने - चुने ही बिस्तर हैं और मेहमान आप देख ही रहे हैं कि कितने आए हुए हैं। उनमें से भी एक के पास बिस्तर नहीं है, वरना मैं आपको एक दे देता। कहिए तो पड़ोस से दरी - वरी का प्रबंध करूँ ? तकल्लुफ की कोई बात नहीं।
- उसकी कोई जरूरत नहीं। उसने बुजुर्गाना लहजे में कहा और फिर जाफरी में जाकर पेंसिल - कॉपी लेकर दिखावे की व्यस्तता में डूब गया। क्वार्टर मालिक एक गहरी डकार लेकर सोने चले गए।
      थोड़ी देर में भौन सिंह आया। बरामदे से भौन सिंह ने उसकी चारपाई उठाई और बाहर रख दी। फिर वह आकर बोला - आज सोएँगे नहीं, बाबू साहब?
     इस प्रश्न पर उसे बहुत गुस्सा आया लेकिन गुस्से को पीकर उसने कहा - सोऊँ किस पर, बिस्तर तो है नहीं।
बिस्तर है, भौन सिंह ने कहा - बिछा भी दिया है। जाइए, आराम कीजिए।
     उसे आश्चर्य हुआ। जाफरी पर ताला लगाते हुए उसने एक क्षण यह कल्पना भी की कि भौंन सिंह किसी चमत्कार से उसका नया बिस्तर ढूँढ लाया है।
     खाट पर लेकिन वही पुराना बिस्तर बिछा हुआ था जो उसने भौन सिंह को बख्शीश कर दिया था। काँपते हुए स्वर में उसने विरोध किया - यह नहीं हो सकता, भौन सिंह। भौन सिंह ने कुछ कहा नहीं केवल उसका हाथ पकड़कर उसे खाट पर बिठा दिया और खुद फटी दरी बिछाकर लॉन पर लेट गया।
     कुछ देर तक वह खाट पर बैठा रहा। फिर लेट गया। स्थितियों के हाथों अपनी हार उसे अब पराकाष्ठा पर पहुँची हुई मालूम हुई। सवेरे के अपने वास्तविक और कल्पित दुखों पर वह कई बार रुआँसा हुआ था, पर रोया नहीं था। लेकिन अब पुराने बिस्तर के तकिए में बसी उसकी कंगाली की गंध नम होने लगी।

वफा को तू

खुशीद अनवर '' खुशीद ''

वफा को तू समझता था अमल में लाई भी होती
अगर अकबर तू होता तो वह जोधा बाई भी होती
तरफदारी तो उर्दू की बहुत करते हो महफिल में
मगर नूर-ए-नज़र को यह कभी सिखलाई भी होती
लगा कर आग बस्ती में तमाशा देखने वालों
किसी मुफलिस के चूल्हे में कभी सुलगाई भी होती
हसद जिस से तू करता है उसी इन्सां के रस्ते पर
चला होता तो यह दुनिया तिरी शेदाई भी होती
कभी तन्हाई में रोकर उसे भी याद कर लेता
तो फिर दरबार में उसके तिरी सुनवाई भी होती

120/3, बेगम कॉलोनी, 
अन्सारी गली, उज्जैन (म.प्र.)

घन छाये क्‍या रात हुई

श्‍याम '' अंकुर '' 

घन छाये क्या रात हुई मेंढक के टर्राने से
हरदम क्या बरसात हुई मेंढक के टर्राने से
किसके दिल पे घाव हुआ किसकी आँखें रोई है
मीत नई क्या बात हुई मेढक के टर्राने से
सन्नाटों में हलचल से डर का दानव हॅसता है
बात नई क्या तात हुई मेढक के टर्राने से
आँखें गीली खेत भी सूखे - सूखे किसना के
दूर कहाँ यह घात हुई मेंढक के टर्राने से
पहले जैसी रातें हैं अंकुर तोता- मैना की
रात कहाँ सौगात हुई मेंढक के टर्राने से

हठौला भैरुजी की टेक, 
मण्डोला, बारां - 325205

तुम्‍हारे घर के किवाड़

रोज़लीन 
तुम्हारे घर के किवाड़
जानती हूं
तुम्हारे घर की ओर
मुड़ते हुए
मुझे नहीं सोचना चाहिए
कि मुझे
तुम्हारे घर की ओर मुड़ना है,
तुम्हारी दहलीज पर आ कर
नहीं रुकना चाहिए ठिठक कर
कि मेरे कदमों की आहट
तुम्हारा कोई स्वप्र
भंग न कर दे
खटखटाकर तुम्हारा किवाड़
नहीं लेनी चाहिए इजाज़त
तुम्हारे भीतर आने की
जबकि
मैं जानती हूं -
सदियों से खुले हैं
तुम्हारे किवाड़
मेरे लिए
देखो न ...
फिर भी
कैसे भय से कांपता है दिल
तुम तक पहुंचने के
ख्याल भर से 

535, गली नं. - 7,कर्ण विहार, मेन रोड,
करनाल - 132001 (हरियाणा)
मो. 09467011918

संत पवन दीवान के तीन रचनाएं

1. राख

राखत भर ले राख
तहं ले आखिरी में राख, राखबे ते राख
अतेक राखे के कोसिस करिन, नि राखे सकिन
तैं के दिन ले,राखबे ते राख
नइ राखस ते झन राख, आखिर में होनाच हे राख
तहूं होबे राख महूं हों हूं राख, सब होहीं राख
सुरु से आखिरी तक ,सब हे राख
ऐखरे सेती शंकर भगवान, चुपर ले हे राख
मैं जौन बात बतावत हौं,तेला बने ख्याल में राख
सुरु से आखिरी तक कइसे हे राख
महतारी असन कोख में राख
जनम होगे त सेवा जतन करके राख
बइठे मडियाये रेंगे लागिस
तौ ओला कांटा - खूंटी हिरु - बिछरु
गाय - गरु आगी - बूगी ले बंचा के राख
थोरकुन पढ़े - लिखे के लाइक होगे
तब वोला स्कूल में भरती करके राख
ओखर बर कपड़ा - लत्ता खाना - पीना
पुस्तक कापी जूता - मोजा सम्हाल के राख
लटपट पढ़ के निकलगे ते
नौकरी चाकरी खोजे बर सहर जाही
दू - चार सौ रुपया ला ओखर खीसा में राख
जगा जगा आफिस में दरखास दिस
आफिस वाला मन किहिन
तोर दरखास ला तोरे मेर राख
नौकरी खोजत - खोजत सबे पैसा होगे राख
आखिर में खिसिया के किहिस,तोर नौकरी ला तोरे में राख
लहुट के आगे फेर घर में राख
नानमुन नौकरी चाकरी मिलगे, तौ बिहाव करके राख
घर में बहू आगे तब, तें बारी, बखरी, खेतखार ला राख
ओमन बिहनिया गरम - गरम, चहा पीयत हे
त तें धीरज राख
ओमन दस बज्जी गरम - गरम,
रांध के सपेटत हें, ते संतोष राख
भगवान एकाध ठन बाल बच्चा दे दिस
बहू - बेटा सिनेमा जाथें त तें लइका ला राख
तरी च तरी चुर - चुर के होवत जात हस राख
फट ले बीमार पड़गेस
दवई सूजी पानी लगा के राख
दवई पानी में कतेक दिन चलही, फट ले परान छुटगे
खटिया ले उतार के राख, ओला खांध में राख
लकड़ी रच के चिता बनाके, शरीर ला ओखर ऊपर राख
भर - भर ले बर के होगे राख
राखत भर ले राख , तहां ले आखिरी में राख
2. तोर धरती 
तोर धरती तोर माटी रे भैय्या, तोर धरती तोर माटी
लड़ई - झगड़ा के काहे काम, जे ठन बेटा ते ठन नाम
हिंदू भाई ल करौ जैराम, मुस्लिम भाई ल करौ सलाम
धरती बर वो सबे बरोबर का हाथी का चांटी रे भैय्या
तोर धरती तोर माटी रे भैय्या तोर धरती तोर माटी
झम - झम बरसे सावन के बादर,घम-घम चले बियासी नागर
बेरा टिहिरीयावत हे मुड़ी के ऊपर ,खाले संगी दू कौरा आगर
झुमर - झुमर के बादर बरसही, चुचवाही गली मोहाटी
तोर धरती तोर माटी रे भैय्या तोर धरती तोर माटी
फूले तोरई के सुंदर फुंदरा ,जिनगी बचाये रे टूटहा कुंदरा
हमन अपन घर में जी संगी,देखो तो कइसे होगेन बसुंधरा
बड़े बिहनिया ले बेनी गंथा के धरती ह पारे हे पाटी रे
हमर छाती म पुक्कुल बनाके बैरी मन खेलत हे बांटी
तोर धरती तोर माटी रे भैय्या तोर धरती तोर माटी

3. महानदी

लहर लहर लहराये रे मोर महानदी के पानी
सबला गजब सुहाये रे मोर खेती के जुवानी
सुघ्घर सुघ्घर मेड़ पार में,खेती के संसार
गोबर लान के अंगना लिपाये, नाचे घर दुवार
बड़े बिहनिया ले हांसै धरती पहिर के लुगरा धानी
चना ह बनगे राजा भैय्या अरसी बनगे रानी
चमचम चमचम सोना चमके, महानदी के खेत में
मार के ताली नाच रे संगी, हरियर हरियर खेत में
उमड़ घुमड़ के करिया बादर बड़ बरसाये पानी
नरवा ढोंडग़ा दोहा गाये चौपाई गाये छानी
झनझन झनझन पैरी बाजे,खनखन खनखन चूरी
हांसौ मिल के दाई ददा,अऊ नाचौ टूरा टूरी
दू दिन के जिनगानी फेर माटी में मिल जानी
बरिस बुताईस सांस के बाती रहिगे राम कहानी