जब अटल बिहारी बाजपेयी जी प्रधानमंत्री बने नहीं थे। वे छत्तीसगढ़ आये,छत्तीसगढ़ को देख कर उन्हें लगा होगाा कि छत्तीसगढ़ में विकास के अपार संभावना है। वे छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने के नीयत बना ली। उनकी नीति और नीयत साफ थी, इसी का परिणाम था जैसे ही वे प्रधानमंत्री बने। छत्तीसगढ़ को पृथक राज्य बनाने की। तत्काल अमल में लाया गया और छत्तीसगढ़ राज्य बन गया। आज छत्तीसगढ़ में जो विकास और छत्तीसगढ़ के लोगों में बदलाव,उनके जीवन स्तर में सुधार, आर्थिक क्षेत्र में उन्नति दिख रहा है,वह सिर्फ और सिर्फ माननीय अटल बिहारी बाजपेयी जी के देन है।
छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनाने के समय यह नहीं देखा गया कि कौन से क्षेत्र में साल - सागौन होता है। कौन से क्षेत्र में कोयला का भंडार हैै। कहां पर खनिज सम्पदा है, कहां धान, राहेर, चना, कोदो कूटकी हो व अन्य फसल होती है। सिर्फ यही देख गया कि कहां से ले कहां तक छत्तीसगढ़ी बोलने, समझने वाले लोग हैं। संभवत: इसी का निरधान किया गया और वहीं तक के क्षेत्र को छत्तीसगढ़ राज्य में शामिल कर लिया गया।
मतलब साफ है - पहिली छत्तीसगढ़ी बोली कानिरधान किया गया फिर छत्तीसगढ़ राज्य के लिए क्षेत्र का निरधान किया गया। इतना सब कुछ होने के बाद भी हम आज तक छत्तीसगढ़ी को राजभासा की दर्जा क्यों नहीं दिलवा पायें? हमें आत्ममंथन करना होगा? आत्मचिंतन करना पड़ेगा। हमें इस पर भी चिंतन करना होगा कि हमारी नीयत साफ है या फिर हमारी नीति और नीयत में खोंट है?
वैसे ही छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने की चर्चा चली तो वे धुरंधर लेखक जिन्हें छत्तीसगढ़ी से दुराव था, वे ही सबसे बड़े हितैषी बनकर सामने आ गये। छत्तीसगढ़ी के वे सर्जक जो आजीवन छत्तीसगढ़ी में सृजन करते रहे, उन्हें नेपथ्य में धकेल दिया गया। वे लोग जिन्हें छत्तीसगढ़ी से लगाव नहीं था, छत्तीसगढ़ी भाषा के मानकीकरण को लेकर विवाद की स्थिति पैदा कर रहे हैं जो छत्तीसगढ़ी भाषा के हित में नहीं लगता।
छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण को लेकर भी अनेक बातें सामने आने लगी है। पूर्व में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग बोली के रूप में किया जाता था इसी का परिणाम था कि जो जिस क्षेत्र का रचनाकार था वह अपने क्षेत्र के आमबोल चाल का उपयोग साहित्य मे करता था, जिससे छत्तीसगढ़ी में एकरूपता नहीं आ सकी यदि हम ईमानदारी के साथ छत्तीसगढ़ी को राजभाषा के रुप में देखना चाहतें हैं तो प्रथम छत्तीसगढ़ी राजभाषा की दर्जा दिलाने कमर कसनी होगी। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा की दर्जा मिलेगी फिर धीरे - धीरे एकरुपता आ ही जायेगी। इसके लिए विभिन्न जिले के छत्तीसगढ़ी जानकारों, साहित्यकारों, विद्वानों को एक मंच पर ला कर निर्धारण करना हो
राज्य के विचारों की परम्परा और राज्य की समग्र भाषायी विविधता के प्रचलन और विकास करने तथा इसके लिये भाषायी अध्ययन, अनुसंधान तथा दस्तावेज संकलन, सृजन तथा अनुवाद, संरक्षण, प्रकाशन, सुझाव तथा अनुशंसाओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ी पारम्परिक भाषा को बढ़ावा देने हेतु शासन में भाषा के उपयोग को उन्नत बनाने के लिए छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन किया गया है। आयोग के द्वारा प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है, जहां ऐसे लाखों रुपये खर्च दिए जाते हैं और परिणाम सिफर रहता है ऐसे उद्देश्यहीन आयोजनों का क्या औचित्य जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रूपयों की आहूति दे दी जाती हो, किस काम का?
यदि हम वास्तव में छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने प्रतिबद्ध है तो अन्य - अन्य विषय पर बहस करके समय खराब नहीं करना चाहिए। हमें चाहिए कि हम सिर्फ और सिर्फ छत्तीसगढ़ी को राजकाज का दर्जा मिले इस पर जोर दें ...
छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनाने के समय यह नहीं देखा गया कि कौन से क्षेत्र में साल - सागौन होता है। कौन से क्षेत्र में कोयला का भंडार हैै। कहां पर खनिज सम्पदा है, कहां धान, राहेर, चना, कोदो कूटकी हो व अन्य फसल होती है। सिर्फ यही देख गया कि कहां से ले कहां तक छत्तीसगढ़ी बोलने, समझने वाले लोग हैं। संभवत: इसी का निरधान किया गया और वहीं तक के क्षेत्र को छत्तीसगढ़ राज्य में शामिल कर लिया गया।
मतलब साफ है - पहिली छत्तीसगढ़ी बोली कानिरधान किया गया फिर छत्तीसगढ़ राज्य के लिए क्षेत्र का निरधान किया गया। इतना सब कुछ होने के बाद भी हम आज तक छत्तीसगढ़ी को राजभासा की दर्जा क्यों नहीं दिलवा पायें? हमें आत्ममंथन करना होगा? आत्मचिंतन करना पड़ेगा। हमें इस पर भी चिंतन करना होगा कि हमारी नीयत साफ है या फिर हमारी नीति और नीयत में खोंट है?
वैसे ही छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने की चर्चा चली तो वे धुरंधर लेखक जिन्हें छत्तीसगढ़ी से दुराव था, वे ही सबसे बड़े हितैषी बनकर सामने आ गये। छत्तीसगढ़ी के वे सर्जक जो आजीवन छत्तीसगढ़ी में सृजन करते रहे, उन्हें नेपथ्य में धकेल दिया गया। वे लोग जिन्हें छत्तीसगढ़ी से लगाव नहीं था, छत्तीसगढ़ी भाषा के मानकीकरण को लेकर विवाद की स्थिति पैदा कर रहे हैं जो छत्तीसगढ़ी भाषा के हित में नहीं लगता।
छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण को लेकर भी अनेक बातें सामने आने लगी है। पूर्व में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग बोली के रूप में किया जाता था इसी का परिणाम था कि जो जिस क्षेत्र का रचनाकार था वह अपने क्षेत्र के आमबोल चाल का उपयोग साहित्य मे करता था, जिससे छत्तीसगढ़ी में एकरूपता नहीं आ सकी यदि हम ईमानदारी के साथ छत्तीसगढ़ी को राजभाषा के रुप में देखना चाहतें हैं तो प्रथम छत्तीसगढ़ी राजभाषा की दर्जा दिलाने कमर कसनी होगी। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा की दर्जा मिलेगी फिर धीरे - धीरे एकरुपता आ ही जायेगी। इसके लिए विभिन्न जिले के छत्तीसगढ़ी जानकारों, साहित्यकारों, विद्वानों को एक मंच पर ला कर निर्धारण करना हो
राज्य के विचारों की परम्परा और राज्य की समग्र भाषायी विविधता के प्रचलन और विकास करने तथा इसके लिये भाषायी अध्ययन, अनुसंधान तथा दस्तावेज संकलन, सृजन तथा अनुवाद, संरक्षण, प्रकाशन, सुझाव तथा अनुशंसाओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ी पारम्परिक भाषा को बढ़ावा देने हेतु शासन में भाषा के उपयोग को उन्नत बनाने के लिए छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन किया गया है। आयोग के द्वारा प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है, जहां ऐसे लाखों रुपये खर्च दिए जाते हैं और परिणाम सिफर रहता है ऐसे उद्देश्यहीन आयोजनों का क्या औचित्य जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रूपयों की आहूति दे दी जाती हो, किस काम का?
यदि हम वास्तव में छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने प्रतिबद्ध है तो अन्य - अन्य विषय पर बहस करके समय खराब नहीं करना चाहिए। हमें चाहिए कि हम सिर्फ और सिर्फ छत्तीसगढ़ी को राजकाज का दर्जा मिले इस पर जोर दें ...
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