इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

बुधवार, 9 नवंबर 2016

जेबकतरा

भूपेन्‍द्र कुमार दवे


        उसे तो उसके मामा - मामी अपने पास ले गये थे। चलो, उसे देखनेवाला कोई तो मिला। यह कहती भीड़ बाढ़ के गंदे पानी की तरह नालों की तरफ  रुख कर बह गई।
        बंटी पलने लगा, बढ़ने लगा, अपने इर्द - गिर्द फैले स्वार्थ के कीचड़ में धँसते हुए। पहले तो उसे स्कूल में दाखिला दिला दिया गया और इस जानकारी के फैलते ही जैसे शिक्षा ग्रहण कराने की खानापूर्ति की जा चुकी थी। शिक्षा से हटकर जीवन की पायदान पर पैर रखना बंटी को अल्हड़ बनाने लगा था, या यह कहें कि वह उचक्का भी बनने लगा था। उसकी माँ होती तो कहती - बेचारा मन लगाकर काम नहीं करता है। उसे तो हर वक्त जल्दी मची रहती है। समय उसे अच्छा बना देगा। लेकिन मामी ने इसके लिये गाली भरी उलहना देना अपना लिया था। गाली देने की आदत व्यवहारिक छिछौरेपन तथा बुद्धि में ओछेपन का वृहत् रुप ही तो हुआ करती है।
माँ कभी भी अपने बेटे पर शक की निगाह से नहीं देखती। उसका अंतर्मन हर सच को जानता है,पहचानता है। सत्य की खोज में माँ को शंकारूपी मजदूरों की खोदने के लिये जरुरत नहीं पड़ती। माँ की ममता व सत्य के बीच एक अद्भुत रिश्ता होता है। लेकिन बंटी की मामी व मामा हमेशा शंका की कुल्हाड़ी लिये उसके पीछे पड़े रहते थे। इस कुल्हाड़ी के निशान बंटी की हर हरकत पर उभर जाया करते थे।
        बंटी को सामान लेने भेजा जाता और लौटकर आने पर पाई - पाई का हिसाब देना होता था। बंटी लापरवाह था ... खुद के प्रति और अपनी जिम्मेदारी के तरफ  ... कारण यह था कि वह हर काम अनमने तरीके से करता था। शिक्षा के अभाव में हर बच्चा ऐसा ही बन जाता है। यह एक तथ्य है।
         एक बार बंटी उचकता - कूदता घर पर आया। उसने मामी को हिसाब दिया। पच्चीस रुपये देने उसने अपनी मुठ्ठी खोली ... बीस का नोट तो था पर पाँच का सिक्का नदारद था। माँ होती तो कहती - कहीं गिर गया होगा। चल, फिकर मत कर। हाथ - पैर साफ  कर आ। खाना खा ले।
         पर यहाँ तो मामी के मुँह से निकली गाली के पहले लफ्ज के साथ पड़े झन्नाटेदार थप्पड़ के पड़ते ही बंटी भाग खड़ा हुआ। घर से बाजार तक की सड़क उसने दो बार छान डाली। जब वह सब्जीवाले के ढेले के पास तीसरी बार पाँच का सिक्का ढूँढ़ने पहुँचा तो सब्जीवाला बोल पड़ा - बेटा! क्या ढूँढ़ रहे हो? कुछ खो गया है क्या?
- हाँ, पाँच का सिक्का जो तुमने दिया था वह कहीं गिर गया है? यह जवाब देते समय बंटी का अंत: अपने किये गुनाह को याद कर रो पड़ा। सब्जीवाला ने कहा - बस एक पाँच के सिक्के के लिये अपने कीमती आँसू बहा रहे हो।
- मेरी मामी का गुस्सा तुम नहीं जानते। बंटी बोल पड़ा।
- अच्छा, यह लो पाँच का सिक्का, अब रोना नहीं। यह कह उसने बंटी को सिक्का पकड़ा दिया।
        बंटी करीबन दौड़ता हुआ खुशी से भरा घर आया और उसने अपनी नन्हीं मुठ्ठी में रखा सिक्का मामी को दिखाने लगा। तभी गाली उगलता एक झन्नाटेदार तमाचा उसे लगा। वह गिर पड़ा।
- अब ये पैसे कहाँ से चुरा लाया? मामी चिल्लाई।
          बंटी का रोना सुन मामाजी आ गये और पूछा - अब क्या हो गया? मामी ने पाँच रुपये के गुम हो जाने से लेकर बंटी के हाथ में वापस आये तक की कहानी एक साँस में बयाँ कर दी। वह बोली पाँच का सिक्का सड़क पर गिरा नहीं था। वह भाजी में फँसा मिल गया है और जो सिक्का बंटी लेकर आया है वह कहीं से चुराकर लाया जान पड़ता है। बंटी पर चोरी का इल्जाम लगा देख मामाजी ने बंटी की धुनकाई चालू कर दी।
जब अति हो चुकी तो बंटी ने सुबकते हुए सफाई दी। वह बोला - मैं सिक्का ढूँढने गया था। तब सब्जीवाले को मुझ पर दया आयी और उसने यह दूसरा सिक्का मुझे दिया था। आगे वह कहना चाहता था कि दूसरा सिक्का चोरी का नहीं है, परन्तु तभी मामाजी बंटी का कान मरोड़ते नया इल्जाम लगा दिया - तो अब सड़क पर जाकर भीख भी माँगने लगा है।
         मामाजी उसे खींचकर बाहर लाये - चल, बता किस सब्जीवाले से भीख माँगकर सिक्का लाया था। वे बाजार पहुँचे, पर तब तक सब्जीवाला अपना ठेला लिये अन्यत्र चला गया था। मामाजी तो अब बौखला उठे और बंटी पर घूँसे बरसाने लगे।
- माँ कसम! वह सब्जीवाला यहीं पर था। अब कहीं चला गया होगा। बंटी ने कहा।
- अब तू झूठी कसम खाना भी सीख गया है। माँ की कसम खाता है। राक्षस! तू माँ को खुद चबा गया और स्साला अब उसकी ही कसम खाता हैं। चोर कहीं का!
- चोर कहीं का। यह शब्द मामाजी ने जानबूझकर जोर से कहा था।  जिसे सुन भीड़ तैश में आ गई। तैश में आयी भीड़ शैतान की टोली बन जाती है। जिसको मौका मिला, उसने बंटी को लात, घूँसे जड़ दिये। बेचारा जमीन पर गिर छटपटा रहा था और लोग उसे बेरहमी से पीटे जा रहे थे।
         तभी ईश्वर ने पिटते नन्हें बंटी पर दया का नाटक रचते हुए उस सब्जीवाले को भीड़ की तरफ  ढकेला। सब्जीवाला पिटते बच्चे को तुरंत पहचान गया। वह आगे बढ़ा और मामाजी से पूरी बात सुनकर बोला - मैंने ही पाँच का सिक्का दिया था। ये बच्चा सच कह रहा है। मात्र पाँच का सिक्का नहीं मिलने पर वह रो रहा था। वह डरा हुआ था। मुझे उस पर दया आयी और उसे मैंने उसे सिक्का दिया। दया आना अगर गुनाह है तो आप मुझे पीटिये। इतनी सी छोटी रकम के लिये इस छोटे बच्चे को पीटना आपको शोभा नहीं देता। इस उम्र के बच्चे को प्यार की जरुरत होती है।
          परन्तु मामाजी को सब्जीवाले के ये वाक्य कडुवे लगे। वे कहने लगे - क्यों बे, अब हमारी बुराई सब जगह करता फिरने लगा है? शहर में सबको बताता फिरेगा कि तुझे हम प्यार नहीं करते। घर चल, अभी तेरी अच्छी खबर लेता हूँ।
         लेकिन मामाजी के ये सारे शब्द दब गये। कोई भीड़ को चीरता चिल्लाता आ रहा था - कहाँ है वो जेबकतरा ...?
         यह आवाज भीड़ की आखरी कतार में खड़े एक महोदय की थी, जो सब्जी लेकर आगे बढ़ चुके थे। परन्तु वहाँ जब उन्होंने अपनी जेब को टटोला तो उनका पर्स गायब हो चुका था। उनका जेब काट लिया गया था। वे पलटे और भीड़ को चीरते अंदर आ गये। वे चक्रव्यूह भेदने की कला के अच्छे ज्ञाता जान पड़े और उन्होंने आनन - फानन दो - तीन लातें बंटी को लगा दी।
         तभी भीड़ में से एक सज्जन बोले - आपका जेबकतरा और कोई होगा जनाब। यह लड़का तो अभी - अभी उन महाशय के साथ आया था। आप तो यहाँ से खरीदी कर बहुत पहले ही चले गये थे।
- और क्या? एक अन्य व्यक्ति ने कहा - सच है। जब इस बच्चे को यहाँ लाया गया था तो आप महोदय आठ ठेले पार जा चुके थे।
         पर यह सुन शर्मिंदा होने के बजाय उन महाशय ने एक जोरदार लात बंटी के जबड़े पर लगाई और बड़बड़ाया - जेबकतरे कोई भी हो उसे सजा तो मिलनी ही चाहिये। उधर बंटी के मुँह से खून निकलता देख भीड़ में झूमा - झपटी मच गई और बाहर भागते महोदय का थैला उनके हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ा। आलू के बीच में पड़ा उनका पर्स छाँक रहा था।
- ये रहा वो पर्स जिसके लिये आपने उसे लात मारी। चलिये महोदय, उस बच्चे से माफी माँगिये।
वे माफी किससे माँगते? बच्चा भीड़ के बीचोंबीच बेहोश पड़ा था। उसके मुँह से खून बह रहा था।
- बुलावो, उस कमीने को जिसने इसके जबड़े पर लात मारी थी। घृणा की लपटें विकट होने लगी। मौका पाकर मामाजी भी भाग चुके थे। बंटी की साँसें थम चुकीं थी। बेचारा,बिना माँ - बाप का था। किसी ने कहा।
          भीड़ लहरों की तरह एक बार आगे बढ़ी और फिर शनै: शनै: छटने लगी। बंटी बाजार बीच पड़ा था, एकदम शांत और उसके इर्दगिर्द पड़े थे तरह - तरह के रंग - बिरंगी नोट और नोटों के बीच पाँच के असंख्य सिक्के अपनी चमक बिखरते शांत मुद्रा में आकाश को निहार रहे थे।
संपर्क
43, सहकार नगर, रामपुर,
जबलपुर (म.प्र.)
मोबाइल :  09893060419

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें