इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शनिवार, 28 मई 2016

नहीं भूल पायी

     भावसिंह हिरवानी

आफीस से लौटा नरेन्द्र अभी सोफे पर बैठा ही था कि दरवाजे पर लगी घंटी घनाघन उठी, जैसे ही उसने दरवाजा खोला, सामने एक युवती को खड़ी देख हैरान रह गया।
   आशा, तुम,? अनायास ही उसके मुंह से निकला था।
 हां, मैं। क्या भीतर आने को भी नहीं कहोगे? स्मित हास्य बिखेरती आशा बोली थी।
  आओ, आओ न। वह हड़बड़ा कर दरवाजे से हट गया और आशा भीतर आ गई। उसकी इस अप्रत्याशित उपस्थिति से नरेन्द्र रोमांचित हो उठा था। वर्षो बाद मिलने की खुशी दोनों के चेहरों पर चमक रही थी। उसे बैठने का इशारा करके वह तत्काल खिड़की के पास पहुंच गया, जैसे ही उसने खिड़की खोली ताजा हवा का एक झोंका प्रवेश कर गया।
   आशा मन ही मन मुस्कुरा उठी, शुक्र है, नरेन्द्र को आज भी उसकी आदतें याद है।
   बाहर शाम का धुंधलका घिरने लगा था। वह स्वीच आन करके आशा के सामने बैठ गया। क्षण भर के लिए उन दोनों के बीच एक गहरा सन्नाटा पसर गया। वर्षो बाद मिले थे फिर भी शब्दों का टोटा हो गया था। दोनों एक दूसरे को अपलक निहारते मूक बैठे रहे। जहां आंखे बोलती है, शायद वहां शब्दों की अहमियत नहीं रह जाती।
    आशा के माथे पर बिन्दी चमक रही थी, पर मांग में सिंदूर नहीं था। तो क्या आशा उसकी प्रतीक्षा ही करती रह गयी, भीतर एक हूक- सा उठा और वह तड़फ कर रह गया। उसने देखा था, आशा के गालों की लालिमा फिकी पड़ गई है और होठों पर सदा मचलने वाली खनकती हंसी कहीं गुम हो गई है। इसके अतिरिक्त एक नैराश्य जन्य पीड़ा ने अपना अधिकार जमा लिया है। आंखो के नीचे दोनो ओर फैली हल्की स्याह निशानी उसके चिंताग्रस्त अव्यवस्थित जीवन की कहानी कह रही है।
      उसकी हालत देख नरेन्द्र स्वयं एक अपराध बोध की पीड़ा से छटपटा उठा। सब कुछ देख- सुन कर भी किस मुंह से कुशल क्षेम पूछे। फिर भी उसके विषय में सब कुछ जान लेने को मन व्याकुल था।
     कैसी हो आशा? व्यथित स्वर में पूछा था उसने।
     ठीक ही हूं, बाबू जी एम एम आई में भर्ती हैं। उन्हीं की सेवा टहल के लिए आयी हूं। तुम कैसे हो? और सब कहां है? आशा अपनी आतुरता छुपा नहीं पायी थी।
    तुमसे अलग होने के बाद इस जीवन की धारा में बहुत पानी बह गया आशा। इस अंतराल में मैंने पूरी जिंदगी जी ली। मुसाफिर की तरह जो भी मिले, बिछुड़ गये। बस, मैं हूं और मेरा अकेलापन है। मेरे साथ यहां कोई नहीं रहता। बोझिल और उदासी में डूबे शब्द उसके अंतस की पीड़ा को अनावृत कर गये थे, क्या हुआ है, बाबू जी को?
    अटैक आया है। मुझे लेकर हमेशा चिंतित रहते है, उसी का नतीजा है। बहुत कहा मेरी चिंता छोड़ दें, पर मानते ही नहीं। आशा चिंतित स्वर में बोली थी।
    आशा मैं बाबू जी से मिलना चाहता हूं। मेरे अपराध की सजा वे स्वयं को क्यों दे रहें है? और तुम भी क्यों नहीं भूल पायी मुझे? क्यों मुझे याद करके खुद को सजा देती रही? मैं तो अपने ही दुखों से दुखी था आशा। तुम सब के गुनहगार होने का बोझ कैसे बर्दास्त कर पाऊंगा? नरेन्द्र भीतर तक भीग गया था।
    हां नरेन्द्र, यह सच है। मैं तुम्हारा वादा नहीं भूल सकी।  न तुम्हारा वह थप्पड़ ही भूल पायी, जिसकर वजह से मैं तुम्हारे हाथों बिना मोल बिक गई थी। तुम्हारा वह जवाब कितना करारा और अचूक था नरेन्द्र, सीधे दिल की गहराई में उतर गया था। उसे अपने अंतस से कुछ टूट कर बिखरता- सा महसूस हुआ था।
    आशा उस घटना को याद दिलाकर क्यों लज्जित कर रही हो मुझे? नरेन्द्र ने संजीदगी से कहा था।
    नरेन्द्र वह तो मेरे जीवन की सबसे अहम घटना था। जब भी मेरी ओर कोई दूसरा हाथ बढ़ा, तुम्हारा वह थप्पड़  मेरी आंखो के आगे एक प्रश्न चिन्ह की तरह खड़ा हो गया। नरेन्द्र लौटकर आयेगा तो क्या जवाब दोगी? यही कि मैं परायी हो गयी। और मैं एक अटूट विश्वास लिए जीती रही कि मेरा नरेन्द्र एक दिन जरूर लौटेगा। पर तुम नहीं आए। उसने अपनी गीली हो गयी आंखों को पल्लू के छोर से पोंछ लिया था।
    पगली हो तुम, पगली। क्या कोई इस तरह सारी जिंदगी किसी के इंतजार में बैठा रह जाता है? माना मैंने वादा किया था, पर जिंदगी में प्यार ही सब कुछ नहीं होता। जब नहीं लौटा तो क्यों नहीं तुमने अपनी जिंदगी संवारने की कोशिश की, जैसे मैं वक्त के साथ चल पड़ा। यह अलग बात है कि मैं भी तुम्हें नहीं भूल पाया। सब कुछ तो आंखो के सामने जस का तस तैर जाता है, जैसे बीते कल की बात हो। नरेन्द्र ने कहा और दोनों स्मृति के भरोसे में झांकते हुए वर्षो पीछे पहुंच गये थे।
    यह जगदलपुर के दलपत सागर पारा की एक गली है। यहीं पर उन दोनों का प्यार परवान चढ़ा था। आमने- सामने खड़े उन दोनों मकानों में नरेन्द्र के पापा और आशा के माता पिता रहते थे। नरेन्द्र की मां रायपुर के एक हाईस्कूल में प्रिंसिपल होकर चली गई थी। नरेन्द्र अपने पापा के साथ ही रहता था। सहपाठी होने के साथ एक ही गली में रहने के कारण उन दोनों का मेल जोल काफी बढ़ गया। धीरे धीेरे उनकी घनिष्ठता बढ़ती चली गई और वे मन ही मन एक दूसरे को चाहने लगे। दोनों के परिवार वाले उनकी इस चाहत से बेखबर थे। तभी एक घटना घट गयी और उनका प्यार उजागर हो गया।
    यह उन दिनों की बात है, जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सारा देश सिक्ख विरोधी दंगों की आग में झुलस रहा था। वह दिसंबर की एक शाम थी। छुट्टी के बाद आशा बाजार चली गई और नरेन्द्र स्कूूल से सीधा घर लौट आया। अभी उसे शापिंग करते कुछ ही समय बीता था कि दंगा भड़क जाने के कारण शहर में कर्फयू लग गया।
    पुलिस गाड़ी लाउडस्पीकर में एनाउन्स करती सारे शहर में दौड़ रही थी। देखते ही देखते चारों ओर अफरा- तफरी मच गई। लोग जान बचाकर बेतहाशा अपने-अपने घरों की ओर दौड़ने लगे। धड़ाधड़ सारी दुकाने बंद हो गई। डर और घबराहट के कारण उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। हताश, हक्की- बक्की वह बाजार के एक कोने में खड़ी रोने लगी।
    थोड़ी देर बाद वहां सायकल में उसे ढूंढता हुआ नरेन्द्र आ पहुंचा। उसने तुरंत हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा था, यहां मरने के लिए क्यों खड़ी है? चल जल्दी।
मगर तुम क्यों अपनी जान जोखिम में डालकर यहां आये हो? सिसकियों के बीच उसने पूछा था।
बकबक करने का वक्त नहीं है जल्दी चल। वह तैश में आ गया था।
 नहीं पहले बताओ आशा अड़ गई थी।
तो ले। जवाब में एक करारा तमाचा जड़ दिया था उसने। फिर उसे खींचकर सायकल में बैठाया था।
आशा घसीटती हुई सायकल के कैरियर पर बैठ गई थी। उसके दोनों आंखों में आंसम भर आये थे। कारण उसका थप्पड़ था, या उसके प्यार  की गहराई की अनुभूति, कहना मुश्किल है। वह दोनों हाथों में कसकर नरेन्द्र को पकड़ पूरे रास्ते उसकी पीठ पर सिर टिकाये बैठी रही। नरेन्द्र पुलिस के बीच से बचते- बचते तेजी से सायकल चलाकर उसे घर ले आया था। भीतर पहुंचते ही दोनों भावातिरेक में बिना कुछ बोले एक दूसरे से लिपट गये थे।
    मौन अभिव्यक्ति के आगे शब्द कितने बौने हो जाते हैं, इसका एहसास ऐसे ही क्षणों में होता है। मौत के साये से वापस लौटे बच्चों को देखकर आशा के माता- पिता विव्हल हो गये थे। उनके मन में नरेन्द्र के प्रति कृतज्ञता के साथ- साथ वात्सल्य का भाव उमड़ आया। मना करने के बावजूद नरेन्द्र कर्फयू के बीच आशा को ढूंढने निकल गया था।  लेकिन इस घटना के बाद नरेन्द्र के पापा की भृकुटी तन गई थी। मगर दोनों दिन दुनिया से बेखबर भविष्य के सपने संजोने लगे रहे।
   आखिर उनके बिछुड़ने का दिन भी आ गया।कुशाग्र बुद्धि नरेन्द्र का सिलेक्सन एरोनाटिक्स में ट्रेंनिंग के लिए हो जाने के कारण दोनों बेहद खुश थे। वहां से निकलते ही नौकरी पक्की थी। फिर हवाई जहाज में उड़ने की कल्पना ही अत्यंत रोमांचक और आल्हादकारी थी। फिर भी नरेन्द्र से बिछुड़ते हुए आशा अधीर हो उठी थी, नरेन्द्र, मुझे भूल तो नहीं जाओगे?
   ऐसा कहोगी, तो मैं फिर एक थप्पड़ जड़ दूंगा। नरेन्द्र ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा था, पोस्टिंग होते ही मैं आकर तुम्हें ले जाऊंगा। मेरी प्रतिक्षा करना। नरेन्द्र वादा करके चला गया, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।
   अचानक दरवाजे की घंटी फिर बज उठी तो वे वर्तमान में लौट आये। उन्होंने देखा, धड़धड़ाती हुई अमृता भीतर आ गई थी, दीदी आप यहां है, मैं तो आपको ढूंढते- ढूंढते परेशान हो गई थी। क्या आप दोनों पूर्व परिचित है? एक ही सांस में बोल गई थी वह।
   हां, हम दोनों एक ही साथ, एक ही स्कूल में पढ़ते थे। नरेन्द्र ने मुस्कुराकर जवाब दिया था।
   अच्छा ़ ़ ़ दीदी, ये भैया कहीं वही तो नहीं ़ ़ ़। आश्चर्य मिश्रित खुशी से अमृता ने इशारा किया था।
    चुप्प। आशा के गालों पर लालिमा दौड़ गई थी।
   कोई बात नहीं दीदी, मैं तो आपको चाय के लिए ढूंढ रही थी। लेकिन अब आप यहीं चाय पीना। मैं जाती हूं। टिफिन तैयार होने के बाद फिर आऊंगी। आप और कहीं मत जाना। अमृता जैसे अयी थी वैसे ही हवा के झोंके की तरह बाहर चली गई। आशा ने कनखियों से नरेन्द्र की ओर देखा था। नरेन्द्र टकटकी बांधे उसे ही घूर रहा था। शायद अमृता के कहे शब्दों ने उसे उद्वेलित कर दिया था।
सचमुच आशा के व्यक्तित्व के आगे आज वह कितना बौना हो गया था? मम्मी- पापा की अवज्ञा करके भी वह अकेले जीने का निर्णय क्यों नहीं ले सका? सोचकर वह दुखी हो गया था।
 वह चाहता तो आज भी आगे बढ़कर आशा का हाथ थाम लेता, पर संकोच वश आत्म रक्षा की मुद्रा में बैठा अनुनय- सा करने लगा, मैं तुम्हारा अपराधी हूं आशा, चाहे जो सजा दो, ना नहीं कहूंगा।
  नहीं नरेन्द्र, तुम्हें सजा देकर मैं अपना दुख और नहंीं बढ़ाना चाहती। बस इतना बता दो कि ऐसी कौन- सी मजबूरी थी जिसके चलते तुमने मेरी सुधि नहीं ली। आशा तड़फ उठी थी।
  पोस्टिंग होते ही मैं तुम्हारी तलाश में जगदलपुर गया था। वहां पता चला कि तुम्हारे पापा का ट्रांसफर कोंटा के पास किसी देहात में हो गया था। फिर वहां से अम्बिकापुर तरफ जाने की सूचना मिली। कहां, किसी ने नहीं बताया। निराश, थक हार कर मैं घर लौट आया, फिर वहां से दिल्ली चला गया जहां मेरी पोस्टिंग थी। आशा मैं तुम्हें भूला नहीं था। पर तुमने मुझसे संपर्क करने की कोशिश क्यों नहीं की? कहते हुए नरेन्द्र उदास हो गया था।
  नरेन्द्र का जवाब सुन वह मर्माहत- सी हो उठी, लोग तो अनदेखे भगवान को ढूंढ लेते हैं नरेन्द्र, मैं तो जीती- जागती तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहीं। मगर तुम कितनी जल्दी हारकर बैठ गये? आज जान सकी कितना चाहते थे तुम मुझे? ऊपर से यह तोहमत भी जड़ दिया कि मैंने तुमसे मिलने की कोशिश क्यों नहीं की? सामाजिक मर्यादा और रिवाजों की जकड़न तोड़ना क्या इतना आसान है नरेन्द्र? क्या नहीं जानते हमारे समाज में लड़के वाले ही रिश्ते तलाशते है? लड़की वाले सिर्फ उनका इंतजार करते हैं।
  जवाब की प्रतिक्षा में आशा क्षण भर के लिए खामोश हो गयी थी। जब नरेन्द्र कुछ नहीं बोला तो वह फिर बोलने लगी, फिर भी बाबू जी गये थे तुम्हारे पापा से मिलने। पहले गांव गये, फिर रायपुर होते हुए आरंग गये, वहां उनसे मुलाकात हुई थी। अपने आने का मकसद बताया तो उन्होंने लगभग दुत्कार दिया था, आप क्या सोचकर आये है हैं गुरूजी? शादी -ब्याह बराबरी में होती है। नरेन्द्र अब सहायक एरोड्रम मास्टर है। उसकी मम्मी और मेरा ओहदा तो आप जानते ही हैं। बताइये कहीं से भी मेल बैठता है?
  बाबू जी कुछ नहीं कह पाये। सिर झुकाकर वापस लौट आये। घर आकर इतना ही बोले थे, आशा, नरेन्द्र आकाश की ऊंचाइयों में पहुंच गया है। और हम जमीन पर खड़े हैं। उसे पाने की चाह आकाश से तारे तोड़ना है।
   मैं खामोश भीतर चली गई थी। कहती भी तो क्या कहती? उन्होंने इशारों में बहुत कुछ कह दिया था। अपने प्रिय प्राणी- पदार्थों से विछोह का दर्द क्या होता है? उस दिन महसूस किया था मैंने। कई दिनों तक गुमसुम- सी बनी रहीं। मां- बाबूजी ने बहुत समझाया। कई रिश्ते भी आये, पर तुम्हारे जैसा प्यार कोई नहीं लगा। इसी बीच एक नीजी विध्यालय में बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया और मैं डोंगरगढ़ चली आई। आज भी वहीं हूं। अमृता भी उसी स्कूल में पढ़ाती है। बाबूजी की बिमारी का समाचार मिला तो वह भी मेरी सहायता के लिए आ गयी। तुम्हारे पड़ोस में रहने वाले भल्ला साहब उसके चाचा है। उन्हीं के यहां से हम लोगों का टिफिन जाता है। अचानक तुम्हारा नेेम प्लेट पढ़ा तो, चौंक उठी और हिम्मत करके घंटी का बटन दबा दिया।
   सुनती थी बड़े ठाठ की जिंदगी जी रहे हो तो मन में ईर्ष्या भी होती थी और सुकून भी मिलता था। बस, एक बार मिलने की हसरत थी, वह भी आज पूरी हो गई? मगर यहां तुम्हारी हालत देख हैरान हूं। यह सब कैसे और क्यों हुआ? जवाब की प्रतिक्षा में उसने नरेन्द्र पर अपनी दृष्टि गड़ा दी।
   सचमुच उसकी पत्नी योगिता और नरेन्द्र के बीच संबंध विच्छेद की खबर हर उस व्यक्ति के लिए आठवां आश्चर्य से कम नहीं था, जो उसे निकट से जानता था। नरेन्द्र रंग- रूप और डील डौल में जितना सुंदर था, उतना ही वह व्यवहार कुशल और मृदुभाषी था। घमंड तो उसे छू तक नहीं गया था।
   नरेन्द्र बहुत देर तक चुप सोचता रह, फिर बोला, मैं तो सदैव तुमसे मिलने को बेचैन रहा, पर कोई सूत्र हाथ नहीं आया। हां घर- परिवार और नीजी जिंदगी में संतुलन बनाये रखने के चक्कर में तुम तक नहीं पहुंच सका। ऊंची पद- प्रतिष्ठा के कारण मम्मी- पापा की आकांक्षा बहुत बढ़ गई थी। मैंने दबी- जबाने तुम्हारा जिक्र किया तो पापा अड़ गये थे, जो नहीं हो सकता उसके विषय में क्यों सोचते हो? भूल जाओ उसे। मेरा अपराध यही था कि मैं खुल कर विद्रोह नहीं कर सका। नरेन्द्र कुछ क्षण के लिये खामोश हो गया था।
   और तुमने एक आज्ञाकारी बालक की तरह उनकी बात मान कर शादी कर ली, है न? आशा के होठों पर एक व्यंग्य भड़ी मुस्कान तौर गई थी।
   ना, मैंने तीन साल तक उनको खूब छकाया। मैं जानता था उन्हें ऊंची मान- मर्यादा और ढ़ेर सारा दहेज लाने वाली कमाऊ बहू चाहिए। मैंने शर्त रख दी कि मैं नौकरी पेशा लड़की से शादी नहीं करूंगा। मेरी शर्त सुनकर मम्मी खूब बिगड़ी थी, इतने बड़े अफसर बन गये लेकिन बच्चों जैसी बाते करते हो। औरत को घर में नकेल डालकर रखने का भला क्या औचित्य है। कुछ कमाकर लायेगी तो वक्त जरूरत में काम ही आयेंगे।
    पर मैंने साफ कह दिया था- मम्मी, तुम्हारी नौकरी करने का दुख मैं भोग चुका हूं। जब मैं स्कूल से लौटकर आता था, तब तुम्हें घर में न पाकर मुझ पर क्या बीतती थी, तुम नहीं समझ सकती। भूख से अधिक तुम्हारे प्यार की तड़फ मुझे रूलाती थी। अस्त- व्यत घर देख मैं और पापा दोनों कुढ़ते थे। मुझे जीवन- साथी चाहिए, रूपये कमाने वाली मशीन नहीं।
  मम्मी मेरी बातों से कतई सहमत नहीं थी। उसने तो जगन्नाथ प्रिंसपल की बेटी योगिता को ही अपनी बहू बनाने का निश्चय कर लिया था। योगिता का सबसे बड़ा गुण यहीं था कि वह हाईस्कूल के लेक्चरर थी। लेकिन मैं अड़ गया था कि योगिता को मेरे साथ रहना है तो नौकरी छोड़नी पड़ेगी अन्यथा मैं शादी नहीं करूंगा।
    तो क्या योगिता नौकरी छोड़ने को राजी हो गई? आशा सब कुछ जान लेने को उतावली हो रही थी।
   हां, अपने पापा के कहने पर उसने तत्काल स्तीफा दे दिया। इस तरह मैं अपने ही बुने जाल में फंस गया था। शादी के बाद योगिता ने अपना तेवर दिखाना शुरू कर दिया। वह मेरी हर बात में मिन- मेख निकालती और बात-बात में झगड़ा करने पर उतारू हो जाती। दो साल बाद हमारी पहली संतान नेहा पैदा हुई तो हमें उम्मीद थी कि योगिता सुधर जायेगी। किन्तु वह पहले से अधिक उदंड और हठी हो गई थी। अब तो वह मम्मी पापा से भी दुर्व्यवहार करने से नहीं चूकती थी। मेरी इकलौती बहन आरती तो उसकी नम्बर एक की दुश्मन बन बयी। उसके रहन- सहन क्रिया- कलाप पर उसे घोर आपत्ति होती। उसके अनुसार इकलौती होने के कारण हम लोगों ने आरती को सिर पर चढ़ा रखा था। दोनों के बीच की लड़ाई इतनी बढ़ गई कि एक दिन बहन ने जहर खा लिया और आठ रोज तक उसे अस्पताल में रखना पड़ा।
   इसके बाद तो मम्मी- पापा भी उसके विरूद्ध गये। पर योगिता ने कभी किसी की परवाह नहीं की। वह घर छोड़कर अपने पिता के पास चली गई और महिला थाने में दहेज प्रताड़ना का मामला दर्ज करा दिया। बहुत भाग- दौड़  के बाद ले दे कर ही हमें जमानत मिली थी अन्यथा हम सब का जेल जाना तय था। नरेन्द्र की आवाज में निराशा और दुख दोनों थे।
    लगता है, उसे किसी बात का मलाल रहा होगा नरेन्द्र। आशा कुछ सोचती हुई बोली थी।
शायद नौकरी छोड़ने का गम वह बर्दाश्त नहीं कर पायी। धीरे- धीरे स्थिति निरंतर बदतर और बेकाबू होते चली गई और उसने अदालत में तलाक हेतु आवेदन लगा दिया। जब मेरे पास तलाक नामा आया तो मैं कई दिनों तक अनिर्णय की स्थिति में उलझा रहा। इसी बीच एक शाम जब मैं दफतर से घर लौटा ही था कि योगिता पहुंच गयी। पीछे- पीछे उसके बड़े भैया अजय और वकील भी आये थे।
  मैं उनके  इस तरह अचानक पहुंचने का सबब जानना चाहता था,फिर भी शिष्टाचार निर्वहन बात पूछ भी लिया था, कैसे आना हुआ भैया?
   इसलिये क्योंकि तुमने आज तक तलाकनामा पर साइन नहीं किया है।बेहद तल्ख एवं आक्रोशित स्वर में कहा था अजय ने।
   मैं नेहा के भविष्य को लेकर चिंतित हूं भैया। योगिता अपने व्यवहार सुधारने को तैयार हो तो इस अतीत को भूल कर फिर अपनी जिंदगी की शुरूआत कर सकते है। मैं पूरी तरह टूट चुका था फिर हृदय के किसी कोने में उम्मीद की किरण अब भी बाकी थी।
   नहीं, मैं तुम्हारे साथ अब एक पल भी नहीं रह सकती। समझ लो कि तुम्हारे लिए मैं मर गई और मेरे लिये तुम मर गये। साइन नहीं करोगे तो भी आज सारे सम्बन्ध सदा के लिए यहीं खत्म करके जाऊंगी। तुम्हारे सामने सुहाग की निशानी इन चूड़ियों को यहीं तोड़कर, माथे का सिंदूर पोंछ डालूंगी। योगिता जैसे पागल हो गई थी।
   यह सुनकर सब के सब दंग रह गये थे। योगिता सारी मर्यादा लांघकर इस हद तक चली जायेगी किसी ने सोचा नहीं था।
   इसकी कोई जरूरत नहीं है योगिता, लो अभी साइन कर देता हंू। तुम आजादी चाहती थी न, जाओ आज से आजाद हो गई। कहते हुए मैं उठ खड़ा हुआ। आलमारी से तलाकनामा निकाला और कांपते हाथों से साइन करके आगे बढ़ा दिया। इस तरह रही-रही उम्मीद भी पूरी खत्म हो गई थी।
आठ वर्ष के अंतराल में ही हमारा दांपत्य जीवन छिन्न- भिन्न हो गया। बहुत सोचने पर भी मैं समझ नहीं पाया था कि कहां चूक गया? कुछ समय बाद अदालत से भी हमारे तलाकनामा पर कानूनी मुहर लग गयी। नेहा, योगिता के अधिकार में चली गई। महीने में सिर्फ एक रविवार को मैं नेहा से मिल सकता था। कुछ दिन बाद योगिता ने मुझे इस हक से भी वंचित कर दिया। बाकी दिन तो किसी तरह कट ही जाते हैं लेकिन छुट्टी के दिन काटे नहीं कटते और मैं बौराया- सा यहां- वहां भटकता रहता हूं। नरेन्द्र की आवाज जैसे गले में ही फंस कर रह गयी थी।
  इसी समय दरवाजे की घंटी बजी थी। अमृता फिर आ गई थी, दीदी, अब चलो टिफिन तैयार हो गया है। वह उठने को हुई तो नरेन्द्र बोल पड़ा, आशा, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।
 आशा असमंजस में डूबी कुछ देर सोचती रही फिर बोली, नहीं बाबू जी हमारे सम्बन्धों को लेकर बहुत इमोशनल हैं, पता नहीं तुम्हें अचानक सामने देख उन पर क्या बीते? नरेन्द्र मैं अपने तिनके का सहारा भी नहीं खोना चाहती। आशा भावना के आवेश में बह गयी थी।
 नरेन्द्र एक अपराधी- सा खड़ा देखता रह गया। आशा से ऐेसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। आशा के करीब पहुंचने का मुश्किल से एक सूत्र हाथ आया था, वह भी टूट गया। उसने टूटते स्वर में कहा था फिर कब आओगी?
 कह नहीं सकती, शायद कभी नहीं। आशा डूबती स्वर में बोली और उठ खड़ी हुई। अंतत: दोनों बड़े दुखी मन से अलग हो गये।
  दूसरे दिन वह आफीस से छुट्टी लेकर दिन भर आशा की प्रतिक्षा करता रहा, मगर वह नहीं आयी। जब व्याकुलता बढ़ गई तो शाम को स्वयं भल्ला साहब के घर पहुंच गया। वहां पता चला कि अमृता आकर टिफिन ले गई है। वह मायूस, चुपचाप घर लौट आया। लेकिन बार-बार मन उसे आशा के पास खींच ले जाता।
 सारी रात वह आशा को लेकर तरह-तरह के मनसूबे बांधता, टूटता- तड़फता रहा। आशा के अचानक आगमन से उसे लगा था, जैसे उसके जीवन में शुरू हुआ पतझड़ का मौसम खत्म होने के कगार पर है तथा ठूंठ हो गये मन में फिर नई उमंगों के कोपलें फूंटने लगे है।
 बार- बार वह यहीं सोचता, क्यों न एक बार फिर अतीत को भूल कर नई जिंदगी की शुरूआत की जाय। इसके बावजूद मन के किसी कोने में बैठी, आशा के इंकार की आशंका से वह लहूलुहान हो जाता। इसी उहापोह में रात बीत गई थी और वह देर तक सोता रहा। सबेरे जब फिर दरवाजे की घंटी बजी तो उसकी नींद टूटी थी।
 कौन हो सकता है? असमंजस में डूबा उसने दरवाजा खोला तो सामने आशा खड़ी थी। एक बारगी उसकी सारी सुप्त इन्द्रियां झंकृत होकर चैतन्य हो उठीं। मन मयूर होकर नाच उठा। खुशी के अतिरेक में उसके बोल न फूटते थे। उसका बांवरा पन देख आशा बोली थी, यह क्या हो गया है तुम्हें? कैसे अनजान की तरह हकबकाय घूर रहे हो?
 पता नहीं क्यों, मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि तुम मेरे सामने खड़ी हो।
 जवाब में आशा ने आगे बढ़कर जोर से उसकी बाहों में चिकोटी काटा तो वह बिलबिला उठा, अरे मर गया।
 आशा हसंती हुई बोली, अब तो विश्वास हो गया न?
 हो गया। लेकिन इतने सबेरे कैसे आ धमकी? नरेन्द्र अब भी सहज नहीं हो पा रहा था।
 चाय पीने, यह भी देखना चाहती थी कि तुम अकेले कैसे रह लेेेते हो? वह धीमे से हंसी।
 ठीक है, तुम बैठो, मैं अभी चाय बनाता हूं। नरेन्द्र के चेहरे से खुशी छलक रही थी। वह तुरंत किचन की ओर लपका। आशा स्वयं भी उसके पीछे-पीछे किचन में चली गई और नरेन्द्र को बाथरूम में ढकेलती हुई बोली, चलो हटो यहां से जल्दी हाथ- मुंह धोकर बाहर आओ।
 जब वह लौटा, आशा सोफे पर बैठी उसका इंतजार कर रही थी। उसने चाय की एक चुस्की लेकर कहा, पता नहीं, क्यों, तुम्हारी बनायी चाय बहुत अच्छी लगती है, और है?
 लो,। हंसती हुई आशा ने उसे दूसरा कप थमा दिया था।
 बाबू जी कैसे है? तुमने बताया नहीं।
 काफी ठीक हैं, हम लोग जल्दी ही चले जायेंगे। संभव है कल ही। आशा की आंखे नरेन्द्र के चेहरे पर टिक गई थीं।
 यह तो बहुत अच्छी खबर है। पर तुमने क्या फैसला किया? नरेन्द्र के मुख मंडल पर तमाम तरह के विचार आपस में गड़मगड़ होने लगे।
 मैं तो पहले ही फैसला कर चुकी हूं नरेन्द्र, तुम नहीं मिले तो आजीवन अकेले रहूंगी। उसने अपनी पलकें झुका लीं।
 नरेन्द्र तत्काल उठकर आशा के करीब बैठ गया। फिर उसके हाथ को अपने हाथों में लेकर बोला, आशा, क्या तुम मुझे माफ नहीं कर सकती?
 जवाब में आशा कुछ नहीं बोली। उसकी आंखों में आंसू भर आये और उसने नरेन्द्र के कंधों पर अपना सिर रख दिया। इसके साथ ही वर्षों का अंतराल खत्म हो गया था।  
पता
ग्राम - कोलिहामार,पोष्‍ट- गुुरूर
जिला - बालोद ( छ.ग.)
मोबाईल : 09407732943

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