मगर अभी-अभी मुझे काशीपुरी कुन्दन जी का छत्तीसगढ़ी व्यंग्य संग्रह बेईमान के मुड़ी म पागा पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसे पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई और लगने लगा है कि छत्तीसगढ़ी व्यंग्य में मैं अब तक जिन चीजों को तलाश रहा था वह इस संग्रह में पाया है। अब सोचता हूँ कि यदि संजीव भाई मुझे कभी फिर पूछे के छत्तीसगढ़ी व्यंग्य में आप अपना प्रिय लेखक किसे मानते है तो मैं भाई कांशीपुरी कुन्दन जी का नाम सम्मान से ले सकता हँू क्योंकि इस संग्रह की प्रत्येक रचना सोद्देश्य है और समाज की किसी न किसी विसंगति की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कर उस पर चिंतन करने के लिए प्ररित करती है। वैसे भी कुन्दन जी का नाम हिन्दी व्यंग्य में काफी जाना-पहचाना नाम है। उनकी लेखनी निरन्तर चलकर साहित्य में व्यंग्य विधा को समृद्ध करती आ रही है। मुर्दो का प्रीति भोज हास्य व्यंग्य काव्य संकलन, दूल्हे बाजार की सैर व्यंग्य संकलन, भ्रष्टाचार के शलाका पुरूष व्यंग्य संकलन तथा बेईमान के मुड़ न पागा छत्तीसगढ़ी व्यंग्य संग्रह उनकी लेखनी की निरन्तरता का प्रमाण है।
बेईमान के मुड़ी म पागा को आधुनिक समाज का एक्स-रे रिपोर्ट कहना भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा। आज देश और समाज हर क्षेत्र में झूठे सब्जबाग दिखाकर नेतृत्व हथियाने की होड़ मची है। आम आदमी दिगभ्रमित हो गया है कि इसमें असली कौन और नकली कौन? इसी कारण से आज तक आम आदमी छला जा रहा है जिसको भी वह अपना हितैषी समझकर नेतृत्व की बागडोर सौपता है वहीं सिंहासन मिलते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लेता है और वह ठगा रह जाता है। ठगा हुआ आम आदमी हाथ मलते और सिर धुनते हुए गहरी सांस लेकर जो पहला वाक्य बोलता है वह होता है फिर बेईमान के मुड़ी म पागा।
इस संग्रह में अभिमन्यु कर तरह भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फँसे आदमी कर छटपटाहट है। आज भ्रष्टाचारियों के हौसले इतने बुलंद है कि वे छोटे-छोटे कार्यो के लिए भी वे आम आदमी से बेखौफ रूपये ऐंठ लेते हैं। ईमानदार आदमी को अपनी ईमानदारी के लिए प्रताड़ित होना पड़ता है। चमचागिरी और पैसे के बल पर अयोग्य आदमी उच्च स्थान प्राप्त कर लेता है और योग्य आदमी अपनी लाचारी के कारण खून के आंसू रोने के लिए मजबूर हो जाता है। महापुरूषों के सपनों का भारत पता नहीं कहाँ खो गया है। तइहा के बात ला बइहा लेगे और गांधी चौक म भट्टी खुलगे इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति है। निबंधात्मक, पत्रात्मक और कथात्मक शैली में लिखे गये संग्रह के व्यंग्यों में कहीं बेरोजगार की पीड़ा है, तो कहीं दहेज लोभियों के चंगुल में फँसे बाबुल की अपनी इज्जत बचाने की कवायद। कहीं ईमानदार शिक्षक की व्यथा है तो कहीं महंगाई की मार से अपनी कमर सहलाते हुए आम आदमी की कथा।
वैसे तो संग्रह की प्रत्येक रचना में किसी न किसी समाजिक, राजनीतिक या धार्मिक विसंगतियों पर प्रहार है पर भिखमंगा शीर्षक से प्रकाशित व्यंग्य को मैं व्यक्तित्व के रूप से सर्वाधिक उल्लेखनीय रचना मानता हूँ क्योंकि अपने ही वर्ग का, अपने ही भाई- बान्धवों को आइना दिखाना, अपने समाज की कुरीतियों एवं रूढ़ियों की आलोचना करना दुश्कर और साहसिक कार्य है। कुंदन जी के भीतर के ईमानदार व्यंग्यकार ने इस साहसिक कार्य को इस व्यंग्य के माध्यम से कर दिखाया है। धर्म के आड़ लेकर लोगों को बेवकूफ बनाकर भिख मांगने वाले पंडो पर कटाक्ष करते हुए व्यंग्यकार जो लिखते है उनका आशय है कि अपने परिवार के भी मृत सदस्य की अस्थि विसर्जन के लिए किसी धार्मिक स्थल पर जाओ तो वहां पंडे और पुजारी लोग किसी काटखाने वाले कुत्ते के समान घेर कर खड़े हो जाते है और कहते है कि तुम्हारे पूर्वज ऊपर में तड़प रहे है। बिना पिंडदान कराये उनकी आत्मा को शांति नहीं मिल सकती। इस तरह के धार्मिक भावनाओं के माध्यम से यजमानों को अपनी लूट का शिकार बनाते है। स्थिति यह हो जाती है कि अपने पितरों की मुक्ति के चक्कर में यजमान स्वयं को इनके हाथों इतना लूटा जाते है कि उनको स्वयं ही भिखमंगे की तरह जीवन यापन करने के लिए मजबूर हो जाना पड़ता है। यह तो केवल बानगी है। ऐसे ही व्यंग्य बाणों से यह संग्रह परिपूर्ण है। जो हमारी चेतना को झकझोर कर हमें सोचने के लिए बाध्य करता है। ईमानदारी व्यंग्य लेखन के लिए कुन्दन जी को हार्दिक बधाई।
पता
बोड़रा ( मगरलोड )
जिला - धमतरी ( छ.ग.)
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