इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

गुरुवार, 14 मई 2015

माई कोठी के धान

समीक्षक - हीरा लाल अग्रवाल

          डॉ. गोरेलाल चंदेल के अनुसार जीवन यदु की पुस्तिका '' माई कोठी के धान'' छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति की परिचयात्मक  सांस्कृतिक यात्रा है,जबकि मेरी दृष्टि में यह छत्तीसगढ़ियों की लोक संस्कृति की परिचयात्मक सांस्कृतिक यात्रा है क्योंकि छत्तीसगढ़ में बस्तर  और सरगुजा जैसे  विशाल क्षेत्र समाहित हैं जिनकी अपनी अलहदा संस्कृति है। डॉ. जीवन यदु ने बार - बार लोक समाज शब्द युगल का प्रयोग किया है और इस लोक समाज के साथ दो और समाज का उल्लेख  किया है। वेदाधारित  समाज और आदिवासी  समाज। इसी को यदि सामाजिक विस्तार दिया जाय तो चौथा दलित समाज होता है। यदि उपर्युक्त विश्लेषण का सरलीकरण करें तो वेदाधारित समाज का अर्थ सवर्ण समाज और लोक समाज का अर्थ पिछड़ा वर्ग,आदिवासी समाज अर्थात अनुसूचित जनजाति एवं दलित समाज अर्थात अनुसूचित जाती। इस धर्मबहुल देश में विभिन्न धर्मावलम्बियों की अपनी संस्कृति तो है ही,विभिन्न सम्प्रदायों की अपनी - अपनी संस्कृतियाँ है। भाषा की भी अपनी संस्कृति होती है यथा मराठी  संस्कृति,तमिल संस्कृति। हिन्दू बहुल राष्ट्र के इस समाज में जातियों एवं उपजातियों का भी अम्बार है। जिनकी अपनी - अपनी संस्कृतियाँ विकसित हो गयी है। दर असल इन्हीं उपजातियों, जातियों, सम्प्रदायों, धर्मो में बँटा हुआ विशाल समाज जब किसी क्षेत्र विशेष में एकत्रित हो जाता है तो इनके आपसी संघर्षण के परिणाम स्वरुप एक क्षेत्रीय संस्कृति का धीरे - धीरे  उद्भव होता है। दर असल यह समन्वित समाज ही लोक है।  इसमें ग्रामीण समाज भी सम्मिलित है और शहरी समाज भी। आज के युग में आवागमन  का साधन इतना विकसित हो चुका है कि ग्रामो और शहरों के बीच की दूरी समाप्त हो चुकी है। टी व्ही ने रही - सही दूरी को और भी संकुचित कर दिया है। डॉ. जीवन यदु की अपनी दृष्टि जो भी हो, लोक संस्कृति सम्बन्धी उनके विभिन्न आलेखों को पढ़कर मुझे ऐसा लगता है, उनका लोक समाज क्षेत्र विशेष और वर्ग विशेष तक सीमित है। दर असल आज आवश्यकता संस्कृति के उस लोक पक्ष की पड़ताल भी है। उस पक्ष को उजागर करने की है, जो समाज में विभिन्न समूहों में किसी न किसी रूप में कमोबेश विद्यमान है। समय जिस गति से आगे बढ़ रहा है,  इस वैज्ञानिक युग में दुनिया जिस तेजी से सिकुड़ रही है एक - दुसरे के समीप आ रही है। उसी अनुपात में संस्कृति के स्वरुप में भी परिवर्तित होते चले जाना स्वाभाविक है। कुछ लोग सांस्कृतिक ह्रास की बात करते हैं लेकिन मेरी दृष्टि में संस्कृति हमेशा विकासोन्मुखी रही है, न कि हासोन्मुखी। संस्कृति सतत प्रवाहिनी नदी की तरह है, जो रोड़ों को पार करते आगे बढ़ती चली जाती है, उसका प्रवाह कभी थमता नहीं। आज वैश्विक संस्कृति की बात होने लगी है। विगत सौ वर्षो में ही नाचा का स्वरुप क्या से क्या हो गया। यह बदलते हुए परिवेश एवं तीव्र परिवर्तनशीलता का परिणाम है। आश्चर्य तो तब होता है जब कतिपय प्रगतिशाली विचारधारा के लोग भी सांस्कृतिक रूढ़ता के शिकार प्रतीत होते हैं। पिछले वर्षो छत्तीसगढ़ के एक लोकप्रिय लोकगीत - सास गारी देथे ननद मुंह लेथे का फिल्मांकन एक हिंदी फिल्म में हुआ। इसे नए सिरे से संगीतबद्ध किया। ऑस्कर एवार्ड प्राप्त ए. आर.रहमान ने  इसे मधुर धुन में तो सजाया ही एक ऐसे स्वर का भी इस गाने के लिए चयन किया जिससे नारी की कारुणिक व्यथा को पर्याप्त उभार भी दिया । ए. आर. रहमान द्वारा संगीतबद्ध लोकप्रिय गानो में से यह एक गाना है। इससे देश के विभिन्न क्षेत्रो के लोगों को छत्तीसगढ़ के लोकगीतों की समृद्धि का परिचय अवश्य ही मिला होगा । जबकि परम्परावादी बातचीत के दौरान इसका  उपहास उड़ने से बाज नहीं आते । लोकसंस्कृति का  इसे बाज़ारीकरण भी कहा जाता है। यदि व्यावसायिक सफलता में इस गीत का योगदान रहा हो तो वह एक अलग बात है।
     एक ओर छत्तीसगढ़ी में जहाँ मौलिक लेखन की प्रवृत्ति  का विकास हुआ है, जिसके अंतर्गत विभिन्न विधाओं द्वारा छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध  करने का प्रयास किया जा रहा है तो दूसरी ओर छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति से सम्बंधित परम्पराओं रीति - रिवाजों पारम्परिक वस्त्राभूषणों  का परिचयात्मक संकलन कर उसे सहेज कर रखा जा रहा है। क्योंकि समय की रफ़्तार एवं तेज़ी से बदलते परिवेश,संसाधनो में वृद्धि, शिक्षा के व्यापीकरण आदि के फलस्वरूप सब कुछ नया होते चला जा रहा  है। इस दृष्टि से डॉ. जीवन यदु का प्रयास भी निश्चित रूप से सराहनीय है। डॉ. गोरेलाल चंदेल ने डॉ. जीवन यदु की रचना में भावुकता न आने की बात कही है। वैसे भी प्रगतिशील रचनाकार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त होते ही हैं,ऐतिहासिक चीज़ों का भी पर्याप्त ध्यान रखते हैं। डॉ. जीवन यदु ने डॉ. हनुमंत नायडू की एक पुस्तक से बलदेव प्रसाद मिश्र को उद्धृत किया है ''यह जाति कदाचित इसलिए इतनी समादृत हुई क्योंकि किसी समय सचमुच ही वह बहुदुरी के साथ इस अंचल में राज्य कर रही होगी ''  डॉ. मिश्र तुलसी कृत रामचरितमानस पर डी  लिट् करने वाले प्रथम साहित्यकार थे, किन्तु यह विचार मुझे विचार मात्र लगता है। यह उसी तरह की दूर की कौड़ी है, जिस प्रकार डॉ. मेघनाथ कन्नौजे ने खैरागढ़ विकासखण्ड अंतर्गत आने वाले ग्राम लछना में महाभारतकालीन लक्ष्यागृह का कयास लगा लिया था। डॉ. जीवन यदु पर्याप्त इतिहास बोध रखते हैं, अत: इस वाक्य को उनके द्वारा उद्धृत किया जाना आश्चर्यजनक लगता है ।डॉ. जीवन यदु की दृष्टि में छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति पर इस्लाम धर्म का भी प्रभाव है । इस सन्दर्भ में वे अकबर से सम्बंधित एक लोकरचना का बार - बार उल्लेख करते रहते हैं। मेरी दृष्टि में यह अपवाद ही है ।इसके विपरीत यहाँ की लोकसंस्कृति ने इस क्षेत्र में इस्लाम धर्मावलम्बियों को अवश्य प्रभावित किया है । डॉ. जीवन यदु ने एक उल्‍लेखनीय कार्य किया है। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग द्वारा सन 1997 में प्रकशित पुस्तक '' उत्तर मध्य क्षेत्र की लोकसंस्कृति '' जिसका लेखन श्री जयप्रकाश राय एवं डॉ योगेन्‍द्र प्रताप सिंह ने किया है .में छत्तीसगढ़ी लोकगीत एवं लोकनृत्यों से सम्बंधित भ्रमात्मक विचारों का खंडन करते हुए उन लोकगीतों, नृत्यों के प्रस्तुतिकरण से सम्बंधित विस्तृत एवं सटिक जानकारी दिया है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि विगत बीस वर्षों में अनेक पाठक - पाठिकाओं एवं शोधकर्ताओं ने इस पुस्तक का अध्ययन किया होगा या सन्दर्भ पुस्तक के रूप में इससे उद्धरण लिया होगा। क्या वे डॉ. जीवन यदु के इस पुस्तक को पढ़ पाएंगे। बेहतर यह होगा कि किसी उचित माध्यम द्वारा इस जिम्मेदार मंत्रालय के ध्यान में यह बात लाई जाय, ताकि इन भ्रमात्मक विचारों का इस पुस्तक से विलोपन किया जा सके या दूसरा यह हो सकता है कि डॉ. जीवन यदु की '' माई कोठी के धान'' की प्रतियां सम्बंधित लेखकों के पते पर भिजवा कर अपना भ्रम दूर करने के लिए कहें ताकि उन पुस्तकों के अन्य संस्करणों में एक परिशिष्ट जोड़कर उसका संसोधन प्रस्तुत किया जा सके ।
     डॉ. चंदेल ने अपनी पूर्वपीठिका में जीवन यदु के '' शब्दों की विकास यात्रा '' को समझने का उल्लेख किया है। भाषा एवं शब्द विज्ञानं का अपना एक अद्भुत, रहस्यमय संसार है। एक भाषा दूसरी भाषा से कब कोई शब्द चुरा लेती है और कब अन्य भाषा - सरोवर में अपना शब्द उड़ेल देती है,किसी को कानोकान खबर नहीं लगती। यह लोक का चमत्कार है। एक भाषा दूसरी भाषा से कभी शब्द ज्यों का त्यों ग्रहण करती है तो कभी उसका कायापलट कर देती है। कभी अर्थ को विस्तार देती है तो कभी अर्थ संकुचन कर देती है और कभी अर्थ को पूरी तरह परिवर्तित भी कर देती है। आप कह सकते हैं कि अर्थ का अनर्थ कर देती है व्‍याख्यान हिंदी  में एक भला सा सार्थक,शुद्ध, साहित्यिक शब्द है किन्तु जब छत्तीसगढ़ की कोई महिला आक्रोश में आकर किसी दूसरी महिला को कह रही होती है '' रोगही रांड हा मोला '' बखानत'' हवे  तो वह जाने - अनजाने वहां उस शब्द को व्यंग्यात्मक स्वरुप प्रदान कर देती है,  वहीँ दूसरी ओर इस शब्द को गाली का रूप दे देती है । डॉ. जीवन यदु ने '' बेर्रा '' शब्द का प्रयोग दर्शाया है किन्तु इस शब्द का उपयोग गाली के रूप में भी होता है, इसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। मैं तत्सम एवं तत्भव शब्द में अंतर बताते हुए अक्सर अपने विद्यार्थियों  से पीयूष संस्कृत एवं उस छत्तीसगहरी शब्द का उल्लेख किया करता था। क्या यह लोक द्वारा किया शब्द का अद्भुत एवं अत्यंत सार्थक रूपांतरण नहीं है । आज भी मैं जब अपने पूर्वजों के ग्राम में अपने अनुजो से मिलने जाता हूँ तो अनेक पुराने ग्रामवासी मुझे '' बड़े गौंटिया '' कह कर सम्बोधित करते हैं। वास्तव में यह सम्बोधन अब वंशानुगत ही है।
     वैवाहिक संस्कार सम्बन्धी जहाँ तक बात है,ठिका बिहाव, मंझला बिहाव,बड़े बिहाव जैसे विभाजन तेजी से बदलते हुए परिवेश में अपनी सार्थकता खो चुके हैं। अब सब कुछ गड्डमड्ड होने लगा है। दो अलग - अलग गाँवों में वास करने वाले एक ही समाज के रीति - रिवाज में अंतर आ जाता है। यही कारण है कि अक्सर नेंग - दस्तूर के मामले में अलग - अलग गाँव से सम्बंधित वर - वधु  पक्ष में बहस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तब विवाह संस्कार का संचालन कर रहे वेदाधारित समाज के ब्राह्मण को भी स्थानीय लोकाचार के पक्ष में अपना निर्णय देना पड़ता है। डॉ. जीवन के कथनानुसार वेदाधारित समाज में कन्या पक्ष के लोग वर के घर जाकर विवाह सम्बन्धी बात करते हैं,किन्तु यह अर्धसत्य है। इस बात का प्रमाण यह आलेखक स्वयं है। उसे अपनी चार लड़कियों की शादी के लिए कभी भी वर ढूँढने जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। हर बार वर पक्ष के लोग ही संपर्क करने आये। तात्पर्य यह कि रूढ़ियाँ तेजी से टूट रही हैं। '' सटका '' शब्द के विश्लेषण में डॉ. जीवन यदु ने,  लगता है काफी बुद्धि खर्च कर दी है। उन्ही की बात को यदि मैं थोड़ा आगे बढ़ाऊं तो मेरी राय में सटका का एक अर्थ फंसा होता है।  इस दृष्टि से दो पक्षों को आपस में फंसा देने वाला सटका कहलाता हो तो  कोई आश्चर्य की बात नहीं। '' साठी धान'' वाले विस्तार से सहमत होना कठिन है। डॉ. जीवन यदु ने लगता है चुलमाटी से लेकर बिदाई तक के नेगाचारों का एक वीडियो  केसेट ही तैयार कर दिया है।  मेरे विचार में बारात परघौनी धुरभत्ता मड़वा छुवौनी, लाल भाजी,कुंवर कलेवा, टिकावन भाँवर के अतिरिक्त '' अंचरा पकड़ौनी '' भी एक नेग होता है। डॉ. यदु ने लोक रीति का भी एक विस्तार कर दिया है .ठेठ लोक रीति, सीधी सी बात है, विवाह संस्कार में '' जातौ - जातौ नवाचारा वाली बात ही लागू होती है। लाई -  लावा भी एक नेग हुआ  करता था जो अब अस्तित्वहीन है। चौथिया के सम्बन्ध में भी जानकारी दी जानी चाहिए थी। हाल ही में मैंने दो शब्द पढ़े, मांदी,टिकान।  टिकान टिकावन का ही रूप है और जबकि ''प्रसाद पाओ सबको बंदगी साहेब बंदगी'' की गूंज, मांदी याने सामूहिक भोज शुरू होने के ठीक पहले लड्डू,पापड़ आदि कलेवा पर आचमन के बाद से ही है सबेरा पृष्ठ  5 दिनांक 25 स्वाभाविक है कि यह कबीरपंथ से सम्बंधित है। डॉ. यदु ने छत्तीगढ़ के लोक  समाज पर खास तौर से कबीरपंथ और सतनाम पंथ के प्रभाव का उल्लेख किया है। समूचे छत्तीसगढ़ का तो नहीं कह सकता किन्तु एक विस्तृत क्षेत्र में राधा-स्वामी संप्रदाय के भवन जगह - जगह दिखाई देते हैं। इसमें कोई जाति या धर्म का बंधन नहीं है। सतनाम समाज के लोग भी भारी तादाद में इससे जुड़े हुए हैं।
     डॉ. जीवन यदु के कथनानुसार लोकजन का अर्थतंत्र गोधन के बिना अधूरा है। कमोबेश यह बात संम्पूर्ण भारत वर्ष के लिए भी लागू होती है। ऐसी स्थिति में यदि एक वृहद समुदाय गोवध पर पाबन्दी की बात करता है तो प्रगतिवादियों द्वारा इसका समर्थन क्यों नहीं किया जाना चाहिए। जहाँ तक होली त्यौहार का प्रश्न है हमारे देश में त्यौहार मनाये जाने के पीछे कोई न कोई समाज हित का उद्देश्य छिपा हुआ होता है। डॉ. जीवन यदु ने लिखा है कि एक दिवंगत अतृप्त यौवना की आत्मा को गालियों से तुष्टि मिलती है, यह कहाँ तक सत्य है, लेकिन यह बात मनोवैज्ञानिक यथार्थ के अत्यंत करीब अवश्य है कि गालियां देने से गाली देने वाले की कुंठा का शमन अवश्य होता है। वैसे होली के सम्बन्ध में और भी किवदंतियां है'' कमरछठ '' में '' पोता ''  मारने के पीछे भी कोई न कोई उद्देश्य  निहित होगा  किन्तु  इसका उल्लेख डॉ. जीवन यदु ने नहीं किया।
बतौर उपसंहार एक बात और कि डॉ. जीवन यदु किसी  विचारधारा या तथ्यहीनता का खंडन या विरोध करते हैं तो उनके तेवर में एक आक्रामकता सी आ जाती है,जो उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि किसी का भी लिखा हुआ अंतिम सत्य नहीं होता।

पता
फ़तेह मैदान के सामने, 
नया बस स्टैंड खैरागढ़, 
जिला -  राजनांदगांव  (छत्तीसगढ़ )

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