इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शनिवार, 22 नवंबर 2014

अभी तो सफर जारी है - इरफान

अजय ब्रह्ममात्मज
अजय : अपनी फिल्मी सफर के बारे में बतायेंगे ?
इरफान : सीखते-सीखते यहां तक तो आ गया। मैंने जो प्रोफेशन चुना है,वह मेरे मकसद और लक्ष्य के करीब पहुंचने के लिए है। उसमें मदद मिले तो ठीक है। बाकी शोहरत,पैसा,नाम ़ ़ य़ह सब बायप्रोडक्ट है। यह सब तो मिलना ही था। यह सब भी मिल गया। इनके बारे में सोच कर नहीं चला था। जयपुर से निकलते समय कहां पता था कि कहां पहुंचेंगे ? अभी पहुंचे भी कहां हैं। सफर जारी है। मुझे याद आता है एक बार बेखयाली में मैंने मां से कुछ कह दिया था। थिएटर करता था तो मां ने परेशान होकर डांटा था - यह सब काम आएगा क्या ? मैंने अपनी सादगी में कह दिया था कि आप देखना कि इस काम के जरिए मैं क्या करूंगा ? मेरे मुंह से निकल गया था और वह सन्न होकर मेरी बात सुनती रह गई थीं। उन्हें यकीन नहीं हुआ था। तब यह मेरा इरादा था। पता नहीं था कि कैसे होगा ़ ़ ़क्या होगा ? हर मां तो ऐसे ही परेशान रहती है। उन्हें लगता है कि हम वक्त बर्बाद कर रहे हैं। उन्होंने जो दुनिया नहीं देखी है,उसमें जाने की बात से ही कांप जाती हैं। अपने देश में हर मां-बाप की चिंता रहती है कि बच्चे कैसे और कब कमाने लगेंगे ?  कब अपने पांव पर खड़े हो जाएंगे। यह बच्चों और मां-बाप दोनों के लिए कैद है। वे बच्चों से पहले डरने लगते हैं कि उनका क्या होगा? इस चक्कर में वे बच्चों को एक्सप्लोर करने का मौका नहीं देते। मेरे बेटे ने अभी कहा कि मुझे फिजिक्स के बदले एनवॉयरमेंट साइंस पढ़ना है? मैंने पूछा - क्यों बदलना चाहते हो? आगे जाकर क्या करोगे? उसका जवाब था,मुझे नहीं मालूम। उसने यह भी बताया कि बाकी बच्चों को मालूम है कि उन्हें क्या करना है ? मुझे नहीं मालूम है। मैं उसे यह नहीं कह सकता कि तुम्हें पता होना चाहिए। मुझे नहीं पता था कि थिएटर करने से क्या होगा? उसे नहीं पता कि एनवॉयरमेंट साइंस पढ़ने से क्या होगा ? मुझे तो इतना ही लगता है कि आप जो भी करें , उसे रुचि से करें। बाकी जिंदगी तय करेगी। बिल्कुल नई दुनिया में प्रवेश कर सकेंगे। मेरा अपना शहर ही मेरे लिए छोटा पड़ गया था। हम अपने माहौल से बड़े हो जाते हैं। हमारे सपने शहर में नहीं समा पाते।
अजय : क्या वास्तव में सिनेमा बदल गया है क्या यह काल फिल्मों के लिए संक्रमणकाल है ?
इरफान : अभी सिनेमा बदल गया है। करने लायक कुछ फिल्में मिल जाती हैं। अगर पिछली सदी के अंतिम दशक जैसा ही चलता रहता तो माहौल डरावना हो जाता। हमें कुछ और सोचना पड़ता। सिनेमा संक्रमण के दौर में है। निर्देशकों की नई पौध आ गई है। वे ताजा मनोरंजन ला रहे हैं। दर्शक भी उन्हें स्वीकार कर रहे हैं। उनसे हमारी दुकान चल रही है। अगर यह बदलाव नहीं होता तो हम अभी भी कैरेक्टर एक्टर कर रहे होते। प्रतिदिन के हिसाब से यानी दिहाड़ी पर काम कर रहे होते। ढेर सारे पुराने एक्टर दिहाड़ी पर काम करने लगे थे। कहने लगे थे ़ ़ ़भाई हमें दिन के हिसाब से दे दो। किसी कलाकार के लिए वह डरावनी स्थिति है। हमारी बिरादरी में कुछ लोगों को दिहाड़ी में ही किक मिलता है। मेरे  लिए अगर मैं खुद को एवं दर्शकों को सरप्राइज न करूं तो मजा नहीं आता। हमारा मुख्य उद्देश्य एंटरटेन करना है। उसके साथ आप कितनी चीजें लेयर में डाल दो। विदेशों में देखें क्रिस्टोफर नोलन एंटरटेनिंग फिल्में बनाते हैं,लेकिन उसके अंदर कैसा फलसफा डालते हैं। आप समझ सकते हैं कि दुनिया में क्या हो रहा है ? दुनिया से उस फिल्म का कनेक्शन क्या है ? सारी चीजें मिल रही होती हैं। उस तरह का एंटरटेनमेंट हमारे यहां नहीं है। मुझे उम्मीद है कि हो जाएगा। हम उस दिशा में बढ़ रहे हैं। अभी पूरी दुनिया का समागम तेजी से हो रहा है। लंचबॉक्स तो इसी समागम का उदाहरण है। उसकी लोकप्रियता की एक वजह है कि उसमें इतने देशों के तकनीशियन साथ आए। इतनी प्रतिभाओं ने साथ काम किया। डायरेक्टर रितेश बत्रा का विजन सही तरीके से बाहर आया।
आप देखिएगा, अभी अनेक एक्टर आएंगे। लोग मेरा नाम लेते रहते हैं , लेकिन जल्दी ही तादाद बढ़ेगी। हमारे एक्टर हालीवुड में भी काम करेंगे। मेनस्ट्रीम हालीवुड की फिल्मों में भी हमारी मांग बढ़ेगी। अफसोस है कि हिंदी का कमर्शियल सिनेमा अभी तक इन प्रतिभाओं को जगह नहीं दे पा रहा है। उनका इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है। हिंदी सिनेमा एकपरतीय,लाउड और मेलोड्रामैटिक बना हुआ है। सभी लकीर के फकीर बने हुए हैं। अच्छी बात है कि कम ही सही लेकिन दूसरी तरह का सिनेमा भी बन रहा है। उन्हें दर्शक पसंद कर रहे हैं। वे सफल भी हो रही हैं। हां , अभी वैसी फिल्मों की सफलता का प्रतिशत बहुत कम है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में हम एक्टर कम ही खप पाते हैं। सब कुछ पॉपुलर स्टार पर आश्रित और केंद्रित है।
अजय : अपने केरियर के संबंध में बतायेंगे।
इरफान :मेरे करियर को देखें तो वॉरियर मुझे तोहफे के रूप में मिला था। सालों की तपस्या का फल था। उन दिनों मैं सीरियल कर रहा था। एकरसता से ऊब चुका था। कुछ फिल्में की थीं , लेकिन उनमें नोटिस नहीं हो पाया था। टीवी और फिल्मों को लेकर मेरा असंतोष खौल रहा था। पक रहा था। बेचैनी थी। मुझे लगता है कि कुछ नया होने के पहले की बेचैनी थी। वॉरियर मेरे रास्ते में आ गई। सच कहूं तो वह फिल्म मुझे परोस कर दी गई थी। मैं ऑडिशन के लिए जाने को तैयार नहीं था। तिग्मांशु धूलिया ने फोर्स किया। उसने कहा कि तू जाकर खाली मिल ले। मैं गया। कमरे में घुसा और कुछ हो गया। एहसास हुआ कि यह कुछ स्पेशल है। निर्देशक आसिफ कपाडिया के साथ अपनी पसंद की फिल्मों की बातें चल रही थीं। इस बातचीत में ही तारतम्य बैठ गया। उसने मुझे फिल्म का एक सीन पढने के लिए दिया। वह मुझे झकझोर गया। फिर प्रोड्यूसर से बात हुई। मैंने इतना ही कहा था कि इस फिल्म में कुछ मैजिक है। वह क्यों निकला मेरे मुंह से मुझे पता नहीं। उसके बाद भी कुछ नहीं हुआ। बताया गया था कि फिल्म कान फिल्म समारोह में जाएगी। कुछ अन्य गतिविधियां भी होनी थीं। यह 2001 की बात होगी। उसका कोई ठोस नतीजा नहीं दिखा।
इस बीच हिंदी फिल्मों में मेरी स्थिति कुछ ठीक हो गई थी। हासिल आ गई थी। कुछ और फिल्में मिल गई थीं। फिर मीरा नायर की नेमसेक आई। वह फिल्म मुझे मिली। बिल्कुल अलग किरदार था। मुझे प्रौढ़ बंगाली का किरदार निभाना था। मैंने वह चांस लिया। मुझे पहले अंदाजा नहीं था कि मेरा किरदार प्रधान हो जाएगा। मुझे लगता था कि वह काल पेन की फिल्म है। उन्होंने गोगोल का किरदार निभाया था। मीरा ने कुछ इस तरीके से एडिट किया कि मैं मेन लीड हो गया। नेमसेक फेस्टिवल में घूम रही थी। तब्बू फिल्म के साथ जा रही थीं। मुझे नहीं बुलाया जाता था। मैंने खीझ कर मीरा को एक पत्र भी लिखा कि मुझे पता ही नहीं चल रहा कि मैं क्या कर रहा हूं ? उन्हीं दिन न्यूयॉर्क में एक शो हुआ। आदित्य भट्टाचार्य ने वहां फिल्म देखी। मैंने उन्हें फोन करके पूछा कि क्या लग रहा है ? आदित्य ने बताया कि फिल्म खत्म होने पर एक ही कैरेक्टर याद रह जाता है और वह तुम्हारा कैरेक्टर है। मैंने कहा कि यह तो मैजिक हो गया। फिर उसके बाद कुछ अवार्ड भी मिले। इस फिल्म के बाद फिर से सब कुछ ठहर गया।
मीरा नायर की जब फिल्म मिली थी, उसके ठीक पहले मैंने नेमसेक किताब पढ़कर खत्म की थी। मुझे लगा कि कुछ दैवीय हस्तक्षेप हो रहा है। अभी मैंने किताब खत्म की और अभी मुझे यह रोल मिल रहा है। किताब में तो मेरा किरदार पृष्ठभूमि में ही रहता है। जिंदगी बार - बार उसका इम्तिहान ले रही है। शुरू में मीरा ने मुझसे तीन महीने का समय ले लिया था। तब कोंकणा सेन शर्मा फिल्म में थीं। फिर पता चला कि तब्बू कर रही हैं। बीच में उन्होंने अभिषेक बच्चन को भी लाने की कोशिश की। शूटिंग टलती रही और मेरा समय बर्बाद होता रहा। छह महीने के  इंतजार के बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। तब मुझे कुल 15 लाख रुपए मिले थे। मैंने तय कर लिया था कि नेमसेक करनी है। मैं टिका रहा। मैं कुछ मांग कर नहीं सकता था। उसके पहले मैंने कभी अमेरिका की यात्रा नहीं की थी। उसके पहले माइटी हार्ट आ गई थी। उसके सिलसिले में मैं कान फिल्म समारोह गया था। मैंने अपनी मैनेजर पर दवाब डाला था कि तुम मेरे लिए हॉलीवुड के निर्माताओं से बात करो। उसने मुझे समझाया कि हॉलीवुड के निर्माता तभी तुम्हें अपनी फिल्मों में लेंगे, जब तुमसे उन्हें तुरंत लाभ हो। समझ लो कि वे तुम में निवेश नहीं करेंगे। मेरी निराशा बढ़ती जा रही थी। मेरे साथ एक अच्छी बात रही है कि जब भी निराश और हताश हुआ हूं तो कोई नई राह निकल पड़ती है। जिस चीज के लिए परेशान रहता हूं, वह तो नहीं मिलती, कोई और चीज मिल जाती है। मेरी लाइफ में यह पैटर्न बन गया है। मुझे लगता है कि हर आदमी अपनी जिंदगी के कचरे को हटाकर देखे तो उसे एक पैटर्न दिखाई पड़ेगा। मैंने देखा है कि जब भी मैं कोई दावा करता हूं तो वह पूरा नहीं होता। यहां तक कि बच्चों के साथ खेलते समय भी हार जाता हूं।
वॉरियर जब कान फिल्म समारोह में नहीं ली गई तो बहुत झटका लगा। मैंने तो पूरा प्लान बना लिया था। पता चला कि फिल्म ही नहीं चुनी गई। फिर मैंने खुद को समझाया कि मेरे लिए कोई प्लान काम नहीं करता। समय की धारा में मैं चलता रहूं तो राहें मिलती रहती हैं। मैं सिर्फ काम करता रहूं। कोई भी प्लानिंग न करूं तो सब कुछ मिलता चला जाता है। बीच में स्लमडॉग मिलियनयेर और स्पाइडरमैन जैसी फिल्में जरूर आईं, लेकिन असल प्रभाव तो लंचबॉक्स का रहा। इसके प्रभाव के दो पहलू हैं- एक तो यह फिल्म पूरी दुनिया में चली है। अभी तक किसी भारतीय फिल्म ने विदेशों के स्थानीय दर्शकों को आकर्षित नहीं किया है। लंचबॉक्स जहां भी गई, वहां के दर्शकों ने इसे पसंद किया। पहली बार किसी भारतीय फिल्म ने इंटरनेशनल पहचान बनाई हंै। यह बड़ी बात हुई है। फिल्म की कमाई भी हुई है।
 इस बीच  एक अमेरिकी टीवी शो इन ट्रीटमेंट किया था। उस टीवी शो में मेरी भयंकर तारीफ हुई। यूं लगा, लोग तारीफ में कविताएं लिख रहे हैं। कसीदे पढ़े गए। वह रोल मेरे लिए बहुत चैलेंजिंग था। मेरी जिंदगी के अनुभव कम पड़ गए थे। उस किरदार के दर्द को जीने में मजा आया। शूटिंग के आनंद के बावजूद मैं दर्द के उस अनुभव से निकलना चाहता था। हिंदी फिल्मों में याद करने की आदत खत्म हो जाती है। वहां पूरे - पूरे एपिसोड याद करने पड़ते थे। टीवी शो में रीटेक नहीं होता। अगर रीटेक हो गया तो यों समझें कि 15 पेज फिर से बोलना होगा। तीन तरफ से कैमरे लगे रहते थे। ऑनलाइन एडिटिंग होती रहती थी। उस शो को देखने के बाद परितृप्ति हुई। इन ट्रीटमेंट के बाद स्पाइडर मैन आई। उस फिल्म में ऐसा कुछ खास नहीं था। शुरू में हॉलीवुड की फिल्म करते समय अंग्रेजी से लड़ता था। उसे साध नहीं पाता था। हिंदी फिल्मों के हीरो जैसे हिंदी नहीं साध पाते, वैसे ही मैं हॉलीवुड की फिल्म में भाषा साध नहीं पा रहा था। किसी भी फिल्म में जब आप संवाद बोलते हैं तो उस भाषा का रस दर्शकों तक जाना चाहिए। फिल्में करते - करते इसे मैंने सीखा और साधा। अभी एक जापानी टीवी शो कर रहा हूं। यह पर्ल हार्बर पर हुए आक्रमण से संबंधित है। तब जापान पर मुकदमा चला था। केवल एक भारतीय जज ने पाकिस्तान के पक्ष में वोट डाला था। उसी जज की भूमिका मिली है। अगर तारीखें वगैरह मैच कर गईं तो वह शो करूंगा। बाकी कुछ फिल्में भी मिली हैं, जिनकी स्क्रिप्ट पढ़ रहा हूं।
कुछ महीने पहले जुरासिक पार्क की शूटिंग करके लौटा हूं। मुझे पता चला कि स्टीवन स्पीलबर्ग मेरे साथ काम करना चाहते हैं। महीने, दो महीने के बाद पता चला कि वे खुद इस फिल्म को डायरेक्ट नहीं कर रहे हैं। वे निर्माता बन गए। स्पीलबर्ग ने नए डायरेक्टर के ऊपर छोड़ दिया कि वह चाहे तो मुझे ले या हटा दे। बहुत मजा आया, क्योंकि बहुत ही मजेदार और खिलंदड़ा किरदार है मेरा। पहली बार ऐसी यूनिट दिखाई पड़ी, जहां दो - ढाई महीने साथ काम करने के बाद भी एक - दूसरे को देखकर खुश होती थी। दोस्ताना माहौल था। यहां पर अनुराग कश्यप और निशिकांत कामत के सेट पर ऐसा माहौल रहता है। अब देखें फिल्म पूरी होने के बाद मेरा रोल कितना रह जाता है। जुरासिक पार्क में मैं पार्क ओनर का रोल कर रहा हूं। मेरा किरदार थोड़ा दिखावटी और शो-ऑफ करने वाला है। हमेशा जोश में रहता है। मिशनरी है। कुछ करना चाहता है, लेकिन उसकी सोच में गहराई नहीं है।
अजय : आप आर्ट फिल्म करना चाहते हैं या कामर्शियल ?
इरफान : यहां की बात करूं तो 2014 का पूरा साल स्पेशल एपीयरेंस में ही चला गया। पहले गुंडे किया और फिर हैदर। अभी पीकू कर रहा हूं। मुझे यह पता है कि दर्शक मुझे पसंद कर रहे हैं। वे मुझ से उम्मीद कर रहे हैं। मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि वे निराश न हों। मैं कुछ सस्पेंस लेकर आ सकूं। आर्ट  फिल्म करने में मेरा यकीन नहीं है,जिसमें डायरेक्टर की तीव्र संलग्नता रहती है। ऐसी फिल्में आत्ममुग्धता की शिकार हो जाती हैं। आर्ट हो है , पर वैसी फिल्म कोई करे जिसमें कुछ नया हो। ना ही मैं घोर कमर्शियल फिल्म करना चाहता हूं। फिर भी सिनेमा के बदलते स्वरूप में अपनी तरफ से कुछ योगदान करता रहूंगा। पीकू के बाद तिग्मांशु के साथ एक फिल्म करूंगा। और भी कहानियां सुन रहा हूं। सुजॉय घोष के साथ कुछ करना है। संजय गुप्ता के साथ भी बात चल रही है। वह ऐश्वर्या के साथ है। अभी उस पर काम चल रहा है। मैंने हां कह दिया है, लेकिन अभी देखें कहानी क्या रूप लेती है? निश्चित होने के बाद बात करने में मजा आता है। अभी लगता है कि फिल्म का प्री - प्रोडक्शन ठोस होना चाहिए। हिंदी फिल्मों में दर्शक मुझसे कुछ अतिरिक्त चाहते हैं। मैं चालू किस्म की फिल्में नहीं कर सकता। मुझे अपने रोल में कुछ अतिरिक्त दिखना चाहिए। हां, अगर डायरेक्टर पर भरोसा हो तो हां कर सकता हूं। वेलकम टु कराची का अनुभव के बाद ज्यादा सावधान हो गया हूं। मूल फिल्म किसी और दिशा में घूम गई थी। चीजें बदलती हैं तो समझ में आ जाती हैं। वेलकम टु कराची में क्लब सौंग डाल दिया था। क्लब सौंग तो अक्षय कुमार गा सकते हैं, उसमें मैं क्या करूंगा ? जो मेरा पिच नहीं है, वहां क्यों खेलने के लिए भेज रहे हो ? कमर्शियल फिल्मों में मैं आप को मजा दे सकता हूं, लेकिन मुझे अपना मैदान तो दो। मेरा मैदान, मेरा बल्ला दो, देखो मैं छक्का मारता हूं।
अजय :
एक कलाकार के लिए पैसे अहमियत रखता है या कला ?
इरफान :
विज्ञापनों में मेरी अलग पहचान बनी है। उसके लिए मैंने काफी लंबा इंतजार किया। वोडाफोन करने के बाद मेरे पास सारे ऐड एक ही प्रकार के आ रहे थे। सब उसी के एक्सटेंशन थे। एक-दो करने के बाद लगा कि ये तो निचोड़ लेंगे। फिर मैंने मना कर दिया। पैसो से ही संतोष नहीं होता। काम से भी संतोष होना चाहिए। मैंने उन लोगों को समझाया कि आप मुझे दोहराएंगे तो आप के प्रोडक्ट को कौन नोटिस करेगा? सीएट के साथ मेरी छह महीने तक बैठकें होती रहीं। मैंने उनसे कहा कि ऐड में कैरेक्टर डालो। ऐड में इतना जरूर ख्याल रखता हूं कि तंबाकू और नशे वगैरह के ऐड न करूं।
मैं अपनी जिंदगी में हर प्रकार के काम से जल्दी ऊब जाता हूं। अगर ऊब गया तो पागल हो जाऊंगा। इस लाइन में इसलिए आया कि अलग - अलग काम करता रहूंगा। मुझे किसी भी फिल्म या रिश्ते में संलग्न होने में वक्त लगता है। मैंने महसूस किया है कि सारे रिश्ते एक समय के बाद आप को तन्हा छोड़ देते हैं। कितना भी नजदीकी रिश्ता हो, उसमें घूम फिरकर आप अकेले हो जाते हो। अगर लिया गया काम मुझे व्यस्त रखे। इंटरेस्ट बना रहे। तब तो मैं लगा रहूंगा। नहीं तो कुछ और कर लूंगा। मैं अपनी तनहाई से घबरा जाता हूं। पैसों से भी ऊब जाता हूं। मेरे बच्चे मुझे डांटते रहते हैं कि गाड़ी बदल लो। मुझे लगता है कि महंगी गाड़ी लेकर पैसे क्यों बर्बाद करूं ? उन पैसों से अपने भाइयों की मदद कर सकता हूं। मुझे नई कार चाहिए, लेकिन उस कार के लिए कोई फिल्म नहीं कर लूंगा। उस लालसा से मैं निकल गया हूं। कभी था मैं उसमें। प्रलोभन मुझे डिगा नहीं सकते। मोटी रकम के ऑफर ठुकराने में मुझे वक्त नहीं लगता। दरअसल मैं तनाव में नहीं रहना चाहता। ऐसी फिल्में खोने से कुछ पाने का एहसास होता है।
नए एक्टर मेरी तरह बनना चाहते हैं। मुझे लगता है अपने काम और व्यवहार से मैं कोई सिग्नल दे रहा हूं। जिस नए एक्टर का एंटेना चालू होगा, वह मुझ से ग्रहण कर लेगा और फिर मुझ से आगे निकल जाएगा। मैंने खुद ऐसे ही दूसरों के सिग्नल पकड़े थे। चलते - चलते यहां तक आ गया। मेरे लिए एक्टिंग सिर्फ पैसा कमाने और सुरक्षा का साधन नहीं है। पैसे और सुरक्षा तो हैं, लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा, वह हमारे काम का बाय प्रॉडक्ट है। अभी कुछ दिनों पहले किसी ने कहा कि आप की पान सिंह तोमर देखने के बाद मुझे जीने का मकसद मिल गया। उसने हाथ भी नहीं मिलाया। कहा और निकल गया। मुझे लगा इससे ज्यादा पवित्र तारीफ नहीं हो सकती। अपने जीवन के लिए इसे महत्वपूर्ण मानता हूं। आप गौर करेंगे कि अपनी फिल्मों से मैं खुद के लिए जाल नहीं बुन रहा हूं। अपने काम से मुझे आजादी मिलती है। मैं यहां फिल्म करता हूं। किसी और देश के किसी शहर में कोई हिल जाता है। वह मेरे किरदार से कुछ सीख लेता है। उस सीख को मैं वैल्यू देता हूं। वह अनमोल है।
अजय : आपके व्यक्तित्व में किसका योगदान मानेंगे ?
इरफान : मेरे व्यक्तित्व में सबसे बड़ा योगदान एनएसडी का है। मैं अपने आप भी एक्टर बन सकता था। मेरे अंदर वह चीज थी, लेकिन फिर 15 साल लगते। मालूम नहीं तब कहां होता ?  क्या करता फिरता? जयपुर में मैं जमरू नाटक कर रहा था। मेरे साथ और भी लोग थे। मालूम नहीं वह कर के मैं कहां पहुंचता ? आप को बताऊं कि मैं जयपुर में फट रहा था। समझ में आ गया था आगे बढ़ना है तो कुछ सीखना पड़ेगा। एनएसडी ने सब कुछ घोल कर पिला दिया। तीन साल खत्म होने के बाद मुझे लगा कि एनएसडी भी कम पड़ गया। खुद से मैंने सवाल पूछा कि क्या यही स्टैंडर्ड हम आगे बढ़ाएंगे ? एनएसडी से निकलने के बाद तक मुझे पता नहीं था कि किसी इमोशन में कैसे प्रवेश करते हैं ? मुझे यह तो बताया गया कि अगर किसी कैरेक्टर में गिल्टी फील करना है तो आप स्टेज पर गिल्टी फील करो। मुझे यह नहीं बताया गया कि मैं गिल्टी कैसे फील करूं। वे संप्रेषण बता रहे थे। एहसास नहीं बता पा रहे थे। बमुश्किल एक या दो क्लास नसीर साहब के मिल पाए थे। वहां से निकला तो गोविंद निहलानी के साथ जजीरें जैसी फिल्म की। सभी तारीफ करते थे, लेकिन मैं खुद से नफरत करता था। जजीरें फिल्म की शूटिंग का आखिरी संवाद बोलते समय मुझे अपना किरदार समझ में आया। तब तक तो फिल्म बन चुकी थी। अब वह झुंझलाहट मैं किसे बताता ? मेरे लिए अभिनय अपने काम में जिंदा होना है। जिंदा होने का अपना एक्साइटमेंट होता है। कमर्शियल फिल्मों में अगर मुझे वह मिलने लगे तो वह भी करूंगा। सिर्फ पैसे कमाकर क्या करूंगा ?
अजय : आपका सोशल सर्कल है या नहीं ?
इरफान : मेरा सोशल सर्कल नहीं है। कुछ लोग मुझे अहंकारी समझते हैं। मैं इसकी परवाह नहीं करता। किसी कमरे में आप केवल चुपचाप बैठ जाएं तो देख लें बाकी नौ आप के बारे में क्या - क्या बातें करने लगते हैं। सभी के अपने निर्णय और दृष्टिकोण होंगे। किसी को लगेगा कि यह मारने वाला है। कोई कहेगा अहंकारी है। किसी को मैं प्यारा लगूंगा। तीसरा या चौथा कहेगा कि कोई स्कीम कर रहा है। नौ लोग होंगे तो नब्बे कहानियां बनेंगी। मुझे इस पचड़े में रहना ही नहीं है। अगर मुझे चुप रहना अच्छा लग रहा है तो मैं चुप रहूंगा। कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।
पिछले दिनों एक नया एक्टर मिला। वह मेरे पास आया और मुझसे चिपक कर रोने लगा। मैं हतप्रभ। समझ में नहीं आया। फिर मुझे अपना वाकया याद आया। एनएसडी में मेरा एडमिशन हो गया था। संध्याछाया नाटक मैं देखने गया था। सुरेखा सीकरी और मनोहर सिंह उसमें अभिनय कर रहे थे। सुरेखा ने मुझे इतना अभिभूत किया कि नाटक खत्म होने के बाद मैं ग्रीन रूम में चला गया। मैंने उनके पांव पकड़े और रोने लगा। कोई इतना अच्छा अभिनय कैसे कर सकता है ? मुझे अपना वह इमोशन याद आया। एक सुकून सा मिलता है कि आप किसी को इंस्पायर कर रहे हैं। आप के एक्ट से कुछ हो जा रहा है। अब ऐसा न हो कि आप कुछ होने के लिए आप एक्ट करने लगे। सब कुछ नैसर्गिक होना चाहिए। हम सब की लाइफ इतनी शर्तों में बंधी रहती है कि हम लगातार प्रलोभन में फंसते रहते हैं। कुछ पाने के चक्कर में सब कुछ खोते रहते हैं। कुछ हासिल करना चिपचिपा है। उसमें फिसलन है। दुनिया चाहती है कि आप उसी में अटके रहें। मुझे लगता है कि मेरे अंदर के इन एहसासों की वजह से ही मुझे अलग ऑफर मिलते हैं। किसी ने कहा है कि आप जो चाहते हैं, वही होता है। हमारे फैसले ही हमारा भविष्य बनाते हैं। सारी चीजें आंतरिक रूप से इस तरह जुड़ी हुई हैं कि चार साल या चालीस साल पहले लिए फैसले का नतीजा अभी सामने आए।
अजय : आपकी कौन सी फिल्म आने वाली है?
इरफान : प्रोडक्शन में अभी हमने मदारी फिल्म पूरी कर ली है। उसके निर्माता शैलेष सिंह हैं। उसके निर्माताओं में सुतपा, शैलेष और शैलेष की पत्नी हैं। तीसरी फिल्म भी तैयारी में है , जिसमें मीरा नायर का नेफ्यू काम कर रहा है। उसमें मैं नहीं हूं। हिंदी फिल्मों की जमीन अभी बहुत ऊपजाऊ हो गई है। आप किसी भी कहानी का पुष्ट बीज डालें तो अच्छी फसल मिलेगी। देखना यह है कि फिल्म नियंत्रित बजट में बने और मुनाफा कमाए। लंचबॉक्स ने अगर ज्यादा बिजनेस कर लिया है तो इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि मैं मोटी रकम मांगने लगूं। निर्माता फायदे में रहें।

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