इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शनिवार, 29 नवंबर 2014

नारी लेखन : कहने की जरूरत

प्रो. थानसिंह वर्मा 

हिन्दी साहित्य में महिला लेखन का सवाल दलित साहित्य या दलित विमर्श की तरह आज चर्चा में है। एक पक्ष यह मानता है कि साहित्य में महिला - पुरुष जैसा विभाजन संभव नहीं है। साहित्य आखिर साहित्य होता है। उसका संबंध उसके संवेदन अनुभव से है। दूसरा पक्ष यह मानता है कि स्त्री ही स्त्री के अनुभवों को ठीक - ठीक व्यक्त कर सकती है। ऐसा मानने वाले महिला लेखकों की एक लम्बी फेहरिस्त प्रस्तुत करते हैं। वे उनके लेखन के मूल्यांकन के लिए एक अलग तरह की संवेदना की माँग करते हैं।
जब बात निकली है तो स्वाभाविक है कि लेखकों का ध्यान उस ओर जाये। इस बहस - मुबाहिसे में लेखिकाएं आगे हैं। ज्यादातर अपनी रचनाओं के मूल्यांकन के इस आधार को लेकर कि उन्हें महिला होने के कारण कव्हरेज मिल रहा है या महिला होने के कारण पाठकों के बीच लोकप्रियता प्राप्त हो रही है। या निरस्त किया जा रहा है तो महिला होने के कारण। महिला लेखकों में यह धारणा बनी हुई है। लेकिन स्थापित लेखक इसे एक सिरे से खारिज करती हैं। उनका यह मानना है कि साहित्य में महिला - पुरुष जैसा विभाजन उचित नहीं है। जब लेखक कलम उठाकर अपने लिखने का धर्म निभाता है तब वह केवल लेखक ही होता है। स्त्री - पुरुष के शरीर से परे, धर्म, समाज और परिवार से ऊपर उठ जाता है। [1] लेखन लेखन होता है, नर या मादा के खानों में बाँटकर देखने वाली दृष्टि पूर्वाग्रह ग्रस्त है। लेखन जिस तरह पुरुष लेखक की अनुभूति है और चेतना की अभिव्यक्ति है, स्त्री लेखक द्वारा लिखा गया लेखन [भी] उसके विशिष्ट अनुभवों और आत्म चेतना की अभिव्यक्ति है [2]
दरअसल ऐसे विभाजक रेखा खींचने का कार्य शोध कार्य के तहत किया जा रहा है। जिसके संदर्भ में मृदुला गर्ग का कहना है - हमें शोध से एतराज नहीं होना चाहिए, जो लेखन विशेष में नारी वादी दर्शन के विभिन्न बिन्दुओं की तहकीकात करें [3]
लेखन के क्षेत्र मे नारीवादी दृष्टि महिला लेखकों की ही है। हिन्दी साहित्य में पचास के पहले तक जो कुछ लिखा गया, उसमें नारी का सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं होता। नारी का शोषण, उत्पीड़न, नारी की आशा - आकांक्षा अपनी सम्पूणर््ाता में व्यक्त नहीं होती। इसलिए उसे निकट से देखने - समझने वाली लेखिकाएं ही इसे व्यक्त कर सकती हैं। वे यह मानती हैं कि स्त्री अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त नहीं होती, यहीं से उसकी परतंत्रता का आरंभ होता है। इसे पोषित करने वाले कई घटक हमारे समाज में हैं। परिवार, शैक्षिक संस्थाएं और मीडिया तथा अन्य संचार माध्यम आदि स्त्री संबंधी अपनी पारम्परिक मान्यता को ही बढ़ावा देते रहते हैं, तमाम प्रकार की प्रगतिशील दृष्टियों के बावजूद ये स्त्री को परोक्षत: कटघरे में ले आना चाहते हैं जिसे तोड़ना आसान नहीं है। लेखन - जहाँ तक जीवंत और सक्रिय रहती है वहाँ उसको सामयीकृत या सरलीकृत किया जाता है। [4] इसलिए नारी के शोषण, उसकी विवशता, पुरुष प्रधान समाज में उसकी स्थिति को व्यक्त करने के लिए अलग तरह के लेखन की माँग की जाने लगी है। पर इसमें भी उसकी कामकाजी, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक प्राणी के रुप में उसकी छवि कम अंकित हुई। स्त्री के सेक्सुअल शोषण का चित्रण अधिक हुआ, उसके आत्मबोध चिंतन व सामाजिक उपस्थिति का कम।
सत्तर के दशक से इस स्थिति में बदलाव आना शुरु हुआ। महिला लेखकों ने अपने उस छवि को तोड़कर समाज के मूल प्रश्रों से सामना करना शुरु किया। उनके लेखन में विविधता आना शुरु हुआ। जिसे महिला लेखन कहकर एक खांचे में कैद नहीं किया जा सकता। नासिरा शर्मा का सत घरवा जो साम्प्रदायिकता के घेरे को तोड़कर विशुद्ध मानवीय संबंधों पर केन्द्रित है। माँ के प्यार से हिलगा अब्दुल को अपराधी समझ कर गिरफ्तार कर लिया जाता है, बहु जी के कहने पर। इन्हें कौन समझाये कि इन बंगलों में भी अपराधी रहते हैं। [5] अब्दुल को कैफियत देने पर छोड़ तो दिया गया पर माँ से नहीं मिल पाने का दुख था - वह अपना घर जाना चाहता था पर अब कोई बस न थी, न ट्रेन का समय था और कल माँ का तीजा था। [6] अब्दुल पुन: उसी घर लौट जाता है।
चित्रा मुद्गल की कहानी है लपटें। इस कहानी में उन्होंने क्षेत्रीय अस्मिता को उभार कर किस तरह साम्प्रदायिकता की भावना पैदा की जाती है उसका उदाहरण प्रस्तुत किया है। आपला मानुष, आमची मुंबई, आमची लोक सेना के नाम से जन भावना को क्षेत्रियता को उभार कर बरसों से रचे - बसे लोगों को बाहर कर देने या अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है। जब - तब भय दोहन किया जाता है। असुरक्षित प्रवासी कहीं प्रतिरक्षा में साम्प्रदायिक हो जाते हैं या भय वश उन्हीं की शरण में जाने के लिए विवश हो जाते हैं - इन्हीं के बीच रह कर जीना - मरना हुआ तो ब्याज दण्ड, हंसी - खुशी स्वीकार कर लेने में कैसी हिल - हुज्जत। [7]
चित्रा मुद्गल की कहानी बलि में सामंती शक्तियों की समाज में उपस्थिति, अंधविश्वास तथा उनके शोषण के क्रूरतम स्वरूप का चित्रण किया गया है। अपनी मंगली बेटी के विवाह के लिए गुइंयादीन जैसे गरीब के बेटे की बलि दे दी जाती है। ठाकुर बलभद्र सिंह को अपनी पुत्री सोबरन सिंह जैसे नामी जमीदार के घर व्याहना था - पंडित विन्ध्येश्वरी शुक्ल लड़की को मंगली बताते हैं। इस संबंध को अशुभ, अमंगल बताते हैं। पर बहुत आग्रह करने पर उसकी काट भी बताते हैं कि पहले किसी किशोर से उसकी शादी कर दी जाय तो यह ग्रहदशा टल सकती है। ठाकुर बलभद्र सिंह को युक्ति सूझ जाती है। वह गुइंयादीन को बुलाकर उनसे करूआ को मांगते हैं। बदले में अपने साग - सब्जी की फुलवारी उसके नाम कर देने की बात कहते हैं - विनोबा महराज स्वर्ग सिधार गए गुंइंयादीन मगर हम उनके भूदान यज्ञ के कट्टर अनुयायी ठहरे, देर से ही सही, हमने निश्चय किया कि बलुआ काछी पर बटाई में उठी साग - सब्जी की फुलवारी का पट्टा ... हम तुम्हारे नाम कर देंगे। [8] और दूसरे दिन पता चला गंगा पार करते समय भैंसी के पीठ में चढ़ि के बैठा करूआ संभले - न - संभले रपट के धार में बह गया। [9]
जया जादवानी की कहानी शाम की धूप में देश के विभाजन से प्रभावित विस्थापित एक सिन्धी परिवार की कहानी है। अपने वतन को त्यागकर, सब छोड़कर जान बचाकर आने वाले इन लोगों में गजब की जिजीविषा है। वे कभी जीवन संघर्ष में हार नहीं मानते। जहां भी बसे वहीं अपनी मेहनत, लगन से उठ खड़े हुए। पर पराजित हुए तो अपनों से। लाखों की प्रापर्टी बनाने वाला सेठ दो जून की रोटी के लए तरसता है। अपनी पत्नी से कहता है - क्या तुम सोच सकती हो, जिस आदमी ने लाखों की प्रापर्टी बनाई, वह दो जून के लिए महंगा है। जिन्हें मैं हर पीर - फकीर से झोली फैलाकर माँगा, इनके साथ भी यही होगा। [10] कारखाने का मालिक बुढ़ापे में सायकल सुधारने वाले हम उम्र राजू से कहता है - राजू मुझे कोई काम मिल सकता है ?[11] उसे लगता है सुबह जो भुलावा देती है, शाम उसे आहिस्ता से वापस ले लेती है। [12]
नासिरा शर्मा की कहानी वही पुराना झूठ फर्ज अदा करने के नाम पर लड़कियों को जिस - तिस के पल्ले बांध देने के खिलाफ है। $गफूर की माँ कहती है - हमने गाँठ बांध ली कि आँख मंूद करके लड़कियाँ ब्याहने वालों की हमें तरफदारी नहीं करनी है। अगर शादी बेहतर जगह नहीं होती है तो न हो, कम से कम एक बार मिली जिंदगी को वह जी तो सकती है। [13] उसके पुत्र $गफूर ने यह कसम खाई थी कि वह हर मुसीबतज़दा औरत की मदद करेगा।
अपने कर्तव्य से मुक्त होने के लिए रज्जो बी जाहिदा का हाथ जिस किसी से पीले कर देना चाहती है। वह मालदार बूढ़े अंधे से उसे बांध देना चाहती है पर जाहिदा हाथ छुड़ाकर कलकत्ते की भीड़ में खो जाती है। रज्जो बी अपने मुहल्ले के लोगों को बताने के लिए झूठ का सहारा लेती है। वह सपने में देखती है कि जाहिदा सरौता चलाती उन लड़कियों के बीच पहुंच गई है जिन्हें गफूर ने संरक्षण दिया है और स्वयं को तसल्ली देती है।
महिला कथाकारों की कहानियों में जहाँ एक ओर मध्यम वर्गीय समाज में शिक्षित, नौकरी पेशा स्त्रियों के अधिकारों के प्रति सजगता आई है तो अपने आस - पास गुजर करने वाली महरियों, चौका बासन या मजदूरी करने वाली महिलाओं तथा बच्चों के प्रति भी असीम करूणा दिखाई देती है। शुभदा मिश्रा की कहानी या जसुमति को दुख, मंजुल भगत की काली लड़की का करतब इसी तरह की कहानी है। जहां भूख, गरीबी सामान्य जन की संवेदना को खत्म कर देती है। जीने के लिए अपने बेटे - बेटियों को या तो गिरवी रख देना पड़ता है या उनका सहारा लेना पड़ता है।
काली लड़की का करतब में लेखिका ने लिखा है - संसार और समाज में पहला कदम धरने से पहले औरत को उसके औरत होने का एहसास करा दिया जाता है। [14] भूख से तड़पती लड़की माता - पिता का पेट भरने करतब दिखाते पट्ट हो जाती है।
महारानी एक बार किसना के हवस का शिकार हो गई है। अबोध महारानी अपने पिता से भी डरती है। करतब करते लड़की को भूख से मरते देख वह सीख लेती है। अपने बापू से कहती है - बापू, मैं साया सुथनी पहनूंगी। मैं सामने वाली बीबी के घर झाड़ू पोंछा करूंगी। [15] भुंईयां को लगा वह निपट अकेला नहीं है।
लवलीन की कहानी बहुस्याम तथा लता शर्मा की मर्दाना कमजोरी पहली नजर में स्त्रीवादी कहानी लगती है। पर ये दोनों कहानियाँ - गंभीर यथार्थवादी तथा समाजशास्त्रीय आलोचकीय दृष्टि की मांग करती है। जब वह कहती है - तुषार जी, यह स्त्रियों की सहज आकांक्षाएं हैं जो सिर्फ हमारे औरत होने के कारण, सामाजिक स्थितियों की जड़ता के कारण भूलभूत मानवीय सदिच्छा न होकर अश्लील लालसायें बता दी जाती है। औरतों के लिए सेक्स फार द सेक ऑफ सेक्स कभी नहीं होता। [16] नवलीन पुरुष प्रधान, समाज के उत्पीड़न से बचने के लिए सिस्टरहुड एकजुटता का आव्हान करती है। वे नई पीढ़ी में एक ओर परपीड़क समाज के बहिष्कार की बात करती है तो दूसरी ओर नई पीढ़ी में आत्म विश्वास भर देना चाहती है। उनका मानना है कि पीड़ित को ही उठ कर खड़ा होना होगा। वह पुरूष विरोधी नहीं है। वे कहती हंै - हमें समान समझ वाले स्त्री - पुरूषों से मित्रता कर अपने - अपने लिए निजी समाज बनाना चाहिए जो इस उत्पीड़क बाहरी समाज का विकल्प बन सके। [17]
लता शर्मा की कहानी मर्दाना कमजोरी, सचमुच मर्दाना कमजोरी को व्यक्त करती है। छै चित्रकारों के चित्रों के माध्यम से अपने शोधार्थी पुरूष मित्रों व गुरुता  के गंभीर गर्त में डूबे निर्देशक की नियत को व्यक्त करती है। यह कहानी एक बड़े सच को उकेरती है। जहाँ एक स्त्री को उनके सहकर्मी उठते - बैठते उनके स्त्री होने का अहसास कराते हैं। लेकिन एक स्त्री जब मर्दाना कमजोरी बन जाती है तो वह उन सभी को ध्वस्त करती है। मुस्कुराती मोनालिसा का राज यही है। विकृति या दुर्बलता, जो कुछ भी है,कानों के बीच में है। टांगों के बीच नहीं। उसी तथ्य को रेखांकित करती है मोनालिसा। [18]
इस तरह हिन्दी में महिला लेखिकाओं द्वारा लिखित अनेक कहानियाँ है, जिसे महज महिला लेखन कहकर टाले नहीं जा सकते हैं। महिला लेखिकाओं में विचारधारात्मक प्रतिबद्धता की कमी जरुर दिखाई देती है। नमिता सिंह, कात्यायनी, नासिरा शर्मा जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दे तो यह स्थिति वर्तमान है। फिर भी इन कहानियों में समय की सच्चाईयां तो है, जो अपने अनुभव की आँच से हर पाठक को तपायेगी व पाठक की दृष्टि को यथार्थ की खुरदरी जमीन तक ले जाने में समर्थ होगी। अब इसे महिला पुरुष के अलग - अलग खाँचे में डालकर देखने की आवश्यकता नहीं है।
जो रचना अपने समय के सच को अपनी सम्पूर्णता में व्यक्त करती है उसे स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए।
संदर्भ ग्रंथ
[1]इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - 96 पृ. 26
[2] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - 96 पृ. 21
[3]इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 -  96 पृ. 25
[4]शिखा बेहरा - समकालीन हिन्दी कविता में नारी स्वातंत्र्य -
पृष्ट 26, शोध पत्रिका राष्ट्रीय संगोष्ठी दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव
[5] इंडया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 134
[6] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 134
[7] उद्भावना - कहानी महाविशेषांक अंक 39, 40, जनवरी 1996 पृ. 21
[8] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 91
[9] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 - पृ. 91
[10] अर्धशती विशेषांक हंस - 1997 पृ. 34
[11] अर्धशती विशेषांक हंस - 1997 पृ. 35
[12] अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य हंस 2000 पृ. 60
[13] इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 1995 पृ. 72
[14] अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य - खण्ड - 1
[15] हंस फरवरी - 2002,पृ. 94 , 95
[16] हंस फरवरी - 2002 पृ. 78
[17] हंस फरवरी - 2002 पृ. 78

पता :- 
शांतिनगर, गली नं. 2
राजनांदगांव (छ.ग.)
मोबाईल : 9406272857

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