डॉ. पूनम रानी
रेणु के साहित्य का प्रमुख गुण आंचलिकता माना गया है जिसमें अन्य तत्वों के समान ही स्त्री का आगमन स्वाभाविक तरीके से हुआ है। रेणु से पूर्व जहाँ स्त्री को देवी, माँ, सहचरी के रूप में देखते हुए उसे आदर्शवाद के कटघरे में खड़ा किया गया वहीं इस दौर में स्त्री को एक व्यक्ति के रूप में पहचाना जाने लगा था। जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी, यशपाल आदि उपन्यासकारों ने मानवतावाद और अस्तित्ववादी विचारधाराओं से प्रभावित होकर स्त्री को 'व्यक्तिÓ रूप में परिभाषित कर मध्यवर्गीय स्त्री जीवन को ही रेखांकित किया जिसे एकांगी दृष्टिकोण कहा जा सकता है। रेणु अपने उपन्यासों में इस एकांगी दृष्टिकोण से बचे हंै। रेणु मैला आंचल में लिखते भी हैं इसमें फूल भी है, धूल भी है। मैं किसी से भी दामन बचा कर नहीं निकला। रेणु पर समाजवाद और समाजवादी आंदोलन और गांधी का गहरा प्रभाव रहा है। डॉ. राममनोहर लोहिया जहाँ कहते हैं - औरतों की जो स्वाभाविक गैर बराबरी है उसको दूर करने का उपाय है कि उनको कुछ खास मौके दिये जाए। यह ज्यादा मौके वाला सिद्धांत औरतों के उफ पर भी लागू है - औरत, शूद्र, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान या ईसाई जैसे धॢमक अल्पसंख्यकों में जो छोटी जातियाँ हैं। विशेष अवसर दिये बिना ये उँचे नहीं उठ सकते। 1. वहीं गांधी जी ने भी स्वतन्त्रता आंदोलन में स्त्रियों की महती भूमिका की वकालत की थी और ज्यादा से ज्यादा स़्ित्रयों से आंदोलन में शामिल होने की अपीले भी की थी। महात्मा गांधी के कारण ही अनेक स्त्रियों ने आंदोलन में निर्णायक भूमिका निभाई। ऐसा कैसे हो सकता था कि रेणु का कोई उपन्यास स्वतन्त्रता आंदोलन के आस - पास घटित हो रहा हो और उनके उपन्यास की स्त्री पात्राएं चूल्हा चौके में लगी रहे रेणु की स्त्री पात्राएं स्वतन्त्राता आंदोलन में शामिल दिखाई गई हैं।
पुरुषवादी समाज में स्त्री के सशक्तीकरण का एक माध्यम राजनीति भी है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय गांधी ने राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी को महत्वपूर्ण माना था। लोहिया भी समाज में स्त्रियों की अधिक भूमिका का समर्थन करते दिखाई पड़ते हैं। रेणु के साहित्य की स्त्री पात्राओं की स्वतन्त्रता आंदोलन में भूमिका स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जिसके कारण स्त्रियों के पारंपरिक भूमिका में कुछ हद तक बदलाव भी आ रहा था। 'मैला आंचलÓ की 'मंगला देवीÓ गृहस्थी की पारम्परिक भूमिका से सर्वथा मुक्त विशुद्ध राजनीतिक सामाजिक कार्यकत्री के रूप में हमारे सामने आती है वह पटना शहर से मेरीगंज गांव आती हैं ताकि ग्राम आंदोलन में कुछ हिस्सेदारी निभा सके। गांधी जी से प्रेरित चरखा सेंटर की जिम्मेदारी मंगला देवी उठाती दिखाई पढ़ती हैं। रेणु स्वतन्त्रता आंदोलन का केवल उजला पक्ष नहीं दिखाते, उनका काम चल भी सकता था कि मंगला देवी और उनके जैसी अनेक स्त्रिया आंदोलन में हिस्सा ले रही हैं लेकिन वह आंदोलन के उन स्याह गलियारों में भी जाते हैं जहां सच्चाई कैद हंै मैला आंचल में वह यह दिखाने से नहीं चूकते कि किस तरह आंदोलन की अबलाओं के साथ सभी स्तरों पर शोषण हो रहा था। मंगला देवी कहती हैं- ''आदमी के अन्दर के पशु को उसने बहुत बार करीब से देखा है। विधवा आश्रम, अबला आश्रम और बड़े बाबूओं के घर आया की जिन्दगी उसने बिताई है। अबला नारी हर जगह अबला ही है। रूप और जवानी ?.... नहीं , यह भी गलत। औरत होना चाहिए, रूप और उम्र की कोई कैद नहीं। एक असहाय औरत देवताओं के संरक्षण में भी सुख चैन से नहीं सो सकती ''2 स्वतन्त्रता आंदोलन में हिस्सा ले रही 'परती परिकथाÓ की 'ईरावतीÓ का हाल भी कुछ ऐसा ही है। वह आंदोलन में हिस्सा लेती हैं और दर्जनों बार बलातकृत होती है और अंत में इस निष्कर्ष पर पंहुचती हैं कि ''इन्सान कत्ल और बलात्कार के सिवा और कुछ कर सकता है? 3 'जुलुसÓ की 'पवित्राÓ, 'दीर्घतपाÓ की 'रमला बनर्जीÓ एक बड़ी कार्यकर्ता है तो वहीं 'बेलागुप्तÓ ईरावती की तरह यौन शोषण का शिकार है। 'बांके बिहारीÓ 'बेलागुप्तÓ को कहता है - तुम स्त्री... उसके जब जी में आवेगा - तुम्हारा उपयोग करेगा। ...उसका चमड़े का पोर्टफोलियो-बैग है - उसे वह जब चाहता है खोलता है, बन्द करता है। चमड़े का थैला तर्क नहीं करता। बेला क्यों तर्क करती है। ...बाँके का हाथ बेकार बैठा नहीं रह सकता। आश्चर्य! जब उसको डर होता है किसी बात का - तब भी वह बेला को...। 4 रेणु दीर्घतपा में स्पष्ट लिखते है कि ''सब कुछ सह गई बेला देेश की आजादी के नाम पर! झेल गई''5 'दीर्घतपाÓ की 'बेलागुप्तÓ हो, चाहे 'मैला आंचलÓ की 'मंगला देवीÓ या 'जुलुसÓ की 'पवित्राÓ सभी का शोषण छद्म, भ्रष्ट क्रांतिकारियों द्वारा होता है। ऐसा जान पड़ता है कि पुरुष की मानसिकता में बदलाव की संभावना मुश्किल है। तभी तो इतना ही नहीं वह स्वयं के साथ-साथ अन्य लोगों के द्वारा भी बेलागुप्त का शोषण होने देता है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि स्त्री चाहे कितनी ही अपने आप को सुदृढ़ कर ले परन्तु पुरुषों की दृष्टि में वह देहमात्र ही है। उनकी हवस को पूरा करने का साधन ही है।
स्वतंत्रता आंदोलन ने जहाँ समाज और देश के शक्ति केन्द्रों को बदलकर रख दिया था, वहाँ अब ऊँची जाति, अधिक धनी होना या जमींदार होना शक्ति का कारण उतना नहीं रह गया था, जितना एक राजनीतिक पद और वर्चस्व। फलत: समाज का स्वार्थी,मक्कार और घाघ वर्ग इस नये शक्ति केन्द्र को पाने हेतु तरह-तरह के प्रयास करने लगा जिसमें वह काफी हद तक सफल भी हुआ। वह कहीं अपनी चापलूसी, चपलता तथा धन के बल पर राजनीतिक वर्चस्वता हासिल करता है तो कहीं स्त्रियों को तोहफे के रूप में देकर। चाहे वह उसकी बेटी, बहू, पत्नी हो, पीछे नहीं हटता। इसी दुर्भावना से ग्रस्त उपन्यास 'पल्टू बाबू रोडÓ है जिसमें लट्टू बाबू अपनी इस महात्वाकांक्षा की पूर्णत: हेतु अपनी भतीजी 'बिजलीÓ और 'छविÓ का उपयोग करता है - बिजली कांग्रेस कमेटी के महिला विभाग का भार अपने ऊपर लेती है। परन्तु यह बात अलग है कि बिजली को यह पद प्राप्त करने के लिए 'मुरली मनोहर मेहताÓ कांग्रेस का जिला मंत्री के साथ क्या-क्या समझौते करने पड़ते हैं।
इन सभी उदाहरणों से एक बात निकलकर जरूर आती है कि स्त्रियां जहाँ इस आदोंलन में मुक्ति तलाश रही थी वहीं पुरूष वर्ग अभी भी अपनी शिकारी की भूमिका में दिखाई पड़ रहा था। उसकी यह भूमिका स्वतन्त्राता आंदोलन के दौरान भी थी तो उसके बाद भी वह शिकारी की भूमिका में दिखाई देता है। लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि तमाम मुश्किलों के बाद भी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने से स्त्रियों में जहाँ प्रगतिशीलता का भाव जागृत हुआ है, वे घर की चार-दीवारी से निकलकर समाज के अच्छे-बुरे अनुभवों को महसूस कर अपने व्यक्तित्व को लेकर अब सचेत हो रही हंै। परन्तु अब वह इतनी चेतनशील हो चुकी है कि पुरुषों के हाथों शोषित होने की बजाय अपनी दैहिकता का इस्तेमाल, अब वह खुद के व्यक्तित्व निर्माण में करने लगी है। इस दृष्टिकोण से 'दीर्घतपाÓ की 'मिसेज ज्योत्सना आनन्दÓ खरी उतरती हंै। वह अपने पति महापात्रा द्वारा दूसरों को परोसने की बजाय अपनी देह का इस्तेमाल स्वयं को अधिक शक्तिशाली, धनवान बनाने में करती हंै और इसी के बल पर वह आज वॢकग विमेंस होस्टल की सेक्रेटरी बनी हुई हैं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आजीवन सक्रिय राजनीति में भाग लेने वाले रेणु का कथा-साहित्य स्वतन्त्रता आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका को बिना किसी सजावट के धूल, शूल, कीचड़ के साथ प्रस्तुत किया है।
1 संपादक ओंकार शरद - लोहिया के विचार, पृ 75
2 संपादक भारत यायावर - मैला आंचल, पृ0 161-162
3 संपादक भारत यायावर - परती परिकथा , पृ 504
4 संपादक भारत यायावर - दीर्घतपा, पृ 352
5 संपादक भारत यायावर - दीर्घतपा, पृ 352
6 संपादक भारत यायावर - पल्टू बाबू रोड, पृ 43
पुरुषवादी समाज में स्त्री के सशक्तीकरण का एक माध्यम राजनीति भी है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय गांधी ने राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी को महत्वपूर्ण माना था। लोहिया भी समाज में स्त्रियों की अधिक भूमिका का समर्थन करते दिखाई पड़ते हैं। रेणु के साहित्य की स्त्री पात्राओं की स्वतन्त्रता आंदोलन में भूमिका स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जिसके कारण स्त्रियों के पारंपरिक भूमिका में कुछ हद तक बदलाव भी आ रहा था। 'मैला आंचलÓ की 'मंगला देवीÓ गृहस्थी की पारम्परिक भूमिका से सर्वथा मुक्त विशुद्ध राजनीतिक सामाजिक कार्यकत्री के रूप में हमारे सामने आती है वह पटना शहर से मेरीगंज गांव आती हैं ताकि ग्राम आंदोलन में कुछ हिस्सेदारी निभा सके। गांधी जी से प्रेरित चरखा सेंटर की जिम्मेदारी मंगला देवी उठाती दिखाई पढ़ती हैं। रेणु स्वतन्त्रता आंदोलन का केवल उजला पक्ष नहीं दिखाते, उनका काम चल भी सकता था कि मंगला देवी और उनके जैसी अनेक स्त्रिया आंदोलन में हिस्सा ले रही हैं लेकिन वह आंदोलन के उन स्याह गलियारों में भी जाते हैं जहां सच्चाई कैद हंै मैला आंचल में वह यह दिखाने से नहीं चूकते कि किस तरह आंदोलन की अबलाओं के साथ सभी स्तरों पर शोषण हो रहा था। मंगला देवी कहती हैं- ''आदमी के अन्दर के पशु को उसने बहुत बार करीब से देखा है। विधवा आश्रम, अबला आश्रम और बड़े बाबूओं के घर आया की जिन्दगी उसने बिताई है। अबला नारी हर जगह अबला ही है। रूप और जवानी ?.... नहीं , यह भी गलत। औरत होना चाहिए, रूप और उम्र की कोई कैद नहीं। एक असहाय औरत देवताओं के संरक्षण में भी सुख चैन से नहीं सो सकती ''2 स्वतन्त्रता आंदोलन में हिस्सा ले रही 'परती परिकथाÓ की 'ईरावतीÓ का हाल भी कुछ ऐसा ही है। वह आंदोलन में हिस्सा लेती हैं और दर्जनों बार बलातकृत होती है और अंत में इस निष्कर्ष पर पंहुचती हैं कि ''इन्सान कत्ल और बलात्कार के सिवा और कुछ कर सकता है? 3 'जुलुसÓ की 'पवित्राÓ, 'दीर्घतपाÓ की 'रमला बनर्जीÓ एक बड़ी कार्यकर्ता है तो वहीं 'बेलागुप्तÓ ईरावती की तरह यौन शोषण का शिकार है। 'बांके बिहारीÓ 'बेलागुप्तÓ को कहता है - तुम स्त्री... उसके जब जी में आवेगा - तुम्हारा उपयोग करेगा। ...उसका चमड़े का पोर्टफोलियो-बैग है - उसे वह जब चाहता है खोलता है, बन्द करता है। चमड़े का थैला तर्क नहीं करता। बेला क्यों तर्क करती है। ...बाँके का हाथ बेकार बैठा नहीं रह सकता। आश्चर्य! जब उसको डर होता है किसी बात का - तब भी वह बेला को...। 4 रेणु दीर्घतपा में स्पष्ट लिखते है कि ''सब कुछ सह गई बेला देेश की आजादी के नाम पर! झेल गई''5 'दीर्घतपाÓ की 'बेलागुप्तÓ हो, चाहे 'मैला आंचलÓ की 'मंगला देवीÓ या 'जुलुसÓ की 'पवित्राÓ सभी का शोषण छद्म, भ्रष्ट क्रांतिकारियों द्वारा होता है। ऐसा जान पड़ता है कि पुरुष की मानसिकता में बदलाव की संभावना मुश्किल है। तभी तो इतना ही नहीं वह स्वयं के साथ-साथ अन्य लोगों के द्वारा भी बेलागुप्त का शोषण होने देता है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि स्त्री चाहे कितनी ही अपने आप को सुदृढ़ कर ले परन्तु पुरुषों की दृष्टि में वह देहमात्र ही है। उनकी हवस को पूरा करने का साधन ही है।
स्वतंत्रता आंदोलन ने जहाँ समाज और देश के शक्ति केन्द्रों को बदलकर रख दिया था, वहाँ अब ऊँची जाति, अधिक धनी होना या जमींदार होना शक्ति का कारण उतना नहीं रह गया था, जितना एक राजनीतिक पद और वर्चस्व। फलत: समाज का स्वार्थी,मक्कार और घाघ वर्ग इस नये शक्ति केन्द्र को पाने हेतु तरह-तरह के प्रयास करने लगा जिसमें वह काफी हद तक सफल भी हुआ। वह कहीं अपनी चापलूसी, चपलता तथा धन के बल पर राजनीतिक वर्चस्वता हासिल करता है तो कहीं स्त्रियों को तोहफे के रूप में देकर। चाहे वह उसकी बेटी, बहू, पत्नी हो, पीछे नहीं हटता। इसी दुर्भावना से ग्रस्त उपन्यास 'पल्टू बाबू रोडÓ है जिसमें लट्टू बाबू अपनी इस महात्वाकांक्षा की पूर्णत: हेतु अपनी भतीजी 'बिजलीÓ और 'छविÓ का उपयोग करता है - बिजली कांग्रेस कमेटी के महिला विभाग का भार अपने ऊपर लेती है। परन्तु यह बात अलग है कि बिजली को यह पद प्राप्त करने के लिए 'मुरली मनोहर मेहताÓ कांग्रेस का जिला मंत्री के साथ क्या-क्या समझौते करने पड़ते हैं।
इन सभी उदाहरणों से एक बात निकलकर जरूर आती है कि स्त्रियां जहाँ इस आदोंलन में मुक्ति तलाश रही थी वहीं पुरूष वर्ग अभी भी अपनी शिकारी की भूमिका में दिखाई पड़ रहा था। उसकी यह भूमिका स्वतन्त्राता आंदोलन के दौरान भी थी तो उसके बाद भी वह शिकारी की भूमिका में दिखाई देता है। लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि तमाम मुश्किलों के बाद भी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने से स्त्रियों में जहाँ प्रगतिशीलता का भाव जागृत हुआ है, वे घर की चार-दीवारी से निकलकर समाज के अच्छे-बुरे अनुभवों को महसूस कर अपने व्यक्तित्व को लेकर अब सचेत हो रही हंै। परन्तु अब वह इतनी चेतनशील हो चुकी है कि पुरुषों के हाथों शोषित होने की बजाय अपनी दैहिकता का इस्तेमाल, अब वह खुद के व्यक्तित्व निर्माण में करने लगी है। इस दृष्टिकोण से 'दीर्घतपाÓ की 'मिसेज ज्योत्सना आनन्दÓ खरी उतरती हंै। वह अपने पति महापात्रा द्वारा दूसरों को परोसने की बजाय अपनी देह का इस्तेमाल स्वयं को अधिक शक्तिशाली, धनवान बनाने में करती हंै और इसी के बल पर वह आज वॢकग विमेंस होस्टल की सेक्रेटरी बनी हुई हैं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आजीवन सक्रिय राजनीति में भाग लेने वाले रेणु का कथा-साहित्य स्वतन्त्रता आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका को बिना किसी सजावट के धूल, शूल, कीचड़ के साथ प्रस्तुत किया है।
1 संपादक ओंकार शरद - लोहिया के विचार, पृ 75
2 संपादक भारत यायावर - मैला आंचल, पृ0 161-162
3 संपादक भारत यायावर - परती परिकथा , पृ 504
4 संपादक भारत यायावर - दीर्घतपा, पृ 352
5 संपादक भारत यायावर - दीर्घतपा, पृ 352
6 संपादक भारत यायावर - पल्टू बाबू रोड, पृ 43
पता
5/345, त्रिलोकपुरी,दिल्ली - 110091
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