- अशोक '' अंजुम ''
लोकतंत्र से लोक का, मुश्किल हुआ निबाह
राजाजी की जीभ पर, बैठा तानाशाह
लोकतंत्र की खाद का ये था असर महीन
समरसता की अंतत: बंजर हुयी ज़मीन
लोकतंत्र की राह में, राजतंत्र की धूम
शीश झुका जय - जय करे, उमड़ा हुआ हुजूम
बाहुबली कुर्सी चढ़े, हुए श्रेष्ठतम सिद्ध
जनता गौरैया बनी, नेता जैसे गिद्ध
मनमोहन की बाँसुरी, लोकतंत्र का रास
आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास
अंधकार का हो रहा, लोकतंत्र अभ्यस्त
करते - करते जागरण, हरकारे है त्रस्त
पोस्टमार्टम से हुआ, ये जनता को ज्ञान
नेताजी की अब तलक, थी कुर्सी में जान
समरसता के नाम पर, कर बापू को याद
राजघाट पर रोज ही, सिसके गाँधीवाद
मुँह बिचकार कह रही, ' अंजुम' जेल तिहाड़
कहाँ - कहाँ से भर दिया, लाकर यहाँ कबाड़
' अंजुमजी ' इस दौर में, यही कष्ट है मात्र
हो प्रविष्ट किस भाँति अब सही जगह पर पात्र
पता
सम्पादक ' अभिनव प्रयास '
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