इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 16 सितंबर 2013

जनगीतों का लोक महत्व

यशवंत मेश्राम
यशवंत मेश्राम

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा था - ''लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम नहीं है, बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई समस्त जनता है, जिनके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है।'' पोथियां मात्र सैद्धांतिक हैं, जिन्हें जबरदस्ती से लागू किया जाता है। परंपरा में पोथियां विप्रों के संग थी? समर्थ पोथियां व्यवहारिक ज्ञान केंद्र नहीं है। लिखित साहित्य से व्यवहारिक ज्ञानबोध हो, निश्चित वह लोकसाहित्य होगा। कदाचित का सवाल ही पैदा नहीं होता। संस्कृत ग्रंथों मे व्यवहारिकता नहीं, कारण जनता के व्यवहार में नहीं, तो संस्कृत ग्रंथ पांडित्य का है जब तक व्याख्याकर्ता उपलब्ध न हों, फलत: लोकलाभ नहीं, लोक व्यवहारिकता जन-जन तक शीघ्रताशीघ्र पहुचती है। परंपरा में संस्कृत ग्रंथन द्विज हाथों रहा। यों कहें, उनके लिए ही शिष्ट रहा। जाहिर है, अद्विजों के विरोध में न होकर अव्यवहार में तो रहा ही! महत्वपूर्ण तथ्य यह कि यादव कुल के कृष्ण ने '' गीता '' रची। परंपरागत आर्थों में वह शूद्रों में शामिल था और है। शूद्रों को पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था, तब भी '' गीता '' को द्विज स्वीकार तो करते ही हैं। क्यों करते हैं?
परतंत्र भारत से अपढ़-पढ़न्तुओं में निम्न शेर आज तक प्रसिद्ध है -
सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।
लोक इसका इस्तेमाल इन्कलाब में करता ही है। जनता के कवि जनकवि होते हैं। छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध लोकगीत '' छत्तीसगढ़ ल कहिथे भैया  धान के कटोरा.......'' किस जनकवि का है, लोक में अनेकजन को मालूम नहीं, पर छत्तीसगढ़ीयों की जबान पर रच बस गया है। छाया हुआ है। डॉ. जीवन यदु का उक्त जनगीत अब लोकगीत स्वरूप जनमानस में समा गया है। लिखित साहित्यि के गीत फनकारों की कला द्वारा आधुनिक इलेक्ट्रानिक साधनों से जनता तक पहुँचकर लोकगीत  का निर्माण कर लेते हैं, जैसे लक्ष्मण मस्तुरिहा का गीत ''मोर संग चलत रे, मोर संग चलत गा.....'' इलेक्ट्रानिक साधनों में सिमटकर साहित्यिक परंपरा में आ चुका है। गांवों-कस्बों-नगरों में छत्तीसगढ़ी पारंपरिक लोकगीत, पर्वों में आधुनिक साधनों से सुने जाते हैं, तात्कालिक गायन नहीं होता। शिक्षित-युवक युवतियां पूर्वजों की धरोहर ग्रहण करने तैयार नहीं? फिर भी, शोषण-अन्याय विरोध में पुन: जनगीत फूट पड़ते हैं, राग-रंग अलग होकर रहता है, परंतु जन-मुख पर विराजमान होता जाता है। यदि लिखित साहित्य में जनभावना के गीत आए तो उसे लोकहित-लोकगीत स्वीकारने में क्या हर्ज होगा ? -
    भाग्य इंग्लिश से बंधा है,
    लो नहीं इंग्लिश पढ़ा है,
    लोग कहते है गधा है ........ ।
    गांव-गांव अंग्रेजी स्कूल इसी कारण खुल गए! देशभक्ति में लोकहित छुपा रहता है, यह सर्वोपरि होता है।
भेद बढ़ाते मंदिर मस्जिद, मेल बढ़ाते विद्यालय
ध्याान कराते मंदिर मस्जिद, ज्ञान कराते विद्यालय
धर्म जाति से ऊपर उठकर, देश बनाते विद्यालय।
लिखित साहित्य में लोक विद्यमान है तो वह लोकसाहित्य नहीं है? लोक-रेखांकन, लोकहित करे वहीं लोकसाहित्य है चाहे वह वाचिक, मौखिक, श्रुति परंपरा में हो अथवा लिखित पन्नों के समुदाय में बंधा हो! ''श्रेष्ठ साहित्य वहीं होता है, जो साहित्यकार की सच्ची अनुभूति से उपजे और रचनाकार के साथ जन-मन में गहरे पैठ जाए।''
बहिष्कृत जनसमुदाय को अब हिष्कृतों का साहित्य ''जन-मन '' जैसा गहरा पैठ नहीं कर पाता, फलत: उसका विरोध करते हैं, सवाल खड़ा करते हैं। अभावबोध को भावबोध में बदलने वाला समूह ही वास्तविक लोक है।  भावबोध में तर्क, वैज्ञानिक सोच बहस कार्यरत रहते हैं, और संघर्ष की पृष्ठभूमि का आधारशिला तैयार होता है। उत्पादनकर्ता की भावबोध चेतना निरन्तर चलती है। इन्हें दबाने की भरपूर कोशिशें लगातार जारी रखते हैं। पूंजीपति फिर ज्वाला फूटता है। यह ज्वाला लोक बचाव पक्ष में प्रकाशित होती है-
क्षण-क्षण उलट-पलट करने से
जनता के सचेत रहने से
जनता अंध न्याय भी करता
प्रबल विरोधी दल बनने से।
40 प्रतिशत किसानी छोड़ने मजबूर हैं। कौन कर रहा है इन्हें मजबूर ? मजबूरी का नाम शोषणवादी या क्रांतिवादी? इसे करने या दफा होने का ऐलान किनके द्वारा हो रहा है ? जबकि 65 प्रतिशत अन्न राजस्व देश में बरकरार है। लघु किसान किसी भी काल में सुखी नहीं रहे। इसी कारण जनकविता धुआं उठाती है। फिर तो आग एक दिन फैलेगा ही?
जमींदार कतुआ, अस नोंचे देह की बोटी-बोटी
नौकर, प्यादा, औररू कारिंदा ताकै रहै लंगोटी
पटवारी खुश्चाल चलातै बेदखली इस्तीफा
राजै छुड़की और जुर्माना छिन छिन वहै लतीफा।
उक्त जनगीत (लोकगीत) जैसे उपनिवेश शासन में भी बने। अंग्रेजी शासनकाल में जाल-फरेब, अत्याचार का फांसीवाद '' फीजी हिंदी '' में उल्लेखित हुआ ' फीजी ' लोकगीत है -
फरंगिया के राजुआ मां छूटा मोर देसुआ हो,
गोरी सरकार चली चाल रे बिदेसिया।
भोली हमें देख आरकाटी भरमाया हो,
कलकत्ता पा जाओ पांच साल रे बिदेसिया।
डीपुआ मां लाए पकरायों कागदुआ हों,
अंगूठा आ लगाए दीना हार रे बिदेसिया।
पाल के जहाजुआ मां रोय धोय बैठी हो,
जीअरा डराय घाट क्यों नहीं आए हो,
बीते दिन कई भये मास रे बिदेसिया।
आई घाट देखा जब फीजी आके टापुओ हो,
भया मन हमरा उदास रे बिदेसिया।
कुदारी कुखाल दीना हाथुआ मा हमरे हो,
घाम मा पसीनुआ बहाए रे बिदेसिया।
स्वेनुआ मा तास जब देवे कुलम्बरा हो,
मार-मार हुकुम चलाये रे बिदेसिया।
काली कोठरिया मां बीते नाहि रतिया हो,
किस के बताई हम पीर रे बिदेसिया।
दिन रात बीति हमरी दुख में उमरिया हो,
सूखा सब जैनुआ के नीर रे बिदेसिया।
हिंदी अनुवाद - 'फिरंगियों के शासन में हमारा देश छूट गया। गोरी सरकार ने चाल चली। हमें विदेशी बनाया। खूब कमाओं। कलकत्ता में हमको डिपों में ले जाया गया। हाथ में कागज धराया गया, उसमें हमारा अंगूठा लगाकर हमें गुलाम बना दिया गया। हम विदेषी हों गये, गरीब हो गये, हमारा देश छूट गया। पालनुमा जहाज में हम रो-धो कर बैठ गए। जीव भय से कांप रहा था, सोचते थे कि घाट क्यों नहीं आ रहा है। कई दिन बीत गए। अनेक माह बीतते चले। इस तरह विदेशी हो गये। जहाज किनारे लगा तो देखा कि वह फिजी का घाट था। मन में भय उत्पन्न हुआ, जी उदास हो गया, पर क्या करते? हम जो विदेषी हो गए थे। हमारे हाथों में कुदाली-रापा दे दिया गया। पसीना छूटने पर भी धूप में कार्य करते-करते विदेषी हो गए। गोरे हमें त्रास कर देते थे। मार, खा-खाकर कार्य करते हुए हम विदेशी हुए। अंधियारीयुक्त धरौंदों में रखा जाता था। रात नहीं गुजर पाती। हम अपना दुख किसे बताएं। परदेश में, कश्टों में हमारा दिन-रात व्यतीत होता रहा। इसी तरह पूरी उम्र गुजर गई, रो-रो के नैन सुख गए। आंखों में आंसू कैसे रहते, जब शरीर में पानी नहीं रहा, इस तरह हम परदेशी हो गए।''
भारतीय बिदेसिया नाटक में पति कमाने जाता है। पत्नी रोकती है, पर अंग्रेज स्त्री-पुरूशों को आर्थिक लालच देकर परदेश में (फीजी) दाखिला करवाते हैं। लोक नहीं लौटता अपनी मातृभूमि में। वहीं के होकर रह जाते हैं। मधुमक्खी छाते की तरह अपनी कड़वी यादों का कड़वा मिठास देकर उक्त लोकगीत की सृष्टि कर लेते हैं, जिसमें पूर्व-वर्तमान-भविष्य की दूर-दृष्टि झलक पड़ती है। आजाद प्रशासनिक देशों में हालात आज और भी बदत्तर है। सस्तेदर से मौलिक उर्जा नष्ट हो रहीं है। मंहगादर जीवन नश्ट कर रहा है। सस्ता दर अनाज जल-जंगल जमीन बचा पायेगा? जमीन-जल-जंगल अंधिकारों के प्रयोजन में जनसंघर्ष कायम हो गया। एक स्वयं से, दूसरा कंपनियों से, तीसरा प्रशासनिक रियासतों से हक हेतु संघर्श नाजायज है? झारग्राम (पं. बंगाल) की सभा में सिलादस्य चौधरी के प्रश्न पूछने पर (बेलपहाड़ी में 8 अगस्त 2012) मंत्री ने चौधरी को तथाकथित माओवादी बताते हुए उसे पुलिस को गिरफ्तार करने का निर्देश दिया। लोककवि का हृदय ऐसे ही माहौल से उमड़-घुमड़ कर शब्दों की झड़ी लगाता है -
चारों ओर से घेरने बा पापी दुश्मनता, जाग भइया, अब कइसे बांची जनता, जाग भइया।
हमनी का रोटी-बेटी भइल सब निलामता, जाग भइया, अब कइसे बांची जनता, जाग भइया।
सुतले सुतल बीतल पुरूखन के उमरिया, जाग भइया, अब तोहरे कान्हीं भखा जाग भइया।
कहिए से घेरने बिआ कारी ई बदरिया, जाग भइया, फार जुलुम के अन्हरिया, जाग भइया।
हिंदी अर्थ - 'कमजोर तबके के लोगों को चारों ओर से जमींदार सामंत रूपी दुश्मन घेर लिए हैं। ऐसे में अपनी जान बचाना भी मुश्किल है, इसलिए सभी शोषित भाई लोग जाग जाएं। हम लोगों का धन और धर्म दोनों निलाम हो चुका है। रोटी भोजन का और बेटी इज्जत का प्रतीक है। दोनों दांव पर लगी है। इसलिए अब जाग जाना है। हम लोगों के पूर्वज सोए रहे, उन लोगों पर बेइंतिहा अत्याचार सामंतों का होता रहा। अब पूर्व में हुए जुल्म और अत्याचार समाप्त करने की जिम्मेदारी हम लोगों के कंधों पर है। इसलिए अब जाग जाना है। यह संकट और विपत्ति का बादल बहुत दिनों से दलित वर्ग के लोगों को घेरे हुए है। अब इस जुल्म के घोर अंधकार को फाड़ देना है। हे समाज के शोषित भाइयों जाग जाओ।'
''लोक में जनजागरण होना, परलोक-जीवियों को रास नहीं आता। शोषणवादियों की छबि धूमिल होने लगती है। लोकपथ के प्रति तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। मंडलाधिकार विरोध में राम-बावरी मस्जिद ढहा दी जाती है। धर्म-उन्माद फैलाया जाता है। झूठे केस में लोक संतप्त होता है। जनजागरणकर्ता शहादत में तब्दील भी होते हैं। दलाल पक्ष अपनी समानांतर सियासतें अपनी व्यवस्था के तहत स्थापित करते रहते हैं। दोनों पक्षों में आम नागरिक पिसता जाता है। इन्हीं के बदलाव हेतु षब्द, परिवर्तन हेतु अर्थ, जन-सम्मुख में छा जाते हैं। गरीब गुरबों किसानों-दलितों-मजदूरों के जनकवि नारायण महतो नाचपार्टी के गवैया थे। उनके जनगीत उभरकर भोजपुरी क्षेत्र में संघर्ष प्रेरणा बन गए। महतो के शब्द जन-जन के मुख में छा गए -
हमनी के ले ले जाला पापी दुसमनता, जेहलखानता
झूठों के बताके शैतनता, जेहलखानता।। हमनी ।।
    हमनी के नान्ह जात।
    कसहूं कमात खात।
झूठों के बना के बंईमानता, जेहलखानता।। हमनी ।।
    साधु के बनाई भेस।
    कि अली जाली लड़ी केस।
सांसत में परल बा परानता जेहल खानता।। हमनी ।।
    जोती बोई काटी दाना।
हाथ में धरा के हथियरवा, जेहल खानता।। हमनी ।।
    कहेलन नारायण गाई।
    सुनी अब गरीब भाई।
पुलिस से अब कइसे बांची जानता, जेहल खानता।। हमनी ।।
हिंदी अर्थ - 'उक्त गीत नारायण महतो ने तब लिखा होगा जब पुलिस ने उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाकर तथाकथित नक्सली घोशित कर दिया होगा। भाव यह है- हम जैसे निर्दोशों को पुलिस फर्जी मुकदमों में फसाकर जेल ले जाती है। हम लोग छोटी जाति से आते हैं। किसी तरह कमाते खाते हैं और अपनी आजीविका चलाते हैं। परंतु पुलिस झूठ-मुठ का बेइमान बताकर हम लोगों को जेल में ठंूस देती है। हम लोग ऐसी विकट परिस्थितियों में क्या करें, कुछ पता नहीं चलता। कभी मन करता है कि घर द्वार छोड़कर साधु हो जाएं। कभी मन करता है, आखिर भरा-पूरा परिवार छोड़कर कहां भाग जाएं? बेहतर तो यह होगा कि झूठे मुकदमों को भी लड़ा जाए।  हम लोगों के प्राण पशोपेश में पड़े हैं, हम लोग खेत जोतते हैं उसमें फसल बोते हैं। फसल का कार्य करते हैं। बावजूद इसके हमें पकड़ कर थाने में ले जाया जाता है। कारण कि पुलिस हामरे हाथों से हंसिया छीनकर बंदूक थमा देती है और तथाकथित नक्सली घोषित कर देती है। कवि नारायण सभी गरीब भाइयों को सुना कर गाते हैं कि, आखिर हम लोगों की जान पुलिस की ऐसी तिकड़मबाजी से कैसे बचेगी।'
इज्जत, रोटी के लिए संघर्ष अपराध की श्रेणी में आता है? नारायण महतो की चर्चा महाश्वेता देवी ने मास्टर-साहब उपन्यास में किया है। मिथक है - नारायण महतों जनता बीच गा रहे रहे थे। पुलिस ने आक्रमण किया। गोली मार दी। जनकवि संघर्श-गीत गाते-गाते शहीद हो गए। जन-संघर्ष हकों हेतु ही उभरता है। कुचल कैसे दिया जाता है? लोकतंत्र में लोकाधिकार पर नियंत्रण कैसे? किसका है? शोषक लोक के जिंदा रहते जनकवि आयेंगे-जायेंगे। जन-जन मुखों से दुहराये जायेंगें। लिखित-अलिखित शब्दों को जन-जन द्वारा गाया जाना जनगीत-लोकगीत, लोक साहित्य तो होगा ही!
- संदर्भ -
1. कन्नौजी लोकसंस्कृति और लोकगीत, कृष्णकांत दुबे, आजकल, अगस्त 2012
2. मेरा बचपन मेरे कंधो पर (आत्मकथा) श्योराज सिंह बैचेन। वाक् अंक-11, 2012, पृष्ठ 24
3. वही पृष्ठ 21
4. मच्छकटिक में चित्रित सामाजिक राजनीतिक यथार्थ, किरण तिवारी, आजकल, अगस्त 2012, पृष्ठ 36
5. ये जिंदगी कौन की ....... दिनेश त्रिपाठी 'शम्स' व, आजकल, अगस्त, 2012 पृष्ठ 29
6. वही
7. हिंदी में विदेशी शैलियां, विमलेश कांति वर्मा, हिंदुस्तानी जवान, (मुंबई) अप्रेल जून 2012, पृष्ठ 12,13
8. नई दुनिया रायपुर संस्करण, दिनांक 18.4.12
9. भोजपुरी के दो प्रमुख गीतकार - राजेन्द्र प्रसाद सिंह 2. भोजपूरी के तथाकथित नक्सली कवि नारायण महतों - लोकरंग- 2, 2011 पृ. 112
10. वहीं पृष्ठ 111
पता :
गली नं. 4, वार्ड नं. 7, शंकरपुर,
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

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