इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

रविवार, 28 जुलाई 2013

एक और हरिश्‍चन्‍द्र

 
नूतन प्रसाद 

श और धन पाने की लालसा किसे नहीं रहती,पर मिले तो कैसे!आप ईमानदार हैं. सत्यपथ के राही हैं. बदनाम होंगे ही. कंगाल रहेंगे लेकिन चार सौ बीसी करेंगे. दूसरों का गला काटेगें तो यश और धन आपके कदम चूमेंगे.
उस दिन एक मंत्री जिसका नाम हरिश्चंद्र था मेरे पास आये. बोले-भैय्या,मैं जनता में लोकप्रिय होना चाहता हूं. अपनी जय जयकार कराना चाहता हूं. विरोधियों के कारण मेरी इच्छाओं पर तुषाराघात हो जाता है. तुम कोई ऐसा रास्ता निकालो,जिससे लोग मुझ पर श्रद्धा करें. जब तक सूरज चांद रहे तब तक मेरा नाम रहे.
मैंने कहा- आप लोग गरीबों के पैसे से ऐश करते हैं . जनता को धोखा देते हैं तो बदनामी मिलेगी ही. अब तक यह अच्छा हुआ कि बीच चौराहे पर पीटे नहीं गये.
- वह तो ठीक है पर तुम्हारे पास आया हूं तो कुछ तरकीब तो भिड़ाओ.
मैं लेख और जुबान से नेताओं का कच्चा चिठ्ठा खोलता हूं पर वास्तविकता यह है कि कुर्सी से चिपके रहने के उन्हें तरीका बताता हूं. श्रमिकों को क्रांति करने के लिए उकसाता हूं पर आंदोलन के समय कारखाने के मालिक का पक्ष लेता हूं. मैंने कहा- आप लोग कलयुग के राजा हैं. इन्द्र के समान सुरा पान करते हो. कृष्ण की रास रचाते हो. आप हरिश्चंद्र है और राजा हरिश्चंद्र के समान सत्यवादी,ईमानदार कहलाना चाहते हैं तो उनके ही कर्मों का अनुसरण कीजिये न !
उन्होंने पूछा - क्या सच ?
- हां,राम चरित्रवान थे पर रामलीला का राम दुराचारी होकर भी पूजित होता है. यह मूर्खता है लेकिन जब तक दुनिया में मूर्ख है,बुद्धिमानों को अपना स्वार्थ सिद्ध कर ही लेना चाहिये.
मैंने राशि का मिलान कर उसका गुण बता दिया तो वे बड़े प्रसन्न हुए. ज्योतिषी मोहन और महेन्द्र को एक राशि होने के कारण एक ही प्रकार का फल बता देता है पर मोहन को पदोन्नति मिल जाती है और महेन्द्र निलम्बित हो जाता है. कोई जीये या मरे ज्योतिष को क्या मतलब!उसकी तो जेब गर्म होनी चाहिये.
हरिश्चंद्र ने नेक सलाह देने के बदले मुझे पुरस्कार दिलाने का आश्वासन दिया और चले गये. वे एक दिन अन्य मंत्री विश्वामित्र के पास पहुंचे. बोले- मैं अपना विभाग तुम्हें दान करना चाहता हूं.
विश्वामित्र चकराये-बिना मांगे मोती कैसे मिल रहा है. उन्होंने कहा- तुम पगला गये हो क्या!अपना विभाग मुझे सौंप रहे हो. यहां तो मंत्री पद पाने के लिए एक दूसरे की गर्दन काटी जाती है.
- तुम्हें इससे क्या मतलब,लेनी है या नहीं.
- लूंगा क्यों नहीं. दस विभाग मिले फिर भी संभाल लूंगा. छप्पर फाड़ कर आये धन को कोई लतियाता है!एक विभाग ने कार बंगला दिया तो दूसरा एकाध कारखाना खुलवा देगा. तुम्हारी बात स्वीकार है पर तुम छोड़ क्यों रहे हो कारण भी तो ज्ञात हो. क्या साधु बनने जा रहे हो?
हरिश्चंद्र ने बताया-वैसे साधु बनना उत्तम है. क्योंकि उसे बिना मिहनत किये भोजन मिल जाता है. साथ ही उसकी पूजा भी होती है. लेकिन अपनी समस्या यह नहीं. दरअसल मैं एक नाटक खेलना चाहता हूं.
- कैसा नाटक. . . ।
- तुम अच्छी तरह जानते हा कि आज हर कोई नेताओं के ऊपर ऊंगली उठा रहा है. इसलिये इनकी छवि को चमकाने के लिए हरिश्चंद्र का नाटक खेलना चाहता हूं. मुझे विश्वास है कि तुम पात्र बनकर मेरी सहायता करोगे. खेल खत्म होने के बाद मेरा विभाग मुझे वापस करने के लिए नाटकबाजी नहीं करोगे.
और हरिश्चंद्र ने अपना विभाग विश्वामित्र को थमा दिया. इसके बाद वे अपनी पत्नी तारा तथा रोहित को लेकर गली-गली चिल्लाने लगे-है कोई हमें खरीदने वाला. हम नीलाम होने को तैयार है.
शहर के चौराहे पर मजदूर रोज बिकते हैं. पर हल्ला नहीं मचता. लेकिन नेता बिक रहे थे तो भीड़ लग गई. लोगों ने पूछा- आपके पास कोई कमी नहीं है फिर क्यों बिक रहे हैं.
हरिश्चन्द्र ने स्पष्ट किया-भाइयों,जैसे ढोल के अंदर पोल रहता है वैसी ही स्थिति मेरी है. मैंने अपनी सारी पूंजी गरीबों में बांट दी तथा जनता की भलाई के लिए मद से अधिक खर्च कर दिया पर यही उदारता मेरे लिए घातक हो गई. सरकार मुझसे रुपये वसूलना चाहती है. मैं कंगाल तो हो ही गया हूं. रुपये कहां से लाऊं इसलिए मुझे परिवार सहित बिकना पड़ रहा है. कोई बात नहीं ,चाहे मैं नीलाम हो जाऊं पर जनता की सेवा करना छोड़ नहीं सकता.
लोग हरिश्चन्द्र की प्रशंसा करने लगे-इनके समान त्यागी पुरुष कौन होगा. धन्य है हरिश्चन्द्र,इनकी जय हो.
हरिश्चन्द्र ने कहा- मुझ जैसे अभागे का गुणगान क्यों करते हो !मुझे खरीदो साथ में पत्नी और बच्चे को भी . . . ।
लोगों को पता चला कि तारा बिकने वाली है तो अनेक ग्राहक मैदान में कूद पड़े. उनमें मारा मारी हो गई. अपने देश में नारी पूज्य है. अतः बिकती है. उसका सम्मान हम करते हैं इसलिए जिन्दा जला देते हैं और कहते हैं-वह सती हो गई. खिड़की दरवाजा बनाने के लिए लकड़ियों का अभाव है पर नारी दहन के लिए नहीं. इस देश को बारम्बार प्रणाम .
तारा बिक गई साथ ही रोहित भी. रोहित को भीख मंगवाने के लिए खरीद लिया गया होगा. बच्चे सबसे अच्छे और आंखों के तारे होते है. इसलिए उनके हाथ पांव तोड़ कर भीख मंगवाये जाते हैं. आंदोलन करना हो तो बच्चों को सामने कर दो. वे गोलियों के शिकार हो जाये तो कह दो कि वे वीर थे. हंसते- हंसते शहीद हो गये.
अब हरिश्चन्द्र को अपने को बेचना था. उन्हें विरोधियों या उद्योगपतियों के पास बिकना होता तो कब के बिक चुके होते. उन्हें आम आदमी के पास बिक कर खास बनना था. वे डोम के पास पहुंचे. बोले- अबे,तुम्हें मुझे खरीदना पड़ेगा.
डोम सकपकाया. बोला-सरकार आप कैसी बातें कर रहे हैं. राजा को प्रजा कैसे खरीदेगी. गंगुवा को भोज ने खरीदा था क्या ?
- मुझे ज्ञात है कि तेरा बाप भी नहीं खरीद सकता पर सिर्फ हां कह दे.
- जब खरीदना ही नहीं है तो झूठ क्यों बोलूं ?
- बड़ा सत्यवादी है न जो सच ही बोलेगा. सच के सिवा कुछ नहीं बोलेगा. अरे,जब मैं ही दली हूं,प्रपंची हूं. तो तुम्हें झूठ बोलने में क्या हैं. जैसे राजा वैसी प्रजा को भी होनी चाहिए.
डोम ने डरकर हरिश्चन्द्र को खरीद लिया. हरिश्चन्द्र तत्काल मरघट आये और कर वसूलने लगे. वे जलती लाश को देखकर प्रसन्न होते कि जनसंख्या तो कम हो रही है. जीवित मनुष्य नेताओं के कुकर्मों का विरोध करते अतः उनके मरने पर वे विजयगान गाते हैं. लेकिन उनकी कलुषित भावना को कोई पढ़ न पाये इसलिए श्रद्धांजलि अर्पित कर देते हैं. यही नहीं वे कफन और लकड़ियों का भी इंतजाम कर देते हैं ताकि वे पुण्यात्मा कहलायें.
एक आदमी मर गया. उसे जलाने के लिए लकड़ियां नहीं मिल रही थी. तो एक नेता ने प्रबंध कर दिया. यही नहीं वे लाश को भस्म करने के लिए बांस मारने लगे. मैंने उनसे पूछा- आपको पुल का उदघाटन करने जाना था पर आप यहां डंटे हैं,ऐसा क्यों ?
वे मुझ पर चिढ़ गये. बोले-तुम बड़े अधर्मी हो. तुममे मनुष्यता लेशमात्र नहीं है. यदि लाश को छोड़कर चला जाता हूं तो लोग मुझ पर थूकेंगे नहीं.
-अपनों से कभी झूठ बोला जाता है. आप सच सच बताइये.
उन्होंने इधर उधर देखा. जब उन्हें विश्वास हो गया कि हमारी बात सुनने वाला कोई नहीं है तो वे बोले-हकीकत यह है कि मृतक मेरा विरोधी है. मैं उसे छोड़कर इसलिए नहीं जा रहा हूं कि वह पुनः जीवित न हो जाये. यदि वह जिंदा हो गया तो मेरा बखिया उघेड़ देगा. इसलिए उसे राख में बदले बिना यहां से मैं हट नहीं सकता.
इधर हरिश्चन्द्र अपने कर्तव्य का पालन सहजता पूर्वक रहे थे. उधर एक दुर्घटना यह घट गई. रोहित को सांप ने डस लिया. उसे चिकित्सकों के पास दिखाया गया पर वे ठीक न कर सके. चिकित्सकों को अलग से फीस नहीं मिली होगी. चिकित्सक वेतन पाते हैं पर उन्हें फीस न मिले तो रोगी को बिना टिकट स्वर्ग की सैर करा देते हैं. रोहित का प्राण नहीं बचे तो तारा रोती पीटती उसे मरघट लायी. इसके लिए पाठकों से अनुरोध है कि वे तारा के दुख से द्रवित होकर आंसुओं की नदी न बहा डालें क्योंकि यह नाटक है. हकीकत नहीं. नाटक फिल्म और प्रेमपत्र सत्य पर आधारित नहीं होते. फिल्म में गरीब की भूमिका निभाने वाला पात्र वास्तविक जीवन में करोड़पति होता है. मरियल अभिनेता दस-बीस गुण्डों की धुलाई एक साथ कर देता है. साध्वी-पतिव्रता दिखने वाली अभिनेत्री के पांच-पांच प्रेमी होते हैं.
तारा ने जैसे ही रोहित का अग्नि संस्कार करने का विचार किया वैसे ही हरिश्चन्द्र दौड़ कर आये. डपट कर बोले-ऐ स्त्री,तुम कौन हो यह किसका लड़का है.
तारा ने कहा-आप कितने निष्ठुर हैं. अपनी पत्नी और बच्चे को भी भूल गये.
-कैसी पत्नी,कैसा बच्चा. न तो मैं किसी को पहचानता हूं न पारिवारिक सम्बन्धों पर मेरा विश्वास है. कर पटाये बिना मैं दाह संस्कार करने ही न दूंगा.
-भांग तो नहीं छान लिए हैं. लोग परिवार के लिए दुनिया भर की बेईमानी करते हैं पर आप ईमानदारी दिखा रहे हैं. लानत है ऐसे पति पर. . . ।
पत्नी को नाराज देखकर हरिश्चन्द्र को हकीकत पर उतरना पड़ा. बोले- तुम समझती क्यों नहीं. पल-पल में मुंह फूला लेती हो. मैं अपने परिवार के लिए ही तो दंद फंद कर रहा हूं. बस,कुछ क्षण धैर्य रखो फिर इस संसार में हम लोग ही पूज्य होगे.
रोहित जो मरने का ढोंग करते उकता गया था,बोला-पिता जी ड्रामा जल्दी खत्म कीजिये. परीक्षा देने का समय आ गया है. पढ़ाई बिलकुल नहीं हुई है. उत्तीर्ण कैसे होऊंगा !
हरिश्चंद्र ने कहा - तुम उसकी चिंता बिल्कुल मत करो क्योंकि जनरल प्रमोशन दे दिया गया है.
- क्या, सच ?
- हां, आखिर तूने सच बोलने के लिए मजबूर कर ही दिया.
हमारी सरकार बड़ी उदार है. वह अनुत्तीर्ण होने लायक विद्यार्थियों को भी उत्तीर्ण कर देती है. परीक्षा बोर्ड की उपयोगिता समाप्त हो गयी है. इसलिए उसे भंग कर देना चाहिए.
उनका नाटक पुनः प्रारंभ हुआ. तारा ने आंसू गिराते हुए कहा- स्वामी मैं कर पटाने के लिए रुपए कहां से लाऊं ?
हरिश्चन्द्र ने फटकारा - चोरी करो,डांका डालो पर कर तो पटाना ही पड़ेगा. तुम्हारे लिए नियम बदल देता हूं तो दुनियां क्या कहेगी.
- आप मुझ पर नहीं तो कम से कम अपने बच्चे पर तो रहम खाइये. उसका दाहकर्म तो होने दीजिए.
हरिश्चन्द्र आग के शोले बन गये - तुम मुझे सत्यपथ से डिगाने आयी हो. बेईमानी बनाकर मुझ पर कलंक लगाना चाहती हो. हट जाओ सामने से वरना मार डालूंगा.
हरिश्चन्द्र जैसे ही तारा को मारने दौड़े कि विश्वामित्र धड़ाम से कूदे. बोले - बस करना यार,तुम्हारी इच्छा तो पूर्ण हो गई. तुम्हारे यश का डंका सर्वत्र बज रहा है. लोग तुम्हारी जय- जयकार रहे हैं.
हरिश्चन्द्र प्रसन्नता के मारे उछल पड़े. उन्होंने पूछा- क्या सच ?क्या मैं सत्यवादी और ईमानदार मान लिया गया ?
- और नहीं तो क्या ? दूरदर्शन,आकाशवाणी और समाचार पत्रों के द्वारा तुम्हारे यश का प्रचार हो चुका है. अब अपना विभाग सम्हालो और मौज करो .
हरिश्चन्द्र ने अपना विभाग झटका और पूर्ववत मंत्री बन गये.
  • भंडारपुर ( करेला ) पोष्‍ट - ढारा, व्‍हाया - डोंगरगढ़, जिला - राजनांदगांव ( छ.ग.)

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