- डा. अनिल कोहली
क्षोत्रस्य क्षोत्रं मनसो मनो य दवाचो ह वाचं स डप्राणस्य प्राण: ।
च क्षुषश्च क्षुरतिमुच्य धीरा: प्रेत्यास्य माल्लोकादमृता भवक्न्त 1.2 ।।
जो क्षोत्र का भी क्षोत्र है अथार्त् जो मन प्राण और समस्त इन्िद्रयों का परम कारण है जिससे शरीर के सभी अंग तत्व उत्पन्न हुए है, जिसकी शिष्त प्राप्त करने ये सभी अपने - अपने कार्य को करने में समर्थ होते हैं और इन सभी को जानने वाला है, वह परब्रहा् पुरूषोतम इन सबको प्रेरणा देने वाला है . उस प्रेरक तत्व को जानकर ज्ञानवान पुरूष (ज्ञानी जन) जीवन से मुक्ति प्राप्त कर इस लोक से प्रस्थान करने के पश्चात अमृत स्वरूप (अमरता प्राप्त कर ) विदेह मुक्ति हो जाते है . अथार्त जन्म मृत्यु के चक्र से हमेशा के लिए मुक्ति हो जाते हैं .
शास्त्र बताते हैं कि आत्मा अपने कर्मों के फलस्वरूप चौरासी लाख योनियों में भटकती रहती है । ऐसा भी बताया गया है कि जीव - जन्तु, कीट पतंगे, जलचर, थलचर आदि सभी भोग योनियां हैं । लेकिन मनुष्य योनि ही एक ऐसी योनि है जो भोग के साथ काम भी कर सकती है और मोक्ष को प्राप्त कर सकती है . देवता भी इस मनुष्य योनि के लिए तरसते हैं.दूसरी तरफ मानव को विधाता की अनन्य तम उत्कृष्ट रचना बताते हैं . मानव चिंतनशील है, विवेक को धारण करने वाला माध्यम है. परमात्मा स्वयं की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए मानव शरीर का ही आश्रय लिया है.मानव शरीर माध्यम है, चेतना को महाचेतना से मिलाने का . आत्मा को सवर्दा मुक्ति माना जाता है. आत्मा नश्वर है, न गन्ध है, न रूप है, न स्पर्श है, न रस है, न वतुर्ल है न त्रिकोण है . यह अमूर्त सत्ता है. व न पुरूष है न है और न नपुसंक है. आत्मा अजर व अमर है. न कभी जन्मता है न मरता है. शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारी जाती. शस्त्र इसे नहीं काट सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती. यह आत्मा नित्य सवर्गत कारण ही आत्मा सुख - दुख आदि से आरोपित होती है. इसी अवस्था में आत्मा को संसारी कहा जाता है. विद्या ( ज्ञान ) और अविद्या (कर्म) इन दोनों को जो साथ में जानता है वह कर्म से मृत्यु को पार करके विद्या से मोक्ष प्राप्त कर सकता है. लेकिन वेद का उद्घोष है ऋते ज्ञानात् न मुक्ति ज्ञान के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती. कर्म बन्धन है, ज्ञान मुक्ति है. अज्ञान का नाश कर्म, उपासना द्वारा संभव नहीं है क्योंकि अज्ञान का विरोधी ज्ञान है, कर्म उपासना नहीं. शिव गीता में कहा है -
मोक्षस्य नहिवासो&क्स्त नप्रामान्तरमेव व ।
अज्ञान हृदय ग्रक्न्थ नाशो मोक्षइति स्मृत: ।। (शि. मी. 13 - 12)
अथार्त् हृदय ग्रन्थ का नाश ही मोक्ष है जो ज्ञान से ही संभव है. श्री भागवद्गीता में प्रभु कृष्ण ने अजुर्न के मोह (अज्ञान) को दूर करने के लिए आत्मा के स्वरूप के दशर्न करवाये. सवर्धमार्न परित्यजते कह कर स्पष्ट किया कि एक मात्र मेरी शरण में आ जा और मैं तुझे मुक्त कर दूंगा.
मोक्ष संबंधी कुछ मान्यताएँ - एलबर्ट आइन्स्टाईन का मानना है मानव मुक्ति नैतिकता द्वारा ही संभव है. क्षमा - मोक्ष द्वार है. जैन धर्म यश - अपयश, जय - पराजय , सुख - दुख, आशा - निराशा, राग - विराग, सब ऐसे जुड़वां भाई बहिने हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता . इसके प्रति समभाव रखना मोक्ष का द्वार खोलना है. अज्ञात - जो सदा जीवनमुक्ति का आन्नद अनुभव कर सकेगा, वही अन्त मोक्ष को प्राप्त होगा. स्मृति बंधन है और विस्मृति है मोक्ष.
अधिकतर शास्त्र व मत यह मानते हैं कि मोक्ष प्राप्त कर जीव फिर संसार में नहीं आता लेकिन कुछ मतों में मानना है कि जीव मोक्ष प्राप्त करने के बाद भी वापस लौटता है. तथापि यह वैदिक सिद्धांत नहीं है. लेकिन श्री ज्ञानेश्वरार्या: ने अपनी पुस्तक परा विद्या (प्रथम भाग) में यह स्पष्ट रूप से स्वीकारा है कि मोक्ष प्राप्त करने के पश्चात् जीव पुन: इस संसार में वापिस लौटता है. उनके अनुसार मात्र 1 वर्ष की आयु की इच्छा रखने वाला व्यक्ति शत प्रतिशत (1 प्रतिशत ) निष्काम कर्म करने वाले व्यक्ति को जीवित अवस्था में विशुद्ध रूप में ईश्वर का सुख मिलता है तथा शरीर त्याग करने के पश्चात् मोक्ष में इकतीस नील, दस खरब, चालीस गरब वर्ष पयर्न्त ईश्वर के आन्नद को ईश्वर की सहायता से भोगता है. प्रश्न उठता है व्यक्ति इस आन्नद को कहां भोगता है क्योंकि वैदिक शास्त्र तो स्वर्ग - नरक विद्यतानता को नकारता है. दूसरा प्रश्न मन में उठता है कि जब सृष्टि का काल एक हजार चतुयुगी है अथार्त् चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष है उसमें से लगभग आधा समय से भी थोड़ा कम अथार्त् एक अरब, छियानबे करोड़, आठ लाख, तिरपन हजार एक सौ नौ वर्ष व्यतीत हुए हैं ऐसे मे इकतीस नील दस खरब, चालीस अरब वर्ष मोक्ष का कल्पना अथार्त् सुष्टि काल से भी लगभग दस हजार गुणा मोक्ष में ईश्वर का आन्नद प्राप्त करना एवं समय की गणना करना क्या संभव है ? निश्िचित रूप से आपका उत्तर होगा कि नहीं. और अगर मैं कहूं कि यह सब संभव है तो आप कहेंगे कि इसका दिमाग सनक गया है इसे किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाओ. घबराइये नहीं, बस कुछ निम्न पंक्तियों को पढ़ते जाइये तब आपकी धारणा मेरे प्रति बदल जायेगी और शायद आप भी मेरी इन बातों तथा गणनाओं से सहमत हो जायें.
जब ऊपर स्वर्ग नरक नहीं हैं तो इस धरती पर ही स्वर्ग - नरक है. सुख से स्वर्ग तथा दुख से नरक की अनुभूति होती है. अब प्रश्न यह उठता है कि जब सृष्टि काल चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्ष का है तो यह कैसे संभव हो सकता है कि व्यक्ित इकतीस नील, दस खरब, चालीस अरब वर्ष ईश्वर का आन्नद भोग सकता है . यह भी एक गणना है और संभव है जो इस प्रकार है - सौ अनुपल का एक पल, सौ पल का एक सैकिण्ड, साठ सैकिण्ड का एक मिनट, साठ मिनट का एक घण्टा, चौबीस घण्टे का एक दिन, तीन सौ साठ दिनों का एक वर्ष.
ईशोपनिषद् के मन्त्र संख्या के अनुसार
कुर्वत्रेवेह कर्माणी जिजीविषेच्छत समा:।
एवं त्वार्य नान्यथेतो&क्स्त न कर्म लिप्य ते नरे ।।
अथार्त यदि मनुष्य इस प्रकार निरन्तर कार्य करता रहे तो वह सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर सकता है क्योंकि इस प्रकार का कर्म उसे कर्म व नियम से नहीं बांधेगा. अथार्त् मनुष्य की आयु सौ वर्ष की है.
उपरोक्त सभी को गुणा करें तो आप पायेंगे - इक्कतीस नील, दस खरब, चालीस अरब वर्ष ।यहाँ पर अनुपल के स्थान पर वर्ष कह कर भ्रमित किया गया है वास्तव में मात्र सौ वर्ष को ही व्यक्ित अगर ढ़ंग से जी ले तो वही सच्चा सुख है ईश्वर का आन्नद है, यही स्वर्ग है.
श्रुति कहती है कि क्षीयन्ते चास्य कमार्णि तस्मिन जब ब्रहा् का साक्षात्कार हुआ तभी काम नष्ट हो गये फिर अन्य क्या हेतु रहा कि जिससे जीव फिर संसार में आता है ? यदि यह कहें कि मुक्ति जीव फिर संसार में न आवे तो एक दिन संसार खाली हो जायेगा फिर परमात्मा का सृष्टिकार्य निष्फल होगा. अत: मुक्ति से फिर लौटना मानना चाहिए तो फिर मोक्ष क्या हुआ ?
प्राय : ऋषि - मुनि, साधु - संत, मानिषि एवं शास्त्र आदि यह कहते हैं कि संसारिक जीव का लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए. अब मेरा प्रश्न उठता है कि जब हम (आत्मा) सृष्टि रचयिता के घर (स्वर्ग) से इस संसार में क्या करने के लिए आये हैं ? हमारे माता - पिता ने सम्भोग कर हमें पैदा किया हमें पढ़ाया - लिखाया, नौकरी / कारोबार करने योग्य बनाकर शादी कर दी. हमने फिर वही प्रक्रिया दोहराई और हमारी जीवन यात्रा समाप्त हो गई. हमने विशेष कार्य क्या किया ? संतो की बात पर आएं कि मोक्ष प्राप्त ही जीवन का लक्ष्य है तो मेरा कहना है कि हमने क्यों पाप किये हैं ? जो कि मोक्ष प्राप्त के लिए उपासना करें. तब उनका उत्तर होगा कि आप ने जाने अन्जाने में इस जन्म या पिछले जन्मों में कुछ पाप किये होंगे उनका प्राश्चित करना पड़ेगा तभी मोक्ष मिलेगा. प्रश्न उठता है कि सबसे पहले जन्म में हमने क्या पाप किया था जो कि हमें इस धरती पर भेजा गया. क्या उस समय भी हमारा उद्देश्य या लक्ष्य भागवत प्राप्त था. यहाँ आकर प्रभु की उपासना की, गुणगान किया और फिर वापिस उनके पास चले गये. इसी के घर से आते और उसी के घर चले गये. इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि प्रभु बहुत ही स्वार्थी है जो मात्र अपना नाम जपवाने के लिए जीव को संसार में भेजता है जो कि निश्चित रूप से गलत है. यह सब बातें मानवबुद्धि की उत्पत्ति हैं और असलियत से परे है. जब हमें आने का कारण ही नहीं मालूम तो जाने का रास्ता ( मोक्ष ) मात्र कल्पना ही तो है. मोक्ष संभव है या नहीं य ह एक गूढ़ विषय है, जिसके लिए गहन शोध की आवश्यकता है.
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