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रविवार, 12 मई 2013

लोक कला साधक : सुखीराम निषाद

  • डां. पीसीलाल यादव
 छत्तीसगढ़ लोक कलाओं और लोक कलाकारों की धरती है। यहाँ के लोक कलाकारों ने अपनी लोक कला के माध्यम से विश्व के कोने - कोने में छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक गौरव को प्रतिष्ठित किया है। छत्तीसगढ़ की लोक कलाओं में लोक नाटय नाचा का स्थान सर्वोपरि है। नाचा की परम्परा को समृद्ध करने व उसे जीवंत बनाये रखने में स्व. दुलारसिंह मंदराजी दाऊ, मदन निषाद, ठाकुरराम, भुलवाराम, झुमुकदास, नियामिक दास, गोविन्द निर्मलकर, मालाबाई, फिदाबाई जैसे राष्ट्ररीय स्तर के लोक कलाकारों का अविस्मरणीय योगदान है। इसी तरह आँचलिक स्तर पर ख्याति प्राप्त अनेक लोक कलाकारों ने भी नाचा के संरक्षण और संवर्धन में अपनी सक्रिय भूमिका निर्वहन किया है। ऐसे ही लोक कलाकारों में एक हैं लोक कला साधक, लोक कवि - सुखीराम निषाद।
सुखीराम निषाद का जन्म 17 जनवरी 1938 को इतिहास प्रसिद्ध सांस्कृतिक व बलिदानी नगरी छुईखदान के एक श्रमिक परिवार में हुआ। इनकी माता का नाम दुखदई और पिता का नाम गोकुलराम निषाद था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा छुईखदान में ही हुई। इन्होंने सातवीं तक शिक्षा प्राप्त की। तब सातवीं की पढ़ाई बहुत मायने रखती थी। इनके कई साथी सातवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर शासकीय नौकरी में आ गये। किन्तु सुखीराम जी का झुकाव बचपन से नाच - गाने की ओर था, इसलिए नौकरी की ओर ध्यान नहीं दिया। इस बात का मलाल इन्हें आज भी है। छुईखदान रियासत काल से ही संगीतकारों व साहित्यकारों की नगरी रही है। यहाँ शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत को बराबर का सम्मान मिलता रहा है। तब बालक सुखीराम निषाद पर इस संगीतिक व साहित्यिक  परिवेश का प्रभाव पड़ा। वे फाग गीतों, जंवारा गीतों की टोली व भजन मंडली में जाते, गाते - बजाते। इसी अभिरूचि ने इन्हें आज एक प्रतिष्ठिïत लोक कलाकार के रूप में पहचान दी है। सन 1953 में छुईखदान में ऐतिहासिक घटना घटी। जिसमें अनेक अधिकारों की लड़ाई लड़ते छुईखदान के सपूत पुलिस गोली से शहीद हुए। इस घटना ने किशोर सुखीराम के ह्रदय को आंदोलित और उद्वेलित किया। तब इनकी उम्र 15 की रही होगी। नाच - गान की ओर रूझान तो था ही, तब कलम भी थाम ली और उस गोलीकांड की कहानी को अपने टूटे - फूटे शब्दों में इस तरह व्यक्त किया -
सुनो गोली कांड के कहानी, सुनो गोल कांड के कहानी
छुईखदान तहसील था छोटा, जहां चपरासी फंदीराम छोटा
पहले होता था यहां दीवानी, सुनो गोली कांड की कहानी।
इस तरह नाचने = गाने के साथ ही सुखीराम निषाद ने गीत - कविता लिखना भी प्रारंभ किया। कुछ समय पश्चात अपने स्थानीय कलाकारों के सहयोग से इन्होंने नाचा पार्टी का गठन 1963 के आसपास किया। तब नाचा में मंदराजी दाऊ, मदन निषाद, ठाकुरराम, भुलवाराम जैसे कलाकारों का बड़ा नाम था। इन कलाकारों को अपना आदर्श मानकर सुखीराम ने अपना प्रयास प्रारंभ किया। दिन में मेहनत मजदूरी करते और रात में नाचा। प्रयास को सराहना और सफलता मिलनी शुरू हुई। साथियों का उत्साह बढ़ा। आर्थिक संबल मिला। तब छुईखदान - गण्डई अंचल में सुखीराम - पहेलो साज का डंका बजने लगा। गाँव - गाँव में गणेश दुर्गोत्‍सव तथा मेले मड़ई में जहाँ भी सुखीराम का नाचा होता देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती। पारम्परिक गीतों के साथ तत्कालीन फिल्मी गीतों की महक के साथ गम्मतों की प्रस्तुति में हँसी के फव्हारे फूट पड़ते। दर्शक आनंद विभोर हो जाते। सुखीराम का नाम दर्शकों के जुबान पर चढ़ने लगा। सुखीराम का सहयोगी जोक्कड़ था पहलोराम। दोनों की जोंड़ी खूब जमती। पॉव में पैजना बांधकर झूम झूमकर नाचते। अपनी भाव - भंगिमा से सबको हंसाते। अपनी बातों से हंसी की फूलझड़ी छोड़ते। तब इनके साथियों में वादक कलाकार के रूप में शोभा पांडे, पूरन पांडे, बाबूराम और सुप्रसिद्ध क्लार्नेट वादक दुखुराम कामड़े। नचकारिन के रूप में पंचम पांडे चंदा नाम से स्त्री पात्र की भूमिका निभाते। हीराराम देवांगन और लक्ष्मण पांडे परी की भूमिका निभाने वाले अन्य सहयोगी थे।
उस समय सुखीराम निषाद की नाच पार्टी मधुर संगीत, आकर्षक नृत्य व हास्य से परिपूण्र गम्मत के कारण इतनी प्रसिद्ध हुई कि इनके नाच का कार्यक्रम टिकटों में चैरिटी शो के रूप में होने लगा। इस बीच इनका कार्यक्रम डोंगरगढ़, राजनांदगांव, रायपुर, दुर्ग, खैरागढ़, बेमेतरा, मोहगाँव, बालाघाट जैसे शहरी क्षेत्रों में भी चर्चित हुआ। तब यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इन पंक्तियों के लेखक को 10 - 12 साल की उम्र से इनके नाच देखने का सौभाग्य मिल रहा है। सुखीराम की कला अदायगी अदï्भूत है। ठेठ पारम्परिक ढंग से नाचा की प्रस्तुति इनकी अपनी विशेषता है। साखी व नचौड़ी गीतों में तो इनका कोई शानी नहीं है। इनकी साखी की एक बानगी देखें -
बड़े फजर पर चारी करे, परे दुवारी जाय।
पर नारी से हेत करे, तो सीधा बैकुंठ जाय॥
सामान्य अर्थों में तो यह साखी बड़ी अटपटी लगती है। आश्चर्य होता है कि दूसरे की स्त्री से प्रेम करने वाला कैसे बैकुंठ जायेगा ? पर वाह, सुखीराम जी, नाचा के दौरान इसका अर्थ समझाते हैं तो लोग बिना हंसे नहीं रह सकते। ये इसका अर्थ इस तरह बताते हैं - जो सुबह - सुबह पर चारी अर्थात परमेश्वर का नाम लेता है वह बैकुंठ जाता है। पर दुवारी जाने का मतलब सुबह शौच क्रिया से जो निवृत्त होता है वह स्वस्थ रहता है और जो पर नारी से प्रेम करता है अर्थात तुलसी के पौधे में जल डालता है वह बैकुंठ को प्राप्त करता है। स्वस्थ रहना ही बैकुंठ को प्राप्त करना है। सुखीराम निषाद अपनी नाचा प्रस्तुति में जो गीत प्रस्तुत करते हैं वे लोक जीवन से जुड़े हुए बड़े अर्थवान और उद्देश्य परक होते हैं -
ये पवन बिन कलगी नई डोलय, ये पवन बिन कलगी नई डोलय
नई डोलय, नई डोलय भईया, ये पवन बिन कलगी नई डोलय।
नांगर डोलय, बईला डोलय, अऊ डोलय जोतईया।
अरे तरी डाहर आंतर छुटे, देखत हे निंदईया
ये दे नई डोलय .....
लोकगीतों में कितनी सहज अभिव्यक्ति होती है - पवन बिन कलगी नई डोलय का आशय यह कि बिना कारण कोई कार्य नहीं होता। बिना हवा चले धूल नहीं उड़ती हिन्दी के इस मुवाहरे का सौन्दर्य भी इसके सामने फीका लगता है। इस तरह सुखीराम जी ने नाचा को लोकप्रिय बनाने में परम्परा और अभिरूचि के अनुरूप गीतों और गम्मतों को अपने श्रम और कला से संवरा।
सुखीराम निषाद की यह भी विशेषता थी कि वे नाचा के माध्यम से सामाजिक बुराईयों, कुरीतियों और विसंगतियों पर चोट करते। नशा, दहेज, अंधविश्वास, छुआछूत, बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराईयों को केन्द्र में रखकर गम्मत की प्रस्तुति करते। आवश्यकतानुसार इन गम्मतों के लिए स्वयं गीतों की रचना करते। प्रेम, श्रृंगार और सामाजिक सरोकारों के गीत बड़े लोकप्रिय हुए। उस समय वे गीतों की पुस्तिका छपवाकर भी नाच प्रदर्शन के बाद बेचते। तब पुस्तिका की कीमत चार आने होती थी। आलसी बेटे - बहू पर उनका कटाक्ष देखें -
ये जुग भईगे अंधरा, मोला सूझत नई हे ग।
कलजुग के बेटा हा सोय, बाप ल नांगर जोताय।
दाई - ददा ल गेरवा बांधे, नारी ल मुड़ चढ़ाय।
मोला  सूझत नई हे ग ...
साजपरी की भूमिका निभाने वाले पंचराम पांडे जब सज - संवर कर मंच पर उतरते तो उर्वसी से कम नहीं लगते थे। वे अपने बालों में टार्च के बल्ब लगाये होते, कमर में बैटरी छिपाये रहते और जब मटकते तो बल्ब बुग - बुग जल उठते। दर्शक चमत्कृत हो जाते। उनके इस सौन्दर्य पर सुखीराम नाच कर गीत गाते। जिसे तब के लोग आज भी याद कर आनंदित होते हैं। यह गीत श्रृंगार का सुन्दर नमूना है -
धीरे रेंगबे तोर पातर कनिहा,
ठमकत - ठमकत होवथे मंझनिया,
पंड़की तोर पाँव हवय, कोदो सांवर कारी,
नागिन कस बेनी सपोटा, मुड़ म कुहकु लाली,
तोर कनिहा ले चुंदी, ते हा मोर आड़ी पूंजी,
पारम्परिक लोकगीतों के साथ पारम्परिक धुनों पर भी जैसे - सुवा, आल्हा, ददरिया, करमा, जस - जंवरा, फाग आदि पर रचे गीतों को नाचा के माध्यम से सुनकर लोगों का मन गदगद हो जाता। उन्हें लगता कि ये तो अपने ही गीत हैं, अपनी ही बात है। सुखीराम का बारामसी गीत भी बड़ा प्रसिद्ध हुआ -
पूस महिना म कोलिहा रोये, जाड़ - सीत सहि न जाय।
माघ महिना मोटियारी रोये, मोर कुंडा लगिन धराय॥
सुखीराम की नाचा पार्टी वर्षों चलती रही और लोकप्रिय बनी। पुराने साथी एक - एक कर परमेश्वर को प्रिय हाते गये। तब विवश होकर पार्टी बन्द करनी पड़ी। उसके पश्चात् सन् 1980 से गण्डई की सुप्रसिद्ध लोक कला मंच दूध मोंगरा से जुड़े। दूध मोंगरा के माध्यम से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के साथ - साथ मध्यप्रदेश, महाराष्‍ट्र , कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा आदि राज्यों में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर छत्तीसगढ़ की माटी को गौरवान्वित किया है। '' दूध मोंगरा '' से आज भी जुड़े हुए हैं। 69 वर्ष की उम्र में स्वस्थ कभी - कभी जवाब दे जाता है पर आज भी इनका मार्ग दर्शन दूध मोंगरा के कलाकारों को मिलता रहता है। दूध मोंगरा की प्रगति देखकर सुखीराम भी सुख अनुभव करते हैं। वर्तमान में गायत्री शाक्तिपीठ छुईखदान में अपनी सेवा दे रहे हैं। स्वास्थ्य के प्रति सजग रहते हैं। प्रतिदिन सुबह - शाम स्नान व धार्मिक क्रिया, पूजा - पाठ, ईश्वर आराधना इनकी जीवन चर्या है। छुईखदान से गण्डई तक की 20 किलोमीटर की यात्रा साइकिल से करते हैं। यह सब संयम साधना का प्रतिफल है। अभाव में भी पल कर कला की जो सेवा इन्होंने की है वह और इनका संयमित जीवन तथा अनुशासन नई पीढ़ी के कलाकारों के लिए अनुकरणीय है।
सुखीराम निषाद निराले लोक कलाकार हैं। ये अपनी कला से सबको सुखी कर रहे हैं। सबको आनंद बाँट रहे हैं। सुखीराम निषाद नाम का लोक कला का यह दैदिप्यमान नक्षत्र शताधिक वर्षों तक लोक कला जगत को आलोकित करता रहे ....।
गंडई पंडरिया, जिला- राजनांदगांव ( छ.ग.)

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