इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

रविवार, 21 अप्रैल 2013

अमरबेल


 सुशील भोले
सुशील भोले
मंगलू ल जब कभू ढेरा आंटना होय त बस्ती के बाहिर म एक ठन गस्ती पेंड़ हे तकरे छांव म जा के बइठय अउ हरहिंछा ढेरा आंटय। एक पूरा कांसी के डोरी ल आंटे म वोला नहीं - नहीं म चार घंटा तो लगी जाय। आने मनखे कहूं वतका डोरी ल आंटतीस त एक घंटा ले जादा नइ लागतीस। फेर मंगलू ढेरा म आंटय कम अउ गस्ती के पेंड़ म अवइया चिरई - चिरगुन मन ला जादा देखय, तेकरे सेती वोला जादा बेरा लागय।
बड़का बांस के घेरा के पुरती झउरे रिहिसे गस्ती पेंड़ ह। देखब म बड़ा नीक लागय। गद हरियर, साल म दू पइत पिकरी फरय तेनो ह दू - दी, तीन -तीन महीना के पुरती ले अवइया - जवइया मन ला अपन सेवाद चिखावय। पिकरी मन पाक के जब चिरई जाम कस भटहूं रंग हो जाय न, त अच्छा - अच्छा मनखे के उपास - धास ह ओकर चीखे के लालच म टूट जाय। एकरे सेती वो पेड़ म रकम - रकम के चिरई चिरगुन मन ला तको पाते। मार चिंव - चिंव के बंसरी बाजत राहय दिन भर। मंगलू के मंझनिया ह एकरे सेती इहें पहाथे। कइसनों गरमी के चरपरावत बेरा होय फे र गस्ती के छांव हा जुड़ बोलय। एकरे सेती आन गांव के अवइया - जवइया अउ रेंगइया मन घलो वोकर तरी एक घड़ी बिलमें के लालच जरूर करयं।
जुड़ छांव देख के वो मेर ले नाहकत परदेसी के मन म घलो गस्ती तरी एक घड़ी सुरताए के लालच जागिस। वो साइकिल ले उतर के गस्ती तरी गिस, उहां मंगलू ल देख के वोकर मुंह मुंहाचाही करे लागिस। गोठे - गोठ म वो जानबा कर डारिस के ए गांव म एको ठन चाय ठेला नइए। ओकर मन मं उहां नानकुन ठेला राख के चाय अउ वोकर संग अउ कुछू नानमुन जिनिस मन के धंधा करे के बिचार जागीस। वो मंगलू तीर गांव के बारे म पूरा जानकारी ले के खातिर पछिस - अच्छा ए बता भइया ... ए गांव के सरपंच कोन आय ?''
- झंगलू दास''
- ओकर घर कोन मुड़ा हवय ?''
- उही दे ... छेंवा मुड़ा के तरिया तीर।'' मंगलू ह हाथ म इसारा करत कहिस।
परदेसी फेर पूछिस - अभी घर म भेंट हो सकथे का ?''
- कोन जनी भई, उहूं काम - बूता वाला मनखे आय। ऐती - तेती, अवई जवई करते रहिथे। '' मंगलू ल घलो वो मनखे के बारे म जाने बर होइस त पूछिस - अउ तंय कहां ले आवत हस जी ?''
- ए दे ... इही सिलतरा ले।''
- अरे त अतका दुरिहा नगरगांव के सरपंच ल नइ जानस ग।''
- नहीं, मैं सिलतरा के खास रहइया थोरे अंव जी। हमन आने देस ले आए हन ग ... आने देस ले।''
- अच्छा - अच्छा, त खाय कमाय बर आय हौ इहां।''
- हहो ... रात पारी म उहें के फेकटरी म काम चलथे। ऐकरे सेती मंय सोचेंव दिन - मान घलोक कुछू धंधा कर लेतेंव। वोकरे सेती  ऐदे अभी साइकिल म घूम - घूम के चना - मुर्रा अउ बिसकुट - डबलरोटी बेचत रहिथौं। फेर रात कन फेक्टरी म जागे मनखे के दिन भर साइकिल म घुमई ह नइ बनय न, तेकरे सेती इहां नानकुन धंधा खोल लेतेंव, एके जगा बइठ के धंधा करे म सरीर ल थोरिक आराम मिल जातीस।''
- अच्छा, त वोकरे सेती सरपंच ल पूछत हस। तेमा वोकर जगा कोनो मेर ठेला राखे खातिर हुंकारू भरवा सकस।''
परदेसी हीं - हीं - हीं कहिसे हांस दिस, त मंगलू फेर ओला पूछिस - त तंय ह अभी कतका दुरिहा ले घूमथस जी ?''
- अभी ... अभी केहे त सिलतरा ले चरौदा - टांड़ा होवत एदे तुंहर गांव, तहां ले बोहरही - सिलयारी डहार ले कुरूद - गोढ़ी होवत वापिस सिलतरा पहुंच जाथौं।''
- हूं ले का होगे कहिके मंगलू वोला चोंगी माखुर खातिर पूछिस। फेर परदेसी ह कुछु नइ लागय कहिके सरपंच के घर कोती चल दिस। मंगलू ढेरा आंटे ल छोड़ के वोला एक टक जावत देखे लागिस। वो जब नजर ले ओझल होगे तहां ले खीसा ले बीड़ी माचिस हेर के मंगलू धुंगिया उड़ियावत गस्ती पेड़ म ओध के ऊपर डहार ल देखे लागिस। वोह देखिस के उत्ती मुड़ा ले एक ठन कौंवा ह चोंच म अमरबेल के नार ल चाबे आवत हे। आए के बाद अमरबेल के नार ल गस्ती के एक ठन डारा म लामी - लामा ओरम दिस। मंगलू वोकर बारे म जादा गुनीस घलो नहीं। चोंगी चुहके के बाद ढेरा आंटे के बुता ल पूरा करीस तहां ले अपन घर लहुट आईस।
कुछू न कुछू ओढ़र करके मंगलू रोजे गस्ती तरी जाय, कभू गाय - गरू खोजे के बहाना, कभू गस्ती खाए के बहाना ते कभू ढेरा आंटे के बहाना। अब कभू जाय त कौंवा के ओरमाय अमरबेल ल अवस करके देखय। वोला बड़ा अचरज लागय, बिन जर के नार ह अतेक तालाबेली वाला गरमी म घलो कहसे सूखावत नइए। कभू - कभू वो गुनय के गस्ती के जुड़ छांव के सेती वोमा घाम के असर नइ होवत होही तेकर सेती न सूखावत हे, न अइलावत हे। वो ला सबले जादा अचरज तो त लागिस जब पंदरही के बीतत ले अमरबेल ल बाढ़त पाइस। वो अपन आंखी म रमंज - रमंज के देखय अउ गुनय - कौंवा लान के ओरमाए रिहिसे तेन दिन तो सवा हाथ असन दूनो मुड़ा ओरमे रिहिसे, फेर आज डेढ़ अउ दू हाथ होए असन कइसे लागत हे ?''
मंगलू बिना जड़ वाले अमरबेल के बाढ़े के गोठ ल गुनतेच रिहिसे, तहसनेच म भंइसा गाड़ा म जोराके एक ठन लकड़ी के ठेला घलो वो मेर आगे। वोकर संगे - संग परदेसी घलो साइकिल म आ के वो मेर ठाढ़ होगे। तहां ले देखते - देखते ठउका गस्ती के आगू म परदेसी के चाय ठेला चालू होगे।
अब मंगलू के गस्ती तरी अवई ह थोरिक कमती होगे रिहिसे, काबर ते परदेसी के ठेला के सेती वो मेरे लोगन के भीड़ - भाड़ बाढ़गे राहय। गस्ती पेंड़ म चिरई - चिरगुन मन के अवई घलो ह थोक कमतियागे राहय, फेर अमरबेल के फुन्नई ह अतलंग बाढ़गे राहय, वइसने परदेसी के ठेला के बढ़वार ह घलो लागय। जइसे गस्ती पेड़ के रस ल पी - पी के बिना जड़ वाले अमरबेल ह चारों मुड़ा छछलत राहत, तइसने लोक - लाज डर - भय अउ चिंता ने निसफिक्कर परदेसी के ठेला घलो बस्ती वाला मन के रसा ल नीचो - नीचो के छछलंग बाढ़य राहय।
ऐतराब के जम्मों बस्ती म वोकरे चरचा होवय। लोगन काहयं के वो हर तो केहे भर के चाय ठेला, असल म तो वोह जम्मों किसिम के निसा अउ जुआ - सट्टा खेलाए - खवाए के ठीहा आय। ऐकरे सेती उहां जम्मों लंदर फंदर किसम के मनखे मन के भीड़ लगे रहिथे। परदेसी ल गांव के मान - मर्यादा अउ लाज - सरम ले का लेना - देना ? वो इहां के मूल निवासी होतिस, चारों मुड़ा के गांव - बस्ती म वोकर लाग - मानी मन रिहितीन, तब वोला कुछु के बात - बानी हा लागतीस ? वो तो गस्ती पेड़ म बिना जड़ के छछलत अमरबेल कस रिहिसे, जेन सिरिफ दूसर के रस ल पीथे अउ पीये के बाद वोकरे छाती म छछल जाथे।
देखते - देखत परदेसी के धंधा अतका बाढ़गे के वोला एक मनखे के भरोसा सम्हालना मुसकुल होगे। तब वो अपन देस ले नता - रिस्ता अउ लरा - जरा मन ला घलोक बलाए लागिस। चारे पांच साल के बीतत ले आसपास के गांव म परदेसी के नहीं नहीं म सौ - दू सौ अकन परिवार आ के बस गे। अब वो मन ल कोनों गांव म दुकानदारी खोले बर पंच - सरपंच मन ला घलोक पूछे के जरूरत नइ परत रिहिसे। मुड़ भर - भर के लउठी धर के दल के दल जावयं अउ जेन मेर पावयं तेन मेर भुइयां ल अपन बना लेवयं।
अब वोमन सिरिफ दुकानदारी भर नइ करयं। गांव के सियानी अउ महाजनी घलो करयं। बड़का आदमी होय के अहंकार ले भरे मनखे मन के अत्याचार ले त्रस्त जनता मन वोकर मन के मीठ - मीठ बात म झट फंस जायं। तहां ले वोकर मन करा थोक - बहुत करजा बाढ़ी ले के बलदा म अपन जम्मों खेती - खार ल उंकरे नांव म चढ़ा देवयं। अब तो बस्ती के जतका बड़े - बड़े घर दुवार, बारी - बखरी अउ धनहा डोली हे सब वोकरे मन के पोगरइती होगे हे।
मंगलू महीना - दू महीना म एकाद पइत गस्ती पेंड़ करा अभी घलो जावय। एक नजर गस्ती ल देखय अउ एक नजर परदेसी के दुकान ल देखय। दूनो के दूनो चिनहाय अस नइ लागय। गस्ती के पेड़ ह अब अमरबेल के पेड़ बरोबर दिखय न तो वो कर मारे कोनो मेर गस्ती के पान - पतइया दिखय, न पहिली जइसन गुरतुर फर फरय। पेड़ घलो ह कतकों जगा ले सूखा - सूखा के चिल्फा छांड़े अस लागय। ठउका परदेसी के दुकान अउ ए बस्ती के मुल निवासी मन के रूप रंग अउ घर दुवार मन घलो दिखयं। परदेसी के परिवार चारों मुड़ा मार पिंयर - पिंयर दिखय अउ मूल निवासी मन गस्ती के पेंड़ बरोबर जगा - जगा ले चिल्फा छांड़े अस सूखागे राहयं।
मंगलू के खाली बेरा ह अब नंदिया खंड़ के डूमर तरी बीतथे। कभू - कभू जुन्ना सरपंच झंगलू दास घलो उहां पहुंच जाथे। कतको बेर सरकारी स्कूल के बड़े गुरूजी घलो अभर जाथे। तीनों झन जब सकलावयं त पांच साल पहिली के गांव अउ आज के गांव ऊपर जाया गोठियावयं। गुरूजी उनला हमेसा काहयं - बाहिर के मनखे ल इहां खातिर मोह कइसे लागही सरपंच, वो तो इहां पइसा रपोटे बर आए हे, वोकर बर वोला कुछु करना परही वो सबला करही।''
- तभो ले गुरूजी, मान - मर्यादा अउ मानवता घलो तो कुछु चीज आय ... अपन संस्कृति अउ संस्कार घलो तो कुछु चीज होथे। अरे भई, ये देस म अंगरेज मन घलो राज करे हे फेर उहू मन इहां के इतिहास, गौरव, बोली - भाषा अउ संस्कृति संग कभू छेड़छाड़ नइ करीन, फेर एक मन वोकरो ले नहाक गे हें। मंय का सोंच के दुकान खोले खातिर ए परदेसी ल जगा दे रेह हौं अउ ये सब का होगे ?''
- कुछू नई सरपंच,अब कइसनों करके फेर ए गांव अउ देस - राज के सासन - सत्ता ल, धरम - करम के जम्मों ठउर ल हम मूल निवासी मन ला अपन हाथ म ले बर लागही, तभे इहां के मरजाद बांच पाही, नइते हमर पुरखा मन काय रिहिन हें, कइसे करत रिहिन हें, तेकरो पहिचान ह मिटा जाही।''
- ये सब तो ठीक हे, फेर कइसे करे जाय तेला तुहीं मन बतातेव गुरूजी।''
- बस जतका झन समझदार अउ स्वाभिमानी किसम के मनखे हें तेमन ल जोरव, अउ जे मन उनला पंदोली दे खातिर टंगिया के बेंठ बने हें तेमन ल लेसौ - भूंजौ, तहां ले सब ठीक हो जाही। अउ हां, सबले बड़े बात तो ये हे के तहूं मन अपन आदत बेवहार, बोली - बचन, अउ रहन - सहन ल सुधारौ। तुंहर तीर - तखार के मनखे तुंहला छोड़ के वोकर मन के संग म खांध म खांध जोरे काबर रेंगथे तेला गुनौ - बूझौ। काबर ते इही सबके नांव म तो वो मन हमन ल आपस म लड़वावत रहिथें।''
- ठीक हे गुरूजी, हम अपने घर - परिवार अउ समाज म काबर लड़मर के सिरा जाथन तेला तो सोचेच बर लागही। फेर मंय सोचथौं ये टंगिया के बेंठ मन ला सबले पहिली सिरवाए जाय।''
- हां, ये तो सबले जादा जरूरी हे ....।''
मंगलू ह गुरूजी अउ सरपंच के गोठ ल कलेचुप सुनत रहिसे, वो टंगिया के बेंठ ल लेसे - भूंजे के बात सुनके पूछ परिस - गुरूजी ये टंगिया के बेंठ के अरथ ल तो मंय समझेच नइ पाए हौं।''
गुरूजी कहिस - मंगलू, तंय तो किसान मनखे अस। टंगिया - बंसुला के रोजे उपयोग करथस, फेर बता बिना बेंठ के ये टंगिया - बसुला ह कुछु काम आथे का ?''
मंगलू मुड़ ल खजवावत कहिस = नइ तो आवय गुरूजी, कले चुप एके तीर परे रहिथे।''
- हां, बस वइसनेच हमर मन के बीच म जतका झन टंगिया के बेंठ बइठे हें, जेकर मन के भरोसा परदेसी हमन ल चारों मुड़ा ले काटत - बोंगत हे, उही मन ला पहिली सिरवाए ल लागही।''
मंगलू फेर पूछिस - फेर ये मन ला जानबो कइसे गुरूजी ?''
गुरूजी वोला समझाइस - ये तो एकदम सरल हे मंगलू। जेन कोनो मनखे वो मन ल धरम के नांव म, भाखा अउ संस्कृति के नांव म, जाति - समाज या फेर चिटुक सुवारथ म बूढ़के पंदोली देवत रहिथें, उही सबो झन ल पहिली लेसे अउ सिरवाए बर लागही। चाहे वो कतकों हितु - परितु मनखे होवय तभो ओला ढलगाएच बर परही।''
- अच्छा - अच्छा ... जइसे गस्ती पेंड़ के अमरबेल ल सिरवाना हे। त वोकर जतका डारा - पाना मन वोला अपन रस पीया - पीया के पोसत हें, ते मन ला पहिली काट दिए जाय तहां ले अमरबेल खुदे सिरा जाही ... कइसे गुरूजी ?''
- वाह भई मंगलू ... अब्बड़ सुघ्घर बात बोले हस। गस्ती के पेंड़ ल बचाना हे, अउ वो मा नवा डारा - पाना जमवाना हे। त अमरबेल म बिपतियाये जम्मो डारा - पाना ल तो काटेच ल परही। बस इही किसम के परदेसी के जाल ले ये भुइयां अउ इहां के अस्मिता ल बचाए के उपाय घलो हे। बस तुमन दुनों अपन - अपन बुता म भीड़ जावौ। सरपंच जम्मों स्वाभिमानी मन के फौज बनावय अउ तहां ले जन जागरन के बुता करय, अउ तंय ह गस्ती के पेंड़ म नवा डारा - पाना उल्होए के उदिम म भीड़ जा, अउ हां ... जब कभू सौ - पचास नेवरिहा टुरा मन के तुंहला जरूरत परही त वोकर व्यवस्था ल मंय करहूं, ऐ बात के भरोसा देवत हौं। अपन स्कूल के जम्मों पढ़इया लइका मन ला तुंहर संग खांध म खांध मिला के रेंगे खातिर भेज दे करहूं जी, तुमन देखिहौ तो भला।''
गुरूजी के बात ल सुनके मंगलू के मन म फेर गस्ती के छांव तरी बइठ के ढेरा आंटे के भरोसा जागिस। वोकर मन - अंतस म रकम - रकम के चिरई - चिरगुन मन के चींव - चींव के भाखा सुनाए लागिस। वो अपन घर म आये के बाद कोठी कुरिया के संगसा म माढ़े टंगिया ल हेर के मार टेंवना पखरा म टें - टें के अमरबेल ल पोसत डारा - पाना मन ला काटे के उदिम करे लागिस।
पता - 41 - 199, रिक्शा स्टैण्ड के सामने गली,
संजय नगर, टिकरापारा, रायपुर ( छग.)

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