संपादकीय लेखन पर विचार कर ही रहा था कि डाकिया ने एक पत्र लाकर दिया.पत्र गुरूर से आया था और उस पत्र को प्रेषित किए थे कहानीकार भावसिह हिरवानी. पत्र पढ़ने के बाद मुझे लगा इस पर ही क्यों न संपादकीय लिख लिया जाये. पत्र लिखा गया था कि विचार वीथी का पहला अंक मिला. आपने पत्रिका में मेरी कहानी प्रकाशित की उसके लिए मैं हृदय से आभारी हूं.आपने डाँ महमल्ल की कविता प्रकाशित की उसके लिए धन्यवाद. पर प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ और सिर्फ संपादक व प्रकाशक ही धन्यवाद के अधिकारी होते हैं.क्या सिर्फ और सिर्फ लेखक ही आभारी हो सकते हैं. क्या प्रकाशक संपादक का दायित्व नहीं बनता कि हम उन लेखकों को ही क्यों न हृदय से आभार व्यक्त करें जिनकी रचना शैली के बदौलत हमारे द्वारा प्रकाशित पत्र - पत्रिका में जान आती है.वह पठनीय बन पाती है.आभार तो संपादक प्रकाशक को रचनाकार का व्यक्त करना चाहिए मगर ऐसा होता कहां हैं.संपादक प्रकाशक तो मात्र किसी रचनाकार की रचना प्रकाशित कर ऐसा महसूस करते हैं मानों वे रचनाकार पर एहसान कर दिये मगर सत्य यह है कि पत्र - पत्रिका की महत्ता रचाकार की मेहनत, उसकी लेखनीय शैली, उनके विचार से बढ़ती - घटती है.किसी भी पत्र पत्रिका में चार चांद लगाने का कोई काम करता है तो वह है रचनाकार की रचना.
इस अंक के संपादकीय से कुछ पत्र - पत्रिकाओं के संपादकों - प्रकाशकों को उजर हो सकती है मगर इसकी चिंता कतई नहीं.वास्तव में देखा जाये तो संपादकों प्रकाशकों को उन रचनाकारों का हृदय से आभारी होना चाहिए जिनकी लेखनीय ताकत के बदौलत प्रकाशित पत्र - पत्रिकाओं का महत्व बढ़ जाता है.
अगस्त 2007
संपादक
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