मानव समाज में आदिकाल से ही दो तरह की संस्कृतियाँ प्रचलित रही है. (1) सभ्य संस्कृति (2) लोक संस्कृति । ये दोनों प्रकार की संस्कृतियाँ एक ही भू खण्ड पर एक ही जातीय समूह में, एक ही समय पर समानान्तर रूप में सह अस्तित्व के साथ उपस्थित रही है. वतर्मान में भी दोनों प्रकार की संस्कृतियों का अस्तित्व पूरे विश्व में व्याप्त हैं.
इन दोनों प्रकार की संस्कृतियों में उत्सर्जित साहित्य और कला के भी दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं. सभ्य संस्कृति ने शास्त्रीय साहित्य और कलाओं को जन्म दिया तथा लोक संस्कृति ने लोक साहित्य और लोक कलाओं को सृजित किया. इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव समाज में साहित्य और कला की दो धाराएं सदा से ही प्रवाहित हो रही हैं. जो साहित्य और कला नियमबद्ध और लिखित है- वह शास्त्रीय हैं, तथा जो साहित्य और कला अलिखित होते हैं, अथार्त मौखिक परम्परा में होते हैं तथा पीढ़ी दर पीढ़ी परम्पागत रूप से हस्तान्तरित होते रहते हैं - वह लोक साहित्य है.
उपरी तौर पर शास्त्रीय और लोक शब्द परस्पर विरोधी भाव को प्रकट करते हैं. कतिपय मूधर्न्य विद्वानों और विचारकों के विचारों से इसकी पुष्टि होती है. इस संदर्भ में दो तरह के विचारकों ने अपने मत का प्रतिपादन किया है. जिनमें (1) पश्चात्य विचारक और (2) भारतीय विचारक हैं.
हिन्दी के लोक शब्द के लिए अंग्रेजी में फोक शब्द का प्रयोग होता है. फोक शब्द की व्याख्या एनसालोपडिया ब्रिटैनिका में इस तरह से की गई है - आदिम समाज में तो उसके समस्त सदस्य ही फोक होते हैं और विस्तृत अर्थ में इसकी परिधि में, सभ्य से सभ्य राज्य की समूची जनसंख्या आ जायेगी पर सामान्य प्रयोग में पाश्चात्य प्रणाली की सत्यता के लिए फोक लोर फोक म्यूजिक आदि संयुति शब्दों में. इसका अर्थ संकुचित हो जाता है और केवल उन्हीं का ज्ञान कराता है जो नागरिक संस्कृति और विधिवत शिक्षाओं की धाराओं से परे हैं. जो निरक्षर है अथवा जिन्हें मामूली सा अक्षर ज्ञान है - ग्रामीण और गंवार है.
इस उदाहरण से मिलते जुलते विचार डाँ. वाकर्र के भी हैं. उनके अनुसार - फोक से किसी सभ्यता से दूर रहने वाली पूरी जाति का बोध होता है. लेकिन जब य ही फोक लोर के साथ अभिविति होता है तो इसका अर्थ बदल कर असंस्कृत लोग हो जाता है. फोक लोर शब्द का पहला प्रयोग सन 1846 ई. में एक अंग्रेज पुरातत्वविद विलियम जाँन टाँमस ने किया था. तब से यह शब्द प्रचलन में आया है. फोक लोर शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है - पहला सामान्यत: लोक प्रचलित (साहित्ियक) कथा गल्प रीति रिवाज विश्वास जादू टोना तथा अनुष्ठानों में प्राप्त होने वाली अलिखित परंपराओं के अर्थ में तथा दूसरा उस विज्ञान के अर्थ में जो इस सामग्रियों का अध्ययन करना चाहता है.
भारतीय विद्वान डाँ. सत्येन्द्र फोक अथवा लोक की व्याख्या करते हुए कहते हैं - लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्य संस्कार शास्त्रीय और पाण्िडत्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है.
उपरोक्त कथन से अभिजात्य और लोक को समझने में मदद मिलती है. एक तरफ अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना है तो दूसरी ओर लोक में, मात्र परम्परा का प्रवाह है.
पाश्चत्य विद्वानों के विचार भारतीय परिवेश में, कितना सटीक है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है. भारतीय समाज में किसी भी निरक्षर और आथिर्क रूप से विपन्न व्यक्ति को असंस्कृत या असभ्य नहीं कहा जाता है, क्योंकि भारत देश की अपनी पृथक जातीय सभ्यता रही है, जो सभ्य समाज और लोक दोनों में कमोबेश प्रचलित है. दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारतीय जनमानस में सांस्कृतिक आदान - प्रदान की उदार भावना सदियों से रही है.
भारतवर्ष कृषि प्रधान देश है. अत: यहाँ की लोक संस्कृतियों में कृषक जीवन के सुख - दुख, हर्ष - विषाद, आवश्यकताएं, अभाव, कठिनाइयाँ और सुख - समृद्धि के अवसरों की अभिव्यक्तियों में समाहित रहती है. चूंकि आमजन जिनका संबंध श्रम और उत्पादन से है वे लोग शिक्षा से वंचित रहे हैं. शिक्षा से वंचित होने का अर्थ है ज्ञान से वंचित होना. अत: उनमें ज्ञान प्राप्त की ललक सदा से ही रही है. उन्हें जहॉं से , जैसा भी ज्ञान मिला उसे वे सहर्ष ग्रहण करते रहे हैं. यही वजह है कि भारत का प्रत्येक क्षेत्र की लोक संस्कृति में, समग्र भारत की जातीय संस्कृति की छाप दिखाई देती है.
छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में लोक साहित्य , लोकगीत, लोक संगीत, लोककला, लोकगाथा का विपुल भंडार है. लोक गीतों में सुआ, ददरिया, करमा, जसगीत गौरागीत, फागगीत, पंथीगीत, डंडा गीत, जंवारा गीत, भोजली गीत, बांस गीत आदि छत्तीसगढ़ी लोक जीवन की बगिया के सुवासित सुमन है. इन लोक गीतों के दो प्रमुख हो रूप होते हैं - एक छोटे मुक्तिक गीत जिनकी अवधि पांच से अधिकतम पन्द्रह मिनट की होती है दूसरा उसका कथात्मक बड़ा रूप होता है. अंग्रेजी में इसे लिरिक और बैलेड कहते हैं. बैलेड की परिभाषा प्रो. किटरिज ने इस प्रकार से की है - बैलेड वह गीत है, जिसमें एक कहानी कही जाती है. अथवा यों कहे कि कोई कथा ही गीत रूप में कही जा रही है. दरअसल अंग्रेजी का बैलेड हिन्दी में लोकगाथा है.
लोकगीत और लोकगाथा के संबंध में छत्तीसगढ़ी साहित्य समीक्षक डाँ. विनय कुमार पाठक का कथन है - जन मन जीवन के अनुभव का प्रारूप ही लोक द्वारा प्रदत्त एक सूत्र है, जो प्रगीत तत्वों से मिलकर लोकगीत तथा कथा से जुड़कर लोकगाथा बनती है.
छत्तीसगढ़ में लोकगाथा की समृद्ध परम्परा है. जिनमें पंडवानी, ढ़ोलामारू और भरथरी प्रमुख है. लोकगाथा की चर्चा प्रसंग में एक बात ध्यान देने योग्य है. सामान्यत: सभ्य या शिष्ट साहित्य जिसे शास्त्रीय साहित्य कहते हैं वह लोक साहित्य का प्रतिरोधी प्रतीत होता है. किन्तु लोक गाथाओं के संदर्भ में यह अक्षरस: सत्य प्रतीत नहीं होता है. छत्तीसगढ़ की पंडवानी गाथा का मुख्य कथानक महाभारत है. भरथरी की गाथा भी ऐतिहासिक चरित्र पर आधारित है. लोकगाथाओं के परिप्रेक्ष्य में शास्त्र और लोक का विरोध दिखाई नहीं देता है. बल्कि शास्त्र से ग्रहण करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है. यद्यपि यह अलग बात है कि लोकगाथा गायक के शास्त्र से प्राप्त तत्वों को अपने नीजी सांस्कृतिक रस में मिलाकर एक नया स्वरूप प्रदान कर देता है तथापि शास्त्र की घटना और पात्र यथावत रहते हैं.
शास्त्र और लोक के अन्तर्सम्बन्धों की चर्चा करते हुए डाँ. कमलेशदत्त त्रिपाठी कहते हैं - लोक और शास्त्र में एक सतत संवाद और आदान - प्रदान का संबंध है. जो कुछ लोक में है वही कभी शास्त्र बनता दिखता है और जो कुछ शास्त्रीय रूप है, वह कालान्तर में शास्त्रीय न रहकर लोक में जीवित दिखता है. अब शास्त्रीय और अभिजात संस्कृति मुरझाने लगती है या मलिन हो जाती है, तो लोक से जीवन रस पाती है. ठेठ वन्य और ग्राम्य संस्कृति का विलक्षण अनुशासन है. आश्चयर्जनक रूप से शास्त्र का सम्प्रवाह वहां जागरूक दिखता है. लोक और शास्त्र के मध्य विग्रह और विरोध कम संवाद और विनिमय का संबंध अधिक है.
भरथरी गाथा के मूल उत्स को हम शास्त्रीय मान सकते हैं, क्योंकि सभी लोकगायकों ने भरथरी को उज्जैन का राजा माना है. मालवी लोकगाथा मालवी का लोक साहित्य - डाँ. श्याम परमार) राजस्थानी लोकगाथा - देवीलाल तथा भोजपुरी लोकगाथा डाँ. सत्यव्रत सिन्हा ने भरथरी को उज्जैन के राजा के रूप में स्थान मिला है. शास्त्र के अनुसार उज्जैन का राजा भरथरी का वास्तविक नाम भर्तहरि था. उन्होंने शतक जमी ( श्रृंगार शतक, नीतिपरक और वैराग्य शतक) की रचना की थी. उनकी कथा इस प्रकार है - आज से लगभग दो हजार चार वर्षों पूर्व भारतवर्ष की राजधानी उज्जैयनी थी. जिसे वतर्मान में उज्जैन कहते हैं. मालवा प्रान्त के महाराजा भतृर्हरि परमार वंश के थे और राजा विक्रमादित्य उनके छोटे भाई थे. प्रजावत्सल महाराजा भतृर्हरि महान विद्वान अद्वितीय कवि, वैयाकरणिक, दाशर्निक, पुरातत्ववेत्ता तथा प्रकृति - परीक्षण - निपुण थे. उनकी न्यायप्रियता और प्रजा हितैषिता की चर्चा पूरे भारतवर्ष में थी.
पूर्व में राजा भर्तहरि के दो विवाह हो चुके थे फिर भी उसने पिंगला नाम की राजकुमारी से तीसरा विवाह किया. रानी पिंगला असाधारण सुन्दरी थी. जिसके कारण महाराज उस पर ऐसे मोहित हुए कि उसने अपनी विधा, बुद्धि, विवेक और विचार को ताक में रख दिया. राजा भतृर्हरि रानी पिंगला के हाथों की कठपुतली बन गये. राजा पिंगला रानी को बेहद प्यार करते थे किन्तु रानी पिंगला अपने ही राज्य के एक मामूली सेवक दरोगा के प्रेमपाश में बंध गई थी. जिसकी जानकारी विक्रमादित्य को हो जाती है. वह अपने ज्येष्ट भ्राता भर्तहरि को वस्तुस्िथति की जानकारी देता है और सावधान रहने को कहता है. किन्तु रानी पिंगला की कुटिल चालों के चलते विक्रमादित्य झूठा साबित हुआ. दण्डस्वरूप उसे राजासी से निवार्सित जीवन मिला. एक दिन उज्जैन का एक गरीब ब्राम्हण की तपस्या सफल होती है. उसके आराध्य ने उसे वरदान स्वरूप अमर फल दिया. उसे खाकर कोई भी अजर अमर हो सकता था. उसे वह ब्राम्हण अपनी पत्नी को खाने के लिए देता है. पत्नी स्वयं न खाकर अपनी गरीबी का हवाला देकर उस फल को राजा भर्तहरि को देने के लिए मना लेती है. ब्राम्हण उस अमर फल को ले जाकर राजा को दे देता है. चूंकि राजा अपनी प्रिय पत्नी पिंगला के प्रेम जाल में बुरी तरह उलझा हुआ था अत: उसने वह फल रानी पिंगला को दे दिया. रानी पिंगला उस फल को स्वयं न खाकर अपने प्रेमी दरोगा को दे देती है. चूंकि दरोगा रानी से प्रेम नहीं करता था इसलिए उसने उस फल को नगर की एक वेश्या जिसे दरोगा प्रेम करता था उसे ले जाकर दे दिया. वेश्या ने विचार किया कि वह तो जीवन भर पाप कर्म करके रोटी खाती है, वह अमर होकर क्या करेगी ? इस विचार के आते ही वह उस फल को राजा भर्तहरि को देती है और निवेदन करती है कि राजा आप धमार्त्मा प्रजापालक है. इस फल को खाकर अमर हो जाइये. राजा भतृर्हरि को रानी पिंगला के विश्वासघात से बहुत दुख हुआ. उसने फल को और राजपाठ त्याग कर वैराग्य ले लिया. यह राजा भतृर्हरि की शास्त्रीय कथा है किन्तु भिन्न - भिन्न स्थानों के लोकगाथा - गायकों के द्वारा प्रस्तुत कथाएँ सवर्था भिन्न रूप से कही जाती है. सभी गाथाकारों की कथा में जो तथ्य समान रूप से समाहित रहते हैं, वे इस प्रकार हैं - (1) राजा भरथरी उज्जैन का राजा था (2) उसकी पहली पत्नी का नाम सामदेई था (3) उसकी दूसरी पत्नी का नाम पिंगला था, जो सामदेई की छोटी बहन थी. (4) राजा भर्तहरि घटना विशेष के कारण वैराग्य ले लेता है (5) उसका छोटा भाई विक्रमादित्य था जो कलान्तर में प्रतापी राजा हुआ. इस तरह उपरोक्त तथ्यों की समानता सभी क्षेत्रों में प्रचलित भरथरी की गाथा में मिलती है. छत्तीसगढ़ी में भरथरी गायन मुख्य रूप से श्रीमती सुरूज बाई खाण्डे करती है. उसके द्वारा प्रस्तुत कथा में भी भरथरी उज्जैन के राजा के रूप में प्रस्तुत होता है -
सुन ले राजा मोर बात
गढ़ उज्जैन म राजा भरथरी हावय न
जेकर नारी ये गा, सामदेई जेकर नाव ।
भरथरी की माता का नाम फुलवा था. श्रीमती सुरूज बाई खाण्डे द्वारा प्रस्तुत गाथा में राजा भरथरी को गुरू गोरखनाथ का चेला बताया जाता है. गुरू गोरखनाथ नाथ सम्प्रदाय के प्रवतर्क थे. अत: नाथ सम्प्रदाय से सम्बन्धित शब्दावलियों का और तत्सम्बन्ध भावभूमि का स्पर्श मिलता है -
साते बइरी सतखण्डा ये
सोरा खण्ड के ओगरी
छांहे जेकर मया बइठे हे ।
राजा भरथरी के कामरूप देश (आसाम) पहुंच ने पर वहां जादूगरिनों के द्वारा जादू टोने का प्रयोग किया जाता है. इस प्रसंग में राजा भरथरी और गुरू गोरखनाथ को जादू के द्वारा पशु बनाया जाना तथा सामदेई और रूपदेई के द्वारा जादू के प्रभाव को खत्म करना, ये सभी प्रतीकात्मक है. कामनाओं के क्षेत्र में पहुंच कर थोड़ी सी भी लापरवाही सिद्ध पुरूष को भी पशुवत व्यवहार करने के लिए विवश कर सकती है. कामनाओं के जादू को योग साधना के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है -
देख तो कारी भूरी चांउर
मोर मारत हे ना
ये दे भेड़िया बना देवव
नई तो बोकरा बनाव
अइसे जादू रानी मारत हे ।
श्रीमती सुरूज बाई खा·डे की प्रस्तुति में सतनाम शबद का उल्लेख आता है. जैसे -
तैंहर ले ले बेटी
सतनामे ल ओ ।
वह गुरू घासीदास के सतनाम का ही प्रभाव है. प्रत्येक कलाकार या सजर्क की कृतियों में किसी न किसी रूप में उनके संस्कारों और मान्यताओं का प्रभाव होता है. चूंकि श्रीमीत सुरूजबाई खाण्डे छत्तीसगढ़ी कलाकार है और यहाँ गुरू घासीदास के सतनाम का व्यापक प्रसार प्रचार है. गुरू घासीदासजी के सतनाम आन्दोलन ने पिछले दो सौ वर्षों से यहां के जनमानस को प्रभावित किया है. अत: उसकी चमत्कारिक शिष्टता का उल्लेख कथा में लाकर गायिका ने अपनी माटी के गंध को भर दिया है.
सुनि ले भगवान
सतनाम ल ओ
मोर लेई के न
अमृत पानी ल राम
पावन कर तेंह ओ ।
इसी तरह सात और संत का उल्लेख भी आता है.
सात जोगी सात महिमा ये
सात बुझे ल ओ
तैंहर ये दे बन जाबे
दुनियां मा एक रात रहिहो ।
सतनाम पंथ में सात अंक की काफी महिमा है. संत ही ईश्वर है. सात की गिनती रहस्यात्मक है तथा यंत्र और तंत्र के संकेतक है.
भरथरी के जन्म के पूर्व उसकी माता फुलवा का संतान विहीन होने की पीड़ा का वर्णन आता है. यह दर्द स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जन - जीवन में विवाह के बाद यदि चार या पांच वर्षों तक संतान न हुई तो यह आमचर्चा और चिंता का विषय बन जाता है. ऐसी नारी को ताने भी सुनने को पड़ते हैं. जिससे उसका दुख दुगुनी हो जाता है. इस दुख का इजहार निम्न प्रकार से होता है -
फाट जातीस धरती हमा जातेंव
दुख सहे नई जाय
सुन ले जोगी मोर बाते ल
का तो दुख ल राम
मय बतावंव जोगी
संगी जंवरिहा, तरिया नदिया,
ताना मारत हे राम ।
छोटे - छोटे के न
सुन्दर गोदी मा ओ
बालक खेलत हे न
मोर अभागिन के गोदी म
बालक ओ
जोगी नई ये बाई ये दे जी ।
भरथरी गाय न की ये प्रारंभिक पंक्तियां राजा भरथरी के अल्पायु में मृत्यु होने की ओर संकेत करती है क्योंकि ज्योतिषी ने जन्मकुण्डली बना कर बता दिया था कि उसकी आयु मात्र बारह वर्ष की ही है.
छत्तीसगढ़ी कथा से भिन्न भोजपुरी में प्रचलित कथा इस प्रकार है - राजा भरथरी योगी बनकर जंगल की ओर जाने लगे. तब रानी सामदेई दुख प्रकट करती है. भरथरी के पूछने पर वह कहती है कि पलंग की टूटने का रहस्य बहन पिंगला ही बता सकती है. राजा भरथरी शिकार के लिए जाते हैं. जिस मृग का वे पीछा करते हैं उसकी 17 सौ रानियां थीं. वे मृग को न मारने का निवेदन करती है. भरथरी मृग को मारता है. सातवां बाण मृग को लग जाता है. मरते समय मृग ने कहा कि उसकी आँखें रानी को, सिंग राजा को और खाल किसी साधू को दे दिया जाये. वह भरथरी को श्राप देता है. भरथरी योगी बन जाता है. गुरू गोरखनाथ ने भरथरी को समझाया कि राजा होने के कारण वह कुश पर सो नहीं पायेगा, सुन्दर स्त्रियों को देखकर रह नहीं पायेगा. इसलिए उसे योग नहीं मिलेगा. सामदेई राज्य में ही रहकर योग साधने को कहती है. भरथरी उसे गंगा लाने को कहता है. वह गंगा ला देती है. भरथरी नहीं मानता. रानी चौपड़ खेलने को कहती है. राजा भरथरी खेलकर हारने लगता है. पर आखिरी दांव गुरू गोरखनाथ के प्रताप से जीत जाता है. भरथरी योगी बन जाता है.(भोजपुरी लोकगाथा - डाँ. सत्य व्रतसिंह )
डाँ. रामकुमार वर्मा ने राजा भरथरी की कथा का कुछ इस प्रकार से उल्लेख किया है - राजा भरथरी एक बार शिकार खेलने गये थे. उन्होंने देखा कि एक आदमी के शव के साथ उसकी पत्नी ने भी चिता में कूदकर अपना प्राण तज दिया. राजा भरथरी घर आकर रानी पिंगला की परीक्षा लेते हैं. रानी पिंगला कहती है कि भरथरी की मृत्यु का समाचार ही उसकी जान ले लेगा. भरथरी शिकार खेलने जाते हैं और झूठा समाचार भेज देते हैं. रानी पिंगला मर जाती है. गुरू गोरखनाथ रानी पिंगला को जीवित कर देते हैं और भरथरी उनका शिष्य बनकर वैराग्य ले लेता है ( हिन्दी साहित्य का आलोच नात्मक इतिहास पृ - 171)
उपरोक्त कथाओं के अतिरिक्त संभव है - भरथरी की अन्य प्रकार की भी कथा किसी स्थान विशेष पर प्रचलित हों किन्तु अभी तक प्राप्त भरथरी का वणर्न सवर्था अलग - अलग रूप में होता आया है. इसके बावजूद भरथरी का उज्जैन का राजा होना, सामदेई और पिंगला उसकी रानियां और अंत में राज्य का वैराग्य ले लेना. ये बातें सभी प्रकार की भरथरी कथाओं को एक सूत्र में बांध देती है.
श्रीमती सूरज बाई खा·डे के भरथरी गाय न में सवार्धिक सम्मोहक आकषर्क और मधुरपक्ष है - उसकी गायन शैली. श्रीमती खाण्डे कण्ठ से गाती है. गायकी के पंडितों का कथन है कि नाभि और कण्ठ को मिला कर जो स्वर साधा जाता है, उसमें नाद ब्रम्ह की प्रस्फुटित होती है. वह साधक और परिवेश को मंत्र मुग्ध कर देती है. श्रीमती सूरूज खाण्डे की भरथरी में उनकी वाणी का जादू चंहुओर वशीकरण मंत्र का काम करता है. इसीलिए छत्तीसगढ़ की भरथरी लोकगाथा अन्य क्षेत्रों की तुलना में सवार्धिक प्रभावशाली व कणर्प्रिय है. फलस्वरूप उसकी लोक रंजकता स्वयं सिद्ध है. लेकिन यह भी सत्य है कि एक साहित्यकार, कलाकार, गायक या किसी भी रचना का रचनाकार केवल मनोरंजन के लिए ही रचना नहीं करता है. केवल रिझाने के लिए ही नहीं गाता है. प्रत्येक सजर्क उपस्िथत मूल तत्व को लेकर वतर्मान और भविष्य की बेहतरी की परिकल्पना को साकार करने का संदेश भी देता है. जो आज है या कल था उससे भी बेहतर मनुष्य और उसका समाज बने इस उदान्त भावना को अपने सृजन में अवश्य भरता है.
यह परम्परा केवल लोक में ही नहीं शाÍ में भी आदिकाल से चली आ रही है. रामायण की रचना सवर्प्रथम महर्षि बाल्मीकी ने संस्कृत में की थी. वह संस्कृत की लिखी गई थी. उस शास्त्रीयता को अवधि में रामचरित मानस लिखकर गोस्वामी तुलसीदास ने चुनौती दी. गोस्वामी तुलसीदास ने न केवल शास्त्र को चुनौती दी बल्कि तत्कालीन समाज, राजसत्ता और धमार्धीशों को भी चुनौती दी. उन्होंने राजसत्ता के लिए रामच रित मानस में बेहतर शासन व्यवस्था की कामना की -
दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
राज राज्य काहु नहि व्यापा ।।
उन्होंने लिखा है कि वह वतर्मान राज्य के स्थान पर ऐसा रामराज्य चाहता है जिसमे शारीरिक, दैविक बाहृय कष्ट किसी भी जन को न हो. अपने समय के समाज को बेहतर बनाने की आकांक्षा को प्रकट करने के लिए रचनाकारों और कलाकारों के द्वारा प्राचीन शास्त्र को आधुनिक परिवेश में रूपान्तरित किया जाता रहा है. इसीलिए रामचरित मानस में अनेक स्थानों पर क्षेपक कथाओं का उल्लेख आता है. क्षेपक कथाएं अथार्त मूल ग्रंथ से हट कर ली गई कथाएं. यह परम्परा न केवल शास्त्रों में रही वरण लोक में भी यह प्रथा कायम है. यही कारण है कि भरथरी की कथा उज्जैन नगरी से प्रारंभ होकर जिस भी स्थान पर पहुंची वहां की स्थानीय संस्कृति में ढ़लती गई तथा समाज की तत्कालीन समस्याओं के निदान के लिए क्षेपक कथाओं की तरह घटनाएं एवं पात्रों का समय - समय पर सृजन होता गया. भरथरी की कथा मं जो विभिन्नता दिखाई देती है उसके पीछे इसे प्रस्तुत करने वाले कलाकारों की अपनी रागात्मकता के साथ तत्कालीन सामाजिक आथिर्क, धामिर्क और राजनीतिक अन्तविर्रोध की परिस्थियां भी उत्प्रेरक रही है.
वतर्मान में छत्तीसगढ़ में भरथरी लोक गाथा - गायन की कला छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की उज्जवल मोती है. यह गाथा छत्तीसगढ़ी संस्कृति की पहचान बताने वाली एक सशक्त लोक विधा है. हमारी सांस्कृतिक धरोहर है अत: इसके संवधर्न के लिए ईमानदार और साथर्क प्रयास चलते रहना चाहिए.
- संदर्भ ग्रंथ -
(1) छत्तीसगढ़ी लोक जीवन और लोक साहित्य का अध्ययन - डाँ. शकुन्तला वर्मा
(2) लोक साहित्य विज्ञान - डाँ. सत्येन्द्र
(3) संस्कृत वाड्यमयमं लोकोन्मुखता - डाँ. कमलेशदत्त त्रिपाठी
(4) भरथरी - छत्तीसगढ़ी लोकगाथा - नंदकिशोर तिवारी
(5) छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की समीक्षा को डाँ. विनय कुमार पाठक का प्रदेय - डाँ. मनीष कुमार दीवान
(6) भोजपुरी की लोकगाथा - डाँ. सत्य व्रत सिन्हा
(7) राजस्थान लोकगाथा - देवीलाल सांभर
(8) मालवी के लोक साहित्य - डाँ. श्याम परमार
- ग्राम - फरहद ( सोमनी), जिला - राजनांदगांव (छ.ग.)