इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

व्यंग्य - विधा और शैली

प्रो. बांके बिहारी शुक्ल
साहित्य में सत्य शिव एवं सुन्दर का समन्वय रहता है। शिव तत्व की साधना दो प्रकार से होती है। एक यथार्थवादी ढंग जैसे दर्पण में हम अपना चेहरा देखकर सुधार करते हैं। दूसरा आदर्शवादी दृष्टिï जिसमें मान्य आदर्शों के आधार पर अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती है।
साहित्य को मुख्यत: दो विधाओं में पढ़ा जाता है, पद्य और गद्य। इनमें भी बहुत सी उपविधायें हैं। गद्य के अंर्तगत एक विधा व्यंंग्य साहित्य है इससे समाज का हित साधन यथार्थवादी ढंग से होता है।
सामान्य बातचीत में भी हम सभी व्यंग्य का प्रचुर प्रयोग करते रहते हैं। जो व्यक्ति अपनी भाषा में इसका जितना अधिक प्रयोग कर पाता है वह समाज में वाकपटु माना जाता है एवं उसे लोकप्रियता भी मिलती है। छत्तीसगढ़ी में एक लोकोक्ति है खाय बर बासी, बताये बर बतासा अर्थात करनी और कथनी में बहुत भेद रहता है।
यद्यपि हिन्दी में व्यंग्य साहित्य आधुनिक काल की देन है तथापि किसी न किसी रूप में साहित्य उदïï्भव काल से रहा है क्योंकि यह कथ्य ही नहीं शैली भी है। वचन वक्रता यह वक्रोक्ति इसके लिए उपयुक्त माध्यम है। संस्कृत साहित्य शास्त्र में आचार्य कुन्तक ने इसे वकोक्ति : काव्यं जीवितमï् कहकर काव्य की आत्मा मान लिया था।
व्यंग्य साहित्य के भी दो रूप हो सकते हैं 1. विध्वंसात्मक या खंडनात्मक व्यंग्य 2. रचनात्मक व्यंग्य। कबीर का पद - मूड़ मुड़ाये हरि मिलै .... भेंड़ न बैकुंठ जाय प्रथम कोटि का व्यंग्य है।
डां. नामवर सिंह ने सम्प्रेषण की समस्या को आधुनिक साहित्य की प्रमुख समस्या माना है। महाभारत के युद्ध के बाद भी यह समस्या उत्पन्न हुई थी। महर्षि ब्यास कहते हैं - उर्द्दबाहु विरोभ्येष न श्रुणेति कहाचन। आज की जटिल मनोवृत्ति को भी अमिधा में कह पाना कठिन होता जा रहा है इसीलिए व्यंग्य साहित्य की लोकप्रियता बढ़ रही है।
डां. रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि विकासशील संस्कृति के तत्वों के अनुरूप अपने आप को परिष्कृत करते हुए आप को एक काव्यात्मक भाषा तथा भविष्य प्रक्षिप्त दृष्टिï के लिए अर्थ गर्भ शब्दों का प्रयोग वांछित है। व्यंग्य इस हेतु उपयुक्त है। वैज्ञानिक और मशीनी संस्कृति तथा धार्मिकता का विघटन इसके कारण है। आधुनिक संवेदना में लेखक का नया सौन्दर्य बोध विशेष महत्व रखता है। केक्टस नई सौन्दर्य चेतना का प्रतीक है। व्यंग्य इसका अच्छा माध्यम है।
क्या मानव चिंतन मानव की भौतिक क्रियाशीलता से निरपेक्ष होता है? असंगति तब पैदा होती है। जब प्रतिभा और व्यक्ति को देशकाल निरपेक्ष मान लिया जाता है। प्रतिभा का दबाव कलाकार के भीतर एक वृहद असंतोष से ही उसका संघर्ष प्रारम्भ होता है। व्यंग्य साहित्य इसका ही परिणाम है। आजकल औसत बुद्धिजीवी अजनवीपन, अकेलेपन और संत्रास की माला जप रहा है और चूंकि अपने संदर्भों से असम्पृकृ है। एक धुरीहीनता के शिकार है। आप भारतीय एक स्वप्र भंग से गुजरा है और जीविकोपार्जन की सुविधा और सुरक्षा के लिए वह तथाकथित वैचारिक स्वतंत्रता और रचना आस्था तक छोड़ने को मजबूर है। इसका प्रतिबिंब व्यंग्य साहित्य में दिख पड़ता है।
आज का संसार जितना भी छोटा हो किंतु है बड़ा जटिल। इस जटिलता को व्यक्त करने के लिए अब सरल भाषा सक्षम नहीं है। छत्तीसगढ़ के गांवों में भी किसी व्यक्ति की कुटिलता को व्यक्त करने के लिए कहते हैं - हंसिया बरोबर सीधा हे। एक नजर में यह वाक्य सिधाई को व्यक्त कर रहा है। चूंकि हंसिया का स्वभाव ही टेढ़ा है अस्तु अंतत: टेढ़ेपन को ही इंगित किया जा रहा है। आज की जटिलता को व्यक्त करने के लिए भाषा व्यंग्य की ही हो सकती है।
प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य भतृहरि ने लिखा है - अनादि निधान बह्रïा शब्द एव विर्वतायें। यह शब्द अमिधा से कब लक्षणा शक्ति में और कब व्यंग्रा शक्ति में प्रयुक्त होता है इसकी कहानी बहुत जटिल है। इसकी जटिलता हमारे मन की जटिलता के इतिहास से जुड़ा है। उपनिषद की भाषा बहुत सरल है यद्यपि उसकी व्याख्या गूढ़ है। किन्तु आज की भाषा बहुत गूढ़ है भले ही भाव साधारण हो। आधुनिक अमरीकी कविता का प्रारम्भ व्हिटमेन से होता है जिन्होंने भाष में व्यंग्य को अपनाया। लीब्ज आफ ग्रास में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है वह सम्प्रेषण की चुभती विद्या है। इसमें कवि की द्वन्द्वात्मक मानसिकता, उसका राजनीतिक स्वप्रभंग, अंर्तदृष्टïा होने का उसका दावा, अतीत के प्रति उसका बदला हुआ रूख कलात्मक पूर्णता की उसकी बदली हुई धारणा और उसके बोध में होने वाले परिवर्तन सबने मिलकर एक नये संश्लेषण को जन्म दिया। अमरीकी कवियों को अपनी विदग्धता और मौलिकता पर अधिक विश्वास है। इसलिए कई बार वे एक नई भाषा का अन्वेषण करता है और वह व्यंग्य होता है जो कभी - कभी पुनर्विन्यास और विस्फोट पैदा करता है।
मानव मन के जटिल भावों को जो कभी - कभी परस्पर विरोधी भी होते हुए एक साथ उदय हो जाते हैं। उन्हें व्यक्त करना बहुत कठिन होता है। उसके लिए अर्थगर्भ शब्दों का व्यंजना शक्ति युक्त वाक्यों का या दूसरे शब्दों में कहे तो व्यंग्य विद्या का प्रयोग अपेक्षित होता है। जैसे कालिदास के कुमार संभव नामक महाकाव्य में भगवान शिव ब्राम्हा्रण का वेश बनाकर पार्वती के प्रेम की परीक्षा लेने जाते है वहां शिव की निंदा करते है। पार्वती बहुत देर तक प्रतिवाद करती है किंतु ब्राहा्रण के चुप न होने पर वहां से उठकर चली जाना चाहती है किंतु तत्काल ब्राहा्रण शिव के रूप में प्रकट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में पार्वती न तो रूक पाती है और न जा पाती है।
एक अन्य प्रसंग में सप्तर्षि गण पार्वती के विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमांचल के घर जाते है। वहां पार्वती भी बैठी हुई है। अपने विवाह की चर्चा सुन वह वहां से बाहर जाना चाहती है और उत्सुकता वश वहां रहना भी चाहती है ऐसी स्थिति का वर्णन करते हुए कवि लिखते हैं - लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।
ऐसी विध या ऐसा व्यंग्य हर बोली और भाषा में व्यवह्रïत होता है। छत्तीसगढ़ी में अधिकांश मुहावरे इसका उदाहरण है जैसे - नाम धरे बर बलिहार सिंह अउ भरना पटाये बर दू आना...।
व्यंग्य की सबसे बड़ी विशेषता उसके गागर में सागर समाने की वृत्ति है। या दूसरी भाषा में कहे तो स्थिति स्थापकत्व का गुण कह सकते हैं। अपने गांव में गम्मत देख रहा था। एक नर्तक बहुत अच्छा नाच रहा था। एक किशोरवय बालक टिप्पणी करता है - अरे ... ददा रे ... ऐसना नाच कभू नइ देखे रहेंवं। इसे सुनकर पास बैठे बूढ़े ने कहा लखुर्री सावन म जनमिस अउ भादो के पूरा बाढ़ ले देखके कहथे ऐसना पूरा कभू नइ देखे रहेवं। अर्थात बहुत कम समय में बहुत बड़ी टिप्पणी नहीं दे देनी चाहिए।
व्यंग्य की मार इतनी पैनी होती है कि उसे बर्दास्त करना हर किसी के बस की बात नहीं होती जर्मनी में हिटलर के समय वहां का एक नाटक का विदूषक एक वाक्य कहता था - छेल  ... उस मूर्ख को क्या पता था ? लोग हंसते लगते थे। लोग हंसने लगते थे क्योंकि आगे हिटलर का नाम आता था क्योंकि उन दिनों एक नारा आम था - छेल हिटलर ... अर्थात हिटलर की जय हो। जिसे हिटलर बर्दास्त नहीं कर पाया और उसे व्यंग्य करने के अपराध में दंडित किया गया।
आचार्य भतृहरि ने शब्द के चार भेद बताया है - परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। सबसे सुबोध वैखरी है जिसमें अमिधा गुण होता है व्यंग्य वैखरी से कुछ ऊपर मध्यमा के निकट ही वाणी हुआ करती है जिसमें केवल शब्दार्थ नहीं होता। उसमें कुछ अधिक समझने और बूझने को होता है। आचार्य जी ने शब्दयोग का उल्लेख किया है जहां ध्यानावस्थित होकर साधारण शब्दों में अनकही संकेतों का बोध कराया जाता है।
कबीर की वाणी की समीक्षा करते हुए डां. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कबीर वाणी के डिटेक्टर थे। भाव भाषा में सीधे - सीधे आ गये है तो ठीक अन्यथा वे दरेरा निकाल देते हैं।
बी - 5 नेहरू नगर
बिलासपुर 6छ.ग.8

लोकगाथा पंडवानी में श्रीकृष्ण

डां. पीसीलाल यादव
भारतीय लोक जीवन सदैव से ईश्वर और धर्म के प्रति आस्थावान रहा है। निराभिमानी और निश्चल जीवन लोक की विशेषता है फलस्वरूप उसका जीवन स्तर सीधा - सादा और निस्पृह होता है। उसकी निस्पृहता और उसकी सादगी लोक धर्म की अभिव्यक्ति लोक साहित्य कहलाता है। लोक देखने में जितना अनगढ़ और अशिष्टï लगता है, वह अंदर से उतना ही सुन्दर और शिष्टï होता है। शिष्टï हो या विशिष्टï हो वह तो लोक की बुनियाद पर ही अविलंबित है। लोक प्रकृति का संरक्षण ही नहीं उसका संवर्धन भी करता है। वह इसलिए क प्रकृति भी लोक के लिए ईश्वर का रूप है। सूर्य,चन्द्रमा, ग्रह,नक्षत्र, तारे, वृक्ष, पर्वत, नदी, समुद्र सब में लोक ईश्वर के दर्शन करता है। प्रकृति के प्रति लोक का प्रेम और समर्पण लोक जीवन का आदर्श है। लोक के अपने देवी देवता है। ये देवी - देवता लोक जीवन के आराध्य हैं उनकी उपस्थिति व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामुदायिक कार्यों में सहज रूप से दृष्टिïकोचर होती है। लोकगीत, लोककथाएं और लोक गथाएं इन लोक देवताओं की अभ्यर्थना, प्रार्थना और गुनगान से आप्लावित है।
छत्तीसगढ़ का लोक मानस श्रम परिहार के लिए जहां लोक गीतों में नाचता गाता है। वहीं लोक कथाओं और लोक गाथाओं के माध्यम से मनोरंजन के साथ - साथ शिक्षा ग्रहण करता है। लोक गाथाएं लोक जीवन का महाकाव्य कहलाती है। लोक कंठ से उत्पन्न लोक गथाएं लोक निधि हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक परम्परा के द्वारा ये लोक गाथाएं अवरित होती रहती है। पाश्चात्य विद्वानों ने लोकगाथा को बैलेड कहा है। बैलेड के संबंध में फें्रच सिजविक लिखते हैं - सरल वर्णनात्मक गीत, जो लोक की संपत्ति हो और जिसका प्रचार मौखिक रूप से हो वह बैलेड है। जिसका रचयिता अज्ञात तथा वह सम्पूर्ण समाज की संपत्ति है।
छत्तीसगढ़ में अनेक लोक गाथाएं गायी जाती है। पंडवानी, चन्दैनी, ढोला - मारू, गोपी - चंदा, भरथरी, दसमत कैना आदि। इन सभी लोक कथाओं में पंडवानी सर्वाधिक लोकप्रिय है। पंडवानी गायन की दो शैलियां हैं - 1. कापालिक और 2. वेदमती। कापालिक शैली के पंडवानी गायन में दंत कथाएं अर्थात लोक कल्पित कथाएं गायी जाती है। जबकि वेदमयी गायन शैली में कथाएं शास्त्र सम्मत और वेदोक्त होती है। पंडवानी गायन में तम्बूरा और करताल मुख्य लोक वाद्य होते हैं। किन्तु अब समय गत वादï्यों हारमोनियम, तबला, ढोलक, आदि का भी प्रमुख वाद्ïय के रूप में प्रयोग होता है। पंडवानी गायन की कापालिक शैली लगभग विलुप्त हो चुकी है। वेदमती शैली के पंडवानी गायन श्री सबल सिंह चौहान रचित महाभारत के आधार पर अपना गायन प्रस्तुत करते हैं। पंडवानी महाभारत का लोकरूप है। इसलिए महाभारत की कथा होते हुए भी पंडवानी में लोक का लालित्य और लोक की सोंधी महक अधिक है। कथानक पात्रों की दृष्टिï से कथानक और पात्रों की दृष्टिï से भी पंडवानी में प्रभा मंडल है। लोक की कल्पनाएं, लोक का विश्वास, लोक का चरित्र, लोक का औदार्य और लोक का आदर्श पंडवानी की प्रभुता है।
मैंने प्रारंभ में ही उल्लेख किया है कि लोक के अपने - अपने देवी - देवता हैं। भारतीय जीवन में शिव, राम और कृष्ण सर्वमान्य और सर्वव्यापक है। इनके शिष्टï और लोक दोनों ही रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। लोक की व्यापकता शिष्टï से अधिक है। इसीलिए इन देवों का लोक रूप ही लोक जीवन में ज्यादा पूज्यनीय और माननीय है। शिव तो भोले कहलाते हैं। उनका रूप बिल्कुल लोक की तरह भोला - भाला है। राम मर्यादा पुरूषोत्तम है। लोक मर्यादा से बंधे हुए है। उनके चरित्र में लोक की प्रतिष्ठïा और लोक का मंगलकारी बंधन है। कहीं उच्छंखलता नहीं है। जबकि श्री कृष्ण के चरित्र में नटखटपन है। बाल लीलाओं से लेकर माखन चोरी, चीरहरण और रास रचना तक  इस चरित्र के कारण श्रीकृष्ण लोक में ज्यादा रच बस गये। गोवर्धन उठाकर जहां श्रीकृष्ण कृषकों के हित संवर्धक और पूज्यनीय हो गए, वहीं महाभारत मे अर्जुन के सारथी बनकर तथा गीतोपदेश देकर अध्यात्म और जीवन दर्शन के सूत्रधार कहलाए। महाभारत में उनके दिव्य रूप और दिव्य कर्म दोनों के दर्शन होते हैं।
पंडवानी छत्तीसगढ़ का लोक महाकाव्य है। पंडवानी गायन में प्रारंभ से लेकर अंत तक श्री कृष्ण की महिमा का गान होता है। जहाँ श्रीकृष्ण महाभारत के सूत्रधार, अर्जुन के सारथीं वही पंडवानी गायन के वे आराध्य हैं। पंडवानी की कथाओं में श्री कृष्ण का चरित्र का गान तो हुआ ही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पंडवानी गायन का प्रारंभ श्रीकृष्ण की वंदना से होता है। यह क्रम कथा के बीच - बीच में और कथा के अंत चलते रहता है - बोलो वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
श्याम सुखदाई मोर हरधर भाई ग।
भजन बिना मुक्ति नई होय भाई ग।
भजन बिना मुक्ति नई होय भाई ग॥
पंडवानी में पात्रों की बहुलता है। महाभारत का नायक अर्जुन है और पंडवानी का नायक भीम। अर्जुन की अपेक्षा भीम का चरित्र पंडवानी में अधिक मुखर हुआ है। श्री कृष्ण महाभारत और पंडवानी दोनों मे सूत्रधार के रूप में दिखाई पड़ते हैं। पंडवानी का प्रत्येक पात्र चाहे वह पांडव पक्ष का हो या कौरव पक्ष का अपने आप में महत्वपूर्ण है। नायकत्व की दृष्टिï से भी प्रसंगानुसार उनमें सारे गुण मौजूद है पर महाभारत हो या पंडवानी सारे पात्रों में श्रीकृष्ण की अलग छवि है। वे साधारण मानव न होकर पूर्णतम पुरूषोत्तम भगवान है, नारायण के ही अवतार है। उनकी श्रेष्ठïता महाभारत के राजसूय यज्ञ प्रसंग में भीष्म पितामह के इस कथन से सिद्ध होती है - मैं तो भूमंडल पर श्रीकृष्ण को ही प्रथम पूजा के योग्य समझता हूं -
कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्यम:
कृष्णस्य हिकृते विश्वविदं भूतं चराचरम।
एव प्रकृतिरत्मयता कर्ता चैव सनातन :,
परश्च सर्व भूतेभ्यस्तस्मात पूज्यतमो हरि:।
महाभारत : गीता प्रेस श्लोक 23 - 24 पृष्ठï - 780
पंडवानी गायन वाचिक परम्परा द्वारा संरक्षित है। पंडवानी का कोई मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। इसका गायन महाभारत के आधार पर ही किया जाता है। इसीलिए कथाओं में साम्यता है। अगर कहीं वैषम्यता है तो वह लोक के प्रभावी स्वरूप के कारण है। श्रीकृष्ण के बाल चित्रों का चूंकि महाभारत के कथानक से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है, अत: श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन नहीं मिलता किन्तु महाभारत के परिशिष्टï भाग हरिवंश पुराण में बाल लीलाओं का वर्णन है। महाभारत में श्रीकृष्ण के बाल चरित्र का वर्णन अन्य पात्रों के द्वारा यत्र - तत्र उल्लेखित है। यथा शिशुपाल द्वारा श्रीकृष्ण के हाथों पूतना, बकासुर, केशी, वृषासुर और कंस के मारे जाने, शकट के गिराये जाने तथा गोवर्धन के उठाये जाने का निंदा के रूप में वर्णन मिलता है।
श्रीकृष्ण पांडवों के सखा, मार्गदर्शक और हित संवर्धक है। श्रीकृष्ण की दीन दयालुता की लोक में अनेक कथाएं मिलती है। वे कृपालु हैं। अपने भक्तों की रक्षा स्वयं करते हैं। पांडव तो श्रीकृष्ण के अत्यंत सन्निकट और प्रिय थे। दुष्टï दुशासन द्वारा अपमानित द्रोपती के पुकारे जाने पर उन्होंने अलौकिक रूप से द्रोपती की लाज रखी 5
रामे ग रामे रामे ग भाई,
पापी दुसासन चीर खींचन लागे भाई,
दुरपती भंवरा कस घूमन लागे भाई।
द्रोपती अपने पतियों और सभा में उपस्थित लोगों से किसी प्रकार की सहायता न पाकर उनकी चुप्पी देख सजल नयनों से श्रीकृष्ण को पुकारती है -
दुख हरो द्वारका नाथ शरण मैं तेरी।
बिन काज आज महराज लाज गई मेरी॥
पंडवों की अहित कामना से दुर्योधन द्वारा भेजे गए महर्षि दुर्वासा व उनके दस हजार शिष्यों के आतिथ्य के समय भी श्रीकृष्ण ने पांडवों की सहायता की। भगवान भास्कर से महाराज युधिष्ठिïर को एक चमत्कारी बटलोही प्राप्त हुआ था, जिसमें पकाये अन्न से असंख्य अतिथियों को भोजन कराया जा सकता था। पर ऐसा तब ही संभव था जब तक द्रोपती भोजन न कर लेती थी। दुर्योधन के दुष्चक्र से दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों के साथ ऐसे समय पहुंचे जब द्रोपती सबको भोजन करवाकर स्वयं भोजन ग्रहण चुकी थी। इस विपरीत परिस्थिति में भी भगवान श्रीकृष्ण ने द्रोपती द्वारा स्मरण किये जाने पर स्वयं उपस्थित होकर, उस बर्तन में चिपके भाजी के एक पत्ते को मुंह में डालकर संतृप्त हो गए थे।
अहो दुरपति तोर बटलोही ल लाना ओ,
दु दिन के खाय नहीं, भूख मरत हँव ओ।
अइसे कहिके कृष्ण बटलोही ल मंगइस अऊ बटलोही में चटके भाजी ल मुंह में डार के जोर से डकार लिस।
फलस्वरूप गंगा में अधमर्षण करते मुनि दुर्वासा व उनके शिष्य भी संतुष्टï हो गए और पांडवों के क्रोध की आशंका से भाग निकले। श्रीकृष्ण अपने आश्रितों के संरक्षक हैं और उनका यही सुदर्शन चरित्र पंडवानी में दृष्टिïगोचर होता है।
श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध को टालने का प्रयास किया, लेकिन होनी को कौन रोक सकता है ? स्वयं श्री कृष्ण भी नहीं। श्री कृष्ण पांडवों की ओर से संधि का प्रस्ताव लेकर कौरव की सभा में गए। उन्होंने दुर्योधन से पांडवों के लिए केवल पांच गांव मांगे। श्री कृष्ण की मांग लोक के संतोष, लोक की उदासीनता, शांति के प्रति समर्पण और लोकजन की सहिष्णुता की परिचायक है। अपार संपत्ति का अधिकारी होकर भी अंश मात्र में संतोष कर लेना लोक का ही कार्य हो सकता है। उन्मादी दुर्योधन ने उनके नीतिपूर्ण वचनों के बदले उनसे दुर्व्यवहार कर अपमानित किया। तब श्रीकृष्ण ने अपना दिव्य - स्वरूप प्रकट किया। श्री कृष्ण के इस रूप को देखकर राजाओं ने मारे भय के आँखें मूंद ली। केवल आचार्य द्रोण, भीष्म पितामह, महात्मा विदुर, संजय और तपोधन ऋषि ही उस रूप को देख पाये। क्योंकि भगवान ने उन्हें दिव्य दृष्टिï प्रदान की थी। अपने उस दिव्य विग्रह को समेट भगवान श्रीकृष्ण सभा भवन से उठकर महात्मा विदुर के घर चले गए -
दुर्योधन के मेवा त्याग
साग विदुर घर खायो जी।
पंडवानी तो श्रीकृष्ण की महिमा और गुणगान से ओतप्रोत है। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन का रथ हाँक कर, सारथी बनकर पांडवों की सेवा की -
अगा कृष्ण ह रथे हांकन लगे भाई,
अर्जुन सरसर बान चलावय जी मोर भाई।
श्रीकृष्ण सत्य के संरक्षक है। आत्मग्लानि से पूरित युद्ध न करने की प्रतिज्ञा ठान लेने वाले अर्जुन को प्रेरित कर जीवन की निस्सारता व कर्तव्य परायण का बोध कराया। मोह माया से ग्रस्त पार्थ को जीवन - सत्य का संदेश दिया, जो गीता उपदेश के नाम से जाना जाता है - तू मेरा ही चिंतन कर, मुझसे ही प्रेम कर तथा सबका भरोसा छोड़कर मेरी ही शरण में ही आ जा। उनका उपरोक्त कथन भगवदï् गीता का अंतिम उपदेश है। यह उपदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं था। यह तो समस्त लोक के लिए है। लोक की ऐसी व्यापकता, परोपकारिता है श्रीकृष्ण के चरित्र और वचनों में।
अर्जुन के बाणों में मर्माहत इच्छानुसार शरीर छोड़ने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की बाट जोह रहे, शर शय्या पर पड़े पितामह से धर्मोपदेश का आग्रह करते हुए श्री कृष्ण ने भीम की प्रशंसा कर कहा - तुम्हारे शरीर छोड़कर इस लोक से जाने के साथ ही सारा ज्ञान भी यहां से विदा हो जायेगा। उनकी यह उक्ति ज्ञान के समादर की पोषिका है। अत: पंडवानी के श्रीकृष्ण संहारक के साथ - साथ शांति के अग्रदूत और ज्ञान संवाहक हैं।
महाभारत युद्ध के पश्चातï् श्रीकृष्ण को सती गांधारी के क्रोध का शिकार होना पड़ा। युद्धोपरांत युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले योद्धाओं को तिलांजलि देने राजा घृतराष्टï्र, पांडव व गांधारी, कुंती, द्रोपती व अन्य समस्त कुरूवंश की स्त्रियां कुरूक्षेत्र के मैदान में गए। तब गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि - श्रीकृष्ण तुम चाहते तो इस नर संसार को रोक सकते थे। लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया। अत: जिस प्रकार कौरवों का नाश हुआ, उसी प्रकार तुम अपने स्वजनों के नाश का करण बनोगे और तुम स्वत: अनाथ की भांति मारे जाओगे। यही हुआ भी, श्रीकृष्ण चाहते तो उस श्राप को नकार सकते थे। उनका अभीष्टï पूर्ण हो चुका था। इसलिए वे यादवों के संहार का करण बने और स्वयं भी व्याध के हाथों मारे गए। लोक का नियम भला टूटता कहाँ है ? लोक के आदर्श ने लोक के नियम का पालन कर जीवन - मृत्यु के शाश्वत सत्य की रक्षा की। पंडवानी कथा का अप्रतिम उदाहरण है।
श्रीकृष्ण पंडवानी के सूत्रधार हैं। सृष्टïा व संहारक होकर भी उन्होंने सत्य का ही पक्ष लिया। शांति के अग्रदूत बने, सामर्थ्यवान होकर भी गांधारी के श्राप को साधारण मानव की भांति स्वीकार कर असाधारण होने का परिचय दिया। पंडवानी का यह नायक इन्हीं लोकधर्मी गुणों के कारण लोक के लिए पूज्यनीय हो गए। पंडवानी लोकगाथा में श्रीकृष्ण का चरित्र लोक के लिए प्रेरणा आगार है। लोक की सुदीर्घ परम्परा का पोषक तथा लोक जीवन का स्पन्दन है।
गंडई - पंडरिया
जिला - राजनांदगांव 6छ.ग.8