इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

शनिवार, 24 अगस्त 2019

अगस्‍त 2019 से अक्‍टूबर 2019

इस अंक में

आलेख
प्रेमचंद का महत्व और उनकी प्रासंगिकता
: वीणा भाटिया

कहानी
रजनीगंधा : पद्या मिश्रा
नई भोर : विनीता शुक्ला
पितर : रमाशंकर शुक्ल
अम्बो अब शांत है : स्नेह गोस्वामी
बरसात (अनुवाद) डॉ. रानू मुखर्जी
पलटवार : पुष्पा तिवारी

लघुकथा
अमावस के अंधेरे में : मोती प्रसाद साहू

व्यंग्य
हम हिन्दी वाले : दिलीप कुमार
योजना बहिन जी : वीरेन्द्र ’ सरल’

बाल कथा
ईमानदारी का ईनाम : कल्पना


कविता/ गीत/ गजल
कविताः
दहेज : माधव गणपत शिंदे
 रजत सान्याल की कविताएं
कुछ दिन : मृदुला सिन्हा
अमन चाँदपुरी के दोहे
कभी अक्षर की खेती करता : विश्वम्भर पाण्डेय
अरविन्द यादव की रचनाएँ
चोवाराम’ बादल’ की गीतिकाएं :
कान्हा : डॉ. सरला सिंह स्निग्धा
कृष्ण सुकुमार की कविताएं
छा गई एक करुणा की : मनोरमा सिंह
गज़ल :
उठाकर गम गरीबों के : बलजीत सिंह ’ बेनाम’
केशव शरण की दो गज़लें
कभी होते थे जो बस : धर्मेन्द्र गुप्त ’ साहिल’
सकून : इन्द्रा रानी
तुम नई राहें : ओंकार सिंह
नज्‍म सुभाष की गज़लें 
ख्‍वाब आंखों में मेरी -गीता गुप्‍त 'मन '
क्या क्या न कागजों में : मनोज राठौर ’ मनुज’
एक नई रचना : सी.बी. वर्मा
श्‍लेश चन्‍द्राकर की गजलें
नवगीतः
विश्वनाथ इतिहास : डॉ. अंशु सिंह
सागर की ख़ामोशी : रीता गौतम

पुस्तक समीक्षा
असमानता के विरुद्ध अघोषित युद्ध है ’ तो सुनो’ समीक्षक : नरेन्द्र बाल्मीकि पीएचडी शोधार्थी /
(गीत संग्रह )

साहित्यिक, साँस्कृतिक, गतिविधियाँ
दिव्य पुरस्कार  हेतु पुस्तकें आमंत्रित समाचार

पुरस्‍कार हेतु पुस्‍तकें आमंत्रित

राष्ट्रीय ख्याति के बाईसवें अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति पुरस्कारों हेतु कृतियाँ आमंत्रित


साहित्य सदन, भोपाल द्वारा राष्ट्रीय ख्याति के बाईसवें अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कारों हेतु साहित्य की अनेक विधाओं में पुस्तकें आमंत्रित की गई हैं। उपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग्य, निबंध एवं बाल साहित्य विधाओं में, प्रत्येक विधा के लिए इक्कीस सौ रुपये राशि के साहित्य - पुरस्कार प्रदान किये जाएँगे। दिव्य - पुरस्कारों हेतु पुस्तकों की दो प्रतियाँ, लेखक के दो छायाचित्र एवं प्रत्येक विधा की प्रविष्टि के साथ दो सौ रुपये प्रवेश शुल्क भेजना होगा। हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की मुद्रा अवधि 1 जनवरी 2015 से लेकर 31 दिसंबर 2018 के मध्य होना चाहिए।
राष्ट्रीय ख्याति के इन प्रतिष्ठापूर्ण, चर्चित दिव्य पुरस्कारों हेतु प्राप्त पुस्तकों पर गुणवत्ता के क्रम में दूसरे स्थान पर आने वाली पुस्तकों को दिव्य प्रशस्ति पत्रों से सम्मानित किया जाएगा। श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादकों को भी दिव्य प्रशस्ति पत्र प्रदान किये जाएँगे। अन्य जानकारी हेतु उपरोक्त पते एवं मोबाईल पर सम्पर्क किया जा सकता है। पुस्तकें प्रेषित करने का पता है - श्रीमती राजो किंजल्क, साहित्य सदन, 145,ए साईंनाथ नगर, सी - सेक्टर, कोलार रोड, भोपाल - 462042 पुस्तकें प्राप्त होने की अंतिम तिथि है 30 दिसंबर 2019 है।

जगदीश किंजल्क
संयोजक, दिव्य पुरस्कार
साहित्य सदन,145 ए,सांईनाथ नगर,
सी - सेक्टर, कोलार रोड, भोपाल - 462042
संपर्क - 09977782777, 0755 - 2494777
ईमेल : jagdishkinjalk@gmail.com

छा गई घटा एक करुणा की

मनोरमा सिंह

छा गई घटा एक करुणा की
जल उठी हृदय मे एक ज्वाला
जिसको छू कर एक स्वप्न चला
हो गया हृदय का वो छाला ॥

जो स्नेह सिक्त जीवन बाती
दीपक उर बीच जलाती थी
छा गई घटा बन दर्द नई
प्राणों के मोह भगाती थी ।।
हो सीमा हीन अनन्त बीच
आशाएँ सब मंडराई है
मेरी पीड़ा की अमिट रेख
मम नयनन बीच समाई है ॥

माला गूँथी उच्छवासो की
पीड़ा का झीना तार मिला
टूटते थे सपने गिन गिन के
जीवन मे दर्द अपार मिला ॥
कण कण मे आँसू वेध रहे
असहाय हृदय की कोमलता
बिखरी थी व्यथा की फुलवारी
गीतों मे दुख की आहतता ॥

मन का रवि डूबा साँझ हुई
मन मे अतीत लहराया था
प्रतिबिंब घिरे धीरे धीरे
बन कोलाहल मंडराया था ॥

सागर की खामोशी ...

रीता गौतम

सागर की खामोशी कब तक।
नदिया की मदहोशी कब तक।
झरनों का झर - झर झरना कब तक,
तालाबों का मिटना क्यूँ कब तक।
सूरज का उगना होता कब तक,
चंदा की चमके चाँदनी कब तक।
तारे टिम - टिम करते कब तक,
जुगनू का होगा जगना कब तक।
अम्बर का धरती पर झुकना कब तक,
धरती का अम्बर को तकना कब तक।
आशा और निराशा कब तक,
जीवन की परिभाषा को तक।
कलियों का खिलना कब तक,
भौरों का फूलों पर रूकना कब तक।
जाने कितनी बातें कब तक,
करना होगा सबको कब तक।
चढ़ना होगा चट्टानों पर कब तक,
रेत का उड़ना होगा कब तक।
समय रहेगा ऐसा कब तक,
सहना होगा हमको कब तक।

विश्वनाथ इतिहास

डॉ. अंशु सिंह

विश्वनाथ इतिहास तुम्हारा, आज ध्वनित हो काव्य बना,
वर्तमान की विजय नींव,स्वर्णिम भविष्य संभाव्य बना॥

जहाँ जहाँ घन तिमिर, वहाँ पर भर दी दिव्य विभा प्यारी,
दुर्बल प्राणों की नस - नस में, फूंकी जीवन चिंगारी॥

उनकी विभा प्रदीप्त करें है, जन मन का कोना कोना,
ले ले नाम अगर दुश्मन भी,चमक उठे बन कर सोना॥

काशी में वरदान मिला था, तुम रण कभी विजेय नहीं,
रजकण हो या परिजात तुम,कोई रूप अगेय नहीं॥

एक एक जनगणमन जिनको, पल पल शीश झुकाते हैं,
जिनकी एक झलक पाने को,निज सौभाग्य बताते हैं॥

कर्णधार भारत के नाविक, अविचल लक्ष्य तुम्हारा है,
विजय - पथ के तुम अनुगामी,यह सौभाग्य हमारा है॥

प्रति पल नव उत्साह सृजित हो, जन जन मध्य समाता है,
हुंकार जहाँ तुम भरते हो,इतिहास बदलता जाता है॥

कान्हा

डॉ. सरला सिंह ' स्निग्धा '

     कान्हा अब तो आ जाओ,
       जीवन सफल बना जाओ।
         सब राह ताकते रातदिवस,
          आशा पूरी तुम कर जाओ।
      हैं बहुत सुदामा आज यहां,
        सबका ही दामन भर जाओ।
          हैं कंस सरीखे निरे यहां पर,
           उनका बध तुम कर जाओ।
       कालिया नाग हैं गली गली,
         उनका मर्दन तुम कर जाओ।
           बहु लोग फिरें हैं अहंकार में,
            उनको औकात दिखा जाओ।
        इन्द्र सरीखे माने खुद को ही,
          निजक्षमता उन्हें दिखा जाओ।
           द्रौपदी टेर पर दौड़े आये प्रभु,
             द्रौपदियां हैं बहुत बचा जाओ।
         कान्हा अब तो सुन लो पुकार,
          सब छोड़ - छाड़ के आ जाओ।
            सुन लो कान्हा विनती हमरी,
              दुखियों का कष्ट मिटा जाओ।
          तेरे नाम को लेकर लूट रहे कुछ,
            उनको कुछ सबक सिखा जाओ।
              नहीं देर करो भई देर बहुत प्रभु,
                जग के हित प्रभुवर आ जाओ।

पता : 180, पाकेट ,
3 मयूर विहार फेस 3,दिल्ली 96
मोबा. नं. : 09650407240

एक नई रचना

सी.बी. वर्मा
मैं तो खुदा को अजानों में ढूढंता था
मुझे क्या पता दरवाजे पर खड़ा था।

जिन्दगी के हादसों ने दहला दिया
अब तो ख़ुदा पर भी यकीं नही होता।

ना जाने किस भेष में छुपे हों वन्दे तेरे
अब तो अपनों पर भी यकीं नही होता।

क्या करें हम अपने यकीन को जो
बार - बार घूम कर तूझ पर टिकता है।

बड़ी मासूमियत से जज्बातों से खेलकर
कहते हैं लोग कुछ भी तो कहा नहीं।

वरना तो खत्म है इन्सानियत जहाँ से
कोई तो मिले जो प्यार से मिल ले गले।

तुम नई राहें

ओंकार सिंह

तुम नई राहें बनाने का जतन करते चलो
जो भी वीराने मिलें उनको चमन करते चलो
नफ़रतों की आग से बस्ती बचाने के लिए
प्यार की बरसात से ज्वाला शमन करते चलो
दूसरों का छीनकर सुख सपना सुख चाहो नहीं
ऐसे सुख की कामनाओं का दमन करते चलो
अंधकारों को ज़माने से मिटाने के लिए
ज्ञान के दीपक जलाने का जतन करते चलो
सारी दुनिया में सभी सुख से रहें, ये सोचकर
रात - दिन अपने विचारों का हवन करते चलो
रातभर जलकर स्वयं जो रोशनी करते रहे
उन दीयों की साधनाओं को नमन करते चलो
हौसला कमज़ोर को देते रहो ओंकार तुम
दूर गीतों से दिलों की हर दुखन करते चलो

1 बी, 241 बुद्धिविहार,
मझोला
मुरादाबाद ( उतर प्रदेश )244001
मो.नं. : 9997505734

कुछ दिन

मृदुला सिन्‍हा

कुछ दिनों की ही बात थी
कुछ दिन और रह जाते
कुछ दिन और आपके साथ
हम रह  जाते
हर बार यही लगता है
कुछ दिन और
कुछ दिन और
क्यों नहीं जी लेते हम
उन्ही दिनों में
क्यों इंतज़ार रह जाता है
सही समय आने का
बस इंतज़ार ही रह जाता है
बस इंतज़ार
जब तक वक्त रहता है
हम रह जाते हैं शिकवे शिकायतों में ही
कुछ  यादें
तो कुछ समय का बहाना
वक्त नहीं है अभी
ये सोच कर
बस रह जाते हैं
कुछ दिन और
कुछ दिन और
जो चला जाता है
लौट कर ना आता है
जो यादें मिल जाती हैं
बस वो यादें ही रह जाती हैं
फिर क्यों इंतज़ार
वक्त के आने का
अक्सर यहीं हार जाते हैं हम
वो वक्त कभी नहीं आता
बस हम उतना ही जीते हैं
जितना जीते हैं
बाकी सब तो बस
इंतज़ार ही रह जाता है
कभी ख़त्म ना होने वाला
इंतज़ार
बस इंतज़ार ....

डॉ ए नाथ ,जेनेक्स आर्या अप्पार्टमेन्ट
फ्लैट नं. - 401,बसंत बिहार कॉलोनी,
आर पी एस मोर,
बेली रोड पटना (बिहार )

दहेज

माधव गणपत शिंदे

पहला दृश्य
एक कवि नदी के किनारे खड़ा था!
तभी वहाँ से एक लड़की का शव
नदी में तैरता हुआ जा रहा था।
तो तभी कवि ने उस शव से पूछा ..
कौन हो तुम ओ सुकुमारी,बह रही नदियां के जल में,
कोई तो होगा तेरा अपना,मानव निर्मित इस भू - तल में!

किस घर की तुम बेटी हो,किस क्यारी की कली हो तुम
किसने तुमको छला है बोलो, क्यों दुनिया छोड़ चली हो तुम?

किसके नाम की मेंहदी बोलो, हाथो पर रची है तेरे।
बोलो किसके नाम की बिंदिया, मांथे पर लगी है तेरे?

लगती हो तुम राजकुमारी,या देवलोक से आई हो?
उपमा रहित ये रूप तुम्हारा, ये रूप कहाँ से लायी हो?

दूसरा दृश्य
कवि की बाते सुनकर,लड़की की आत्मा बोलती है..
कवि राज मुझ को क्षमा करो, गरीब पिता की बेटी हूँ!
इसलिये मृत मीन की भांती, जल धारा पर लेटी हूँ!
रूप रंग और सुन्दरता ही, मेरी पहचान बताते है!

कंगन, चूड़ी, बिंदी, मेंहदी, सुहागन मुझे बनाते है!
पित के सुख को सुख समझा, पित के दुख में दुखी थी मैं!

जीवन के इस तन्हा पथ पर, पति के संग चली थी मैं!
पति को मैंने दीपक समझा, उसकी लौ में जली थी मैं!

माता.पिता का साथ छोड़, उसके रंग में ढली थी मैं!
पर वो निकला सौदागर, लगा दिया मेरा भी मोल!

दौलत और दहेज़ की खातिर, पिला दिया जल में विष घोल!
दुनिया रुपी इस उपवन में, छोटी सी एक कली थी मैं!

जिस को माली समझा, उसी के द्वारा छली थी मैं!
ईश्वर से अब न्याय मांगने, शव शैय्या पर पड़ी हूँ मैं!

दहेज़ की लोभी इस संसार मैं, दहेज़ की भेंट चढ़ी हूँ मैं!
दहेज़ की भेंट चढ़ी हूँ मैं!!

कृष्ण सुकुमार की तीन कविताएँ


       (1)
कट गयी उम्र खड़े खड़े
प्लेटफार्म पर
भीड़ के एकांत में!
यात्रा - टिकिट लिए खड़ा रहा
एक मैं, स्वप्न से ज़िंदगी तक!
तुम्हारी वो ट्रेन, नहीं आयी कभी
जिसमें चढ़ना था, तुम्हारे साथ
आगे सफ़र के लिए !
हड़बड़ाते बादलों की भगदड़ में
बारिशें
मरती रहीं कुचल कर !
आसमान टर्राता रहा
मेंढकों की छूटती रही हँसी !
खौलती हवाओं में
उबल कर गलते हुए
भौंथरी पड़ती रही
खिले हुए फूलों की महक !
ट्रेनें गुज़रती रहीं ...!
मैं सुबह शाम
भरता रहा चाय के घूँट ...
इंतज़ार में चाय का स्वाद
लेते हुए कई गुना !
मरी हुई बारिशें
बेचारा आसमान
गली हुई महक
इन सबको समेटना है अभी ...!
अभी , एक दो चाय और
बस!

       (2 )
 
ठीक से पढ़ नहीं सका मैं
दरख्¸तों के हरेपन को
क्योंकि पाँव में चरमराते
सूखे पत्तों पर लिखा हुआ था
ठूंठ!
ठीक से गा नहीं सका मैं
तमाम रंगों को
क्योंकि वे गड्डमड्ड थे तेज़ हवाओं में
सब के सब!
ठीक से छू नहीं सका मैं
काँपती हुई आवाज़ों को
क्योंकि नमक बहुत तेज़ था!
ठीक से देख नहीं सका मैं
अपने होने का आस्वाद
क्योंकि कोई और ढूँढ रहा था मुझे!
ठीक से जी नहीं सका मैं
नींदों को
क्योंकि वे टूट चुकी थी
अपने गीलेपन से
भीग कर बारिशों में!
ठीक से बीत नहीं सका मैं
क्योंकि रास्ता
वक्त को
बहुत तज़ी से पार कर गया!
तालाब के ठहरे हुए पानी पर
आ जाती है काई!
ठीक से आ रहा हूँ मैं
सकुशल!


      ( 3 )
 
हम घर बनाते हैं
फिर तमाम उम्र घर से छिटकते रहते हैं
और तमाम उम्र घर में ही लेते हैं आश्रय !
हम जब भी निकलते हैं घर से
कहीं न कहीं पहुँचना होता है हमें
लेकिन हम हमेशा चलते हैं
और पहुँचते कहीं नहीं !
तमाम रास्ते एक दूसरे से
इस कदर उलझे हुए हैं
कि हम सिर्फ़ अपने ही
आसपास चक्कर काटते हुए
फिर फिर वहीं लौट आते हैं
जहाँ ठहरे हुए थे कुछ देर के लिए
अब से पूर्व !
इस भागमभाग में
न घर छूटता है न रास्ते
मगर ख़ुद हम
ख़ुद ही से बचते हुए गुम जाते हैं
अतीत की आड़ी तिरछी रेखाओं में !
और निकल जाते हैं अपने से बहुत दूर
कभी कभी घर और रास्ते
दोनों को ढूँढते हुए!

ए.एच.ई.सी.
आई.आई. टी. रूड़की
रूड़की -247667 उत्तराखण्ड
मोबाइल नं. - 09917888819
ईमेलः kktyagi.1954@gmail.com

ख्वाब आँखों में मेरी

गीता गुप्ता मन

ख्वाब आँखों में मेरी

ख्वाब आँखों में मेरी सजा रह गया।
पास आये मगर फासला रह गया।

आसमां था खुला चाँद तारे भी थे,
रौशनी का मगर काफिला रह गया।

ये नया दौर है कोई सुनता नहीं,
शाम तक लाइनों में खड़ा रह गया।

ना सफीना मेरा ना ही साहिल मेरा,
उठती लहरों में मेरा पता रह गया।

चाँद मासूम सा पहलू  में रो पड़ा,
थाम बाहों में बस देखता रह गया।

खूबियाँ तुझमें है, ऐब मुझमें भी है
बीच अपने मगर सिलसिला रह गया।

मन परिन्दों सा उड़ता रहा उम्र भर,
जिन्दगी से मेरा सामना रह गया।


भगवान

सत्य सदा ही बोलिये, करो बड़ों का मान
नेक राह चलते रहो,ए मिल जायें भगवान।

जो मानव  उर से भजे,नाम एक  भगवान
सच्ची श्रद्धा उर बसी, आये स्वर्ग विमान।

आरति गाऊँ प्रेम से, सुनो कृष्ण भगवान
सूनी मन की है गली, जीवन मृतक समान।

मन्दिर मस्जिद में नहीं, मन बसते भगवान
अंधियारा अज्ञान का, मानव है अनजान।

प्रातः उठो अरु नित करो,ईश भजन गुणगान
जीवन सुखमय मानिये, हाथ रखे भगवान।

पत्राचार हेतु पता- मनीष कुमार
सी पी सी न्यू हैदराबाद पोस्ट ऑफिस भवन
लखनऊ - पिन.226007
मोबा : 09453993776

श्‍लेष चन्‍द्राकर की रचनाएं

अब पास जिसके 
श्‍लेष चन्‍द्राकर

अब पास जिसके पहले सी दौलत नहीं रही
अब उसकी शह्र में कोई इज़्ज़त नहीं रही

जब से मिला है प्यार तेरा खुश हूँ मैं बहुत
इस ज़िन्दगी से मुझको शिकायत नहीं रही

लगने लगी हसीन वो सीरत की नूर से
सूरत को आइने की जरूरत नहीं रही

भरने लगे हैं नेता सब अपनी तिजोरियां
पहले सी अब यहाँ की सियासत नहीं रही

अच्छाई का है मिलता यहाँ अब तो फल बुरा
दुनिया में श्लेष अब तो शराफ़त नहीं रही


बात ये सच है मियां

बात ये सच है मियां इससे कहाँ इनकार है
ज़िन्दगी जो अपनी शर्तों पे जिये खुद्दार है

कम किसी को आंकने की भूल मत करना कभी
सामने वाला भी रखता आधुनिक हथियार है

हो गया है हादसा तो भूल जाना ही सही,
रातदिन उस बात को तो सोचना बेकार है

फैलती हैं नफ़रतें ख़बरें वो ऐसी छापता
उसको तो हर हाल में बस बेचना अख़बार है

काम करता है वही जिसकी मनाही की गई
श्लेष अपनी आदतों से आज भी लाचार है

खैरा बाड़ा, 
गुड़रु पारा, वार्ड नं. 27,महासमुन्द (छत्तीसगढ़ )
पिन - 493 445मो.नं.ः 09926744445

चोवाराम ' बादल ' की गीतिकाएँ



 ( 1


(1) .

इस भारत भू में वीरों की, अनुपम अमिट कहानी है।
जिनके अद्भुत रन कौशल की, नहीं जगत में शानी है।

वीर शिवाजी राणा सांगा, जिनसे बैरी थर्राया,
चातक वाला उस प्रताप का, किस्सा नहीं पुरानी है।

मर्यादा का पालन करते,यहाँ लोग भोले भाले,
घर - घर में बेटा राम सरीखा, माँ कौशिल्या रानी है।

ज्ञान ज्योति फैलाती जग में,चार वेद सद ग्रंथ जहाँ,
सूरदास तुलसी मीरा की, कविता याद जुबानी है।

महानदी कृष्णा कावेरी, है सतलज ताप्ती चंबल,
ताप श्राप का शमन करे जो, गंगाजल की पानी है।

चारों धाम अयोध्या मथुरा, गौहाटी मैहर काशी,
महानगर बाम्बे कलकत्ता,दिल्ली शहर पुरानी है।

दादा दादी चाचा चाची, मामा मामी रिश्ते नाते,
माता पिता बुआ फुफा जी, ममता वाली नानी है।


( 2 )

जरा सोच लो क्या भीतर कमी है।
आंखों में शोला है या कि नमी है।

किसको गिराया है किसको उठाया,
कब - कब ये बाहें सहारा बनी है।

ठलना ही होगा उसको एक दिन,
सूरज गगन में जो चमका अभी है।

नाहक मुझे क्यों दी उसने गाली,
लगती है गोरी पगली बड़ी है।

सच में गरीबी है जी बीमारी,
कानून की फाँसी इसे ही कसी है।

चोवा राम बादल
हथबन्द ( छ. ग )
मो: 09926195747

क्या क्या न कागजों में

मनोज राठौर ' मनुज '

क्या क्या न कागजों में ही होता रहा यहाँ?
लिक्खा  था  पहरेदार जो सोता रहा यहाँ?

ऊँचे मकान सिर्फ  मुलाजिम  के बन गये,
लेकिन  गरीब  भूख से  रोता  रहा  यहाँ।

सूखे की  राहतें तो  करोंडों की बँट गयीं,
फिर भी किसान कर्ज को ढोता रहा यहाँ।

भरता रहा धुआँ  का हवाओं में जहर पर,
गुलशन वो  सिर्फ  पेन से  बोता रहा यहाँ।

सूखी पड़ी जमीन  तरक्की की आज भी,
स्याही से  लब्ज ही वो भिंगोता रहा यहाँ।

जिसका रहा मनुज् न हकीकत से वास्ता,
उन झूठे  आँकड़ों  में वो  खोता रहा यहाँ।     


मनोज राठौर ' मनुज '
आगरा मोबा. 8168940401

अरविन्द यादव की रचनाएँ


बरस उठती हैं आँख

आज भी न जाने कितनी बस्तियाँ
बस जाती हैं हृदय में जब भी सोचता हूँ तुम्हें
बैठकर एकान्त में
आज भी दिखाई देने लगता है
वह मुस्कराता हुआ चेहरा ,
यादों के उन झरोखों से
जो रहता था कभी आँखों के सामने
आज भी महसूस होती है ,
तुम्हारे आने की आहट
जब टकराती है पवन, धीरे से दरवाजे पर
आज भी स्मृतियों के सहारे
आँखे,चली जाती हैं छत के उस छज्जे तक
जहाँ दिन में भी उतर आता था चाँद
शब्दातीत है जिसके दीदार की अनुभूति
आज भी हृदयाकाश में जब
उमड़ - घुुमड़ कर उठते हैं स्मृतियों के मेघ
जिनमें ओझल होता दिखाई देता है वह चाँद
तो अनायास ही बरस उठती हैं आँखें।

आदमी

मुश्किल हो गया है आज
समझना आदमी को
वैसे ही जैसे
नहीं समझा जा सकता है
बिना छुए,गर्म होना पानी का
बिना सूँघे, सुगन्धित होना फूल का
और  बिना खाए स्वादिष्ट होना भोजन का
क्योंकि जैसे देखना
नहीं करता है प्रमाणित
पानी की गर्माहट
फूल की सुगन्धि
और स्वादिष्टता भोजन की
वैसे ही सिर्फ आदमी की शक्ल
नहीं करती है प्रमाणित
आदमी का,आदमी होना।

ऊँचाइयाँ

ऊँचाइयाँ नहीं मिलतीं हैं अनायास
पाने के लिए इन्हें
बनाना पड़ता है स्वयं को लोहा
बनाना पड़ता है स्वयं को सोना
रक्त रंजित होना पड़ता है
माटी बन,भिड़कर शोलों से
करनी पड़ती है जबरदस्त मुठभेड़,
पत्थरों से
क्योंकि ऊँचाइयाँ नहीं होती हैं
ख्वाबों की अप्सराएँ
ऊँचाइयाँ नहीं होती हैं,
महबूबा के गाल का चुम्बन
ऊँचाइयाँ, ऊँचाइयाँ होती हैं, ठीक वैसे ही
जैसे आकाश के तारे और मुठ्ठी में रेत।



मोहनपुर, लरखौर, जिला - इटावा (उ .प्र.)
पिन - 206103
मोबा.ः 09410427215

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

कभी अक्षर की खेती करता


विश्वम्भर पाण्डेय

कभी अक्षर की खेती करता

कभी अक्षर की खेती करता
        कभी वस्त्र शब्दों के बुनता
बाग लगाता स्वर - व्यंजन के
        मात्राओं की कलियां चुनता
मैं कवि, कृषक के जैसा
        करता खेती कविताओं की
और कभी बुनकर बन करके
        ढकता आब नर - वनिताओं की
भूत - भविष्य - वर्तमान  सभी
         तीनों काल मिले कविता में
बर्फ  के मानिंद ठंडक मिलती
          ताप मिलेगा जो सविता में
मैं भविष्य का वक्ता मुझको
          सूझे तीनों काल की बातें   
 मेरी ही कविता को गायक
          कैसे - कैसे स्वर में गाते
वेद पुराण गीता और बाईबल
          ये सब मेरे कर्म के फल है
डरते मुझसे राजे - महाराजे
          कलम में मेरी इतना बल है...


कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी, स.मा. (राज.)22201
 मोबाइल : 09549165579
ईमेलः vshwambharvyagra@gmail.com

नज्‍म सुभाष की गजलें



(1)
बोझिल  अहसासों  के  आगे, गहरा  चुम्बन  सूख  गया
मुरझाई  मुस्कान  दिखी  तो, प्यारा  दरपन  सूख  गया

नाजुक  कंधे   बोझ   उठायें,  धोयें   ढाबे   पर   बर्तन
बाप  मरा  तो  दुनिया  बदली,भोला  बचपन सूख गया

नैहर छूटा, सखियां  बिछड़ीं,इक कमरे की दुनिया अब
पीला  जिस्म, धंसी  हैं  आंखें, गद्दर यौवन सूख  गया

इन्सानों  के  घर  में  जब  से,नागफनी  के  पांव  पड़े
सहमा - सहमा  तुलसी  पौधा, सारा  गुलशन  सूख गया

कागज  के  टुकड़ों  की  खातिर, बीवी - बच्चे  भूले  थे
देह  थकी  तो  मुड़कर  देखा, सारा  जीवन  सूख गया

दर्द  भरी   वो   लम्बी   रातें, अंधियारे   की   परछाई
तू - तू, मैं - मैं  मार - कुटाई,भाव   समर्पण   सूख  गया

नीम  कटी  तो  क्षुब्ध परिंदे, ख़ामोशी  को  छोड़  गये
झिंगली खटिया,तन्हा अम्मा, घर का आंगन सूख गया


( 2 )
सहमा - सहमा सोच रहा हूं, क्या अपने सर आएगा
आज  दुआएँ   आएँगी  या, कोई  पत्थर  आएगा

तेरी खुशियाँ गैर के सपने, प्यार - वफ़ा से क्या हासिल
मेरे  अरमानों  के   हिस्से, तन्हा  बिस्तर  आएगा

चुन चुनकर वो बदला लेगा,जिससे उसको ख़तरा है
संसद  की  ऊंची  चौखट पर, जो भी चुनकर आएगा

बैठ  सको  तो  बैठो  वर्ना, अपना  रस्ता  नापो  तुम
एक  बजेगा  तब  जा  करके, बाबू  दफ़्तर आएगा

जोड़ रहे हो जिससे रिश्ता, उसकी कुछ तफ़्तीश करो
सीधा  है  या  धूर्त  कमीना, छनकर  बाहर  आएगा

कोर्ट - कचहरी में मत पड़ना,न्याय वहाँ कब मिलता है
इस  रस्ते  पर  जो भी  जाये, समझो लुटकर आएगा

चौराहे  पर  शोर  मचा  है, इतना  सबको याद  रहे
नज़्म कहीं पर चूं भी  होगी,  सीधा  ख़ंजर आएगा


356 केसी -  208,कनकसिटी, आलमनगर, लखनऊ - 226017

अमन चाँदपुरी के दोहे

रुख़ से रुख़सत कर दिया, उसने आज नकाब।
लगा अब्र की कैद से,  रिहा हुआ महताब।।

आँखें ज़ख्मी हो चलीं, मंज़र लहूलुहान।
मज़हब की तकरार से,  मुल्क हुआ शमशान।।

लब करते गुस्ताख़ियाँ  नज़रें करें गुनाह।
ज़हन - ओ - दिल बस में नहीं, कर मुआफ़ अल्लाह।

इश्क मुहब्बत में मियां,  ज़ीस्त हुई बर्बाद।
ज़िंदा रहने के नये, सबब करो ईज़ाद।।

खिड़की से परदा हटा, जाग उठी उम्मीद।
कई रोज़ के बाद फिर हुई चाँद की दीद।।

एक पुत्र ने माँ चुनी, एक पुत्र ने बाप।
माँ - बापू किसको चुने, मुझे बताएँ आप?

अमन तुम्हारी चिठ्ठियाँ, मैं रख सकूँ सँभाल।
इसीलिए संदूक से, गहने दिये निकाल।।

मिट्टी को सोना करें, नव्य सृजन में दक्ष।
कूंज़ागर के हाथ हैं, ईश्वर के समकक्ष ।।

राजनीति के हैं अमन बहुत निराले खेल।
गंजों को ही मिल रहे, शीशा, कंघी, तेल।।

अपनी मुख से कीजिए, मत अपनी तारीफ़।
हमें पता है, आप हैं, कितने बड़े शरीफ़।।

प्रेम किया तो फिर सखे! पूजा - पाठ फुजूल।
ढाई आखर में निहित, सकल सृष्टि का मूल।।

किसकी मैं पूजा करूँ, किसको करूँ प्रणाम।
इक तुलसी के राम हैं, इक कबीर के राम।।

अंगारों पर पाँव हैं, आँखों में तेज़ाब।
मुझे दिखाए जा रहे, रंगमहल के ख्¸वाब।।

मानवता के मर्म का, जब समझा भावार्थ।
मधुसूदन से भी बड़े, मुझे दिखे तब पार्थ।।

सृष्टि समूची चीख़ती, धरा बनी रणक्षेत्र।
नीलकंठ अब खोलिए, पुनः तीसरा नेत्र।।
मिट्टी को सोना करें, नव्य सृजन में दक्ष।
कुम्भकार के हाथ हैं, ईश्वर के समकक्ष ।।

लगा सोचने जिस घड़ी, दूर बहुत है अर्श।
गुम्बद के साहस ढहे, हँसी उड़ाये फर्श।।

उनकी फ़ितरत सूर्य - सी, चमक रहे हैं नित्य।
मेरी फ़ितरत चाँद - सी, ढूँढ रहे आदित्य।।

कुंठित सोच - विचार जब, हुआ काव्य में लिप्त।
शब्द अपाहिज हो गए, अर्थ हुए संक्षिप्त।।

दूषित था, किसने सुनी, उसके मन की पीर।
प्यास - प्यास रटते हुए, मरा कुएँ का नीर।।

भोर हुई तो चाँद ने, पकड़ी अपनी बाट।
पूर्व दिशा के तख्¸त पर, बैठे रवि - सम्राट।।

शहर गए बच्चे सभी, सूनी है चौपाल।
दादा - दादी मौन हैं, कौन पूछता हाल?

नृत्य कर रही चाक पर, मन में लिए उमंग।
है कुम्हार घर आज फिर, मिट्टी का सत्संग।।

अलग - अलग हैं रास्ते, अलग - अलग गन्तव्य।
उनका कुछ मंतव्य है, मेरा कुछ मंतव्य।।

राम तुम्हें तो मिल गये, गद्दी सेवक दास।
पर सीता ने उम्र भर, झेला है वनवास।।

पलकें ढोतीं कब तलक, भला नींद का भार।
आँखों ने थक हारकर, डाल दिये हथियार।।

अधरों पर ताले पड़े, प्रतिबंधित संवाद।
हमने हर दुख का किया, कविता में अनुवाद।।

जर्जर  है  फिर  भी खड़ी, माटी  की  दीवार।
कब तक देगी आसरा, कुछ तो सोच - विचार।।

पायल  छम - छम  बज रही, थिरक  रहे  हैं  पाँव।
कहती मुझको ब्याह कर, ले चल प्रियतम गाँव।।

पोखर,  जामुन,  रास्ता, आम - नीम की छाँव।
अक्सर मुझसे पूछते, छोड़ दिया क्यों गाँव।।


ग्राम व पोस्ट-  चाँदपुर,तहसील-टांडा,
जिला- अम्बेडकर नगर(उ.प्र.)224230
मोबाः 09721869421
ई.मेल .kaviamanchandpuri@gmail.com

इन्‍द्रा रानी की गजलें

इन्द्रा रानी
सकून 1

देखा जो जोशे - जनून उसकी चाहों में
घबरा के भर लिया आसमां बाँहों में।

ठिठकती हूँ फूलों की राह पे चलते
उग आये काँटे शायद इन पाँवो में।

खुद से कभी खुदा से जुदा जीने लगे
बिखरे हैं ख्वाब घिर गए निगाहों में।

झुलसा के उम्र आधी शहरी धूप से
पाया सकूंन कुदरत की पनाहों में।

खोया है जो प्यार शायद लौट आयेगा
गुजरा है जीवन उम्मीद के गाँवों में।
 


 सब्र 2

शब ए गम निभाएंगे सितम होने तक
सपनों के सहारे हैं सहर होने तक।

लुटी है प्यार की बस्ती मगर इतनी नहीं
अभी जवाँ हैं हौंसले कहर होने तक।

होठों से लगा बैठें हैं हम गर्दिश के प्याले
घूँट घूँट पी रहे हैं ज़हर होने तक।

कबूल है हमें जो भी मिल जाए नसीब से
टूटे न सब्र दुआ है मेहर होने तक।



524 पॉकेट .5 मयूर विहार फेस .1 दिल्ली .110091
मोबाईल :  08368269608

ईमानदारी का ईनाम

कल्‍पना  कुशवाहा


एक गाँव में कृष्णा नामक व्यक्ति रहता था। वह बहुत गरीब था। वह कम पढ़ा लिखा था और गाँव के ही सेठ जी के अनाज के गोदाम में हिसाब - किताब का काम किया करता था। उसके घर में उसकी पत्नी विमला दो बच्चे नन्दू और नन्दिनी थे। नन्दिनी दो साल की और नन्दू छह साल का था, जो गाँव के ही एक विद्यालय में दूसरी कक्षा में पढ़ता था। कृष्णा का बड़ा अरमान था कि वो अपने दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाकर बेटे को बड़ा अफसर और बेटी को डॉक्टर बनाएगा मगर उसका गुजारा बड़ी मुश्किल से होता था।
कृष्णा की पत्नी इस बात से हमेशा उदास रहती थी।
एक दिन उसने कृष्णा से कहा - अजी कब तक ऐसे ही चलेगा? आप कुछ करते क्यों नहीं?
कृष्णा ने कहा - मैं और क्या करूँ? जितना जो बन पड़ता है, सब करता हूँ फिर भी पूरा ही नही पड़ता।
- अरे सेठजी से कर्ज़ ही ले लीजिये या फिर मदद माँग लीजिये। देखिए, अपने पड़ोसी रामू को आपके साथ काम करता था आज उसके दो बीघे खेत हैं। और हमारे पास क्या है?
- अरे भाग्यवान, कर्ज लेना भी चाहें तो कौन देगा? हमारे पास कुछ गिरवी रखने को भी तो नहीं है। और वो दो महीने की सजा भी तो काट के आया है जेल में, हेराफेरी के चक्कर में। देखो भाग्यवान, हमें ईमानदारी से अपना काम करना चाहिए और जो है उसी में खुश रहना चाहिए बाकी सब भगवान पर छोड़ देना चाहिए।
- भगवान पर छोड़ दो, ईमानदार रहो, घर में चाहे बच्चे भूख से मर जाएँ। कहते कहते विमला आँखों में आँसू लिए घर के बाहर चली गयी।
नन्दू ने पूछा - पिताजी, ये ईमानदारी क्या होती है?
कृष्णा ने उसे अपनी गोद में बिठाकर कहा - हमें अपना हर काम सही से करना चाहिए। किसी से बगैर पूछे उसकी चीज नहीं लेनी चाहिए। झूठ नहीं बोलना चाहिए। बेईमानी नहीं करनी चाहिए। कभी रिश्वत नहीं लेनी चाहिए। चाहे कितनी भी बड़ी समस्या हो हमें हमेशा ईमानदार रहना चाहिए।
नन्दू ने कहा - अच्छा पिताजी।
कृष्णा ने कहा - हाँ अब जाओ और जाकर खेलो।
कृष्णा के गाँव बगल के गाँव के एक मास्टर जिनका नाम दीनानाथ था। उनकी गाँव में काफी जमीन जायदाद थी मगर फिर भी उन्होंने अपना काम नहीं छोड़ा था वो रोज विद्यालय के बाद साइकिल से उसके गाँव के विद्यालय में पढ़ाने के बाद साहूकार के घर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने आते थे।
नन्दू हर रोज आते - जाते उनको नमस्ते किया करता था। मास्टर जी भी नन्दू को आशीर्वाद देकर चले जाते।
आज भी ठीक वैसा ही हुआ मास्टर जी अभी कुछ दूर ही पहुंचे थे कि उनकी जेब से एक लिफाफा नीचे गिर गया। नन्दू जोर से बोला - मास्टर जी आपकी जेब से कुछ नीचे गिर गया।
जो कि मास्टर जी को सुनाई नहीं दिया और वो साइकिल लेकर आगे बढ़ गए। नन्दू दौड़कर गया और वो लिफाफा उठाया। मास्टर जी अभी भी उसे दिखाई दे रहे थे।
वो उनके पीछे चिल्लाते हुए दौड़ने लगा और रास्तेभर चिल्लाता रहा, मगर मास्टर जी ने उसकी आवाज नहीं सुनी।
रास्ते में मास्टर जी एक चाय की दुकान पर चाय पीने के लिए रुके कुछ ही देर में नन्दू दुकान पर पहुंच गया और हांफते हुए बोला - मास्टर जी! मास्टर जी ये आपकी जेब से नीचे गिर गया था। मैंने बहुत आवाज लगाई मगर आपने सुनी नहीं इसलिए मैं दौड़कर आपको ये देने के लिए आया हूँ।
मास्टर जी ने नन्दू के हाथ से लिफाफा लिया और नन्दू को अपने पास बिठाया। उसे पानी पिलाया और उसके लिए कचौड़ी भी मंगाई मगर नन्दू ने खाने से इंकार कर दिया और कहा - मुझे घर छोड़ दीजिए मैं घर नहीं जा पाऊंगा।
मास्टर जी ने उससे पूछा - नन्दू मैं तो रोज तुम्हारे घर के सामने से निकलता हूँ, तुम ये लिफाफा कल भी तो मुझे दे सकते थे। उतनी दूर से यहाँ तक दौड़कर आने की क्या जरूरत थी।
नन्दू ने बड़ी ही मासूमियत से उत्तर दिया - मास्टर जी, ये आपका था इसे मैं कैसे रख सकता था। पिताजी ने कहा था दूसरे की चीज कभी नहीं लेनी चाहिए और कैसी भी स्थिति हो हमें हमेशा ईमानदार रहना चाहिए।
मास्टर जी ने नन्दू की बातें सुनकर उसे शाबाशी दी और अपनी साइकिल पर बिठाकर वापिस उसके घर ले गए। नन्दू के माता - पिता बहुत परेशान थे उन्होंने नन्दू को देखा तो कृष्णा ने झट से उसे अपनी गोद में उठा लिया और कहा - कहाँ चला गया था तू और मास्टर जी आप यहाँ।
नन्दू ने उन्हें सारी बात बताई फिर मास्टर जी बोले वाह भाई कृष्णा, तुम्हारा बेटा नन्दू तो बहुत ही होशियार और ईमानदार है। उन्होंने कुछ पैसे कृष्णा को देते हुए कहा - मैं तुम्हारी समस्याओं से वाकिफ  हूँ। तुम चाहो तो मेरे यहाँ नौकरी कर सकते हो।
कृष्णा ने कहा - अरे नहीं मास्टर जी इन पैसों की कोई जरूरत नहीं है। मैं कल से ही काम पर आ जाऊंगा।
मास्टर जी ने कहा - रख लो, और मेरे बेटे का शहर में विद्यालय है तुम्हारे दोनों बच्चे अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वहीं पढ़ेंगे अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो।
कृष्णा ने कहा - आपकी बहुत दया होगी मास्टर साहब, आप बड़े दयालु हैं। हमें कोई आपत्ति नहीं है।
विमला बोली - मास्टर साहब, हम आपका ये अहसान मरते दम तक नही भूलेंगे।
- नहीं - नहीं बेटी, ये अहसान नहीं। ये नन्दू की ईमानदारी का इनाम है। इतना कहकर मास्टर साहब अपनी साइकिल से अपने गाँव की तरफ चल पड़े।
- आप सही कहते थे जी ईमानदारी कभी नही छोड़नी चाहिए। विमला ने कहा।
तभी नन्दू बोल पड़ा - पिताजी आपने ये नहीं बताया था कि ईमानदारी का इनाम भी मिलता है।
कृष्णा ने हँसते हुए कहा - मिलता है बेटा, मिलता है। ईमानदारी का इनाम मिलता है। जैसे आज तुम्हें मिला ईमानदारी का दामन कभी ना छोड़ना कहते हुए कृष्णा ने नन्दू को गले से लगा लिया।
पुरवा, उन्‍नाव ( उत्‍तरप्रदेश )

अमावस के अंधेरे में

मोती प्रसाद साहू 

उसने मेरे घर की सॉकल खटखटायी। वह भी गहन निशीथ में। खट् ... खट् ...। मैं अचानक नींद से उठा। समय देखा रात के एक बज रहे थे। बाहर घुप्प अॅधेरा। याद आया - आज तो अमावस है। सॉकल खटकती रही खट् ... खट् ...।
अब चारपाई से उठना ही पड़ेगा। कौन हो सकता है, इतनी रात गये? संचार के इतने विकसित और उपलब्ध संसाधनों के बावजूद सॉकल खटखटाना? कोई परिचित है, तो उसके पास मेरा दूरभाष नम्बर होना चाहिए।
मेरे उठने के साथ एक अनचीन्हा भय भी उठ गया, मेरे मन में।
हिम्मत कर पहले खिड़की खोली। देखा एक स्त्री - आकृति दरवाजे पर खड़ी है। आँखों को छोड़कर नीचे से उपर तक वस्त्रों से पूरी तरह स्वयं को ढँकी हुई। पहचानना मुश्किल।
मैंने डरते डरते पूछा - आप कौन?
- भयभीत न हों कविराज! भयभीत तो मैं हूं। मुझे अन्दर तो आने दें। मुझे शरण चाहिए। आपको इतना तो मालूम होगा ही कि, जब कोई स्त्री रात में शरण मांगें तो निश्चित रुप से वह खतरे में है।
- किंतु ...।
- मैं समझ गयी, आपका भय भी निरर्थक नहीं है। मैं पूरी दुनिया में अपने लिए शरण तलाश रही हूं या किंतु नहीं मिल रही।
- आपका उत्तर तो दार्शनिक की भांति है फिर मुझसे उम्मीद?
- हां, आप कविराज हैं। सोचा, आप के पास शरण मिल जाय?
- परन्तु इतनी रात गये। दिन के उजाले में क्यों नहीं? कोई देख लेगा तो?
- आपको लोक लाज की पड़ी है और मुझे सुरक्षा की फिकर है। सब मेरे नाम की माला जपते हैं परन्तु सम्मान कोई नहीं देता। क्या मैं चली जाऊॅ, आप के दर से? आप भी औरों की तरह...।
- नहीं ... नहीं ... ऐसा नहीं हो सकता।
मेरी अन्तरात्मा ने कहा - डरो नहीं कवि, यह वही है जिसे आप वर्षों से सर्वत्र देखना चाहते हो, पाना चाहते हो। आज वह स्वयं चलकर आयी है तुम्हारे यहॉ, स्वागत करो।
मैंने अपने मन के दरवाजे खोल दिए।
अब वह मेरी कलम की नीली रोशनाई से कागद पर फैल रही है निरन्तर।
और ...! उधर शहर में, गाँव में, चौपालों में मुनादी हो रही है अखबारों में तहरीरें छपवाई जा रहीं हैं
- समता, कहाँ गुम हो गयी?

राज.इ.कालेज हवालबाग - अल्मोड़ा 263636 (उ.ख.)
ई0 मेल.
मोबा.- 09411703669

योजना बहिन जी


वीरेन्‍द्र ' सरल ' 

वह क्षेत्र बड़ा खुशहाल था। लोग बड़े  समृद्ध थे। लेकिन अचानक उस क्षेत्र को प्रकृति की नजर लग गई। वहाँ भीषण अकाल पड़ गया। लोग दाने - दाने के लिये मोहताज हो गये। माटी का मोह ऐसा था, जो उन्हें रोजगार के लिये पलायन करने से रोक रहा था। अकाल का समाचार अखबारों में प्रकाशित हुआ था। जिसे पढ़कर उस क्षेत्र का एक हारा हुआ नेता पहुँचा। उसके आने की खबर से वहाँ के लोग राहत की उम्मीद लिये भारी संख्या में उपस्थित हो गये। मगर हारा हुआ नेता तो मानो उनसे बदला लेने के लिये पहुँचा था। उसने कहा - देख लिया न हमें हराने का परिणाम। जब हमारी सरकार थी तो समय पर बारिश होती थी। पेड़ों पर रसीले,मीठे और बड़े - बड़े फल लगते थे। खेतों में अनाज की सोने सी बालियाँ लहलहाती थी। अब भुगतो परिणाम, ये हमारी सरकार बदलने के कारण हो रहा है। हमारा मुर्गा खाये, हमारा दारू पिये और हमें ही हरा दिये। यदि हमें वोट देते, हमारी सरकार बनाते तो ये दिन देखने नहीं पड़ते। अब सब कान खोलकर सुन लो, जब तक हमें नहीं जिताओगे, तब तक यहाँ पानी बरसने वाला नहीं है। हमारी मर्जी के बिना तो पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिलता। पानी कहाँ से बरसेगा? हमें जिताओ, तभी पानी बरसेगा, समझे? इतना कहकर वह चलता बना। लोग ठगे से उसे देखते रहे।
कुछ दिनों के बाद वहाँ एक महात्मा जी पहुँच गये। ये वही महात्मा जी थे जो यहाँ से बोरियों में भर - भर कर दान का अनाज ले गये थे। खुशहाली के दिनों में वे यहाँ महीनों तक अपना डेरा जमाये रहते थे। लोगों को संतोषी सदा सुखी का संदेश देते रहते थे। दान की महिमा बतलाते थे। दान के पैसे से स्वयं हलुआ, पुड़ी आदि स्वादिष्ट व्यंजन गपकते थे और लोगो को ’ जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये’ का भजन सुनाते थे। लोगों को बड़ी उम्मीद थी कि महात्मा जी के आश्रम में अरबों - खरबों की संपत्ति है। अब वे पधार रहे हैं तो इस मुसीबत की घड़ी में मुक्त हस्त से दान देकर हमारा सहयोग करेंगें। लोगो की भारी भीड़ महात्मा जी के स्वागत के लिये उमड़ पड़ी। महात्मा जी ने पधारते ही प्रवचन देना शुरू कर दिया कि ’ होइहै वही जो राम रचि राखा, एको करि तर्क बढ़ावही शाखा ’ ’ चाहे लाख करो चतुराई, करम का रेख मिटे न रे भाई’  वगैरह - वगैरह। लोगों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। महात्मा जी ने आगे कहा -  जरूर तुम लोगों ने पिछले जन्म में कुछ पाप किया होगा। जिसका दंड तुम्हें इस जन्म में अकाल के दंश के रूप में चुकाना पड़ रहा है। भगवान को प्रसन्न करने के लिये व्रत, उपवास और यज्ञ हवन कराना पड़ेगा। उसकी सलाह पर लोगों ने अपना बचा - खुचा धन यज्ञ - हवन और शांति पाठ में स्वाहा कर डाला पर कोई चमत्कार नहीं हुआ। महात्मा जी दान - दक्षिणा समेट कर आश्रम की ओर कूच कर गये। लोगों के हाथ केवल निराशा ही लगी।
लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर करें तो क्या करें? तभी वहाँ एक दिन चमचा नामक दूत प्रकट हुआ। उसने कुशल कथावाचक की तरह लोगों को समझाया - राजधानी नामक पावन महा तीर्थ में नेता नामक देवता गण निवास करते हैं। वहाँ जाकर उनकी स्तुति करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं और वोटों का प्रसाद चढ़ाने की मनौती मांगने पर प्रसन्न हो जाते हैं फिर मन वांछित फल प्रदान करते हैं।’ नेता जी की आरती जो कोई नर - नारी गावे, सुख सम्मत्ति पावे’ तुममें से कुछ प्रमुख लोग एक दल बना कर अविलंब राजधानी की ओर प्रस्थान करो और वहाँ पहुँच कर उनकी स्तुति करो तो तुम्हारा कष्ट जरूर दूर होगा। इतना कहकर वह अर्न्तध्यान हो गया।
उसकी सलाह पर वहाँ के प्रमुख लोगों ने एक दल बनाकर कुछ ही दिनों मे राजधानी नामक पावन महातीर्थ पहुँच गये और उस मंदिंर को तलाशने लगे जहाँ नेता नामक देवता गण विराजते है। उस पावन तीर्थ में निवास करने वाले अन्य लोगों से पता पूछते हुये वे उस मंदिर तक पहुँच गये। वहाँ उन्होंने देखा - एक महल नुमा बहुत बड़ा भवन है, जिसके आँगन मे एक विशालकाय वृक्ष है। उस पेड़ को घेर कर बहुत से धवल वस्त्रधारी नेता अपने हाथों में कुदाल लिये पेड़ के जड़ की खुदाई करने में तुले हैं। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे - देखो हमारे देश के नेता कितने परिश्रमी हैं। लोग बेकार ही हमारे माननीय नेताओं को बदनाम करते हुये निकम्मे और निठल्ले समझते हैं। ये बेचारे यहाँ कुदाल लेकर जड़ खुदाई करने का श्रमसाध्य कार्य करके पसीना बहा रहे हैं। दल प्रमुख ने राजधानी निवासी एक बुजुर्ग से पूछा - इतना विशालकाय पेड़ हम जीवन में पहली बार देख रहे हैं। इस पेड़ के बारे में हमें बिल्कुल जानकारी नहीं है? कृपा करके इस पेड़ का नाम बता दीजिये साथ - ही - साथ ये नेता लोग क्या कर रहे हैं यह भी समझा दें तो बड़ी कृपा होगी।
बुजुर्ग ने समझाया - इस पेड़ का नाम लोकतंत्र है। इसके छत्रछाया में अरबों लोग निवास करते हैं। मगर ये नेता इसकी जड़ें खोद रहे हैं। ये इसे यहाँ से उखाड़ कर अपने घर के आँगन में लगाना चाहते हैं। इसलिये इसे धाराशायी करने पर तुले हैं। इतना बताकर वह बुजुर्ग आगे बढ़ गया। लोगों को उसकी बातें समझ में नहीं आयी। दल प्रमुख जड़ खोदने वाले देवताओं को पहचानने की कोशिश करने लगा। एक देवता उसे कुछ जाना - पहचाना लगा। वह खुशी से उछल पड़ा - अरे! ये तो वही देवता है जो पिछले चुनाव में हमारे गाँव में जाकर हमारे सामने हाथ जोड़कर वोटों की भीख मांग रहे थे। चलो, उसी के पास जाकर हम मदद मांगते हैं।
सभी लोग उस नेता के पास पहुँच गये। दल प्रमुख ने उन्हें अपने क्षेत्र मे पड़े भंयकर अकाल के संबंध में जानकारी देते हुये मदद की मांग की। मगर उस देवता ने उन्हें दो टूक जवाब देते हुये कहा - मुझे सब मालूम है, अकालग्रस्त क्षेत्र के लिये यहाँ से एक योजना जा रही है। जिससे तुम्हारी सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। फिर उसने एक बहुत ही खूबसूरत योजना की जानकारी उन्हें दी और फिर से उस पेड़ की जड़ खोदने में तल्लीन हो गया। उसकी बेरूखी देख दल के अन्य लोगों की उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई। वे अपनी नम आँखो से बेबसी में इधर - उधर देखने लगे। कुछ समय बाद उन्हें वहीं पर एक गोल - मटोल,खूबसूरत देवी जैसी एक महिला दिखाई पड़ी। दल के लोगों को लगा, शायद यही योजना बहिन जी हैं जो हमारे क्षेत्र में जायेगी और चुटकी बजाते ही हमारी समस्याओं का समाधान कर देगी। वाकई योजना बहिन जी तो बहुत ही खूबसूरत है। लोग आश्वस्त होकर अपने गाँव लौट आये और बेसब्री से योजना बहिन जी का इंतजार करने लगे।
दो - तीन महीने बीत जाने के बाद भी जब योजना बहिन जी गाँव नहीं पहुँची तो उन्हें चिन्ता होने लगी। वे सोचने लगे - योजना बहिन जी कहीं रास्ता तो नही भूल गई। अब तक तो उन्हें यहाँ आ जाना चाहिये था पर अब तक आई क्यों नहीं? रास्ते में कहीं उसके साथ कोई ऐसी - वैसी घटना तो नहीं घट गई? गाँव वालों के सब्र का बांध टूट रहा था। वे अलग - अलग दलों में बटकर योजना बहिन जी की तलाश करने के लिये निकल पड़े। कोई रेल्वे स्टेशन, कोई बस स्टेण्ड और कोई हवाई अड्डा पर सुबह से शाम तक बैठकर योजना बहिन जी का इंतजार करने लगें। सभी लोग दिन भर वहाँ योजना बहिन जी का इंतजार करते और देर रात गये थके हारे निराश कदमों से घर लौट आते। महीनों तक उनका यही क्रम चला। एक दिन एक बुद्धिजीवी ने उन्हें समझाया - योजना रेल,बस या हवाई जहाज पर सवार होकर नहीं आती। बंधुओ! वह तो फाइल पर सवार होकर कछुआ चाल से आती है। उसका यहाँ इंतजार करना व्यर्थ है। इसे सुनकर एक ग्रामीण ने अपना माथा पीटते हुये कहा - धत्त तेरे की, अरे! हां रे, हम ही लोग कितने बुद्धू हैं। इतनी सी बात हमें अब तक समझ में नहीं आई कि सभी देवी देवताओं के अपने - अपने निजी वाहन होते हैं। जैसे दुर्गा की सवारी शेर, सरस्वती की सवारी हंस, लक्ष्मी जी की सवारी उल्लू वैसे ही योजना बहिन जी की सवारी फाइल है ना? बात समझ में आते ही सब खुश हो गये और फाइल पर सवार होके आ जा मोरी मैया गाते हुये खुशी - खुशी अपने गाँव लौट आये।
वे लगातार पंचायत प्रमुख और विकास अधिकारी से सम्पर्क बना कर योजना बहिन जी की शोर - खबर लेते रहे। बहुत दिनों तक तो कुछ पता नहीं चला। मगर, अचानक एक दिन गाँव भर में हल्ला मचा कि अकालग्रस्त क्षेत्र के लिये एक योजना आयी है। गाँव भर के लोग योजना बहिन जी को एक नजर देखने के लिये ग्राम पंचायत की ओर दौड़ पड़े क्योंकि राजधानी से वापस लौटने वाले लोगों ने सबको बताया था कि योजना बहुत ही सुन्दर हैं। वह हमारी सभी समस्याओं का हल चुटकी बजाते ही कर देगी।
ग्राम पंचायत के सामने अकाल पीड़ित लोगों की भारी भीड़ थी। सभी लोग योजना बहिन जी से राहत की उम्मीद लगाये खड़े थे। भीड़¸ के बीच एक दुबली - पतली, बीमार सी महिला खड़ी थी। उसका चेहरा निश्तेज था। ऐसा लग रहा था मानो वह स्वयं ही अकाल पीड़ित हो। पता नहीं कितनें दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया रहा होगा। उसकी आँखें डबडबाई हुई थी। उसके मन की पीड़ा आँसू के रूप में उसके गालों पर ढुलकने लगी थी । वह कुछ कहना चाहती थी पर भीड़¸ और पीड़ा के कारण कुछ कह नहीं पा रही थी।
एक सहृदय ग्रामीण बुजुर्ग ने भीड़ से शांत रहने की अपील की। वहाँ एकत्रित भीड़ कुछ समय के लिये शांत हुई। तब योजना बहिन जी ने बोलना शुरू किया। उसने कहा - मेरे भाइयों और बहनों! मैं आप लोगों के उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाऊँगी,इसका मुझे अफसोस है। मैं आप सबको अपनी आप - बीती सुनाती हूँ। हम लोग कई बहनें हैं, हमें आपदाग्रस्त लोगों की सहायता करने के लिये राजधानी से खूब सजा - संवार कर भेजा जाता है मगर रास्ते में ही मेरी कई बहनें अपहृत होकर नेताओं की तिजोरियों में कैद हो जाती हैं। कुछ बहनें अधिकारियों के जेबों में पहुँचकर स्वाहा हो जाती हैं तो कुछ बहनें भ्रष्ट कर्मचारियों के द्वारा लूट ली जाती हैं। कुछ  फाइलों में दबकर ही दम तोड़ देती हैं। मैं स्वयं कई लुटेरों से लुटती - पिटती यहाँ तक पहुँची हूँ। मेरी दशा आप देख ही रहें हैं। मेरे बदन पर छीना - झपटी के निशान आपको स्पष्ट दिखलाई पड़ रहे होंगे। अब आप ही बताइये इस दीन - हीन दशा में मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूँ ? इतना बताकर वह आँचल में मुँह छिपाकर सुबक - सुबक कर रोने लगी। कुछ ही समय बाद वह लड़¸खड़ा कर गिर पड़ी। लोगों ने उसकी नब्ज टटोलकर देखा, उसके हृदय की धड़कन बंद हो चुकी थी। योजना बहिन जी के प्राण पखेरू उड़ चुके थे ...।

बोड़रा (मगरलोड़ ) पोष्ट- भोथीडीह,
व्हाया - मगरलोड़,
जिला - धमतरी ( छ.ग.) पिन कोड - 493662

हम हिन्‍दी वाले

दिलीप कुमार

अपने कुनबे में हमने ही ये नई विधा इजाद की है। एकदम आमिर खान की मानिंद परफेक्शनिस्ट नहीं- नहीं भाई कम्युनिस्ट मत समझिये। भई कम्युनिस्ट से जब जनता का वोट और सहयोग कम होता जा रहा है तब हम जैसा जनता के सरोकारों से जुड़ा साहित्यकार कैसे उनसे आसक्ति रख सकते हैं। एक उस्ताद शायर फरमा गये हैं :
    अपनी मर्ज़ी से कब कहाँ किधर के हम हैं
    रुख हवाओं का जिधर है, उधर के हम हैं।
फिर हम उन चुनिंदा बंगाली बुद्धिजीवियों जैसे थोड़े ना हैं, जिनके समक्ष विश्व उत्त्थान का मुद्दा दिवास्वप्न की मानिंद उपस्थित रहता है और दिल में सोवियत संघ के बिखर जाने का स्थायी दुःख साथ में ये स्थायी टीस भी कि काश एक बार सरकारी खर्चे पर क्रांति को समझने के लिये सोवियत देशों की यात्रा हो पाती।
हम तो हिंदी क्षेत्र के खाये - अघाये साहित्यकार हैं। हम सीना ठोंक के हिंदी के उत्थान का झंडा ठसक से उठाते हैं। हिंदी के उत्थान के लिये लात - मुक्का, घूंसा खाने - चलाने से लेकर आत्मदाह का प्रयास करने तक को तैयार बैठे हैं, बस एक बार हमारे संगठन के चुनाव तो हो जाने दीजिये।
वैसे भी हमें हिन्दीतर भाषी राज्य में पैदा ना होने का अफ़सोस बहुत है। वहाँ देखिये, हिंदी विभाग में  हिंदी डे मनाकर अंग्रेजी दां लोग विभाग का माल पानी ऐसे उड़ा ले जाते हैं कि किसी हिंदी प्रेमी को भनक तक ना लगने पाती है। हिंदी सेवा के लिए हम कुछ ख़ास ना कर पाते तब भी कोई एनजीओ वगैरह बनाकर वार्षिक या द्विवार्षिक पत्रिका ही निकालते। ये कम पड़ता तो हिंदी सेवा के नाम सरकारी खर्चे पर देश के कोने - कोने या विदेश की यात्रा ही कर डालते और पूरी फैमिली की छुट्टियों का इंतजाम मुफ्त में हो जाता और हिंदी सेवा भी। इसके अलावा अनुवाद और सम्वाद के नाम पर कमाई के तमाम जरिये निकल सकते थे।
सुना है, सारे कमीशन संगठित है। वहाँ हमारे अधिकांश राज्यों के विकास के सिरमौर ठेकेदारों ने बताया। सुदूर हिंदी के विरोध का गढ़ बने एक हिन्दीतर राज्य में तो बाकयदा एक्सेल शीट पर ऐसे कार्यक्रमों के कमीशन की एक संस्था से रिपोर्ट लीक हुई थी।
वैसे तो हिंदी के नाम पर हो रहे खेल में सर्वत्र कुशल - मंगल है और भारत और चीन की सीमाओं की तरह स्थाई शान्ति है। ऑडिट - वादिट का कतई कोई बड़ा लफड़ा नहीं है वहाँ। तभी तो हिंदी सप्ताह के पूर्व ही लोग ’ आई लव’ हिंदी का मंत्रोच्चार करना शुरू कर देते हैं जिससे वो तमाम नकदी और प्रोत्साहन की योजनाएं हथियाने में सफल हो जाते हैं ।
जबकि हिंदी पट्टी के राज्यों में कितनी गला काट प्रतियोगिता है। किसी बन्दे को पांच हजार का पुरस्कार मिल जाए तो पांच सौ पेज के  सवाल हिंदी की पत्रिकाओं में छप जाते हैं। अखाड़ा सा बना हुआ है इस हिंदी बेल्ट में। अब अगर मोहल्ले स्तर की किसी संस्था ने भूले - भटके कोई पेन,फाइल कवर या सौ रूपये वाली शाल हमको ओढ़ा दी तो भाई लोग जलकर आग भभूका हो जाते हैं।
वैसे भी इस तमाशे में भूले से भी नकदी का कोई नामोनिशान नहीं होता। अलबत्ता मेरे अभिनन्दन के नाम पर मुझसे ही चाय - समोसा खाते हुए सैकड़ों रुपयों का बिल मुझे ही थमा जाते हैं। फिर अखबार में स्वयं चर्चा पाने के लिये मेरे नाम का बधाई संदेश छपवाते हैं। हमारे खबरनवीस भी बधाई देने वाले का नाम तो बोल्ड अक्षरों में छापते हैं। मगर पुरस्कार पाने वाले का नाम बहुत छोटे अक्षरों में प्रकाशित करने की परंपरा का पालन बड़ी मुस्तैदी से करते हैं। किसी अखबार ने हमारा नाम छापा तो तखल्लुस भूल गया और किसी ने हमारा तखल्लुस शाया किया तो नाम बदल गया। मुझे तो ये उन लोगों की अज्ञानता कम और शरारत ज्यादा लगती है। एक साहब से  मैंने इसकी वजह पूछी तो वो शेक्सपियर का हवाला देते हुए हँस कर बोले - व्हाट इज इन ए नेम?
अब इन दिलजलों को कौन समझाये कि साहित्यकार की आधी पहचान उसके मूल नाम से और बाकी की पहचान खुद को स्वयंभू बनाकर दी गयी पहचान के नाम यानी तखल्लुस से होती है। मेरे यश की हकतल्फी यकीनन मेरे शहर के साहित्यकारों की दीर्घकालिक योजनाओं की परिणिती है जिससे कि मेरी प्रंशसा मेरे पाठकों तक छितरा - छितरा तक पहुंचे,इकट्ठे नहीं।
लेकिन हम भी क्या करें, साहित्य के इस अखाड़े में अगर बने रहना है तो हमको भी इस नूरा - कुश्ती का हिस्सा बनना ही पड़ेगा। आखिर हम भी तो इस खेल के माहिर खिलाड़ी हैं। बरसों से इस खेल को खेलते आ रहे हैं। किसी को बना भले ना पाये हों, मगर ना जाने कितने पहलवानों को नेस्तानाबूद कर दिया इस साहित्य के अखाड़े में। उन सबकी फेहरिस्त बहुत लंबी है। ले दे कर ये कम्बख्त उम्र ही धोखा दे जाती है। हमारे मोहल्ले  में अभी युवा और वृद्ध के बीच साहित्यकारों की कोई पूछ नहीं होती और हम ठहरे मझदार वाले। युवा हमें लिफ्ट नहीं देते और वृध्दों को तो उत्साह से लबरेज युवाओं की ही जरूरत रहती है।
हमारी हिंदी में लेखक को बूढ़े होने का इंतजार करते रहते हैं, क्योंकि हमारे यहाँ वरिष्ठ लेखक का तमगा उम्र से ही मिलता है। पढ़ने - लिखने से नहीं। दुनिया में किसी अन्य क्षेत्र में कोई जल्दी बूढ़ा नहीं होना चाहता मगर हिंदी साहित्य में ’ साठा वो पाठा ’ की कहावत चरितार्थ होती है। यानी जी साठ का हुआ वो बुद्धिमान और पढ़ाकू माना जाने लगा। भले ही उसकी जिंदगी वरिष्ठों की चापलूसी में गुजरी हो। वो कृपापात्रता के बदौलत और जेबें ढीली करके ही छपा हो मगर अब वो स्वयं वरिष्ठ है और ये सब खुद दुबारा दुगनी रफ्तार से करेगा।
हिंदी साहित्य में वरिष्ठ होने के लाभों की गणना करना ऐसे ही है, जैसे किसी साधारण लेखिका के बारे में ये पता लगते ही कि ये किसी उच्च अधिकारी की पत्नी हैं, जो मलाईदार विभाग में हैं। हमारे  आलोचक उनकी साहित्यिक महानतायें गिनना शुरू कर देते हैं। हमने लाख जतन किये मगर हमारे लेखन को महिला और दलित लेखन के देखे - भोगे यथार्थ के समतुल्य भी ना माना गया। हमने तमाम लेखक संघों की सशुल्क सदस्ताएं लीं। अपने किराये भाड़े पर उनके सम्मलेन में भी गये। मगर वहां भी हमें प्रमुख हस्ताक्षर नहीं माना गया। और तो और हमने दल और विचारधारा बदलकर एक संघ से दूसरे संघ में पदार्पण किया मगर हमारे इस परिवर्तन को भी तवज्जो नहीं दी गयी। आलोचकों ने स्वर्णिम चुप्पी को ओढ़े रखा और ये बताने से गुरेज किया कि हमारे जाने से फलां संघ को कितना नुकसान हुआ और फलां संघ को कितना फायदा?
हमारे लेखन और साहित्यिक निष्ठाओं के विचलन पर बड़े - बड़ों को तो छोड़िये, छुटभैये आलोचकों ने ऐसी चुप्पी साधी कि पूछिये मत, उनके दिल में ये डर घर कर गया कि अगर भूले से भी उन्होंने मेरा नाम नकारात्मक स्वर में भी ले लिया तो हो सकता है कि कहीं :
’ बदनाम गर होंगे तो फिर नाम ना होगा’ वाली कहावत चरितार्थ ना हो जाये, सो वो चुप ही रहे।
हालाँकि मैंने विपन्न साहित्यकारों को मिलने वाली पेंशन की उम्मीद अभी त्यागी नहीं है और बिना प्रकाशक के प्रस्ताव के ही अपनी मसालेदार आत्मकथा अभी से लिखने बैठ गया हूँ।
क्या पता, कब कहां टाँका फिट हो जाये और मुझे अपने कपोल कल्पित प्रेम संबंधों पर पूरी सीरीज लिखनी पड़ जाए।
वैसे भी शोक - संतप्त और मृत्यु के बाद लेखकों की महानता के लेखों को लिख - लिख कर मेरा जी ऊब गया है। अब आप भी उब गये हों तो ये सब पंवारा छोड़िये और मेरी उस ख़ास विधा के बारे में सुनिये। वो विधा ये है कि किसी ख़ास पुरस्कार के ठुकराए जाने पर उस पर विशिष्टता लिया हुआ लेखन। हाल ही में एक मशहूर अंग्रेजी लेखिका की मशहूर किताब का हिंदी अनुवाद करने वाले एक जाने - माने लेखक ने भारतीय साहित्य का सबसे जाना - माना और मलाईदार पुरस्कार ठुकरा दिया। मैंने तुरंत ही इस अवसर को लपक लिया था। ये और बात है कि मैंने कुछ समय पहले उस अंग्रेजी लेखिका के इस देसी और मलाईदार पुरस्कार के ठुकराए जाने पर भी लिखा था। हालांकि तवज्जो तब भी नहीं मिली थी मगर तब की बात अलग थी क्योंकि तब हिंदी साहित्य में इतने पुरस्कार ठुकराये नहीं जाते थे।
मगर अब हिंदी साहित्य में तमाम मठाधीशों के नाम ,निष्ठा और लोकेशन बदल चुके हैं।
मगर इस बार मैंने पूरी तैयारी की है। ठुकराये जाने वाले पुरस्कारों और उनके समर्थन के फायदों का व्यापक अध्ययन कर लिया है। अब हिंदी के साथ इस मामले पर अंग्रेजी पर भी लिखूंगा। लिपि भले ही बदले,आखिर सेवा तो हिंदी की ही होगी। भले ही ऐसे कंटेंट का अनुवाद मैं कॉन्वेंट में पढ़ने वाले अपने भतीजे से करवाऊंगा। अब इसे आप मेरा प्रोफेशनलिज्म कहिये कि इसके लिये मैंने इश्तहार छपवाने को भी सोचा है, जिसका मजमून कुछ यूँ होगा - उपलब्ध है एक हिंदी का  उत्कृष्ट साहित्यकार, नोट :अंग्रेजी में भी अनुवादित, जो सिर्फ पुरस्कार ठुकराये जाने पर लिखता है। हिंदी की बड़ी पत्रिकाएं मानदेय सहित या बिना मानदेय लेखन हेतु तथा छोटी - मोटी पत्रिकाएं प्रस्तावित मानदेय राशि के साथ नीचे लिखे पते पर सम्पर्क करें,मगर पहचान गोपनीय रखने की गारंटी के साथ,नाम,अजी छोड़िये, व्हाट इज इन,नेम,नाम में क्या रखा है।बस ये लिंक क्लिक कीजिये ...।
मालती कुभ् कॉलोनी,
आनंद बाग,
बलरामपुर (उत्तर प्रदेश) 271201
मोबाईल : 9454819660,9956919354

अम्‍बो अब शांत है

अम्बो आज बहुत उदास है। लगातार रोने से आँखें धुली धुली है। बिल्कुल उस आसमान की तरह जहाँ बादल बरस जाने के बाद एक साफ सुथरी उदासी छाई रहती है। किसी ने उसे बुलाने या चुप कराने की हिम्मत नहीं की। आखिर सुखजीत से रहा नहीं गया। वह धीरे से दादी के पास गया - दादी माँ! सुबह से तुमने कुछ नहीं खाया। अब बस करो,कुछ खा लो।
अम्बो का जैसे रोका बाँध फिर से टूट गया। इस बार रोने के साथ - साथ उसने गरियाना भी शुरू कर दिया - वे सुरजन सिहा,तेरा कुछ न रहे। तूने मेरे भोले बच्चे को बहका लिया। तेरे बच्चों को भोगना नसीब न हो। तेरे कीड़े पड़े। तुझे नरक में भी जगह न मिले। अब वे सुखजीत को मुखातिब हुई - वे सुखजीते! तुझ रब अक्ल दे। तूने ये क्या कर डाला। तेरे जैसा कपूत किसी के घर न पैदा हो। अरे, तूने कुल की नाक कटवा दी रे। कोई अपनी इज्जत यूं नीलाम करता है जैसी तूने कर दी। अरे, तूने एक बार भी नहीं सोचा कैसे तेरे बाबे ने मिट्टी के साथ मिट्टी हो के ये क्यारे खरीदे थे। कैसे वह और तेरा बाप सारा - सारा दिन मिट्टी के साथ मिट्टी हुए रहते थे। किस तरह आधी - आधी रात उठ के खेत में पानी लगाने जाते। तू क्या जाने जब खेत में कुली - कुली गन्दल तोड़ने जाते तो गेहूं की लहराती फसल कितना सुकून देती थी,जब झोली में तोड़ा हुआ सरसों का साग लेकर मैं घर लौटती थी। न तो कैसे गर्व महसूस होता था, और फिर जब साग तैयार होता था न तो सारे मौहल्ले में उसकी खुशबू फैल जाती थी। अम्बो की आँखे चूल्हे पर चढ़े साग की तस्वीर में खो गयी थी। वे अपने ही ध्यान में बोले जा रही थी - सरों का साग ऐसा बनता,ऐसा बनता कि सारा टब्बर उँगलियाँ चाट - चाट खाता। साथ होती घर की मक्की की रोटियां,गरम - गरम साग पर मक्खन का पेड़ा डाल खेतों की मूलियों के साथ बाप बेटा खाने बैठते तो घर को भाग लग जाते। फिर सीरी और कामे रोटियां छकते। वह रौनकें कहाँ से लाएगा रे सुखजीते, तूने ये कैसा अनर्थ कर डाला रे। मैं तेरे बाप को तेरे बाबे को सुरगों में कैसे मुंह दिखाउंगी रे?
बेबे का बड़बड़ाना जारी था। थाली में पड़ी रोटियां लकड़ी हो गयी थी और दाल पानी। पर उसे चुप न होना था, न हुई। उसी तरह आँखों पर दुपट्टे का पल्ला रखे रोती रही,गरियाती रही। सुखजीत का मन किया एकहे अम्बो तेरा सर दुखने लगेगा। पर उसने वहां से हटने में ही भलाई समझी और वहाँ से हट कर नीम के दरख्त के नीचे बिछी खाट पर जा बैठा। रोटी खाने का उसका मन भी नहीं हुआ।
उसे याद आया दो साल पहले का वह दिन जब उसके बाबा का स्वर्गवास हुआ था। यहीं इसी आंगन में सारा गाँव इकट्ठा हुआ था। सारे बड़े बूढ़े यहीं बैठे थे। धीरे - धीरे दूर नजदीक के रिश्तेदार भी आने शुरू हुए थे। सब मरने वाले की किस्मत सराह रहे थे। पोते पड़पोते वाला होकर  दुनिया छोड़ी। हंसता खेलता परिवार देख कर गया। कर्मों वाला था भाई, जनाजा पूरी शान से निकलना चाहिए। सुखजीत ने मौके की नजाकत को देखते हुए बीज खरीदने के लिए रखे साठ  हजार रूपये अपने रिश्ते के भाई के हाथ रख दिए थे। अर्थी उठाने की तैयारी जोर शोर से शुरू हुई थी। अर्थी पर कीमती दुशाला डाला गया। गुब्बारे और झंडियां लगा कर विमान सजाया गया। घंटे और घड़ियाल की ध्वनि के साथ अर्थी उठी। सारे रास्ते फूल,पतासे और सिक्के लुटाये गए और लूटे गए। चन्दन की पांच लकड़ियाँ चिता में डाली गई। देसी घी की आहुति दी गई। सभी रिश्तेदार चाय बिस्कुट पी कर तारीफ करते घर गए।
जब रात में थोड़ी शान्ति हुई तो सुखजीत को बताया गया कि आज के आयोजन में पचास हजार  से ऊपर खर्च हो गए हैं। उसने सोचा - चलो, सब खुश हो गए, इतना ही बहुत है। अम्बो काफी संतुष्ट दिखाई दे रही थी।
पर असली मुसीबत अगले दिन से शुरू हुई। अभी दसवां और सतारवा बाकी था। अभी हरिद्वार अस्थि विसर्जन के लिए भी जाना बाकी था। वह सर पकड़ कर बैठ गया था।
घर की औरतें परम्परा के साथ कोई समझौता करने को तैयार नहीं थी। दसवें पर सारे रिश्तेदार आयेंगे इसलिए टेंट तो जरुरी है। तीन सब्जियां तो बनेंगी ही। हलवा और खीर भी बनेगी। लड्डू और जलेब भी पकेंगे। खानदान की लड़कियों की लिस्ट बनी। परिवार की कुल  बीस लडकियाँ हैं। उन सब को सूट तो देने ही पड़ेंगे, साथ में एक - एक लोटा भी फिर किलो लड्डू जलेब भी देने होंगे। रिश्तेदारों की लिस्ट दो हजार हो रही थी। सुखजीत का हर विरोध यह कह कर टोक दिया जाता। बाबा ने रोज - रोज मरना है क्या? एक ही बार तो खर्च करना है, बेचारा सारी जिन्दगी इस घर के लिए ही तो खटता रहा है। अब कंजूसी करोगे।
सुखजीत का मन किया चीख कर कहे - अब ब्याज समेत कमाई वापिस करनी पड़ेगी क्या? पर वह जानता है उसके विरोध की बात नक्कारखाने में तूती बन कर रह जायेगी। उसने धीरे से कहा था - चाचा, इतना पैसा आएगा कहाँ से? जवाब दिया था सुन्दर ने - ले भाई! दूकान तेरी,मैं तेरा बड़ा भाई,तू चिंता क्यों करता है जो चाहिए, जितना चाहिए दूकान पे पर्ची भेज दीजो सामान पहुँच जाएगा। सरपंच ने बिना कहे ही दो लाख रूपये घर भेज दिए थे।
दसवां शान से निपट गया था। दूर - दूर के रिश्तेदार आये थे। उसके दरिया दिली की तारीफ़ कर के मृत आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करते हुए उन्होंने पेट भर लड्डू जलेबी खाई थी। वह हाथ बांधे खड़ा रहा था। दसवें के बाद वह,उसका बेटा और उसका मामा तीनों हरिद्वार अस्थि विसर्जन भी कर आये थे। वहां पंडों ने अलग क्रिया कर्म करवा  कर मोटी दक्षिणा वसूल की थी।
सत्रहवीं पर सत्रह ब्राह्मणों को भोज खिलाया गया। वस्त्र बर्तन बिस्तर के साथ दक्षिणा दी गई। इस सब में सुखजीत तन - मन से थक कर चूर हो गया था। पर फिर भी एक तसल्ली थी कि सब संतुष्ट हो कर गए थे और सब से बढ़ कर अम्बो संतुष्ट थी।
अगले दिन वह खेत के लिए निकला तो रस्ते में सुन्दर मिल गया-  और भाई तू ठीक है।
- जी।
- ऐसा है भाई, लौटती बार जरा दूकान पर हो कर जाना, एक बार हिसाब देख लेना। पेसों की कोई जल्दी नहीं। जब होंगे तब दे देना पर हिसाब तो बाई माँ बेटी का भी होता है। भाई - भाई का भी।
- जी आ जाऊँगा।
- पक्का आ जाना।
शाम को वह सुन्दर की दुकान पर गया था। सुन्दर ने उसकी, उसकी बीबी की,हलवाई की सारी पर्चियां निकाल के उसके सामने रख दी थी और साथ ही  हिसाब की बही भी। कुल सवा लाख का बिल था।  उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया था। दिन में तारे नजर आने लगे थे। जैसे - तैसे वह घर पहुंचा। उसकी बीबी ने देखते ही कारण बिना कहे जान लिया था - पानी का गिलास उसके हाथ में पकड़ा अन्दर गयी। कुछ देर बाद लौटी तो उसके हाथ में गुलाबी रुमाल की एक छोटी सी पोटली थी। पोटली उसने हाथ में रख दी। सुखजीत ने सवालिया निगाहों से उसको देखा।
- जी आपको मेरी कसम। दो चार गहने हैं। बेच के जिसका देना है दे दो।
- पर तेरे पास तो यही एक चूड़ियाँ हैं और यही एक चेन।
- कानों की बालियाँ मैंने रख ली है,और सगाई वाली अंगूठी भी।  वही रोज पहनना होता है। बाकी तो सन्दूक में ही धरे रहते हैं। दे दो कर्जा उतर जाएगा। अगली फसल पर बनवा देना।
उसका मन अपनी पत्नी के प्रति आभार से भर गया। कैसे उसकी हर तकलीफ बिना कहे जान लेती है। हर तकलीफ में चट्टान की तरह से उसके साथ खड़ी रहती है। गिरने से पहले ही हाथ थाम  कर सम्भाल लेती है। उसे अपनी बीबी पर बहुत प्यार आया। मन तो चाहा कि गहने लेने से मना कर दे पर मजबूरी है। सुन्दर के बारे में मशहूर है कि बकाया पैसों पर मोटा ब्याज लगता है। उसने रुमाल कस कर पकड़ लिया।
सुबह दिन निकलते ही वह चन्दन सुनार की दुकान में गया।
चंदन अभी दुकान खोल कर धूप बत्ती कर ही रहा था। सुखजीत को देख के भी अनदेखा करते हुए उसने लक्ष्मी की मूर्ति को नमस्कार करते हुए उनका धन्यवाद किया और पलट कर सुखजीत का स्वागत किया - आ भाई सुखजीत! कैसे आना हुआ?
सुखजीत ने  रुमाल उसके सामने खोल दिया - भाई ये ...।
- अरे ये तो भाबी की वही चूड़ियाँ है न जो तेरा बापू शादी में बनवा कर ले गया था।
- हाँ भाई, ये वही हैं। तू तो जानता है, पिछले दिनों काफी खर्चा हो गया। हाथ बहुत तंग चल रहा है।
- एक बार फिर सोच ले?
सोच लिया यार, सारी रात सोच - सोच के ही काटी है। तू बता कितने के हुए।
चंदन ने चूड़ियाँ और चेन दोनों बैलेंस पर रखे। अपनी छोटी डायरी में कुछ हिसाब लगाया और डायरी सुखजीत के आगे रख दी। सुखजीत ने देखा कुल सात तोले के गहनों थे पर चन्दन के हिसाब में वे साढ़े पांच तोले रह गए थे। उसमें भी टाँके की काट लगाईं गयी थी और पांच तोले सोने की कीमत पचीस हजार के हिसाब से एक लाख पचीस हजार बन गया था। उसने जानना चाहा - पर ये तो दो साल पहले  ही बनवाये थे तब दो लाख के बने थे, तूने ही बनाए थे। तेरी भाभी ने तो एक बार ही पहने हैं। उसकी आवाज में बेचारगी उतर आई थी।
- मैंने तो पहले ही कहा था- अच्छे से सोच ले। अभी भी नहीं देना चाहता तो उठा इन्हें। सुबह - सुबह मेरा मुहूर्त मत खराब कर।
- मैंने तो ...।
उसकी बात चन्दन ने बीच में ही काट दी - मैं समझता हूँ यार पर क्या करें। सोने की कीमत हर रोज बदलती है। सरकार तय करती है सोने के भाव। उपर से गलाने में कितनी मेहनत लगती है, आधा तो खोट  ही निकल जाएगा। तू फिक्र न कर। तेरा हक नहीं मारूंगा।
सुखजीत अभी भी असमंजस में था। सौदा हाथ से जाता देख चन्दन ने चारा डाला - चल तू अपना पुराना ग्राहक है, तू एक हजार और ले ले। जाएगा तो मेरे पल्ले से ही।
और सुखजीत एक लाख छब्बीस हजार में दो लाख के जेवर बेच आया था। उसने चन्दन के सारे पैसे चुका दिए थे पर अभी खेत के बीज खरीदने बाकी थे और सरपंच के दो लाख भी। जैसे - तैसे उसने बीज का जुगाड़ कर गेहूं बोया था। खेत में दिन रात एक किया। फसल पक कर तैयार होने तक एक बोझ सा उसके उपर सवार था। इस पूरे साल उन्होंने कोई कपड़ा नहीं खरीदा। कोई त्यौहार नहीं मनाया। कोई पकवान नहीं पका। फसल बेच कर उसने दो लाख इकट्ठे किये थे। सोचा - इसमें से एक लाख सरपंच को देकर उनका शुक्रिया करेगा जिन्होंने बिना मांगे इतने बुरे वक्त में उसका साथ दिया। घर न जा कर वह सीधा सरपंच के घर गया। सरपंच साहब अपने आंगन में ही कुर्सियां बिछाए बैठे थे। उसे देखते ही एक मुस्कुराहट उनके चेहरे को घेरती नजर आई।
- आ सुखजीत।
- जी। उसने आगे बढ़ कर सरपंच के पैर छुए और जेब से निकाल कर एक लाख सरपंच के आगे रख दिए।
सरपंच ने बिना गिने अपने मुनीम को आवाज लगाई। एक मिनट में ही बही की किताब लेकर मुनीम हाजिर हो गया। ले भाई ये सुखजीत आज एक साल बाद एक लाख जमा करने आया है। जमा कर ले और इसे हिसाब भी समझा दे।
सुखजीत ने नोट मुनीम को पकड़ा दिए। जी अभी तो  इतने ही है। बाकी का एक लाख भी जल्दी देने की कोशिश करूंगा। वह करीब - करीब दोहरा ही हो गया था।
सरपंच एक खचरी सी हंसी हंसा - देख सुखजीत तू घर का बन्दा है। हमने तो बिना लिखा पढ़ी के नोटों का बंडल तुझे दे दिया। पूरा एक साल तुझे पूछा भी नहीं कि कब वापिस करेगा।
- जी आपकी मेहरबानी।
- अब गगन को पैसे जमा करवा दे।  मुझे तो थोड़ा काम है। चाय पी कर जाना। सरपंच बाहर चला गया।
गगन ने  अपनी कापी में  सुखजीत का एक लाख  रुपया जमा कर के उसके साइन के लिए बढ़ाया तो सुखजीत देख कर हैरान रह गया। उसके खाते का दो लाख बढ़ कर साढ़े तीन लाख हो गया था। एक लाख जमा होने के बाद भी अभी ढाई लाख बाकी बचा रह गया था।
घर आके वह सारी रात सो ही नहीं पाया। ब्याज पर ब्याज बढ़ने से तो उसके खुद के बिकने की नौबत आ जायेगे। आखिर उसे यही उपाय  समझ आया कि खेत बेच कर सारा कर्जा चुका दिया जाए। उसने छ लाख में खेत बेच दिया और सारा कर्ज चुका दिया। बाकी बचे पैसों से उसने चार चूड़ियाँ खरीदी। आज वह चैन की नींद सोयेगा।
पर अम्बो, उसको कैसे समझाये कि उसके अंधविश्वासों और दिखावे के चक्कर में ही खेत बिके हैं। कि यहाँ गाँव में अमीरों का एक मक्कड़ जाल है जिससे बचना छोटे किसानों के लिए मुश्किल है कि मेहनत मजदूरी कोई अपराध नहीं है। कि कर्जा चाहे किसी का भी हो तुरंत उतर जाना चाहिए।
वह सिर्फ सोचता है। कभी कुछ कह नहीं पाता क्योंकि वह जानता है - कुछ बातों का कोई मतलब नहीं होता, कुछ बातों को न कहना ही अच्छा होता है।
वह संतुष्ट होकर अपनी चारपाई की ओर  बढ़ गया। सुबह उसे काम की तलाश में जल्दी निकलना है। नई  शुरुआत करनी है। अम्बो शांत हो गई है।  इस समय निश्छल बच्चे के समान सो रही है। सुखजीत की आँखें भी धीरे - धीरे मुंदने लगी हैं।
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रजनीगंधा

पद्या मिश्रा

सुबह - सुबह ओस से भींगी हरी घास पर चलना सुमि को बहुत अच्छा लगता है,जैसे हरी निर्मल दूब पर मोतियों की की छुअन और उन पर धीरे - धीरे पाँव रखकर चलना .. बिलकुल किसी वनदेवी की तरह। सुमि को बहुत पसंद है .. यह छोटी सी बगिया ही मानो उसके सपनो का संसार है। कोने में लगाई गुल दाउदी ,जूही व रजनीगंधा को पनपते - अंकुरित होते न केवल महसूस किया है बल्कि जिया भी है, ठीक अपने बच्चों की तरह उनकी देख भाल भी की है। जूही की कलियाँ टोकरे में भर कर उन्हें बार बार सूंघना और बच्चों की तरह खुश हो जाना भी सुमि को बेहद पसंद है, पर रजनीगंधा की कलियाँ न जाने क्यों अभी तक नहीं खिल पायीं .. वह रजनीगंधा की दीवानी है, और उसे खिलते हुए देखना चाहती है ..उसकी वेणियां बना अपने बालों को सजाना चाहती है, पर कलियाँ हैं ..कि उसकी भावनाओं से बिलकुल अनजान हैं, उधर कोने में खड़ा हवा के झोंके से झूमता इतराता हरसिंगार भी उसे बहुत प्रिय है ..जिसे उसने ’ विवेक’ नाम दिया है। ठीक उसके पति विवेक की तरह बिंदास - जिंदादिल - उनसे जब फूलों की बरसात होती तो वह अपना आँचल फैला ठीक उसके नीचे खड़ी हो जाती। ढेर सारे फूल ही फूल बिखर जाते, उसके आस पास। रजनीगंधा के पौधों को उसने गुंजन, अंजन और पल्ल्वी नाम दिया है। आम्रपाली का इकलौता आम का  वृक्ष निशांत था, जिसकी शाखाएं बारहों महीने फूलों - फलों से लदी रहतीं । उन्हें फलते फूलते देखकर सुमि का अंतर्मन सदैव प्रफुल्लित हो जाता था मानो उसका बेटा निशांत ही सुख और प्रसन्नता से खिलखिला रहा है ..रजनीगंधा के गमलों के बीचोबीच उसने सीमेंट का एक गोल चबूतरा भी बनवाया है, जहाँ वह रोज आकर बैठती है कभी जूही से बतियाती है तो कभी गुलदाउदी  से तकरार, पर रजनीगंधा को देख वह अक्सर उदास हो जाती है। न जाने क्यों रजनीगंधा उसे पल्लवी कि याद दिलाती है ..पल्ल्वी,उसके बचपन की सहेली,और बहन भी। वह अक्सर स्कूल के बगीचे से ढेर सारी रजनीगंधा की कलियाँ तोड़ लाती और वे दोनों मिलकर उसके गजरे बनाती। और घर के ठाकुर जी से लेकर चाची, माँ, बुआ और महरी की केश राशि भी उन्हीं गजरों में सज्जित नजर आती। भले ही पल्लवी उन फूलों की चोरी के लिए स्कूल में सजा पाकर क्यों न लौटी हो ... वह हमेशा हंसती मुस्कराती रहती ठीक रजनीगंधा की तरह। पर जीवन की इस गोधूलि में पल्लवी तो न जाने कहाँ बिछुड़ गई। सुना था कि वो लोग भारत छोड़ सऊदी में जा बसे थे पर उसकी यादें आज भी रजनीगंधा के फूलों की रंगत में हंसती हैं, मुस्कराती है .. गुंजन और अंजन दोनों बेटियों को भी ये फूल बेहद  पसंद थे पर विवाह के बाद पता नहीं अमेरिका की ठंडी शुष्क धरती पर रजनीगंधा के फूल वो देख पाती भी होंगी या नहीं? ....उस पर अभी तक एक भी कली नहीं आई थी .. बेटे -  बहू, बेटियों से दूर, इस छोटे से घर में पति के अलावा उसका अकेलापन बांटने वाला और कौन था? ..पति विवेक भी इसी वर्ष रिटायर हुए थे और अक्सर प्रातः भ्रमण पर अपनी मित्रमंडली के साथ निकल जाते थे तो करीब दो या तीन घंटे बाद लौटते ... काफी पीकर अखबार पढ़ते और फिर स्नान - ध्यान से निवृत्त हो नाश्ता कर सो जाते .. तब तक सुमि खाना बना लेती थी, नहा धोकर फूलों की कलियाँ बालों में सजा वह ठाकुर जी की पूजा करती,वह जानती है कि पूजा के वक्त इस तरह सजना संवरना विवेक को उसे छेड़ने का एक मौका दे देता है। वे अक्सर कहते - क्या तुम्हारे  ठाकुर जी रीझ गए तुम पर ? ..वह कृत्रिम क्रोध दिखा मुस्कराकर रह जाती ... आज भी विवेक देर से आयेंगे यह सोच वह खुरपी ले फूलों की मिट्टी बराबर कर खर पतवार साफ करने लगती है। पाइप से पानी की धार फूलों पर डालते नजरें एक बार फिर रजनीगंधा पर पड़ीं और वह सहसा उदास हो गई। उस पर अभी तक एक भी कली नहीं आई थी। अपना काम खत्म कर सुमि कमरे में वापस लौट आई। बाहर अखबार वाले की आवाज पर उसने झाँका तो विवेक भी साथ ही थे। कुछ दोस्त भी थे, वह सबके लिए चाय बना लाई। और वहीं बैठ गई। अपनी चाय लेकर ..बातें पड़ोसी शर्मा जी की हो रही थीं। उनकी बेटी आई हुई है आज कल .. ससुराल जाने के दो वर्षों के बाद अब गर्भवती है और चलने फिरने में असमर्थ ..सी हो गई है, मिसेज शर्मा से वह उसका हाल चल पूछ लेती है, बेचारी .. ससुराल वालों ने डिलीवरी से पहले ही न जाने कितनी फरमाइशें कर डाली हैं। सुमि को भी चिंता होने लगी थी .. वह सौभाग्यशाली है कि उसकी दोनों बेटियां पढ़ी लिखी, समझदार हैं  घर परिवार सुखी है .. उन दोनों के जाने के बाद घर का अकेलापन बांटा था निशांत ने ..रोज सुबह उठ कर माँ पापा को चाय बना कर देना,फिर कालेज जाना और शाम को लौट किचन में सुमि की मदद भी करता था। लड़कियों कि तरह ही बड़ी कुशलता से रोटियां भी बना लेता था निशांत। वह किचन में खड़ी होकर उसके बनाये विश्व के नक्शों जैसी रोटियां सिंकते - फूलते हुए देखती रहती थी। वह बड़ा खुश होता अपनी रोटियां माँ पापा को खिला कर  .. पर आई आई टी में चयन के उपरांत वह जर्मनी चला गया। अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए। पर विदेश की धरती ने उसे अपनी माँ से भी ज्यादा प्यार दिया था जो वह वापस लौट कर ही नहीं आया ..बस एक बार अपने विवाह के लिए आया था और वापस पत्नी देविना के साथ लौट गया ...उस समय विदेश में रहने की उसकी जिद, ललक देख वे दोनों भौंचक रह गए थे। लगा ही नहीं कि उनका निशांत जो एक भी काम बिना अपनी माँ की सहमति से नहीं करता था,आज इतना बड़ा हो गया है कि अपनी जिंदगी का इतना अहम फैसला खुद ले सका? ..वह लौट गया सुमि को छोड़कर ..पहले तो पत्र व फोन भी आते रहे, पर अब वीकेंड पर एक औपचारिक फोन भर आता है। बस ...बेटियां तो पराया धन होती हैं,पर शायद भावनात्मक रूप से वे माँ के सबसे ज्यादा करीब होती हैं। इसी लिए माँ के पापा के अकेलेपन की चिंता गुंजन - अंजन को ज्यादा थी .. उनके फोन जब भी आते ..माँ, दवा लेती हैं न ? ..माँ इस बार होली में कौन सी साड़ी ली? ...माँ इधर आपने कुछ नया  लिखा? ... पर धीरे - धीरे वे भी अपनी गृहस्थी में डूबती चली गईं सचमुच पराया धन ही हो गई थीं उसकी बेटियां। ..एक - दो साल में एक बार गुंजन अमेरिका से आती तो भी तो माँ के साथ बैठ सुख दुःख बतियाने की बजाय सारा समय शापिंग में ही व्यस्त रहती और अपने भूले बिसरे मित्रों को एकत्र कर घर में पार्टियां देती। उनसे मिलने जाती और वापस जाते समय उनसे ढेर सारी फरमाइशें कर चीजें ले जाती ..सुमि उस समय भी यह सोच कर खुश हो लेती कि चलो बेटी को हंसते खिलखिलाते देख रही है ..माँ का मन कुछ और जानना चाहता है ,कहना चाहता है .. बीती स्मृतियों,भूले - बिसरे पलों को समेट - सहेज लेना चाहता है,अपनी ममता के आंचल में ..पर गुंजन उसे यह मौका कहाँ देती ..
फिर एक दिन वह चली जाती। पूरा घर फिर अकेला सूना हो जाता,पर अंजन को देखे तो बरसों हो गए पर वह सुखी- अपनी दुनिया में मगन है। यह बात ही उसे सुकून दे देती है ... शाम हो गई थी। विवेक की चाय का समय ही हो गया था। वह चौंक कर उठी। न जाने कितनी देर तक बैठी रही थी रजनी गंधा के चबूतरे पर। पौधों को एक प्यार भरी नजर से देखते हुए उन्हें सहलाया मानो बच्चों कि स्मृतियों को साकार कर रही हो,उन्हें दुलार कर वह निहाल हो जाती थी।
चाय लेकर जब वह विवेक के पास गई तो उसकी उदास आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। उन्होंने चाय लेते हुए पूछा .. क्या हुआ आज भी फूल नहीं खिले, बच्चे चुरा कर चले गए ? ..वे ऐसी ही बेतुकी बातें कर उसे सामान्य बनाने की कोशिशें करते रहते थे। वह कैसे बताती उन्हें कि इन फूलों में वह अपने बच्चों का अक्स देखती है। जब वे पूरी तरह खिलते नहीं ..मुरझाये से लगते हैं तो उसे लगता है ..बच्चे किसी मुसीबत में हैं, या खुश नहीं हैं। वह अपनी इस विचित्र तुलना पर मन ही मन मुस्करा उठती है ... नहीं,नहीं,मैं ठीक हूँ इन फूलों के लिए कुछ करना पड़ेगा। विशेष खाद या दवा। तीन नंबर बंगले के माली को ही बुला लेते हैं। कुछ उपाय बतायेगा।
और फिर विवेक के साथ बैठ कर सुमि देर तक बच्चों की ही बातें करती रही .. कल सुमि का जन्मदिन था, पर उसके मन में कोई उमंग नहीं जागी उसका। विवेक का जन्मदिन एक ही दिन पड़ता है ...बच्चे थे तो पूरी धमाचौकड़ी थी। पार्टी होती। केक कटता,पर उनके जाने के बाद वे दोनों एक दूसरे को उपहार दे खुश हो लेते या गली के मोड़ पर जाकर चाट - पकौड़ी खाकर लौट आते ... रात  हो चली थी। खाना खाकर वे दोनों सोने चले गए । विवेक हाइ प्रेशर के मरीज थे। अतः शीघ्र ही सो गए। सुमि देर तक सोच में डूबी सोने कि कोशिश में लगी रही .. जीवन की साँझ समीप थी। शरीर और मन दोनों ही थकते जा रहे थे। मन तो चाहता था कि ढेर सारे नाती पोतों से घिरी वह उन्हें  कहानियां सुनाये और वे सब काल्पनिक राजा - रानी को अपनी नन्ही आँखों से साकार होते हुए देख खुश होते गुंजन - अंजन - निशांत की शैतानियां एक बार फिर उसके आंगन को खुशियों से भर देतीं .. या वह  छोटी सी बच्ची बन,पल्लवी के संग हरिहर काका के बगीचे से और स्कूल के माली से छुपकर ढेर सारे फूल ले आतीं। उनके गजरे बनातीं और खुश हो लेती ..पर सबका मन चाहा कब पूरा होता है । विवेक भी थकने लगे थे लेकिन उसे खुश रखने के लिए तरह - तरह की मजेदार बातें करते रहते। नींद फिर भी नहीं आ रही थी वह उठी और अपना अधूरा उपन्यास पूरा करने बैठ गई। रात पौने बारह बजे उसने उपन्यास का अंतिम अंश पूरा किया ..शरीर थकन से भर गया था अतः वह दरवाजा खोल बगीचे की और निकल आई आकाश में पूरा चाँद खिला था और चांदनी की चादर पूरे  लान में बिखरी हुई थी। वह देर तक इस मोहक दृश्य को निहारती रही। मन फिर यादों में खोने लगा..जीवन की ढलती साँझ में केवल अतीत, यादें ही व्यक्ति का सहारा बन पाती  हैं। भविष्य तो अनिश्चित है, और वर्त्तमान में पल - पल जीवन को जिए जाने की जिजीविषा  से जूझना ही एक ध्येय बन जाता है ...अपनी सोचों में डूबी हुई सुमि जाने कब उठ कर पलंग पर जा लेटी  थी। विवेक शायद जाग गए थे ..क्या हुआ, अभी तक सोई नहीं?
- हाँ, सोने जा रही हूँ। नींद ही नहीं आ रही थी। विवेक धीरे - धीरे उसके बालों को सहलाने लगे थे ...और वह सो गई थी।
सुबह नींद कुछ देर से खुली..विवेक बिस्तर पर नहीं थे। उसे आश्चर्य हुआ। वह कितनी देर तक सोती रही। तभी विवेक जी ट्रे में चाय के दो कप सजाये और बड़ा सा रजनीगंधा की ढेर सारी कलियों से सजे गुलदस्ते को लिए आए दिखाई दिए। मन सहसा प्रसन्नता से भर आया। विवेक जी के चरण स्पर्श कर उन्हें भी जन्मदिन की बधाई दी। चाय पिटे हुए रजनीगंधा के फूलों को सालते हुए सुमि खुश थी, बेहद खुश ..वह उसकी सुगंध में खो जाना चाहती थी...विवेक जी की आवाज उसके कानों में गूंज रही थी..सुमि बच्चे तो पंछियों की तरह होते हैं, उन्मुक्त! जिंदादिल,नयी दुनिया ..नया आकाश तलाशने कि लालसा उनमें भी होती है। देखने दो उन्हें अपनी दुनिया, अपने सपनों के आकाश में उड़ान भरने दो उन्हें ..मत बांधो उनके पंख अपने दायरों में ..हमने उन्हें बड़ा किया। सहारा दिया। एक नई जिंदगी जी पाने का साहस दिया तो जीने दें न अपनी जिंदगी! हमारा कर्त्तव्य पूरा हो गया है। अपनी छाँव उन्हें देते रहेंगे जब भी वे चाहेंगे ..तुम अकेली कहाँ हो। मैं हूँ न तुम्हारे साथ ..तुम्हारा जीवनसाथी। तुम्हारे सुख - दुःख का साझीदार,तो फिर चिंता क्यों? हंसो इन फूलों की तरह,खिलखिलाओ जूही की तरह, तभी तन्द्रा टूटी ..विवेक जी कह रहे थे ..चलो उठो, तैयार हो जाओ। कहीं चलते हैं। वह मानो किसी मोह निद्रा से जागी,लाल सफेद बिंदियों वाली सिल्क की साड़ी पहन उसने बहुत दिनों बाद अपने  बालों कि चोटी बनाई। खुद को शीशे में निहारते हुए जैसे ही मुड़ी विवेक जी ने रजनीगंधा और जूही की दो वेणियां उसके बालों में सजा दीं। वह भाव - विभोर हो उठी। उसने अपना उपहार विवेक दिया। एक सुन्दर सिल्क का कुरता जिस पर उसने खुद कढ़ाई की थी। दोनों के मुख पर, वही तीस वर्ष पूर्व की चंचलता जाग उठी। आज वर्षों बाद। वही  पुराने विवेक और सुमि थे,और रजनी गंधा की कलियाँ ,वैसी ही खिलखिला रही थीं। न केवल सुमि के बालों में उसके जीवन बगिया के सभी गमलों में नन्ही कलियाँ मोतियों सी सज गईं थीं ,रंग - खुशबू से सराबोर ..!

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

प्रेमचंद का महत्‍व और उनकी प्रासंगिकता

वीणा भाटिया 

विश्व साहित्य में प्रेमचंद का महत्त्व युगांतरकारी है। प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना शुरू किया और फिर हिंदी में लिखने लगे। शुरुआती दौर में प्रेमचंद के लेखन पर पुरानी किस्सागोई की शैली का प्रभाव है, पर बाद में वे यथार्थवादी शैली अपना लेते हैं। उसी के साथ भाषा भी बदलती चली जाती है और वे हिंदी गद्य को सर्वथा एक नया रूप दे देते हैं। वे एक ऐसे यथार्थवादी कथा-शिल्प का विकास करते हैं, जो उस समय के मूल सामाजिक अंतर्द्वंद्वों को कथा-वस्तु के रूप में उठाने से संभव हो पाती है। जाहिर है, प्रेमचंद के पहले और किसी ने ऐसा नहीं किया था। यही कारण है कि प्रेमचंद का महत्त्व सबसे बढ़ कर है और विश्व साहित्य में वे प्रथम श्रेणी के रचनाकार के रूप में समादृत हैं।
विश्व साहित्य में प्रेमचंद का स्थान वही है जो गोर्की, चेखव, लू शुन और अन्य महान क्रांतिकारी लेखकों का है। विश्व साहित्य में प्रेमचंद की हैसियत भारत के प्रतिनिधि लेखक की है। सवाल है, आखिर प्रेमचंद इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? इसका जवाब यही है कि उन्होंने औपनिवेशिक और टूटते हुए सामंती भारत में सबसे अधिक उत्पीड़ित सामाजिक वर्ग किसानों के जीवन का वास्तविक और सच्चा चित्रण किया। उन्होंने उस ऐतिहासिक विडंबना को महसूस किया जो अंग्रेजी राज में किसानों के जीवन में उत्पन्न होती है। भारतीय आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के मूल आधार किसानों को अंग्रेजी औपनिवेशिक व्यवस्था सामंतों के सहयोग से इस कदर शोषण का शिकार बनाती है कि वे किसानी छोड़ने को विवश होने लगते हैं। लाख कोशिश करने के बाद भी किसान जीवन की मर्यादा को ‘होरी’ नहीं बचा पाता और ‘गोबर’ आधुनिक शहरी मजदूर बन कर अवतरित होता है। आधुनिक उद्योग तंत्र का उभार किसानों को उजाड़े बिना, उन्हें उनकी जमीन से बेदखल किए बिना नहीं हो सकता था। यह सच प्रेमचंद के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक ‘रंगभूमि’ में सामने आया है। आज इसकी प्रासंगिकता इस रूप में दिखाई पड़ती है कि आधुनिक उद्योग तंत्र को अपने विकास के लिए अभी भी किसानों के रक्त-मज्जा की जरूरत है।
जाहिर है कि अपने समय और समाज की गत्यात्मकता को जिस रूप में प्रेमचंद ने पकड़ा, उनका समकालीन दूसरा कोई अन्य कथाकार ऐसा नहीं कर पाया। प्रेमचंद ने दोहरे शोषण की मार से त्रस्त किसानों के जीवन का महाकाव्यात्मक चित्रण किया और कथा साहित्य में यथार्थवाद को उसकी चरम उंचाइयों तक पहुंचाया। आज प्रेमचंद के साहित्य का अध्ययन किये बिना बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में किसानों के जीवन को और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संघर्ष की मूल धारा को समझ पाना अत्यंत ही कठिन होगा। यही है प्रेमचंद के साहित्य का चिरस्थाई महत्त्व।
पहले साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता था। यह सच है कि साहित्य समाज का दर्पण है, पर प्रेमचंद ने इस सरलीकृत परिभाषा की जगह साहित्य को ‘जीवन की आलोचना’ बताया। दरअसल, साहित्य जीवन की पुनर्रचना है और इस पुनरर्चना में ही उसकी आलोचना निहित होती है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य को सरलीकृत सूत्रों की सहायता से नहीं समझा जा सकता है। प्रेमचंद ने साहित्य को समझने की नयी दृष्टि दी। पहले साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन मात्र समझा जाता था, पर साहित्य को नये रूप में परिभाषित करते हुए प्रेमचंद ने लिखा, “साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित एवं सुंदर हो और जिसमें दिल तथा दिमाग पर असर डालने का गुण हो।” उन्होंने लिखा, “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो – जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।” उपरोक्त कथनों से प्रेमचंद के दृष्टि-विस्तार को समझा जा सकता है।
प्रेमचंद शुरू में गांधीवादी थे। असहयोग आंदोलन के दौरान गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने सरकारी नौकरी पर लात मार दी थी और बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना की थी। इसमें होने वाले लगातार घाटे ने उन्हें जीवन के अंतिम दिनों तक परेशान रखा। आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए वे फिल्मी दुनिया में लेखन के लिए भी गये, पर जन संस्कृति का पक्षधर भला अपसंस्कृति के माहौल में कैसे रह सकता था। वे जल्दी ही बम्बई से वापस आ गए। उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली ‘माधुरी’ का संपादन किया। बाद में उन्होंने मासिक ‘हंस’ और पाक्षिक ‘जागरण’ का प्रकाशन-संपादन किया। इन पत्रों के प्रकाशन द्वारा उन्होंने न सिर्फ साहित्य, बल्कि विविध सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विषयों पर नये क्रांतिकारी विचारों का प्रसार किया।
वर्ष 1936 में जब सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद जैसे लेखकों ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की तो लखनऊ में उसके प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए उन्हें आमंत्रित किया। वहां प्रेमचंद ने साहित्य के उद्देश्य पर सविस्तार व्याख्यान दिया। उस समय तक उनकी सभी कृतियां प्रकाशित हो चुकी थीं और वे ‘मंगलसूत्र’ उपन्यास की रचना कर रहे थे जो उसी वर्ष उनके निधन के कारण अधूरा रह गया। मात्र 56 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया। लेकिन उनका जीवन और संघर्ष साहित्य के इतिहास में एक मिसाल बन गया।
प्रेमचंद जनता के लेखक थे। उन्होंने अपने आपको ‘कलम का मजदूर’ घोषित किया था और कहा था जिस दिन उन्होंने कुछ नहीं लिखा, उन्हें रोटी खाने का अधिकार नहीं है। लगातार आर्थिक कठिनाइयों को झेलते हुए, संघर्ष करते हुए उत्पीड़ित जनता का यह लेखक जीवन के आखिरी दिन तक लिखता रहा। हिंदी साहित्य का यह दुर्भाग्य है कि प्रेमचंद की परंपरा का समग्र विकास नहीं हो सका। विचारधारा के नाम पर साहित्य पर राजनीति हावी होती चली गई। लेखक संगठन टूट-फूट और बिखराव के दलदल में फंसते चले गए। वे राजनीतिक दलों के अनुगामी बन गए, जबकि प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली नहीं, बल्कि आगे-आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्चाई है।

पितर

डा0 रमाशंकर शुक्‍ल
मास्‍टर जी की आंखों में नींद नहीं। मन कहां तो अंटका है। पहले बाबूजी, बड़े भइया, फिर मझले भइया; एक-एक कर चले गये। तीनों की मौत की उम्र 69 से 71 के बीच ही तो थी! महाप्रयाण का तरीका भी करीब-करीब एक जैसा। बाबूजी अपने ही बनवाए मकान की छत से नींद में होने के कारण गिर पड़े। चौबीस घंटे पूरे होश-ओ-हवास में जिन्‍दा रहे। सबसे बतियाते रहे। आखिरी क्षण में तो कुछ नहीं बचा था, लेकिन व्‍यक्‍तित्‍व की कद्‌दावरी सलामत थी। अस्‍पताल में कितने देखने वालों का जमघट लगा रहा। शाम को छह बजे ब्रेन हेमरेज हो गया। कहते हैं कि अंदरूनी हिस्‍से और दिमाग पर ऐसी ठांस लगी थी कि धीरे-धीरे पूरे दिमाग में फैल गयी। रात के 12 के बाद वे मौत से हार गये।
बड़े भइया को क्‍या कहें। भाग्‍यशाली थे कि अभागा? बेटा-बेटी मिलाकर दर्जन भर बच्‍चों के पिता होने का गौरव। बड़ी बेटी-बड़ा बेटा दूसरी पत्‍नी की संतानों से कहां जुड़ पाये। बड़ा बेटा तो पूरी तरह स्‍त्रैण और स्‍वार्थी निकला। कभी बाप का सम्‍मान नहीं दिया। दूसरी पत्‍नी के जिन संतानों पर उन्‍होंने जीवन हवन कर दिया, जीते जी किसी का विवाह अपनी आंखों से न देख पाये। बेटा पीसीएस लोवर सबार्डिनेट में चयनित तो हो गया, लेकिन कोई लड़की ही पसंद न आती। कि पद के हिसाब से दहेज ही न मिलता था। नालायक ने बाप को परे कर खुद निर्णय लेने शुरू कर दिये। क्‍या पता इसी की धसक में बड़े भइया को धक्‍का लगा हो और ब्रेन हेमरेज हो गया हो?
अचानक कलेजे में कुछ करका। बड़े भइया की मौत में तो ठीक से शरीक भी नहीं हो सका। मास्‍टर साहब रुआंसे हो गये। केवल बीएचयू में देखकर चले आये थे। नौकरी अहम थी कि जीवन भर से चली आ रही कलह ने मन से भ्रातृप्रेम ही सुखा डाला था? रोज ही तो झगड़े होते थे। शाम का समय था। एक चीख घर के एक कमरे से निकलकर पूरे माहौल में हाहाकार मचा दी। क्‍या हुआ? क्‍या हुआ? जो जहां था, दौड़ पड़ा। मझली भौजी अपने कच्‍चा मकान में थीं। सबसे पहले वही पहुंची। हालांकि बड़की भौजी ने उन्‍हें तीन रोज पहले कजिया (झगड़ा) में कसम धरा दी थीं- ‘तीनों बेटों का खून पीना, जो हमारे पक्‍का की दहलीज डांकना।' लेकिन उन्‍हीं की चीख पर मझली भौजी बदहवाश दौड़ते हुए दहलीज पार कर गयीं। देखती हैं तो बड़का भइया के मुंह से लार-गजार निकल रहा है। अधखुली आंखें किसी भयावह आगत का संकेत दे रही हैं। बिस्‍तर पर टट्‌टी-पेशाब फैल गया है।
मझली भौजी की आंखों से आंसू निकल पड़े, ‘अमल की अम्‍मा जल्‍दी कीजिए, डाकदर के यहां ले चलिए।' बड़की भौजी को कहां होश। मझली भौजी ही भागीं और बड़े बेटे को लेकर फिर दहलीज पार कर गयीं। भूल गयीं कि दहलीज पार कर रहे हैं कि तीनों बेटों का खून पी रहे हैं।
आनन-फानन तय हुआ, जिला अस्‍पताल ले चलो। गांव में यही तो दिक्‍कत है कि कोई अनहोनी हो जाये और क्‍या मजाल कि कोई सवारी मिल जाये। घंटों की अफरा-तफरी के बाद एक आटो मिल सका। बड़े डाक्‍टर ने देखते ही जवाब दे दिया-‘यहां इलाज संभव नहीं। बीएचयू ले जाइए।' प्राइवेट गाड़ी मंगाई गयी। मझले भइया, बड़की भौजी, मझली भौजी, मझली भौजी का बड़ा बेटा और कक्‍का के बेटे के साथ मास्‍टर जी भी सवार होकर बीएचयू पहुंचे। बड़े भइया की हालत और खराब हो चुकी थी। उन्‍हें होश न था। चार जन उठाकर इमरजेंसी में पहुंचे। डाक्‍टर ने देखा तो साफ-साफ इनकार कर दिया- ‘ब्रेन हेमरेज है। अस्‍सी परसेंट दिमाग बेकार हो चुका है। आप कहो तो जिला अस्‍पताल को रेफर कर दूं। जितनी देर सांस चल रही है, बस उसे ही ईश्‍वर की कृपा समझिए।'
बड़की भौजी तो धार-धार रोती रहीं। न कुछ सुन पा रही थीं और न ही साहस था। मझली भौजी और उनके बेटे में कहां से तो इतनी ताकत आ गयी थी कि वे लगातार दौड़ रहे थे। रास्‍ते में फोन करके अपनी बेटी-दामाद को भी बुला लिये थे। उनका पूरा परिवार भाग-दौड़ कर रहा था। दवा-दरपन से लेकर डाक्‍टर की चिरौरी तक इसी परिवार के जिम्‍मे। मास्‍टर जी के भीतर तब भी घर का कलह खदबदा रहा था। वे बाहर खड़े रहे। कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य के द्वंद्व से जूझते हुए। हर बार तो यही होता है। कोई भी मामला होता है, अमल समेत बड़की भौजी कितने कर्कसा और हिंसक हो जाते हैं। विपत्‍ति आती है तो फिर चीखने लगते हैं। संकट खत्‍म तो किया-दिया भी साफ।
फिलहाल डाक्‍टर ने एडमिट करने से मना कर दिया। अमल को गांव से चलते समय ही फोन कर दिया गया था, लेकिन दूर का रास्‍ता किसी अनहोनी की सूचना से छोटा थोड़े ही हो जाता है। नौ बजे रात अमल पहुंचे थे। इंस्‍पेक्‍टर रैंक जरूर थी, मगर हमेशा बोलेरो से ही आते-जाते थे। साथ में चार-पांच मुस्‍टंड टाइप के लोग भी रहते थे। इन लोगों को वे इन्‍हीं मास्‍टर जी और मझले भइया के परिवार वालों पर रौब गालिब करने के लिए लाते। अमल बोलेरो से उतरे तो मास्‍टर जी या मझले काका को पालागी करना तक उचित न समझे। सीधे इमरजेंसी कक्ष में धड़धड़ाते जा पहुंचे। आज उनके साथ ड्राइवर के अलावा कोई न था। शायद सबको इकट्‌ठा करने का समय उन्‍हें न मिल पाया था। पिता को जमीन पर बिछी चादर पर टूटती सांसों के साथ देखा तो आपा खो बैठे। दौड़कर इमरजेंसी प्रभारी के पास पहुंचे, ‘ये क्‍या मजाक है? आप इन्‍हें एडमिट क्‍यों नहीं करते? आपको पैसा ही चाहिए न? चलिए जितना मांगेंगे, उतना दूंगा, पर आप इन्‍हें फौरन एडमिट कीजिए।'
डाक्‍टर तिलमिला गया। अमल को सर से पांव तक घूरा। क्रोध जब्‍त करते हुए बोला-‘बात करने की तमीज रखो। कितना दे सकते हो कि रुपये से तौलने आ पहुंचे। पेसेंट की हालत नियंत्रण से बाहर है। एडमिट कर लेना पर्याप्‍त नहीं। बचेंगे नहीं, क्‍योंकि अस्‍सी परसेंट दिमाग बेकार हो चुका है। भगवान का नाम लो। प्राथमिक इलाज चल रहा है। बच गये तो ऊपर वाले की मर्जी। रही बात एडमिट करने की तो हमारे पास फिलहाल एक भी बेड नहीं खाली है।'
अमल ने आपा खो दिया, ‘क्‍या समझते हैं मुझको। सप्‍लाई आफिसर हूं, कोई झुग्‍गी-झोपड़ी का चित्‍थड़ नहीं कि यूं ही टरका दोगे।' वे आप से अब तुम की ओर बढ़ रहे थे। डाक्‍टर चिढ़ गया और कोई तरजीह न दी। आखिर में डांटकर भगा दिया।
मास्‍टर जी रात को ही लौट आये। कालेज में खास काम के बहाने।
गौरव तब जमशेदपुर में ही थे। दैनिक जागरण में सीनियर सब एडिटर। महाराष्‍ट्र वाली दीदी का सुबह के नौ बजे फोन आया-‘कुछ सुना तुमने?'
‘नहीं, क्‍या?'
‘बड़े पिताजी को ब्रेन हेमरेज हो गया है। रात से ही बीएचयू की इमरजेंसी में जमीन पर ही पड़े हैं। डाक्‍टर एडमिट ही नहीं कर रहा है। अमल परेशान हैं। अम्‍मा वगैरह वही पर हैं। सबका रो-रोकर बुरा हाल है। लगता है कि बचेंगे नहीं। हो सके तो उन्‍हें एडमिट करवा दो।'
गौरव काफी देर तक गुमसुम रहे। कितना फासला बन गया है। अपने घर में इतनी बड़ी घटना हो गयी और कोई सूचित करना तक जरूरी न समझा।
बड़े पिता के रिश्‍ते की गरमाहट तो कभी महसूसी न थी। हमेशा उनका परिवार प्रतिद्वंद्वी बना हमले करता रहा। कभी उनके दर्जन भर बच्‍चे एक साथ हमला कर पेड़ उखाड़ देते तो कभी खपरैल पर पत्‍थर बरसाने लगते। अमल ने ही तो धोखे से ऊंचे पत्‍थर से धक्‍का देकर गौरव को मारने की कोशिश की थी। पिताजी तक को इन लोगों ने मारा-पीटा। मेरे विवाह के बाद सबसे पहले तो हमारे परिवार को अछूत इन्‍हीं लोगों ने माना। इनकी कौन-कौन सी बातें तो मां ने नहीं बताई हैं। छोड़ो इन बातों को। ये अवसर यह सब सोचने का नहीं। किसी पर विपत्‍ति आये तो उसके अच्‍छे कार्यों को याद करना चाहिए। गौरव की हमेशा से यही आदत रही है। इसी आधार पर वे हमेशा दुश्‍मन से भी दुश्‍मन व्‍यक्‍ति के लिए दौड़ पड़ते थे। कि उनके परिवार के सभी सदस्‍यों का ही यही हाल था। अमल से बात किये अर्सा बीत चुका था, फिर भी उनसे फोन पर बात की। आज ठसक की बजाय अमल पिघले से मालूम हुए। स्‍वर में गिड़गिड़ाहट थी। गौरव बेचैन हो गये। बड़े पिता का 25 साल पुराना अक्‍श ताजा हो गया। और दिन होता तो एसटीडी काल से डरते, पर आज मितव्‍ययिता ढेर हो गयी थी।
बनारस के मित्रों को खंगालना शुरू किया। कोई शहर से बाहर तो कोई आफिस में। दैनिक जागरण के पवन सिंह की याद आयी। उन्‍हें बीएचयू का ही बीट मिला था।
वे दफ्‌तर से देर रात आये थे और अभी-अभी सो कर उठे थे। चाय पी रहे थे कि गौरव की काल पहुंच गयी, ‘पवन भाई, मेरे बड़े पिता को बचा लीजिए। डाक्‍टर एडमिट नहीं कर रहा। आज आप ही गौरव बन जाइए, प्‍लीज।'
घंटे भर बाद पवन का फोन आया, ‘भाई साहब, एडमिट करवा दिया हूं। आवश्‍यक दवाएं अभी लाकर दिया हूं और इलाज शुरू हो गया है। आगे भगवान की मर्जी।'
हालांकि एडमिट हो जाने का मतलब बड़े पिता का ठीक हो जाना न था, फिर भी गौरव को संतुष्‍टि थी कि चलो बड़े बाप की खातिर कुछ तो कर पाया।
लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, शाम साढ़े चार बजे अमल के पिताजी चल बसे। मास्‍टर जी चिहुंक पड़े। एक भयावह स्‍वप्‍न का मध्‍यांतर। कैसी तो विडंबना थी, उस वक्‍त। जिस बड़े भाई की गोद में मचलते हुए बचपन की दहलीज पार की, उसके दुनिया से विदा होने पर ठीक से शोक में भी शरीक न हो सका। भइया का प्‍यार हार गया, घर का कलह जीत गया। मास्‍टर जी धर्म भीरुता और सामाजिक प्रभाव के कारण संस्‍कार कर्मों में तो शामिल हो गये, पर तेरही में भोजन को जी न किया। दुधमुही का भात भी न ग्रहण किया। अपने घर अलग से आलू उबलवाकर खाये। मझले भइया को भी तो दुधमुंही के भात के लिए नहीं बुलाया गया। कैसे बुलाते, अछूत जो हो चुके थे। अब बेटा गैर विरादरी की लड़की से विवाह कर लिया है, भले ही घर से उसका नाता टूट गया हो, लेकिन है तो उन्‍हीं का रक्‍त। एक ही बीज के तीन जाये मौत के समय भी किस तरह बिखर गये। बड़की भौजी दाह संस्‍कार से लौटीं तो मझली भौजी को सुना गयीं, ‘अब वे तो चले गये, पर बहिन हमारे भी दस ठो बाल-बच्‍चे हैं। उनका भी शादी-ब्‍याह करना है। इसलिए हमारा-तुम्‍हारा केवल पूड़ी का संबंध रहेगा। तेरही में आ जाना सब लोग।'
मझले भइया ने सुना तो आंखें छलक पड़ीं। कैसी औरत से ब्‍याह कर लाए भइया। और फिर उनका क्‍या दोष? आखिर इस भिखारी की बेटी को मेरी ही पत्‍नी ने अपनी मां से भइया के लिए मांगा था। विवाह के बाद आयी थी तो दहेज के रूप में इसके बक्‍शे में एक पाव मिर्ची भर थी।
तेरही बीत गयी, पर दोनों में से किसी भाई का परिवार सरीक न हुआ। हां, बाहर वाले न जान पायें। सारा काम दोनों जन के परिवारों ने मिलकर कर-करा दिया।
रात के बारह बज गये हैं। मास्‍टर जी नींद के लिए बेचैन हैं, पर मानस चलचित्र रुकने का नाम नहीं लेता। आज मड़हे में वे अकेले ही हैं। पत्‍नी घर में ही सो गयी हैं। मसहरी में दुबके पड़े हैं, लेकिन भीतर जैसे कोई खौफ है जो रह-रहकर किसी अज्ञात की आशंका में पसीने से नहला दे रहा है। हाथ-पांव सुन्‍न हो गये हैं। कि तभी क्‍लाक्‌ क्‍लाक्‌ क्‍लाक्‌ की आवाज करता पखेरू एक छोर से दूसरे छोर का चक्‍कर लगाने लगा। मास्‍टर जी चौंके, क्‍या था? फिर सन्‍नाटा घिर गया। कुछ ही पल बीते कि अचानक दुबान पट्‌टी की ओर से किसी कुत्‍ते की रोने की आवाज आई- ‘ओं ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ। फिर बभनपट्‌टी, चमरान, पसियान की तरफ के भी कुत्‍ते समवेत शुरू हो गये- ओं ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ।
मास्‍टर जी सिहर गये, ‘हे नारायण, अब कौन अशुभ होने वाला है?' उन्‍हें कुछ याद आया। उस रात भी तो ऐसा ही मंजर सामने उपस्‍थित हुआ था। मझले भइया गोधूली में सिवान की ओर शौच करने गये। बीसेक मिनट ही बीते थे कि चौहान बस्‍ती का लड़का भागता हुआ आया था- ‘चच्‍चा, दउड़। पुजारी बड़का बाबू उही खेते में गिरा पड़ा हयेन।'
घर लोग दौड़े। पुजारी भइया शौच कर चुके थे। खड़े होते समय या फिर शौच के समय ही गिर गये थे। उसके बाद न उठे। लोग ही उठा कर दुआरे ले आये। गौरव को फोन लगाया गया, नेटवर्क खराब। बात न हो पायी। छोटे ने इलाहाबाद से फोन किया, तब कहीं जाकर गौरव को मालूम हुआ। अपने जिले में शिक्षक की नौकरी करते दो साल हो गये थे, लेकिन उन्‍हें अखबार का चस्‍का न छूटा था। अमर उजाला में ही बैठे थे, जब छोटे भाई ने यह खबर दी। होश उड़ गये। समझ न आता क्‍या करें। डिप्रेशन की बीमारी ने याददास्‍त कमजोर कर दी है। साइकिल छोड़ पैदल चल दिये। चौराहे पर एक मित्र से हजार रुपये उधार लिए, पर बाइक या कार लेना भूल गये। मामा के लड़के की याद आयी। गिड़गिड़ाए, ‘भइया आप पास में हो। कोई साधन लेकर जल्‍दी पहुंचो, हम अस्‍पताल में इंतजाम करते हैं।
चालीस मिनट बाद पिताजी को लेकर सभी पहुंचे। डाक्‍टर सिंह ने पूरी जांच की। करीब दो घंटे एडमिट रखे थे। सांस के स्‍थान पर हंकड़ा चल रहा था। मुंह खुला था। लार रह-रह बह आती। मझली भौजी गौरव के कमरे पर ही थीं। उन्‍हें छिपाकर बुलाया गया। देखती क्‍या हैं कि तप और देवत्‍व की प्रतिमूर्ति आज अक्रोध बिस्‍तर पर ढहा पड़ा है। पति के चरणों पर गिर पड़ीं- ‘ये क्‍या कर दिये गौरव के बापू। कल हमें जबर्दस्‍ती भेज दिये कि जाकर बेटे का सुख ले लो और अपने दुनिया छोड़कर जाने की तैयारी कर ली। गौरव का मन-मस्‍तिष्‍क थरथरा रहा है। घबराहट में जहां-तहां धम्‍म से बैठ जा रहे। बड़े पुत्र बबऊ मन के पक्‍के थे। हिम्‍मत रखकर सबको संभाल रहे थे। तभी डाक्‍टर ने बुलाया। बोले- ‘देखिए, कारण साफ है, बे्रेन हेमरेज हुआ है। सूगर और रक्‍तचाप बहुत ज्‍यादा हो चुका है। हमारे पास इलाज के संसाधन नहीं हैं, इसलिए बेहतर होगा कि डाक्‍टर प्रसाद के अस्‍पताल में एडमिट कर दीजिए।'
सब भागे डा0 प्रसाद के यहां। उन्‍होंने नब्‍ज देखी और खामोश हो गये। घड़का वैसे ही चल रहा था। कुछ देर बाद बोले- ‘मैं बाहर जा रहा हूं। आप लोग इन्‍हें जिला अस्‍पताल ले जाइये। वहीं एडमिट कर दीजिए।'
गौरव को शंका हुई, ‘डाक्‍टर साहब, आप सचमुच बाहर जा रहे हैं या फिर कोई और बात है?'
इसका उन्‍होंने कोई जवाब न दिया। पीछे मुड़ गये। गौरव घिघियाए ‘अगर कोई ज्‍यादा सीरियस बात है तो हम इन्‍हें बीएचयू या फिर कहीं और ले जायें।'
इस बार डाक्‍टर ने खुलकर समझाया- ‘ऐसा है कि इन्‍हें ब्रेन हेमरेज हुआ है। भगवान का नाम लीजिए, वही बचा सकेगा। बनारस पहुंचने में करीब तीन घंटे तो लग ही जायेंगे। इतने में सूगर और ब्‍लड प्रेशर ज्‍यादा हो सकता है। अच्‍छा होगा कि जिला अस्‍पताल ले जाइए। कुछ नियंत्रित हो जाये तो कहीं जाइए।'
गौरव को यकीन हो गया कि पिता की आखिरी सांस है। वे टूट गये। मन से निकला, ‘पिताजी जिसे तुम अपनी ताकत मानते थे, देखो कैसे वह तुम्‍हारी मौत से हार रहा है।' गौरव हमेशा से भावुक। किसी का खून रिसना भी देख लें तो चक्‍कर आ जाये। आज तो जन्‍मदाता ही सिर से हाथ खींचे जा रहे। टूट गये और फिर जमीन पर धम्‍म से बैठ गये। मित्रों ने समझाने की कोशिश की, पर मन कहां माने। मां ने आंसू पोछ लिया। बबऊ ने अंकवार भर लिया-‘कुछ नहीं हुआ रे पगला। तू चल अस्‍पताल, पिताजी ठीक हो जायेंगे।‘ मास्‍टर जी खंभे से छिपकर आंसू पोछ लिये। फिर सामने आकर बिगड़ पड़े।
उस दिन संयोग ही था कि समाचार कवर करने गये रिपोर्टरों की पूरी टीम बैठी थी। इसलिए इलाज में कोताही न हुई। अन्‍यथा इस अस्‍पताल में लोग मरने के लिए ही आते हैं। गौरव की हिम्‍मत चिकित्‍सा कक्ष के भीतर जाने की न होती थी। बाहर दीवार की टेक लिए लगातार रो रहे थे। मास्‍टर जी भी आकर बगल में बैठ गये। करीब घंटे भर बाद डा0 आनंद ने बताया कि सूगर डाउन हो गया है, ईश्‍वर चाहेगा तो बीपी भी नियंत्रित हो जायेगी।
राहत वाली खबर सुन मास्‍टर जी को बोध हुआ। मझली भौजी ने देवर का मुरझाया चेहरा देखा तो प्‍यार उमड़ आया। बोली, ‘बबुआ यहां रहकर आप लोग क्‍या कीजिएगा। घर चले जाइए। अब तो भगवान ही नइया का खेवनहार है।'
रात के ग्‍यारह बज गये। मित्र-परिचित और मुलाकाती एक-एक कर घरों को लौटने लगे। पूरा वार्ड खाली हो गया। परिवार के छह-सात लोगों के अलावा कोई न बचा था। गौरव को नींद की दवा खिला कर सुला दिया गया।
मास्‍टर जी को याद आता है। दूसरे दिन सोमवार को सूरज की लाली फूट ही रही थी कि फोन आ गया। बबऊ ने हिचकियों में बताया कि महराजगंज पहुंचने के पहले ही पिताजी ने संसार छोड़ दिया।' मास्‍टर जी के मुंह से उफ्‌ निकला, ‘शायद सूर्योदय का इंतजार कर रहे थे।
घर में कोहराम मच गया। पुजारी भइया का घर कांप उठा। मानो एक तेज सन्‍न से आकाश की ओर उड़ गया हो और सुबह के उजाले में कच्‍चा दरबा अंधेरे से घिर गया।
गांव में शोक का अपना तरीका होता है। बिना दुःख के भी महिलाएं धार-धार रोती हैं। कि रोने का अभिनय करती हैं। पूरे लय में, तुकों के साथ। पता ही नहीं लगता कि शोक का क्रंदन है या फिर कविता का निर्माण।
मगर नहीं, मास्‍टर जी की आंखों से आंसू न निकले। एक हूक थी, जो सीधे कलेजे में धंस गयी थी। उन्‍हें बचपन याद आया। दस साल बड़े मझले भइया का वात्‍सल्‍य झांकने लगा। कितने रूप पसर गये आंखों के सामने- गोद में लेकर खेलाते मझले भइया, कंधे पर बैठाकर आम के टिकोरे तोड़वाते भइया, ससुराल से मिले पैसों को चुपके से पढ़ने के लिए पकड़ाते भइया, खेल में पीटने वाले को लतियाते भइया, सिर पर लकड़ी का गठ्‌ठर लाद इलाहाबाद रूम पर पहुंचाते भइया․․․․․․․․․․․․․पुजारी भइया,․․․․भइया․․․․। बहुत बाद में अलगौझी के बाद भी आंख के आपरेशन में दिन-रात एक कर सेवा में तल्‍लीन मझले भइया की छवि अधेड़ में भी गहरे वात्‍सल्‍य से भिंगोती-सी नजर आयी।
अरे, अरे? मास्‍टर जी रो रहे हैं? न्‌ नही, मास्‍टर जी रो नहीं रहे। फिर आंखों की कोरों से ये आंसू कैसे ढुलक आये। उन्‍होंने झट से ऐसे पोछा कि कोई देख न ले। आंखेें बंद कर ली। पूरी सांस खींची और उच्‍छ्‌वास छोड़े-‘हे नारायण, मझले भइया, जहां हो उन्‍हें सांसारिकता से मुक्‍त रखना। वे संत थे, उन्‍हें मुक्‍ति प्रदान करना।'
मास्‍टर जी अब इन पुरानी बातों को नहीं सोचेंगे, उन्‍होंने तय कर लिया। आंख बंद किये और बायीं करवट लेट गये। हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं। लेकिन, चालीसा में माई कहां से आ गयी? फिर वही धारा?
माई आई है और सिर पर हाथ फेरते निहार रही है। कहती है, ‘तूं ही अब इस खानदान का मुखिया। सबको सहेज कर रखना।' यह कौन है? बड़े भइया की बड़ी बहू। लट बिखराये, चीख रही है-‘हमें गया दो, हमें गया दो।'
पांव के पैताने दादा कब से आ गये? अरे रुको तो क्‍या कह रहे हो सब?
एक शोर उठ रहा है- ‘हमें गया ले चलो। गया चलो․․․․․․․․․․․․․․․गया चलो․․․․․․․। अपने जीते जी हमें गया पहुंचा दो।'
अभी उन्‍हें कोई जवाब देते कि खुद की बहू अधजली अवस्‍था में आकर चीख रही है, ‘ठीक है गुस्‍से में ही आग लगा ली, पर अब मेरे पर रहम करो। हमें मुक्‍ति दो। नहीं तो․․․․․․․․।'
‘नहीं तो?'
‘घर भर को लड़ाते रहेंगे। मारते रहेंगे, कलपाते रहेंगे।'
मास्‍टर जी अकबका गये। वे उठकर भागना चाहते हैं, पर कदम आगे नहीं बढ़ पाते। सामने से सौ वर्षीया कोई बूढ़ी महिला लाठी टेकते चली आ रही है। कौन है यह? मास्‍टर जी पहचानने की कोशिश करते हैं, ‘अरे यह तो आजी है।' सबसे पहले माई ने पैर छुए। फिर एक-एक कर सभी ने आजी के पैरों पर सिर टिका दिये। हमारे खानदान की आदि माता। मास्‍टर जी हतप्रभ हैं। आखिर आज कौन सी साइत है कि ये सभी एक-एक कर जमा हो रहे हैं। वे पैर छूने को झुके ही थे कि चारों तरफ चीखें ही चीखें- उनकी खुद की प्रसव के बाद ही दिवंगत हो चुकी बेटी, श्‍मशान घाट से प्रवाहित धारा से निकलकर आते हुए दो बेटे, बड़े भाई का बेटा, मझले भइया की बेटी, कक्‍का के परिवार के दर्जनों दिवंगत चेहरे, दादा के दादा, दादा के पिता, काका- कैसे-कैसे चेहरे लिए कितने-कितने लोग जमा हो गये। एक हरहराती आवाज लगातार गूंज रही है-‘हमें मुक्‍ति दो, हमें मुक्‍ति दो।' मास्‍टर जी थर-थर कांप रहे हैं। सबको चुप कराना चाहते हैं, पर मुंह से आवाज नहीं निकलती। एक बवंडर सा उठ रहा है। उसमें पत्‍तियों की मानिंद आत्‍माएं उमड़-घुमड़ रही हैं। चीख रही हैं, रो रही हैं, अट्‌टहास कर रही हैं। मास्‍टर जी पसीने-पसीने हो रहे हैं। अचानक उन्‍होंने अपने कान बंद कर लिए। वे अब खुद चीख रहे हैं। लगातार चीख रहे हैं। कि आंख खुल गयी।
उन्‍होंने देखा कि वे अकेले हैं। उनके आसपास कोई आत्‍मा नहीं है। पर, उनका मन इस सच को मानने को तैयार नहीं। शरीर कांप रहा है। गुलाबी जाड़ा है, फिर भी पसीने से रजाई भींगी हुई है। सीने की धड़कन साफ-साफ धड़कते हुए सुनाई पड़ रही है। आंखों से नींद गायब हो गयी। पास में पड़ी मोबाइल पर नजर डाली तो चार बज रहे थे। हाथ जोड़ लिए, हे नारायण रक्षा करना। सब शुभ-शुभ बीते। भोर का सपना झूठा नहीं होता।
उस दिन वे भोर में ही नित्‍यक्रिया से निवृत्‍त हो लिए। ठंड कंपा रही थी, इसलिए रजाई ओढ़कर माला फेरने लगे। कि सुबह का इंतजार करते रहे।
उम्र के साथ मास्‍टर जी की जीवटता भी ढह गयी। बड़े बेटे की बेकारी, दुर्ब्‍यवहार, बड़ी बहू का हादसा, कारावास की सजा, नयी बहू का भी कर्कसा बर्ताव, बेटी का वैधव्‍य, छोटे बेटे का अनिश्‍चित भविष्‍य- सबने मिलाकर उन्‍हें अंदर से तोड़ दिया है। छोटी सी बात पर भी कैसे विचलित हो जाते हैं। आज तो रात में जो कुछ घटा है, वह दिमाग में हजार बिजलियां फोड़ रहा है।
सूरज की लाली निकलते ही उन्‍होंने मझली, बड़ी भौजी के साथ ही पत्‍नी को भी बुला भेजा। बड़े बेटे, बड़े भइया के सबसे बड़े बेटे और बबऊ को पास में बैठा लिए। सब परेशान कि सबेरे ही सबेरे इन्‍हें क्‍या हो गया है? मास्‍टर जी की चुप्‍पी सबको एक अज्ञात भय की ओर खींचे जा रही है। फिर कुछ होने वाला है क्‍या? पुजारी जी भी तो ऐसे ही एक दिन पहले सबको बैठाकर समझा रहे थे। अकबका कर मझली भौजी ने ही पूछा-‘क्‍या हुआ बबुआ? इत्‍ते सबेरे सबको बुला लिये हो, तबियत तो ठीक है?'
मास्‍टर जी ने बायें हाथ से दाहिने हाथ के सर्ट की बांह मोड़ी और सिर रगड़ते हुए कुछ बोलने को हुए, फिर चुप हो गये। बड़की भौजी ने टोका, ‘बबुआ, कौनो बात हो तो बता दो।' कहते हुए उनकी आंखों से आंसू निकल पड़े।
मास्‍टर जी ने रात के वाकये को सुनाना शुरू किया तो सबके रोंगटे खड़े हो गये। एक सिहरन सी दौड़ गयी।
मास्‍टर जी ने आखिर में फैसला सुना दिया, ‘अब हमें गया जाना ही होगा। विज्ञान क्‍या कहता है, इस पर सिर खपाने की जरूरत नहीं। तीन पीढ़ी से कोई गया नहीं गया। आत्‍माएं भटक रही हैं, तो उन्‍हें मुक्‍ति दिलानी ही होगी।'
मझली भौजी ने समर्थन किया, ‘तभी तो बबुआ किसी का दिमाग ठिकाने नहीं रहता। हर कोई झगड़ा-मार में लगा रहता है।'
बड़की भौजी ने भी समर्थन किया, ‘ठीकै कहती हो बहिन। तभी तो लडि़कन बीमार रहते हैं। हमारे बच्‍चों को जो रतौंधी आती है तो शायद इसी कारन से।'
और कोई अवसर होता तो मस्‍टराइन लाल हो जातीं, पर पितरों की शांति के मामले में वे दखल न देंगी। तीनों भाइयों के तीनों बड़े बेटों ने भी मुहर लगा दी। मास्‍टर जी को तसल्‍ली हो गयी।
सेवानिवृत्‍ति के बाद बमुश्‍किल से बच पाये थोड़े से रुपयों को उन्‍होंने इमरजेंसी के लिए बचा रखा था। क्‍या पता छोटे बेटे की नौकरी में ही जरूरत आ पड़े। इसीलिए घर की मरम्‍मत तक न कराई। खपरैल मड़हा को बैठक नहीं बनवाया। लेकिन आज पितर मांग रहे हैं तो कुछ सोच कर मांग रहे हैं। आखिर सारी संपत्‍ति तो उन्‍हीं की है। संपत्‍ति लिये हैं तो शांति प्रदान करना भी उन्‍हीं का दायित्‍व बनता है।
मास्‍टर जी बैंक चले गये। पचास हजार रुपये निकाल लाये। रास्‍ते में पंडित जी से भागवत कथा की साइत भी तय कर लिया। भाइयों के बेटे से कुछ न मांगेंगे। कोई सहयोग करना चाहता है तो मनाही नहीं।
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सारा इंतजाम तो मास्‍टर जी कर लिए थे, पर मकान छोटा पड़ रहा था। पचास लोग तो कम से कम कथा में शामिल होंगे ही। तय हुआ कि अमल के हिस्‍से वाले मकान में ही कथा हो। आखिर घर की नींव तो एक ही है। इससे दोनों घर पवित्र हो जायेंगे।
अपनी शादी में अमल ने मास्‍टर जी को नहीं पूछा था। काहे कि मास्‍टर जी उनके पिता की दुधमुही तक में शामिल न हुए थे। लेकिन अबकी जब मझली बहन का विवाह हुआ तो मास्‍टर जी के ही हाथ सारा काम पूरा कराये। हां इसमें बबऊ के घर वालों को शामिल न किया गया था। गौरव ने कुजात से विवाह किया है तो उनका परिवार कहां शुद्ध रह गया। तभी तो गौरव के पिता की दुधमुही से लेकर तेरही तक अमल का परिवार शामिल नहीं हुआ। एक बात और भी थी कि यदि बबऊ के परिवार को शामिल करते तो छोटे दादा के परिवार के लोग नाराज हो जाते। पुजारी जी की मौत में दसवें पर उनके परिवार ने बाल बनवाने तक से इनकार कर दिया था। और तो और पंडितजी ने सारा क्रिया-कर्म कराया, लेकिन क्‍या मजाल कि एक भेली गुड़ भी खाकर पानी पिये हों। ऐसे में पूड़ी भात रखने की सोचना भी खतरे से खाली न था।
मास्‍टर जी के सामने धर्मसंकट है। तब की बात दूसरी थी, लेकिन गया में तो सारे पितर शामिल हैं। गोत्र, प्रवर, पिण्‍ड- सभी तो एक ही हैं। एक भी पितर छूट गया तो बाद में परेशान करेगा। शास्‍त्र की बातों को जो लोग अनदेखा करते हैं, उन्‍हें साक्षात्‌ नरक मिलता है।
मास्‍टर जी ने बबऊ को बुला भेजा। गांव में आजकल बबऊ बाबाजी के नाम से धीरे-धीरे विख्‍यात हो रहे हैं। उन्‍होंने गाय के खुर के बराबर एक हाथ की लंबी चोटी बढ़ा ली है। माथे पर बड़ा सा रोली का टिप्‍पा मारते हैं। कभी-कभी दुकान से ज्‍यादा फुरसत रहती है तो त्रिपुण्‍ड भी लगाते हैं। घर-द्वार चप्‍पल की बजाय खड़ाऊ पहनते हैं। नियम से शंख फूंककर ऊंची आवाज में रामरक्षा स्‍त्रोत्र का उच्‍चारण करते हैं। पत्रा में साइत दिखाने के लिए गांव वाले अब उन्‍हीं के पास आते हैं। मझली भौजी को भी ठीक लगता है कि चलो बाप के नक्‍शे कदम पर कोई तो आगे बढ़ा। पिता के देहांत पर बबऊ ने लोगों की जुबान से इन्‍हीं गुणों की तारीफें सुनी थी। सो, गुणों की इस थाती को उन्‍होंने धीरे-धीरे आखिरकार सहेज ही लिया।
मास्‍टर जी ने पूजा का सारा इंतजाम बबऊ के हवाले कर दिया। साथ ही यह भी समझा दिया कि अपनी मां, बहू, बेटी- सबको कथा में शामिल होने के लिए बोल दें। बबऊ ने आज्ञाकारी बालक की तरह चाचा की बातें मान लीं।
अमल के बाहर वाले अहाते में ब्राह्‌मणपीठ और वेदी आदि का निर्माण बबऊ ने ऐसा किया कि खुद पंडित जी हतप्रभ रह गये। कथा का समय दोपहर एक से पांच बजे तक का रखा गया।
भागवत सप्‍ताह में ज्ञानी कथावाचक का तो महत्‍व होता ही है, लेकिन यदि अपने पुरोहित परिवार से कोई कथा सुनाने की सामर्थ्‍य रखता है तो सौ विद्वानों से भी श्रेष्‍ठ है। ऐसा मास्‍टर जी का मानना है। इसीलिए पुरोहित परिवार के ही नवोदित पंडितों को उन्‍होंने इसका जिम्‍मा सौंपा।
मास्‍टर जी ने पूरी पट्‌टीदारी को सबेरे ही सप्‍ताह सुनने का न्‍योता दे दिया। दुबान पट्‌टी का जिम्‍मा बड़े बेटे को सौंपा। उसका उधर से ज्‍यादा रब्‍त-जब्‍त रहता है।
एक बजते-बजते दुवार पर गांव-घर के लोग जमा हो गये। अमल ने बड़ी सी दरी अहाते में बिछवा दी थी। डाक्‍टर शंकराचार्य के सबसे करीबी शिष्‍य हैं। कभी किसी के यहां नहीं उठते-बैठते। उनका मानना है कि सदगुरु की कृपा से उन्‍हें आत्‍मज्ञान हो चुका है। गांव के लोग मूर्ख हैं, इसलिए उनसे बात नहीं करनी चाहिए। पट्‌टीदारी में कोई कितना भी बड़ा पद पा जाये, उनकी निगाह में उनके बेटों से छोटा ही होगा। वे अक्‍सर उच्‍छ्‌वास भरते हुए ‘शिवोऽहम्‌' कहते। अध्‍यात्‍म विद्या की पराकाष्‍ठा का बोध। यह बोध इतना तारी हो चुका था कि वे भले ही मेडिकल विभाग में कुष्‍ठ रोगों की दवा बांटने वाले लिपिक पद पर कार्य करते हुए सेवानिवृत्‍त हुए, पर कभी अपने को लिपिक न माने। पूरा गांव उन्‍हें डाक्‍टर ही जानता था। यह ‘डाक्‍टर' शब्‍द ‘शिवोऽहम्‌' जैसा ही उच्‍चीकृत था। अस्‍पताल की दवाएं लाते, इंजेक्‍शन लगाते, मरहम-पट्‌टी करते डाक्‍टर साहब क्षेत्र में विख्‍यात हो गये थे। पूरे जीवन में उनके इलाज से तीन-चार लोग ही इस संसार से विदा हुए। बाकी सभी सलामत हैं। डाक्‍टर साहब की अनपढ़ बीबी ने भी पति से चिकित्‍सा की विद्या ग्रहण कर ली थी। उनकी अनुपस्‍थिति में वहीं दवाएं देतीं। डाक्‍टर साहब ने अपने लिए पण्‍डित जी के पास सटा हुआ आसन चुन लिया।
डाक्‍टर साहब के एक भाई सुपारी नाथ हैं। काफी पढ़े-लिखे आदमी हैं, किन्‍तु आजकल घर में उनकी अहमियत लेड़ार कुक्‍कुर से ज्‍यादा की नहीं है। इसलिए सुबह की चाय और शाम का नास्‍ता मास्‍टर जी के ही यहां लेते हैं। नाम के मुताबिक सुपारीनाथ की काठी भी गोल-मटोल। हां कोई बातों से उन्‍हें कभी नहीं कुतर सकता। वे सब को कुतरते रहते हैं। इसलिए गांव के छोकरे उन्‍हें अब सरौतानाथ कहने लगे हैं। बीडीओ साहब ने उन्‍हें अपने बगल में बिठाया।
बीडीओ साहब पता नहीं कैसे पूरी नौकरी कर गये। न बातों से और न व्‍यवहार में ही अफसरी के गुण दिखते। एक बेटा सीनियर इनकम टैक्‍स कमिश्‍नर है, दूसरा बिल्‍डर, तीसरा रिलायंस इंडस्‍ट्री में डिप्‍टी डायरेक्‍टर और चौथा कनाडा के एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर। तीन-तीन पौत्र-पौत्रियां विदेश में बड़ी कंपनियों में सेवारत हैं। लेकिन किसी ने कभी उन्‍हें कार-वार से आते न देखा। हमेशा पैदल ही रास्‍ता नापते घर से शहर और शहर से घर। खुद अस्‍सी साल के हो चुके हैं, पर एक सौ पांच वर्षीय पिता की सेवा नौकर के जिम्‍मे नहीं छोड़ते। मैला साफ करना हो या फिर पांव दबाना, वे खुद ही करते हैं। कथा में उनके होने का कोई विशेष मतलब लोगों के लिए नहीं था।
कथा शुरू हो गयी। पचासेक महिलाएं और इतने ही पुरुष जमा थे। एक अध्‍याय पूरा हुआ। बबऊ ने शंख पर फूंक मारी तो दो मिनट तक मारते ही रहे। लगा कि अर्जुन ने कुरुक्षेत्र में युद्ध का जयघोष किया हो। घंटे भर बीत चुके थे। महिलाएं ऊब रही थीं। किसी ने घूंघट उठाया और आसपास का मुआयना कर लिया। बगल में बैठी जेठानी से कुछ बतियाने लगी। बातों का सिलसिला पहले महिला मंडल से शुरू हुआ। एक-एक कर इधर का कथा पुराण बदल गया। उधर पंडित की भागवत कथा और इधर महिलाओं का चूल्‍हा-चौकी पुराण। पुरुषों में कुछ लोग ऊंघने लगे तो किसी ने सुर्ती मसल कर नींद तोड़ने की कोशिश की। बच्‍चों की धमाचौकड़ी अपनी तरह शुरू हो गयी। लेकिन डाक्‍टर साहब, बीडिओ साहब समेत दर्जन भर लोग अभी भी हाथ जोड़ें आंख बंद किये कथा सुन रहे हैं। सुन रहे हैं कि बंद आंखों में निद्रालाभ ले रहे हैं, कौन जाने।
हर अध्‍याय पर शंख बजने के साथ कुछ देर के लिए श्रोता सावधान हो जाते। सबके हाथ खुद जुड़ जाते। महिलाएं अपने-अपने हिसाब से मन्‍नत मांग लेतीं। अमल की अम्‍मा ने जुड़ा हुआ हाथ माथे लगा लिया-‘जै भागवत महराज, हमारे भइया लोगन का रन-बन में रच्‍छा करना। जिसका चाहो आप बनाओ, जिसका चाहो आप बिगाड़ों।'
देखा-देखी हर महिला ने अपने-अपने प्रियजनों के कुशल-क्षेम की कामना की। मझली भौजी ने तो जमीन पर मत्‍था ही टेक दिया। मलिया फुआ की आंखों से तो धार ही बही जा रही है। कमली फुआ को सुनाई नहीं पड़ता, इसलिए वह टुकुर-टुकुर बस देखे जा रही है। सबने माथ झुकाया तो उसने भी जमींन पर मत्‍था टेक दिया। साल भर पहले ही तो उसके बेटे की ट्रेन से कटकर मौत हुई थी। तभी से वह और भी ज्‍यादा पत्‍थर हो गयी है।
बबऊ का पूरा परिवार बढ़-चढ़कर भागवत महाराज की कथा में शामिल हुआ है। बबऊ की पत्‍नी सास के साथ पहले ही कथा में जाकर विराज जातीं। बबऊ की अम्‍मा उर्फ मझली भौजी पुजारी जी की पत्‍नी हैं। उनके मायके के लोग बड़े धार्मिक हैं। सभी भाई बड़ी चुटिया और त्रिपुण्‍डधारी हैं। पति से उन्‍होंने बड़े नेम-धर्म-कर्म सीखे हैं। तीर्थ-व्रतों में गांव की महिलाओं की नेता वही होतीं। उन्‍हीं के गुरु जो पहले मात्र संन्‍यासी थे और बाद में एक पीठ बनाकर शंकराचार्य हो गये, के चलते इस गांव में आये थे। पहले तो पूरे गांव वालों ने इसका विरोध किया था, पर धीरे-धीरे सभी उनके भक्‍त बन गये। तीज का व्रत हो या ललही छठ की कथा, सुनाने का जिम्‍मा बबऊ की अम्‍मा का। भागवत कथा में पंडित के कथा सुनाने के बाद महिलाओं को अलग से व्‍याख्‍या सुनातीं। भागवत महराज के प्रताप का बखान करतीं।
यहां सब हैं। पट्‌टीदारी से लगायत गांव के लोग जमा हो रहे हैं और गौरव ने झांका तक नहीं। यह बात उन्‍हें कचोटती है।
शाम को उन्‍होंने फोन किया-‘बेटवा, चच्‍चा गया जायेंगे। भागवत सप्‍ताह हो रहा है। एक दिन आकर शामिल तो हो जाओ।'
गौरव ने टका सा जवाब दे दिया-‘अम्‍मा, तुम्‍हीं जाओ। तुमको तो कुछ याद नहीं रहता। मरनी-करनी, शादी-ब्‍याह में तो कभी बुलाया नहीं गया। आज उन्‍हीं अमल के घर में सप्‍ताह चल रहा है और पूरा परिवार मान-सम्‍मान ताक पर रखकर घर में घुसे जा रही हो।'
‘अरे पुरखा-पुरनियों का मामला है। ऐसे नहीं बोलते।'
‘अम्‍मा, असली गुनहगार तो हम्‍हीं हैं। कहीं मुझ अछूत के आने से पितर गया जाने से इनकार कर दिये तो?'
‘गौरव, हम तो इतना जानते हैं बेटा कि अपना करम करते चलें। अच्‍छा, तुमसे एक सलाह करनी थीं। चच्‍चा गया जायेंगे तो कुछ तो मदद करनी ही पड़ेगी न?'
‘काहे की मदद? कोई अपने पितरों को गया पहुंचाने जा रहा है तो हम काहे की मदद करें?'
‘तुम्‍हारे पितर नहीं हैं?'
‘न्‍न नहीं। हमें तो इसमें कोई विश्‍वास नहीं। हम तो यही जानते हैं कि हिन्‍दू धर्म में जो मरता है, उसको दूसरी देह मिल जाती है। अब मास्‍टरजी को लग रहा है कि उनके जितने पितर मरे हैं, सब भूत-प्रेत हो गये हैं तो वे ही उन्‍हें गया पहुंचाकर मुक्‍त करायें। हमारी जान में तो सभी लोग कहीं न कहीं जन्‍म ले चुके होंगे। बल्‍कि कई बार जन्‍म लेकर मर चुके होंगे।'
मझली भौजी का मन कसैला हो आया। बच्‍चे चार अच्‍छर पढ़ क्‍या लेते हैं, धर्म-कर्म को ही लतियाने लगते हैं। क्‍या भागवत में सब झूठ लिखा है? पंडित क्‍या झूठ बोलते हैं?
शाम को बबऊ का फोन। लेकिन यह क्‍या, इस पर तो चाची बोल रही हैं-‘ए भइया गौरव हो। कथा सुन रही हूं। सोमवार को पूरी हो जायेगी। मंगल को हम गया जायेंगे। विदा करने सबको लेकर आ जाना। चाची की बात भूल तो नहीं जाओगे। कहो तो चच्‍चा से ही कहलवाऊं।'
गौरव ने टालने की गरज से कहा, ‘अरे नहीं रे चाची, आ जाऊंगा। तुम्‍हारा सम्‍मान तो चच्‍चा से बढ़कर है।'
अभी आध ही घंटे बीते होंगे कि फिर एक बार बबऊ के मोबाइल से काल हुई-‘ए बबवा गौरव हो, गया जाना है। सप्‍ताह चल रहा है। मंगल को जरूर चले आना। और सुनो, अपने कालेज के शिक्षकों और प्रमुख जी वगैरह सबको बोल देना। और हां, हो सके तो अखबार में भी इसका समाचार दे देना।'
गौरव ने चच्‍चा को निराश नहीं किया, ‘ठीक है, बोल देंगे और हम आ भी जायेंगे। बोर्ड की परीक्षा चल रही है, इसलिए व्‍यस्‍त हूं। लेकिन मंगलवार को आपको विदा करने जरूर जाऊंगा।'
मंगलवार की भोर अचानक एक विस्‍फोटक चीख-पुकार-ललकार हवा में तैरने लगी। सोते हुए लोग हड़बड़ाकर जाग गये। सब उसी ओर दौड़े। पता चला कि डीआईजी के सिरे दादा आ गये हैं। बेडौल काली काया प्रेतबाधा में फूल-पिचक रही है। नथुनों से एक गुर्राहट घड़घड़ा जाती। बच्‍चे डर के मारे घिघिया रहे हैं। ये मास्‍टरजी के बड़े भाई की पहली पत्‍नी के बड़े बेटे हैं। कहते हैं कि इनके दादा और बीडियो साहब के पिता में लाग-डाट थी। दोनों को एक माह के अंतराल में पोते हुए तो बीडिओ साहब के बेटे का नाम उसके दादा ने दरोगा रख दिया। उस जमाने में यह पद काफी ऊंचा माना जाता था। मास्‍टर जी के पिता कचहरीबाज थे। उन्‍होंने नहले पर दहला मारा। पोते का नाम डीआईजी रखा।
दोनों बच्‍चों के उम्‍दा पोषण में भी लाग-डाट थी। दरोगा की मालिस एक बार होती तो डीआईजी की तीन बार। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। दरोगा बाद में इनकम टैक्‍स कमिश्‍नर बन गये और डीआईजी भइया हाईस्‍कूल में पांच साल फेल होने के बाद कचहरी में मुहर्रिर का काम करने लगे।
डीआईजी भइया कलाकार आदमी हैं। कहते हैं कि वे अर्द्धनारीश्‍वर हैं। शादी-ब्‍याह में महिलाएं गीत ठीक से न गा पातीं तो डीआईजी भइया उनके बीच बैठकर विवाह, बंदा, सोहर, कजली, उठान, चौका गीत आदि जिस लय में सुनाते, वे दंग रह जातीं। महिलाओं का कपड़ा पहनकर नाचने भी लगते। वे कब किसी से नाराज हो जायेंगे और कब प्रसन्‍न, कुछ ठीक नहीं। नाराज होने पर ठेठ गंवार महिलाओं की तरह हाथ नचा-नचा, लुंगी उठा, गा-गाकर कजिया करते। उनके दुष्‍प्रचार चैनल ने बड़े-बड़े सद्‌चरित्रों को मुंह दिखाने लायक तक न छोड़ा था। वे एक साथ नेता, धार्मिक, कलाकार, अभिनेता, पंडित, कानून के ज्ञाता, महिला-पुरुष सब हैं।
भूतों-प्रेतों के साथ उनकी पुरानी संगति है। उनकी पत्‍नी जब तक जीवित रहीं, हबुआती रहीं। घर के लोग जब इसे नौटंकी करार देते तो उसे सही साबित करने के लिए डीआईजी भइया अपने सिरे भूत-प्रेत बुला लेते।
एक बार पाही पर रात के समय कुलगुरु आये। तब भौजी वही थी। उन्‍होंने अपने शिष्‍य की इस समस्‍या का समाधान करना चाहा। जंगल के बीच बसे इस गांव में रात वैसे ही भयावह होती है। वहां के पुराने जमींदार परिवार के लोग भी बुलाये गये। गांव के डीह का पुजारी भी आया। जाति का कोल था। डीआईजी भइया किसी बात को लेकर उससे चिढ़े थे। भौजी हबुआने लगीं तो ओझा ने भी झाड़-फूंक शुरू की। काफी जद्‌दोजहद के बाद उसने बताया कि सारे भूत घर के ही हैं। आगे की योजना बनी और सभा समाप्‍त होने लगी। कि अचानक क्‍या हो गया। डीआईजी भइया के सिरे बरम आ गये। बरम नाच रहे हैं। मोटी काया में बरम करीब पांच मिनट तक ऐसे डिस्‍को डांस किये कि हर कोई थरथरा गया। अचानक बरम ने ओझा की पीठ पर दो लात धर दिया। किसकी हिम्‍मत जो बरम को रोके। फिर तो तड़ाक्‌-तड़ाक्‌ थप्‍पड़ और घूंसा भी। गर्मी का समय था। ओझा की पीठ और गाल तमाचे से लाल हो गये। वह भी खांटी गबरू जवान। पीठ की चौड़ाई पूरे डेढ़ हाथ। सो उसे बचाने के लिए गांव के डीह बखतबली की सवारी आ गयी। उसने बरम की गांती में हाथ डालकर गद्‌द से पटक दिया। चढ़ बैठा सीने पर। लगा बरम का सीना, गाल पीटने। बरम नीचे, डीह बाबा ऊपर। अब बरम चिल्‍ला रहे हैं-‘छोड़ दे रे डीह। मैं समझ गया। अब जा रहा हूं। तुमसे नहीं लड़ पाऊंगा।'
लेकिन डीह का गुस्‍सा जल्‍दी थमता है क्‍या? बरम चले गये। डीआईजी भइया सुस्‍त पड़े हैं। डीह अभी भी उनके गालों का भुर्ता बना रहा है।
जमींदार ने हाथ जोड़ लिए, ‘हो गया डीह बाबा। मैं गांव का जमींदार आपसे बिनती करता हूं इसे छोड़ दीजिए।'
डीह फुंफकारने लगे। नथुने फड़क रहे हैं। कभी दायें तो कभी बाएं ताक रहे हैं। गुस्‍सा रोके नहीं रुक रहा। तीन-चार हाथ अपने कलेजे पर पीटे और उठ खड़े हुए। डीआईजी भइया की अंटकी सांस वापस आयी।
डीह ने किलकारी मारी-‘बोल द उडि़या कुदान बाबा की।'
‘जै'। सबने भयाक्रांत जैकारी की। डीह बाबा चले गये।
डीआईजी भइया को आज भी सवारी आयी है। किसी से झगड़ा हुआ हो, कोई बंटवारा कराना हो, हिस्‍सा लेनी हो, सवारी आ जाती है। आज दादा आये हैं।
मलिया फुआ दिल की छुलछुल। दौड़ पड़ी। देखते ही दादा रोने लगे। रोते-रोते चले गये। अब दादा के भाई की सवारी आ गयी, ‘परधनवा को बुलाओ। अभी जिन्‍दा है। हमारा जनेऊ क्‍यों नहीं कराया। उसका सर्वनाश कर दूंगा।'
मलिया फुआ समझाने को आगे बढ़ी कि चाट्‌ट, चाट्‌ट दो तमाचे गाल पर पड़ गये। मलिया फुआ भागी।
सौतेली मां समझाने पहुंची तो दादा के भाई ने जोर से धक्‍का दिया। बिचारी चार फुट दूर जा गिरीं। घर में भय बरसने लगा। छोटे बच्‍चे चीख रहे हैं।
मझली भौजी को भी खबर लगी, पर वे नहीं आयीं। उन्‍हें पता था कि समझाने पर लात-घूंसा मिल सकता है। मास्‍टर जी ने कहा, ‘लेड़ार फिर काम बिगाड़ने पर आमादा हो गया है।'
मास्‍टर जी ने लेड़ार शब्‍द तार्किक ढंग से पर्याप्‍त विचार के बाद डीआईजी के नाम के लिए चुना है। इलाहाबाद से लौटते समय एक बार उन्‍होंने गौरव से इसकी व्‍याख्‍या की थी-‘लेड़ार कुत्‍ता का मतलब है कि जो न भूंके न काटे, बस घर में चोरी से घुस कर खाये और दुआर पर केवल लेड़ करे।'
डीआईजी भइया उर्फ लेड़ार पर सुबह के छह बजे तक सवारियां आती रहीं। दो-तीन घंटे की कड़ी मशक्‍कत के कारण देह थक चुकी थी। सो जमीन पर ही सुस्‍त हो कर गिर पड़े। कोई मनाने न रुका। आध घंटे के बाद खुद ही उठे और लोटा लेकर दिशा-फारिग चल दिये।
सारी असहमतियों के बाद भी गौरव घर आने के लिए बाध्‍य थे। इसलिए नहीं कि पितरों के प्रति श्रद्धा थी, बल्‍कि इसलिए कि मास्‍टर जी ने पिता के निधन और छोटे भाई के विवाह में अपनी जिम्‍मेदारी का भरपूर परिचय दिया था। यदि उन्‍होंने अतीत भुलाने की कोशिश की तो गौरव को भी वर्तमान का सम्‍मान करना चाहिए। मास्‍टर जी के साथ नये सरोकार के पीछे भी गौरव का ही व्‍यक्‍तित्‍व और उनके द्वारा दिया जाने वाला सम्‍मान था। इसलिए भी कि दोनों लोग एक ही पेशे से ताल्‍लुक रखते थे। और कहीं न कहीं मास्‍टर जी अमल के रिश्‍वतखोरी वाले पैसे के आतंकी घनत्‍व से गौरव के प्रति एक जबर्दस्‍त आत्‍मीयता और सम्‍मान का अनुभव करते हैं। न आते तो मास्‍टर जी का अंतर आहत होता।
हालांकि मस्‍टराइन कल तक गौरव की बीवी के हाथ का छुआ पानी न पीती थीं, लेकिन पिछली बार अपने से मांग कर चाय पीयीं। गौरव की बीवी का इससे मलाल कम न हुआ। कहा, ‘सरे आम जूता मारने के बाद सहलाना किस न्‍याय की श्रेणी में आता है?' फिर भी पति के समझाने पर आ ही गयीं।
श्राद्ध की क्रिया अमल के घर की बजाय आंगन में मास्‍टर जी के अपने हिस्‍से में आयोजित की गयी। श्राद्ध पूरा हुआ। मास्‍टर जी का मुंडन हुआ। साथ में डीआईजी भइया ने भी बाल छिला लिया। यह क्‍यों? अरे वे भी तो जायेंगे। पैसा नहीं था, नहीं तो मास्‍टर जी से पहले ही गया चले जाते।
सुपारी नाथ, छोटे कक्‍का, सुन्‍नर, गुलरी काकी, मलिया फुआ, कमली फुआ, बड़की फुआ, जलीला बहिन, मोटकी माई, परधान की तीनों बेटियां, चारों बहुएं, दो बेटे- सभी तो आ गये। यह क्‍या अमर, बड़क, गोल्‍डिया, लोदी आदि के परिवार के लोग भी आ रहे हैं। इनसे तो खाब-दान सब बंद हो चुका था। फिर भी आ रहे हैं?
मझली भौजी ने बेटे को समझाया, ‘खाब-दान एक तरफ, लेकिन पितर तो सबके एक ही हैं। उनसे काहे की रार।'
बाजे वाले पेड़ के नीचे बैठे थे। सुपारी नाथ उन्‍हें देखते ही कुतरने लगे, ‘कितने तरह का व्‍यापार करते हो भाई तुम लोग? कभी भूसा बेचते हो तो कभी सब्‍जी, कभी जनरेटर तो कभी बाजा बजाने लगते हो। ․․․․․․․․․․ऐं․․․․․․․․․․․अच्‍छा-अच्‍छा। कितने लोग हो?'
‘तीन लोग बाबू। दाम भी तो कायदे से मिले?'
‘अरे तो अइसै दाम नहीं मिलता। बाजा बजाने आये हो कि आराम फरमाने? दाम लेना है तो बजाना शुरू कर दो।'
बाजे वाले शुरू हो गये। बाजे की धुन से घर-घर टहोका हो गया, ‘चलो रे चलो, अब मास्‍टर निकलने वाले हैं।'
देखते ही देखते सैकड़ों लोग जमा हो गये। बहुएं ऐसी बन-ठनकर निकलीं कि बारात विदा करने जा रही हों। बूढि़यों ने भी आज ब्‍लाउज पहन रखा था। बच्‍चों को पहनावे की फिक्र न थी। चारो ओर अफरा-तफरी, सुझाव-सलाह।
परधान की बड़ी बेटी ने गौरव का हाथ पकड़कर खींचा, ‘अरे पगला, घरों में जाकर तेज से चिल्‍ला कि चलो फलाने बब्‍बा गया, चलो फलाने आजी गया।'
मझली भौजी चीखीं, ‘अरे अमल खड़े हो? दुआरे जाकर जोर-जोर पितरों को बुलाओ। कहो कि गया चलें।'
अरे दया बब्‍बा को क्‍या हो गया? क्‍या बताना चाहते हैं? शोर-गुल में उनकी बात ही नही समझ में आ रही। लंबू पर निगाह पड़ी तो पकड़ लिए, ‘सारे पितरों का नाम लेकर बुलाता क्‍यों नहीं?'
‘हमें तो पितरों के नाम मालूम नहीं। आपै बताओ किसको-किसको बुलाऊ?'
दया बब्‍बा खिसिया गये, ‘अरे का बतायें, पुजारी होते तो सात पीढ़ी तक का नाम भर्राटा लेकर बुलाते।' फिर कुछ सोच कर बोले, ‘एक काम करो, ‘पितर लोग गया चलिए, पितर लोग गया चलिए' बुलाओ। जो लोग भी होंगे, खुद चल देंगे।'
लंबू जोर-जोर चिल्‍ला रहे हैं, ‘पितर लोग गया चलिए। पितर लोग गया चलिए।'
पितर कहीं दिख नहीं रहे। सबको भरोसा है कि पितरों की आत्‍माएं भटक रही हैं। वे कहीं न कहीं से उन्‍हें सुन रही हैं। किसी को ये आत्‍माएं आज डरावनी नहीं लग रहीं। एक अनजानी श्रद्धा अनजाने चेहरोें, नामों के साथ जुड़ी जा रही है। महिलाओं की आंख से तो आंसू निकले जा रहे हैं। जलीला बहिन को क्‍या हो गया? हचक-हचक कर रो रही हैं। अपनी भौजी, पिताजी, बब्‍बा, आजी को पुकार रही हैं। परेशान हैं कि कहीं ये लोग छूट न जायें। बचपन में इन्‍हीं लोगों ने तो मां के मरने के बाद पाला-पोसा। आज जिन्‍दा होते तो ये डीआईजी भइया ऐसी दुर्गति करते? सौतेली मां के चलते तो मायका ही नोहर (दुर्लभ) हो गया है।
आगे से हटो, हटो। मास्‍टर हर घर में अक्षत डालेंगे। अपने और अमल के कोने-अंतरे तक अक्षत छिड़क आये हैं। अब बबऊ के घर की ओर जा रहे हैं। नया घर है, क्‍या पता कोई पितर डेरा डाल दिया हो। बाकी बनने के बाद तो इसमें कोई मरा नहीं? अरे मरने के बाद ही थोड़े कोई डेरा जमाता है। आत्‍माएं तो कहीं जम सकती हैं। जहां उन्‍हें अच्‍छा लगे।
मास्‍टर आज कैसे तो लग रहे हैं। हर कोई उन्‍हें ही निहार रहा है। सच्‍ची उनके भीतर पितरों का वास हो गया है। चेहरा कैसा तो दमक रहा है। घुटा हुआ सिर, गेरुआ रंग का कुर्ता और गेरुई धोती। कंधे पर दंड और अंचला। पूरे संन्‍यासी लग रहे हैं। मस्‍टराइन भी पूरी भक्‍तिन लगती हैं। डीआईजी भइया तो पूरे भोदू महंथ लग रहे हैं। कमर के ऊपर का हिस्‍सा इतना भारी है कि वजन से जैसे पैर डायल हो गये हों। साइकिल के डायल पहिया की तरह पटेंग मारते हुए चल रहे हैं। एक साल पहले तक उनका एक कुत्‍ता था। उसका भी पैर डीआईजी भइया की ही तरह था। दोनों जन साथ चलते तो खुद पता चल जाता कि एक ही फैक्‍ट्री के उत्‍पाद हैं।
अमल का भाई लखनऊ में पढ़ता है। इसी कार्यक्रम में शामिल होने आया है। शक्‍ल-सूरत में किसी हीरो से कम नहीं, पर भगवान ने आंखों की रौनक छीन ली है। ताकता है पूरब तो मालूम होता है पश्‍चिम। पूरे पैंतीस साल का हो गया, पर कहीं क्‍लर्की की भी परीक्षा नहीं पास कर पाया। हां, गुटखे की ऐसी लत लग गयी है कि दो-दो पुडि़या एक-एक बार में फांक जाता है। गुस्‍से में भुता जाये तो यमराज को भी मार डाले। आज भुता गया है जैकारी लगाने में। ‘बोलो बल्‍लीवीर महराज कीऽ'
हुजूम चिल्‍लाया- ‘जैऽऽऽऽ'।
‘सत्‍ती मइया कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
अकेलवा महरानी कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
गड़इया माई कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
बघउत वीर कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
नारसिंह भैरो बाबा कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
ठाकुर महराज कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
शंकर भगवान कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
आगे-आगे गया यात्री, पीछे बाजे वाले। गड़गड़ ग्‍ड़ाम्‌ ग्‍ड़ाम्‌। तड़ई के तड़ धिन तड़ई के तड़ धिन, बीली के लगभग। तड़ई के तड़धिन, बीली के लगभग। किड़-किड़-किड़ ग्‍ड़ाम्‌ ग्‍ड़ाम्‌।
बोलिए बजरंग बली कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
बाजे के साथ भीड़ के जैकारे की संगति। रबीश्‍वर ने इस मौके को भी मौज का साधन बना लिया। आधे घंटे के भीतर चार गुटखा खा चुके है। मुंह में कुल्‍ली भरे हुए ही सिर आकाश की ओर उठाकर बोलते है-‘ग्‍यै'।
गांव का एक गया विशेषज्ञ खुद आ गया है। लाल पताका कहां लगेगा, उसे ही पता। हर पट्‌टीदार के दुवार पर हुजूम जाकर बाजे की धुन के साथ जैकारी लगाता है। कुत्‍ते परेशान। इतना बड़ा हुजूम आखिर उनके मालिक के घर क्‍यों धमक रहा है? कोई गड़बड़ तो नहीं? वे लगातार भूंक रहे हैं। उनका भूंकना बाजे की धुन के साथ मिलकर गड्‌डमगड्‌ड हो जा रहा है। जैकारी सरीखा ही।
मास्‍टर जी आज किसी के भाई नहीं, चाचा नहीं, पिता-पति, दादा नहीं। आज वे केवल पितर हैं। घरों में बेरोक-टोक घुसते हैं और अक्षत फेंकते हुए निकल आते हैं। हुजूम फिर चल पड़ता है। जिस घर में अक्षत फेंका, घर के सारे सदस्‍य भी साथ हो लिए। शाम के छह बज गये। गौरव मास्‍टर जी के ठीक पीछे-पीछे चल रहे हैं। पलटकर देखे तो देखते ही रह गये। पांच सौ से कम लोग न थे। जबकि दो तिहाई लोग परदेश में रहते हैं। सब पट्‌टीदार एक जगह एकत्र हो जायें तो खिलाने भर को भी न अंटेगा।
अब गांव गोठा जायेगा। डीआईजी भइया के हाथ में धार (हल्‍दी आदि से बना टोटके के लिए घोल, जिसे गांव की बार्डर लाइन पर धारा बनाते हुए छोड़ना अनिवार्य है।) लेकर पीली लाइन बनाने लगे हैं। सरहद का मोड़ आने पर लाल पताका गाड़ दी जा रही है। देवथान पहुंचने पर हुजूम जैकारी करता रहता है और गया यात्री उनकी पूजा करते हैं।
बाप रे गांव गोठने में पूरे तीन घंटे लग गये। सूरज डूबने को आया। अब क्‍या होगा?
बबऊ ने कान के पास मुंह सटाकर पूछा, ‘गौरव तुम्‍हारे पास कित्‍ते रुपये हैं?'
‘ऐं, क्‍या होगा?'
‘अरे विदाई के समय देना तो पड़ेगा न?'
‘अच्‍छा। हमें पता न था।'
पाकेट छानने के बाद कुल 180 रुपये मिले। बीस-बीस की दो बाकी सब दस की नोटें मिलीं।
बबऊ संतुष्‍ट हुए, चलो सारा का सारा फुटकल है।
मझली भौजी भी पैसे के लिए पूछ रही हैं। बबऊ के कहे अनुसार गौरव ने सारे पैसे मां, पत्‍नी, भाभी, भइया को बांट दिये। खुद के लिए 70 रुपये निकाल लिये।
अब खानदान के लोग गया यात्रियों के पैर छू रहे हैं। दस, बीस, पचास, सौ की नोटें हाथों में पकड़ाते हुए पितर के पैरों पर सिर टेक दे रहे हैं सब।
‘रुको-रुको, पहले नयी बहुओं को छूने दो।' लोदी काका समझा रहे हैं।
गौरव परेशान हैं। अम्‍मा ने पहले ही कहा था कि हजार-दो हजार तो लग ही जायेगा। चले आये खाली टेट। दूर के पट्‌टीदार जब सौ-सौ की नोटें थमा रहे हैं तो घर वालों को उससे भी ज्‍यादा करना चाहिए न!
पत्‍नी के पास दौड़े, ‘तुम्‍हारे पास कुछ रुपये हैं?'
‘हां, हैं न। कितना चाहिए।
‘तुम कितना रक्‍खी हो?'
‘यही कोई बारह सौ होंगे।'
‘अच्‍छा तो एक काम करो कि मास्‍टर जी को पांच सौ और चाची को एक सौ देकर पांव छू लो।'
पत्‍नी ने मास्‍टर जी के हाथ में पांच सौ के नोट रखे तो उन्‍होंने सिर पर हाथ रख दिया, ‘सदा सुहागन रहो।'
चाची का आज पहली बार पांव छूने झुकीं। इसलिए उसने सास से साफ कह दिया था, ‘पांव नहीं छूऊंगी, क्‍योंकि उनका पांव भी अपवित्र हो जायेगा।' लेकिन नहीं, आज हठ का दिन नहीं। गौरव की बहू समझती है। सौ की नोट हाथ में रख पैर छू लिए। चाची निहाल। आशीर्वाद को मुंह क्‍या खुला, एक धारा ही बह गयी, ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो' ‘अमर रहो बेटा, भगवान तुम्‍हारे सुहाग राखें'․․․․․․․․․․․․․․․․․।'
अब बारी उम्रदार स्‍त्री-पुरुषों की थी। ‘अरे यह क्‍या, दया बब्‍बा मास्‍टर जी के पैर छू रहे हैं?' शायद गौरव बोल रहे थे। सुपारीनाथ ने डपट दिया, ‘बड़ी-बड़ी डिग्री ले लेने से कोई जानकार थोड़े हो जाता है। आज मास्‍टर मास्‍टर नहीं हैं, वे आज पितर हैं। हम सबके पितर। सारे खानदान के पितर।'
बड़की भौजी से पालागी तक नहीं, पर वे समझा रही हैं-‘दुर पगला, समझा तो कर। आज माहटर में पितरन का वास है।'
कुछ बोलते कि तब तक देखते क्‍या हैं कि हाथ-पैर कांपते नब्‍बे वर्षी झम्‍मन बब्‍बा को उनके पोते गोद में उठाये चल आ रहे हैं। मास्‍टर जी से दशकों की इस परिवार से अदावत। पर पितर जा रहे हैं तो अदावत कैसी? अज्‍जू पंडित के भइया का विवाह ऐसी लड़की से हुआ जो किसी चमारिन रखैल की बेटी थी। मास्‍टर जी उन्‍हें ‘मैला' कहकर पुकारते थे, पर नहीं आज मुक्‍त कंठ आशीर्वाद दे रहे हैं। परधान के परिवार को आज गौरव और उनके परिवार की उपस्‍थिति से कोई दिक्‍कत नहीं। सब कैसे तो घुल-मिल खिल-खिल हैं। गौरव हक्‍के-बक्‍के दस साल की नारकीय यातना में बहे जा रहे हैं। गैर जातीय विवाह के बाद कैसे-कैसे अपमान, मानसिक यंत्रणाएं, मौत की हद तक पहुंचाने वाले बयान क्‍या एकाएक धुल गये? क्‍या मैं पवित्र हो गया? क्‍या अब खानदान के लोग परस्‍पर खाब-दान शुरू कर देंगे?
नहीं। संभव नहीं। उन्‍हें मालूम है कल से हिन्‍दू तालिबान फिर कत्‍ल के मोर्चे पर डट जायेंगे। उन्‍होंने हाथ जोड़ लिए, ‘धन्‍य हो पितरों, धन्‍य हैं तुम्‍हारे वंशज। जब ये आज अपनी आंत में इतनी दाढ़ी रखते हैं तो आप उस जमाने में कितने रखते होंगे। आपको धन्‍यवाद कि कुछ घंटे, कुछ दिन ही सही, खानदान की एकता तो दिखाई। बस केवल इतने के लिए तुम्‍हें प्रणाम।