डा0 रमाशंकर शुक्ल
मास्टर जी की
आंखों में नींद नहीं। मन कहां तो अंटका है। पहले बाबूजी, बड़े भइया, फिर
मझले भइया; एक-एक कर चले गये। तीनों की मौत की उम्र 69 से 71 के बीच ही तो
थी! महाप्रयाण का तरीका भी करीब-करीब एक जैसा। बाबूजी अपने ही बनवाए मकान
की छत से नींद में होने के कारण गिर पड़े। चौबीस घंटे पूरे होश-ओ-हवास में
जिन्दा रहे। सबसे बतियाते रहे। आखिरी क्षण में तो कुछ नहीं बचा था, लेकिन
व्यक्तित्व की कद्दावरी सलामत थी। अस्पताल में कितने देखने वालों का
जमघट लगा रहा। शाम को छह बजे ब्रेन हेमरेज हो गया। कहते हैं कि अंदरूनी
हिस्से और दिमाग पर ऐसी ठांस लगी थी कि धीरे-धीरे पूरे दिमाग में फैल गयी।
रात के 12 के बाद वे मौत से हार गये।
बड़े भइया को क्या कहें।
भाग्यशाली थे कि अभागा? बेटा-बेटी मिलाकर दर्जन भर बच्चों के पिता होने
का गौरव। बड़ी बेटी-बड़ा बेटा दूसरी पत्नी की संतानों से कहां जुड़ पाये।
बड़ा बेटा तो पूरी तरह स्त्रैण और स्वार्थी निकला। कभी बाप का सम्मान
नहीं दिया। दूसरी पत्नी के जिन संतानों पर उन्होंने जीवन हवन कर दिया,
जीते जी किसी का विवाह अपनी आंखों से न देख पाये। बेटा पीसीएस लोवर
सबार्डिनेट में चयनित तो हो गया, लेकिन कोई लड़की ही पसंद न आती। कि पद के
हिसाब से दहेज ही न मिलता था। नालायक ने बाप को परे कर खुद निर्णय लेने
शुरू कर दिये। क्या पता इसी की धसक में बड़े भइया को धक्का लगा हो और
ब्रेन हेमरेज हो गया हो?
अचानक कलेजे में कुछ करका। बड़े भइया की
मौत में तो ठीक से शरीक भी नहीं हो सका। मास्टर साहब रुआंसे हो गये। केवल
बीएचयू में देखकर चले आये थे। नौकरी अहम थी कि जीवन भर से चली आ रही कलह ने
मन से भ्रातृप्रेम ही सुखा डाला था? रोज ही तो झगड़े होते थे। शाम का समय
था। एक चीख घर के एक कमरे से निकलकर पूरे माहौल में हाहाकार मचा दी। क्या
हुआ? क्या हुआ? जो जहां था, दौड़ पड़ा। मझली भौजी अपने कच्चा मकान में
थीं। सबसे पहले वही पहुंची। हालांकि बड़की भौजी ने उन्हें तीन रोज पहले
कजिया (झगड़ा) में कसम धरा दी थीं- ‘तीनों बेटों का खून पीना, जो हमारे
पक्का की दहलीज डांकना।' लेकिन उन्हीं की चीख पर मझली भौजी बदहवाश दौड़ते
हुए दहलीज पार कर गयीं। देखती हैं तो बड़का भइया के मुंह से लार-गजार निकल
रहा है। अधखुली आंखें किसी भयावह आगत का संकेत दे रही हैं। बिस्तर पर
टट्टी-पेशाब फैल गया है।
मझली भौजी की आंखों से आंसू निकल पड़े,
‘अमल की अम्मा जल्दी कीजिए, डाकदर के यहां ले चलिए।' बड़की भौजी को कहां
होश। मझली भौजी ही भागीं और बड़े बेटे को लेकर फिर दहलीज पार कर गयीं। भूल
गयीं कि दहलीज पार कर रहे हैं कि तीनों बेटों का खून पी रहे हैं।
आनन-फानन
तय हुआ, जिला अस्पताल ले चलो। गांव में यही तो दिक्कत है कि कोई अनहोनी
हो जाये और क्या मजाल कि कोई सवारी मिल जाये। घंटों की अफरा-तफरी के बाद
एक आटो मिल सका। बड़े डाक्टर ने देखते ही जवाब दे दिया-‘यहां इलाज संभव
नहीं। बीएचयू ले जाइए।' प्राइवेट गाड़ी मंगाई गयी। मझले भइया, बड़की भौजी,
मझली भौजी, मझली भौजी का बड़ा बेटा और कक्का के बेटे के साथ मास्टर जी भी
सवार होकर बीएचयू पहुंचे। बड़े भइया की हालत और खराब हो चुकी थी। उन्हें
होश न था। चार जन उठाकर इमरजेंसी में पहुंचे। डाक्टर ने देखा तो साफ-साफ
इनकार कर दिया- ‘ब्रेन हेमरेज है। अस्सी परसेंट दिमाग बेकार हो चुका है।
आप कहो तो जिला अस्पताल को रेफर कर दूं। जितनी देर सांस चल रही है, बस उसे
ही ईश्वर की कृपा समझिए।'
बड़की भौजी तो धार-धार रोती रहीं। न
कुछ सुन पा रही थीं और न ही साहस था। मझली भौजी और उनके बेटे में कहां से
तो इतनी ताकत आ गयी थी कि वे लगातार दौड़ रहे थे। रास्ते में फोन करके
अपनी बेटी-दामाद को भी बुला लिये थे। उनका पूरा परिवार भाग-दौड़ कर रहा था।
दवा-दरपन से लेकर डाक्टर की चिरौरी तक इसी परिवार के जिम्मे। मास्टर जी
के भीतर तब भी घर का कलह खदबदा रहा था। वे बाहर खड़े रहे।
कर्तव्य-अकर्तव्य के द्वंद्व से जूझते हुए। हर बार तो यही होता है। कोई
भी मामला होता है, अमल समेत बड़की भौजी कितने कर्कसा और हिंसक हो जाते हैं।
विपत्ति आती है तो फिर चीखने लगते हैं। संकट खत्म तो किया-दिया भी साफ।
फिलहाल डाक्टर ने एडमिट करने से मना कर दिया। अमल को गांव से चलते
समय ही फोन कर दिया गया था, लेकिन दूर का रास्ता किसी अनहोनी की सूचना से
छोटा थोड़े ही हो जाता है। नौ बजे रात अमल पहुंचे थे। इंस्पेक्टर रैंक
जरूर थी, मगर हमेशा बोलेरो से ही आते-जाते थे। साथ में चार-पांच मुस्टंड
टाइप के लोग भी रहते थे। इन लोगों को वे इन्हीं मास्टर जी और मझले भइया
के परिवार वालों पर रौब गालिब करने के लिए लाते। अमल बोलेरो से उतरे तो
मास्टर जी या मझले काका को पालागी करना तक उचित न समझे। सीधे इमरजेंसी
कक्ष में धड़धड़ाते जा पहुंचे। आज उनके साथ ड्राइवर के अलावा कोई न था।
शायद सबको इकट्ठा करने का समय उन्हें न मिल पाया था। पिता को जमीन पर
बिछी चादर पर टूटती सांसों के साथ देखा तो आपा खो बैठे। दौड़कर इमरजेंसी
प्रभारी के पास पहुंचे, ‘ये क्या मजाक है? आप इन्हें एडमिट क्यों नहीं
करते? आपको पैसा ही चाहिए न? चलिए जितना मांगेंगे, उतना दूंगा, पर आप
इन्हें फौरन एडमिट कीजिए।'
डाक्टर तिलमिला गया। अमल को सर से पांव
तक घूरा। क्रोध जब्त करते हुए बोला-‘बात करने की तमीज रखो। कितना दे सकते
हो कि रुपये से तौलने आ पहुंचे। पेसेंट की हालत नियंत्रण से बाहर है।
एडमिट कर लेना पर्याप्त नहीं। बचेंगे नहीं, क्योंकि अस्सी परसेंट दिमाग
बेकार हो चुका है। भगवान का नाम लो। प्राथमिक इलाज चल रहा है। बच गये तो
ऊपर वाले की मर्जी। रही बात एडमिट करने की तो हमारे पास फिलहाल एक भी बेड
नहीं खाली है।'
अमल ने आपा खो दिया, ‘क्या समझते हैं मुझको।
सप्लाई आफिसर हूं, कोई झुग्गी-झोपड़ी का चित्थड़ नहीं कि यूं ही टरका
दोगे।' वे आप से अब तुम की ओर बढ़ रहे थे। डाक्टर चिढ़ गया और कोई तरजीह न
दी। आखिर में डांटकर भगा दिया।
मास्टर जी रात को ही लौट आये। कालेज में खास काम के बहाने।
गौरव तब जमशेदपुर में ही थे। दैनिक जागरण में सीनियर सब एडिटर। महाराष्ट्र वाली दीदी का सुबह के नौ बजे फोन आया-‘कुछ सुना तुमने?'
‘नहीं, क्या?'
‘बड़े
पिताजी को ब्रेन हेमरेज हो गया है। रात से ही बीएचयू की इमरजेंसी में जमीन
पर ही पड़े हैं। डाक्टर एडमिट ही नहीं कर रहा है। अमल परेशान हैं। अम्मा
वगैरह वही पर हैं। सबका रो-रोकर बुरा हाल है। लगता है कि बचेंगे नहीं। हो
सके तो उन्हें एडमिट करवा दो।'
गौरव काफी देर तक गुमसुम रहे। कितना फासला बन गया है। अपने घर में इतनी बड़ी घटना हो गयी और कोई सूचित करना तक जरूरी न समझा।
बड़े
पिता के रिश्ते की गरमाहट तो कभी महसूसी न थी। हमेशा उनका परिवार
प्रतिद्वंद्वी बना हमले करता रहा। कभी उनके दर्जन भर बच्चे एक साथ हमला कर
पेड़ उखाड़ देते तो कभी खपरैल पर पत्थर बरसाने लगते। अमल ने ही तो धोखे
से ऊंचे पत्थर से धक्का देकर गौरव को मारने की कोशिश की थी। पिताजी तक को
इन लोगों ने मारा-पीटा। मेरे विवाह के बाद सबसे पहले तो हमारे परिवार को
अछूत इन्हीं लोगों ने माना। इनकी कौन-कौन सी बातें तो मां ने नहीं बताई
हैं। छोड़ो इन बातों को। ये अवसर यह सब सोचने का नहीं। किसी पर विपत्ति
आये तो उसके अच्छे कार्यों को याद करना चाहिए। गौरव की हमेशा से यही आदत
रही है। इसी आधार पर वे हमेशा दुश्मन से भी दुश्मन व्यक्ति के लिए दौड़
पड़ते थे। कि उनके परिवार के सभी सदस्यों का ही यही हाल था। अमल से बात
किये अर्सा बीत चुका था, फिर भी उनसे फोन पर बात की। आज ठसक की बजाय अमल
पिघले से मालूम हुए। स्वर में गिड़गिड़ाहट थी। गौरव बेचैन हो गये। बड़े
पिता का 25 साल पुराना अक्श ताजा हो गया। और दिन होता तो एसटीडी काल से
डरते, पर आज मितव्ययिता ढेर हो गयी थी।
बनारस के मित्रों को
खंगालना शुरू किया। कोई शहर से बाहर तो कोई आफिस में। दैनिक जागरण के पवन
सिंह की याद आयी। उन्हें बीएचयू का ही बीट मिला था।
वे दफ्तर से
देर रात आये थे और अभी-अभी सो कर उठे थे। चाय पी रहे थे कि गौरव की काल
पहुंच गयी, ‘पवन भाई, मेरे बड़े पिता को बचा लीजिए। डाक्टर एडमिट नहीं कर
रहा। आज आप ही गौरव बन जाइए, प्लीज।'
घंटे भर बाद पवन का फोन आया,
‘भाई साहब, एडमिट करवा दिया हूं। आवश्यक दवाएं अभी लाकर दिया हूं और इलाज
शुरू हो गया है। आगे भगवान की मर्जी।'
हालांकि एडमिट हो जाने का
मतलब बड़े पिता का ठीक हो जाना न था, फिर भी गौरव को संतुष्टि थी कि चलो
बड़े बाप की खातिर कुछ तो कर पाया।
लेकिन होनी को कौन टाल सकता है,
शाम साढ़े चार बजे अमल के पिताजी चल बसे। मास्टर जी चिहुंक पड़े। एक
भयावह स्वप्न का मध्यांतर। कैसी तो विडंबना थी, उस वक्त। जिस बड़े भाई
की गोद में मचलते हुए बचपन की दहलीज पार की, उसके दुनिया से विदा होने पर
ठीक से शोक में भी शरीक न हो सका। भइया का प्यार हार गया, घर का कलह जीत
गया। मास्टर जी धर्म भीरुता और सामाजिक प्रभाव के कारण संस्कार कर्मों
में तो शामिल हो गये, पर तेरही में भोजन को जी न किया। दुधमुही का भात भी न
ग्रहण किया। अपने घर अलग से आलू उबलवाकर खाये। मझले भइया को भी तो
दुधमुंही के भात के लिए नहीं बुलाया गया। कैसे बुलाते, अछूत जो हो चुके थे।
अब बेटा गैर विरादरी की लड़की से विवाह कर लिया है, भले ही घर से उसका
नाता टूट गया हो, लेकिन है तो उन्हीं का रक्त। एक ही बीज के तीन जाये मौत
के समय भी किस तरह बिखर गये। बड़की भौजी दाह संस्कार से लौटीं तो मझली
भौजी को सुना गयीं, ‘अब वे तो चले गये, पर बहिन हमारे भी दस ठो बाल-बच्चे
हैं। उनका भी शादी-ब्याह करना है। इसलिए हमारा-तुम्हारा केवल पूड़ी का
संबंध रहेगा। तेरही में आ जाना सब लोग।'
मझले भइया ने सुना तो आंखें
छलक पड़ीं। कैसी औरत से ब्याह कर लाए भइया। और फिर उनका क्या दोष? आखिर
इस भिखारी की बेटी को मेरी ही पत्नी ने अपनी मां से भइया के लिए मांगा था।
विवाह के बाद आयी थी तो दहेज के रूप में इसके बक्शे में एक पाव मिर्ची भर
थी।
तेरही बीत गयी, पर दोनों में से किसी भाई का परिवार सरीक न
हुआ। हां, बाहर वाले न जान पायें। सारा काम दोनों जन के परिवारों ने मिलकर
कर-करा दिया।
रात के बारह बज गये हैं। मास्टर जी नींद के लिए
बेचैन हैं, पर मानस चलचित्र रुकने का नाम नहीं लेता। आज मड़हे में वे अकेले
ही हैं। पत्नी घर में ही सो गयी हैं। मसहरी में दुबके पड़े हैं, लेकिन
भीतर जैसे कोई खौफ है जो रह-रहकर किसी अज्ञात की आशंका में पसीने से नहला
दे रहा है। हाथ-पांव सुन्न हो गये हैं। कि तभी क्लाक् क्लाक् क्लाक्
की आवाज करता पखेरू एक छोर से दूसरे छोर का चक्कर लगाने लगा। मास्टर जी
चौंके, क्या था? फिर सन्नाटा घिर गया। कुछ ही पल बीते कि अचानक दुबान
पट्टी की ओर से किसी कुत्ते की रोने की आवाज आई- ‘ओं ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ।
फिर बभनपट्टी, चमरान, पसियान की तरफ के भी कुत्ते समवेत शुरू हो गये- ओं ऽ
ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ।
मास्टर जी सिहर गये, ‘हे नारायण, अब कौन अशुभ
होने वाला है?' उन्हें कुछ याद आया। उस रात भी तो ऐसा ही मंजर सामने
उपस्थित हुआ था। मझले भइया गोधूली में सिवान की ओर शौच करने गये। बीसेक
मिनट ही बीते थे कि चौहान बस्ती का लड़का भागता हुआ आया था- ‘चच्चा,
दउड़। पुजारी बड़का बाबू उही खेते में गिरा पड़ा हयेन।'
घर लोग
दौड़े। पुजारी भइया शौच कर चुके थे। खड़े होते समय या फिर शौच के समय ही
गिर गये थे। उसके बाद न उठे। लोग ही उठा कर दुआरे ले आये। गौरव को फोन
लगाया गया, नेटवर्क खराब। बात न हो पायी। छोटे ने इलाहाबाद से फोन किया, तब
कहीं जाकर गौरव को मालूम हुआ। अपने जिले में शिक्षक की नौकरी करते दो साल
हो गये थे, लेकिन उन्हें अखबार का चस्का न छूटा था। अमर उजाला में ही
बैठे थे, जब छोटे भाई ने यह खबर दी। होश उड़ गये। समझ न आता क्या करें।
डिप्रेशन की बीमारी ने याददास्त कमजोर कर दी है। साइकिल छोड़ पैदल चल
दिये। चौराहे पर एक मित्र से हजार रुपये उधार लिए, पर बाइक या कार लेना भूल
गये। मामा के लड़के की याद आयी। गिड़गिड़ाए, ‘भइया आप पास में हो। कोई
साधन लेकर जल्दी पहुंचो, हम अस्पताल में इंतजाम करते हैं।
चालीस
मिनट बाद पिताजी को लेकर सभी पहुंचे। डाक्टर सिंह ने पूरी जांच की। करीब
दो घंटे एडमिट रखे थे। सांस के स्थान पर हंकड़ा चल रहा था। मुंह खुला था।
लार रह-रह बह आती। मझली भौजी गौरव के कमरे पर ही थीं। उन्हें छिपाकर
बुलाया गया। देखती क्या हैं कि तप और देवत्व की प्रतिमूर्ति आज अक्रोध
बिस्तर पर ढहा पड़ा है। पति के चरणों पर गिर पड़ीं- ‘ये क्या कर दिये
गौरव के बापू। कल हमें जबर्दस्ती भेज दिये कि जाकर बेटे का सुख ले लो और
अपने दुनिया छोड़कर जाने की तैयारी कर ली। गौरव का मन-मस्तिष्क थरथरा रहा
है। घबराहट में जहां-तहां धम्म से बैठ जा रहे। बड़े पुत्र बबऊ मन के
पक्के थे। हिम्मत रखकर सबको संभाल रहे थे। तभी डाक्टर ने बुलाया। बोले-
‘देखिए, कारण साफ है, बे्रेन हेमरेज हुआ है। सूगर और रक्तचाप बहुत ज्यादा
हो चुका है। हमारे पास इलाज के संसाधन नहीं हैं, इसलिए बेहतर होगा कि
डाक्टर प्रसाद के अस्पताल में एडमिट कर दीजिए।'
सब भागे डा0
प्रसाद के यहां। उन्होंने नब्ज देखी और खामोश हो गये। घड़का वैसे ही चल
रहा था। कुछ देर बाद बोले- ‘मैं बाहर जा रहा हूं। आप लोग इन्हें जिला
अस्पताल ले जाइये। वहीं एडमिट कर दीजिए।'
गौरव को शंका हुई, ‘डाक्टर साहब, आप सचमुच बाहर जा रहे हैं या फिर कोई और बात है?'
इसका
उन्होंने कोई जवाब न दिया। पीछे मुड़ गये। गौरव घिघियाए ‘अगर कोई ज्यादा
सीरियस बात है तो हम इन्हें बीएचयू या फिर कहीं और ले जायें।'
इस
बार डाक्टर ने खुलकर समझाया- ‘ऐसा है कि इन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ है।
भगवान का नाम लीजिए, वही बचा सकेगा। बनारस पहुंचने में करीब तीन घंटे तो लग
ही जायेंगे। इतने में सूगर और ब्लड प्रेशर ज्यादा हो सकता है। अच्छा
होगा कि जिला अस्पताल ले जाइए। कुछ नियंत्रित हो जाये तो कहीं जाइए।'
गौरव
को यकीन हो गया कि पिता की आखिरी सांस है। वे टूट गये। मन से निकला,
‘पिताजी जिसे तुम अपनी ताकत मानते थे, देखो कैसे वह तुम्हारी मौत से हार
रहा है।' गौरव हमेशा से भावुक। किसी का खून रिसना भी देख लें तो चक्कर आ
जाये। आज तो जन्मदाता ही सिर से हाथ खींचे जा रहे। टूट गये और फिर जमीन पर
धम्म से बैठ गये। मित्रों ने समझाने की कोशिश की, पर मन कहां माने। मां
ने आंसू पोछ लिया। बबऊ ने अंकवार भर लिया-‘कुछ नहीं हुआ रे पगला। तू चल
अस्पताल, पिताजी ठीक हो जायेंगे।‘ मास्टर जी खंभे से छिपकर आंसू पोछ
लिये। फिर सामने आकर बिगड़ पड़े।
उस दिन संयोग ही था कि समाचार कवर
करने गये रिपोर्टरों की पूरी टीम बैठी थी। इसलिए इलाज में कोताही न हुई।
अन्यथा इस अस्पताल में लोग मरने के लिए ही आते हैं। गौरव की हिम्मत
चिकित्सा कक्ष के भीतर जाने की न होती थी। बाहर दीवार की टेक लिए लगातार
रो रहे थे। मास्टर जी भी आकर बगल में बैठ गये। करीब घंटे भर बाद डा0 आनंद
ने बताया कि सूगर डाउन हो गया है, ईश्वर चाहेगा तो बीपी भी नियंत्रित हो
जायेगी।
राहत वाली खबर सुन मास्टर जी को बोध हुआ। मझली भौजी ने
देवर का मुरझाया चेहरा देखा तो प्यार उमड़ आया। बोली, ‘बबुआ यहां रहकर आप
लोग क्या कीजिएगा। घर चले जाइए। अब तो भगवान ही नइया का खेवनहार है।'
रात
के ग्यारह बज गये। मित्र-परिचित और मुलाकाती एक-एक कर घरों को लौटने लगे।
पूरा वार्ड खाली हो गया। परिवार के छह-सात लोगों के अलावा कोई न बचा था।
गौरव को नींद की दवा खिला कर सुला दिया गया।
मास्टर जी को याद आता
है। दूसरे दिन सोमवार को सूरज की लाली फूट ही रही थी कि फोन आ गया। बबऊ ने
हिचकियों में बताया कि महराजगंज पहुंचने के पहले ही पिताजी ने संसार छोड़
दिया।' मास्टर जी के मुंह से उफ् निकला, ‘शायद सूर्योदय का इंतजार कर रहे
थे।
घर में कोहराम मच गया। पुजारी भइया का घर कांप उठा। मानो एक
तेज सन्न से आकाश की ओर उड़ गया हो और सुबह के उजाले में कच्चा दरबा
अंधेरे से घिर गया।
गांव में शोक का अपना तरीका होता है। बिना दुःख
के भी महिलाएं धार-धार रोती हैं। कि रोने का अभिनय करती हैं। पूरे लय में,
तुकों के साथ। पता ही नहीं लगता कि शोक का क्रंदन है या फिर कविता का
निर्माण।
मगर नहीं, मास्टर जी की आंखों से आंसू न निकले। एक हूक
थी, जो सीधे कलेजे में धंस गयी थी। उन्हें बचपन याद आया। दस साल बड़े मझले
भइया का वात्सल्य झांकने लगा। कितने रूप पसर गये आंखों के सामने- गोद
में लेकर खेलाते मझले भइया, कंधे पर बैठाकर आम के टिकोरे तोड़वाते भइया,
ससुराल से मिले पैसों को चुपके से पढ़ने के लिए पकड़ाते भइया, खेल में
पीटने वाले को लतियाते भइया, सिर पर लकड़ी का गठ्ठर लाद इलाहाबाद रूम पर
पहुंचाते भइया․․․․․․․․․․․․․पुजारी भइया,․․․․भइया․․․․। बहुत बाद में अलगौझी
के बाद भी आंख के आपरेशन में दिन-रात एक कर सेवा में तल्लीन मझले भइया की
छवि अधेड़ में भी गहरे वात्सल्य से भिंगोती-सी नजर आयी।
अरे,
अरे? मास्टर जी रो रहे हैं? न् नही, मास्टर जी रो नहीं रहे। फिर आंखों
की कोरों से ये आंसू कैसे ढुलक आये। उन्होंने झट से ऐसे पोछा कि कोई देख न
ले। आंखेें बंद कर ली। पूरी सांस खींची और उच्छ्वास छोड़े-‘हे नारायण,
मझले भइया, जहां हो उन्हें सांसारिकता से मुक्त रखना। वे संत थे, उन्हें
मुक्ति प्रदान करना।'
मास्टर जी अब इन पुरानी बातों को नहीं
सोचेंगे, उन्होंने तय कर लिया। आंख बंद किये और बायीं करवट लेट गये।
हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं। लेकिन, चालीसा में माई कहां से आ गयी? फिर वही
धारा?
माई आई है और सिर पर हाथ फेरते निहार रही है। कहती है, ‘तूं
ही अब इस खानदान का मुखिया। सबको सहेज कर रखना।' यह कौन है? बड़े भइया की
बड़ी बहू। लट बिखराये, चीख रही है-‘हमें गया दो, हमें गया दो।'
पांव के पैताने दादा कब से आ गये? अरे रुको तो क्या कह रहे हो सब?
एक शोर उठ रहा है- ‘हमें गया ले चलो। गया चलो․․․․․․․․․․․․․․․गया चलो․․․․․․․। अपने जीते जी हमें गया पहुंचा दो।'
अभी
उन्हें कोई जवाब देते कि खुद की बहू अधजली अवस्था में आकर चीख रही है,
‘ठीक है गुस्से में ही आग लगा ली, पर अब मेरे पर रहम करो। हमें मुक्ति
दो। नहीं तो․․․․․․․․।'
‘नहीं तो?'
‘घर भर को लड़ाते रहेंगे। मारते रहेंगे, कलपाते रहेंगे।'
मास्टर
जी अकबका गये। वे उठकर भागना चाहते हैं, पर कदम आगे नहीं बढ़ पाते। सामने
से सौ वर्षीया कोई बूढ़ी महिला लाठी टेकते चली आ रही है। कौन है यह?
मास्टर जी पहचानने की कोशिश करते हैं, ‘अरे यह तो आजी है।' सबसे पहले माई
ने पैर छुए। फिर एक-एक कर सभी ने आजी के पैरों पर सिर टिका दिये। हमारे
खानदान की आदि माता। मास्टर जी हतप्रभ हैं। आखिर आज कौन सी साइत है कि ये
सभी एक-एक कर जमा हो रहे हैं। वे पैर छूने को झुके ही थे कि चारों तरफ
चीखें ही चीखें- उनकी खुद की प्रसव के बाद ही दिवंगत हो चुकी बेटी, श्मशान
घाट से प्रवाहित धारा से निकलकर आते हुए दो बेटे, बड़े भाई का बेटा, मझले
भइया की बेटी, कक्का के परिवार के दर्जनों दिवंगत चेहरे, दादा के दादा,
दादा के पिता, काका- कैसे-कैसे चेहरे लिए कितने-कितने लोग जमा हो गये। एक
हरहराती आवाज लगातार गूंज रही है-‘हमें मुक्ति दो, हमें मुक्ति दो।'
मास्टर जी थर-थर कांप रहे हैं। सबको चुप कराना चाहते हैं, पर मुंह से आवाज
नहीं निकलती। एक बवंडर सा उठ रहा है। उसमें पत्तियों की मानिंद आत्माएं
उमड़-घुमड़ रही हैं। चीख रही हैं, रो रही हैं, अट्टहास कर रही हैं।
मास्टर जी पसीने-पसीने हो रहे हैं। अचानक उन्होंने अपने कान बंद कर लिए।
वे अब खुद चीख रहे हैं। लगातार चीख रहे हैं। कि आंख खुल गयी।
उन्होंने
देखा कि वे अकेले हैं। उनके आसपास कोई आत्मा नहीं है। पर, उनका मन इस सच
को मानने को तैयार नहीं। शरीर कांप रहा है। गुलाबी जाड़ा है, फिर भी पसीने
से रजाई भींगी हुई है। सीने की धड़कन साफ-साफ धड़कते हुए सुनाई पड़ रही है।
आंखों से नींद गायब हो गयी। पास में पड़ी मोबाइल पर नजर डाली तो चार बज
रहे थे। हाथ जोड़ लिए, हे नारायण रक्षा करना। सब शुभ-शुभ बीते। भोर का सपना
झूठा नहीं होता।
उस दिन वे भोर में ही नित्यक्रिया से निवृत्त
हो लिए। ठंड कंपा रही थी, इसलिए रजाई ओढ़कर माला फेरने लगे। कि सुबह का
इंतजार करते रहे।
उम्र के साथ मास्टर जी की जीवटता भी ढह गयी।
बड़े बेटे की बेकारी, दुर्ब्यवहार, बड़ी बहू का हादसा, कारावास की सजा,
नयी बहू का भी कर्कसा बर्ताव, बेटी का वैधव्य, छोटे बेटे का अनिश्चित
भविष्य- सबने मिलाकर उन्हें अंदर से तोड़ दिया है। छोटी सी बात पर भी
कैसे विचलित हो जाते हैं। आज तो रात में जो कुछ घटा है, वह दिमाग में हजार
बिजलियां फोड़ रहा है।
सूरज की लाली निकलते ही उन्होंने मझली,
बड़ी भौजी के साथ ही पत्नी को भी बुला भेजा। बड़े बेटे, बड़े भइया के सबसे
बड़े बेटे और बबऊ को पास में बैठा लिए। सब परेशान कि सबेरे ही सबेरे
इन्हें क्या हो गया है? मास्टर जी की चुप्पी सबको एक अज्ञात भय की ओर
खींचे जा रही है। फिर कुछ होने वाला है क्या? पुजारी जी भी तो ऐसे ही एक
दिन पहले सबको बैठाकर समझा रहे थे। अकबका कर मझली भौजी ने ही पूछा-‘क्या
हुआ बबुआ? इत्ते सबेरे सबको बुला लिये हो, तबियत तो ठीक है?'
मास्टर
जी ने बायें हाथ से दाहिने हाथ के सर्ट की बांह मोड़ी और सिर रगड़ते हुए
कुछ बोलने को हुए, फिर चुप हो गये। बड़की भौजी ने टोका, ‘बबुआ, कौनो बात हो
तो बता दो।' कहते हुए उनकी आंखों से आंसू निकल पड़े।
मास्टर जी ने रात के वाकये को सुनाना शुरू किया तो सबके रोंगटे खड़े हो गये। एक सिहरन सी दौड़ गयी।
मास्टर
जी ने आखिर में फैसला सुना दिया, ‘अब हमें गया जाना ही होगा। विज्ञान
क्या कहता है, इस पर सिर खपाने की जरूरत नहीं। तीन पीढ़ी से कोई गया नहीं
गया। आत्माएं भटक रही हैं, तो उन्हें मुक्ति दिलानी ही होगी।'
मझली भौजी ने समर्थन किया, ‘तभी तो बबुआ किसी का दिमाग ठिकाने नहीं रहता। हर कोई झगड़ा-मार में लगा रहता है।'
बड़की
भौजी ने भी समर्थन किया, ‘ठीकै कहती हो बहिन। तभी तो लडि़कन बीमार रहते
हैं। हमारे बच्चों को जो रतौंधी आती है तो शायद इसी कारन से।'
और
कोई अवसर होता तो मस्टराइन लाल हो जातीं, पर पितरों की शांति के मामले में
वे दखल न देंगी। तीनों भाइयों के तीनों बड़े बेटों ने भी मुहर लगा दी।
मास्टर जी को तसल्ली हो गयी।
सेवानिवृत्ति के बाद बमुश्किल से
बच पाये थोड़े से रुपयों को उन्होंने इमरजेंसी के लिए बचा रखा था। क्या
पता छोटे बेटे की नौकरी में ही जरूरत आ पड़े। इसीलिए घर की मरम्मत तक न
कराई। खपरैल मड़हा को बैठक नहीं बनवाया। लेकिन आज पितर मांग रहे हैं तो कुछ
सोच कर मांग रहे हैं। आखिर सारी संपत्ति तो उन्हीं की है। संपत्ति लिये
हैं तो शांति प्रदान करना भी उन्हीं का दायित्व बनता है।
मास्टर
जी बैंक चले गये। पचास हजार रुपये निकाल लाये। रास्ते में पंडित जी से
भागवत कथा की साइत भी तय कर लिया। भाइयों के बेटे से कुछ न मांगेंगे। कोई
सहयोग करना चाहता है तो मनाही नहीं।
2
सारा इंतजाम तो
मास्टर जी कर लिए थे, पर मकान छोटा पड़ रहा था। पचास लोग तो कम से कम कथा
में शामिल होंगे ही। तय हुआ कि अमल के हिस्से वाले मकान में ही कथा हो।
आखिर घर की नींव तो एक ही है। इससे दोनों घर पवित्र हो जायेंगे।
अपनी
शादी में अमल ने मास्टर जी को नहीं पूछा था। काहे कि मास्टर जी उनके
पिता की दुधमुही तक में शामिल न हुए थे। लेकिन अबकी जब मझली बहन का विवाह
हुआ तो मास्टर जी के ही हाथ सारा काम पूरा कराये। हां इसमें बबऊ के घर
वालों को शामिल न किया गया था। गौरव ने कुजात से विवाह किया है तो उनका
परिवार कहां शुद्ध रह गया। तभी तो गौरव के पिता की दुधमुही से लेकर तेरही
तक अमल का परिवार शामिल नहीं हुआ। एक बात और भी थी कि यदि बबऊ के परिवार को
शामिल करते तो छोटे दादा के परिवार के लोग नाराज हो जाते। पुजारी जी की
मौत में दसवें पर उनके परिवार ने बाल बनवाने तक से इनकार कर दिया था। और तो
और पंडितजी ने सारा क्रिया-कर्म कराया, लेकिन क्या मजाल कि एक भेली गुड़
भी खाकर पानी पिये हों। ऐसे में पूड़ी भात रखने की सोचना भी खतरे से खाली न
था।
मास्टर जी के सामने धर्मसंकट है। तब की बात दूसरी थी, लेकिन
गया में तो सारे पितर शामिल हैं। गोत्र, प्रवर, पिण्ड- सभी तो एक ही हैं।
एक भी पितर छूट गया तो बाद में परेशान करेगा। शास्त्र की बातों को जो लोग
अनदेखा करते हैं, उन्हें साक्षात् नरक मिलता है।
मास्टर जी ने
बबऊ को बुला भेजा। गांव में आजकल बबऊ बाबाजी के नाम से धीरे-धीरे विख्यात
हो रहे हैं। उन्होंने गाय के खुर के बराबर एक हाथ की लंबी चोटी बढ़ा ली
है। माथे पर बड़ा सा रोली का टिप्पा मारते हैं। कभी-कभी दुकान से ज्यादा
फुरसत रहती है तो त्रिपुण्ड भी लगाते हैं। घर-द्वार चप्पल की बजाय खड़ाऊ
पहनते हैं। नियम से शंख फूंककर ऊंची आवाज में रामरक्षा स्त्रोत्र का
उच्चारण करते हैं। पत्रा में साइत दिखाने के लिए गांव वाले अब उन्हीं के
पास आते हैं। मझली भौजी को भी ठीक लगता है कि चलो बाप के नक्शे कदम पर कोई
तो आगे बढ़ा। पिता के देहांत पर बबऊ ने लोगों की जुबान से इन्हीं गुणों
की तारीफें सुनी थी। सो, गुणों की इस थाती को उन्होंने धीरे-धीरे आखिरकार
सहेज ही लिया।
मास्टर जी ने पूजा का सारा इंतजाम बबऊ के हवाले कर
दिया। साथ ही यह भी समझा दिया कि अपनी मां, बहू, बेटी- सबको कथा में शामिल
होने के लिए बोल दें। बबऊ ने आज्ञाकारी बालक की तरह चाचा की बातें मान लीं।
अमल के बाहर वाले अहाते में ब्राह्मणपीठ और वेदी आदि का निर्माण
बबऊ ने ऐसा किया कि खुद पंडित जी हतप्रभ रह गये। कथा का समय दोपहर एक से
पांच बजे तक का रखा गया।
भागवत सप्ताह में ज्ञानी कथावाचक का तो
महत्व होता ही है, लेकिन यदि अपने पुरोहित परिवार से कोई कथा सुनाने की
सामर्थ्य रखता है तो सौ विद्वानों से भी श्रेष्ठ है। ऐसा मास्टर जी का
मानना है। इसीलिए पुरोहित परिवार के ही नवोदित पंडितों को उन्होंने इसका
जिम्मा सौंपा।
मास्टर जी ने पूरी पट्टीदारी को सबेरे ही सप्ताह
सुनने का न्योता दे दिया। दुबान पट्टी का जिम्मा बड़े बेटे को सौंपा।
उसका उधर से ज्यादा रब्त-जब्त रहता है।
एक बजते-बजते दुवार पर
गांव-घर के लोग जमा हो गये। अमल ने बड़ी सी दरी अहाते में बिछवा दी थी।
डाक्टर शंकराचार्य के सबसे करीबी शिष्य हैं। कभी किसी के यहां नहीं
उठते-बैठते। उनका मानना है कि सदगुरु की कृपा से उन्हें आत्मज्ञान हो
चुका है। गांव के लोग मूर्ख हैं, इसलिए उनसे बात नहीं करनी चाहिए।
पट्टीदारी में कोई कितना भी बड़ा पद पा जाये, उनकी निगाह में उनके बेटों
से छोटा ही होगा। वे अक्सर उच्छ्वास भरते हुए ‘शिवोऽहम्' कहते।
अध्यात्म विद्या की पराकाष्ठा का बोध। यह बोध इतना तारी हो चुका था कि
वे भले ही मेडिकल विभाग में कुष्ठ रोगों की दवा बांटने वाले लिपिक पद पर
कार्य करते हुए सेवानिवृत्त हुए, पर कभी अपने को लिपिक न माने। पूरा गांव
उन्हें डाक्टर ही जानता था। यह ‘डाक्टर' शब्द ‘शिवोऽहम्' जैसा ही
उच्चीकृत था। अस्पताल की दवाएं लाते, इंजेक्शन लगाते, मरहम-पट्टी करते
डाक्टर साहब क्षेत्र में विख्यात हो गये थे। पूरे जीवन में उनके इलाज से
तीन-चार लोग ही इस संसार से विदा हुए। बाकी सभी सलामत हैं। डाक्टर साहब की
अनपढ़ बीबी ने भी पति से चिकित्सा की विद्या ग्रहण कर ली थी। उनकी
अनुपस्थिति में वहीं दवाएं देतीं। डाक्टर साहब ने अपने लिए पण्डित जी के
पास सटा हुआ आसन चुन लिया।
डाक्टर साहब के एक भाई सुपारी नाथ
हैं। काफी पढ़े-लिखे आदमी हैं, किन्तु आजकल घर में उनकी अहमियत लेड़ार
कुक्कुर से ज्यादा की नहीं है। इसलिए सुबह की चाय और शाम का नास्ता
मास्टर जी के ही यहां लेते हैं। नाम के मुताबिक सुपारीनाथ की काठी भी
गोल-मटोल। हां कोई बातों से उन्हें कभी नहीं कुतर सकता। वे सब को कुतरते
रहते हैं। इसलिए गांव के छोकरे उन्हें अब सरौतानाथ कहने लगे हैं। बीडीओ
साहब ने उन्हें अपने बगल में बिठाया।
बीडीओ साहब पता नहीं कैसे
पूरी नौकरी कर गये। न बातों से और न व्यवहार में ही अफसरी के गुण दिखते।
एक बेटा सीनियर इनकम टैक्स कमिश्नर है, दूसरा बिल्डर, तीसरा रिलायंस
इंडस्ट्री में डिप्टी डायरेक्टर और चौथा कनाडा के एक यूनिवर्सिटी में
प्रोफेसर। तीन-तीन पौत्र-पौत्रियां विदेश में बड़ी कंपनियों में सेवारत
हैं। लेकिन किसी ने कभी उन्हें कार-वार से आते न देखा। हमेशा पैदल ही
रास्ता नापते घर से शहर और शहर से घर। खुद अस्सी साल के हो चुके हैं, पर
एक सौ पांच वर्षीय पिता की सेवा नौकर के जिम्मे नहीं छोड़ते। मैला साफ
करना हो या फिर पांव दबाना, वे खुद ही करते हैं। कथा में उनके होने का कोई
विशेष मतलब लोगों के लिए नहीं था।
कथा शुरू हो गयी। पचासेक महिलाएं
और इतने ही पुरुष जमा थे। एक अध्याय पूरा हुआ। बबऊ ने शंख पर फूंक मारी
तो दो मिनट तक मारते ही रहे। लगा कि अर्जुन ने कुरुक्षेत्र में युद्ध का
जयघोष किया हो। घंटे भर बीत चुके थे। महिलाएं ऊब रही थीं। किसी ने घूंघट
उठाया और आसपास का मुआयना कर लिया। बगल में बैठी जेठानी से कुछ बतियाने
लगी। बातों का सिलसिला पहले महिला मंडल से शुरू हुआ। एक-एक कर इधर का कथा
पुराण बदल गया। उधर पंडित की भागवत कथा और इधर महिलाओं का चूल्हा-चौकी
पुराण। पुरुषों में कुछ लोग ऊंघने लगे तो किसी ने सुर्ती मसल कर नींद
तोड़ने की कोशिश की। बच्चों की धमाचौकड़ी अपनी तरह शुरू हो गयी। लेकिन
डाक्टर साहब, बीडिओ साहब समेत दर्जन भर लोग अभी भी हाथ जोड़ें आंख बंद
किये कथा सुन रहे हैं। सुन रहे हैं कि बंद आंखों में निद्रालाभ ले रहे हैं,
कौन जाने।
हर अध्याय पर शंख बजने के साथ कुछ देर के लिए श्रोता
सावधान हो जाते। सबके हाथ खुद जुड़ जाते। महिलाएं अपने-अपने हिसाब से
मन्नत मांग लेतीं। अमल की अम्मा ने जुड़ा हुआ हाथ माथे लगा लिया-‘जै
भागवत महराज, हमारे भइया लोगन का रन-बन में रच्छा करना। जिसका चाहो आप
बनाओ, जिसका चाहो आप बिगाड़ों।'
देखा-देखी हर महिला ने अपने-अपने
प्रियजनों के कुशल-क्षेम की कामना की। मझली भौजी ने तो जमीन पर मत्था ही
टेक दिया। मलिया फुआ की आंखों से तो धार ही बही जा रही है। कमली फुआ को
सुनाई नहीं पड़ता, इसलिए वह टुकुर-टुकुर बस देखे जा रही है। सबने माथ
झुकाया तो उसने भी जमींन पर मत्था टेक दिया। साल भर पहले ही तो उसके बेटे
की ट्रेन से कटकर मौत हुई थी। तभी से वह और भी ज्यादा पत्थर हो गयी है।
बबऊ
का पूरा परिवार बढ़-चढ़कर भागवत महाराज की कथा में शामिल हुआ है। बबऊ की
पत्नी सास के साथ पहले ही कथा में जाकर विराज जातीं। बबऊ की अम्मा उर्फ
मझली भौजी पुजारी जी की पत्नी हैं। उनके मायके के लोग बड़े धार्मिक हैं।
सभी भाई बड़ी चुटिया और त्रिपुण्डधारी हैं। पति से उन्होंने बड़े
नेम-धर्म-कर्म सीखे हैं। तीर्थ-व्रतों में गांव की महिलाओं की नेता वही
होतीं। उन्हीं के गुरु जो पहले मात्र संन्यासी थे और बाद में एक पीठ
बनाकर शंकराचार्य हो गये, के चलते इस गांव में आये थे। पहले तो पूरे गांव
वालों ने इसका विरोध किया था, पर धीरे-धीरे सभी उनके भक्त बन गये। तीज का
व्रत हो या ललही छठ की कथा, सुनाने का जिम्मा बबऊ की अम्मा का। भागवत कथा
में पंडित के कथा सुनाने के बाद महिलाओं को अलग से व्याख्या सुनातीं।
भागवत महराज के प्रताप का बखान करतीं।
यहां सब हैं। पट्टीदारी से लगायत गांव के लोग जमा हो रहे हैं और गौरव ने झांका तक नहीं। यह बात उन्हें कचोटती है।
शाम को उन्होंने फोन किया-‘बेटवा, चच्चा गया जायेंगे। भागवत सप्ताह हो रहा है। एक दिन आकर शामिल तो हो जाओ।'
गौरव
ने टका सा जवाब दे दिया-‘अम्मा, तुम्हीं जाओ। तुमको तो कुछ याद नहीं
रहता। मरनी-करनी, शादी-ब्याह में तो कभी बुलाया नहीं गया। आज उन्हीं अमल
के घर में सप्ताह चल रहा है और पूरा परिवार मान-सम्मान ताक पर रखकर घर
में घुसे जा रही हो।'
‘अरे पुरखा-पुरनियों का मामला है। ऐसे नहीं बोलते।'
‘अम्मा, असली गुनहगार तो हम्हीं हैं। कहीं मुझ अछूत के आने से पितर गया जाने से इनकार कर दिये तो?'
‘गौरव,
हम तो इतना जानते हैं बेटा कि अपना करम करते चलें। अच्छा, तुमसे एक सलाह
करनी थीं। चच्चा गया जायेंगे तो कुछ तो मदद करनी ही पड़ेगी न?'
‘काहे की मदद? कोई अपने पितरों को गया पहुंचाने जा रहा है तो हम काहे की मदद करें?'
‘तुम्हारे पितर नहीं हैं?'
‘न्न
नहीं। हमें तो इसमें कोई विश्वास नहीं। हम तो यही जानते हैं कि हिन्दू
धर्म में जो मरता है, उसको दूसरी देह मिल जाती है। अब मास्टरजी को लग रहा
है कि उनके जितने पितर मरे हैं, सब भूत-प्रेत हो गये हैं तो वे ही उन्हें
गया पहुंचाकर मुक्त करायें। हमारी जान में तो सभी लोग कहीं न कहीं जन्म
ले चुके होंगे। बल्कि कई बार जन्म लेकर मर चुके होंगे।'
मझली भौजी
का मन कसैला हो आया। बच्चे चार अच्छर पढ़ क्या लेते हैं, धर्म-कर्म को
ही लतियाने लगते हैं। क्या भागवत में सब झूठ लिखा है? पंडित क्या झूठ
बोलते हैं?
शाम को बबऊ का फोन। लेकिन यह क्या, इस पर तो चाची बोल
रही हैं-‘ए भइया गौरव हो। कथा सुन रही हूं। सोमवार को पूरी हो जायेगी। मंगल
को हम गया जायेंगे। विदा करने सबको लेकर आ जाना। चाची की बात भूल तो नहीं
जाओगे। कहो तो चच्चा से ही कहलवाऊं।'
गौरव ने टालने की गरज से कहा, ‘अरे नहीं रे चाची, आ जाऊंगा। तुम्हारा सम्मान तो चच्चा से बढ़कर है।'
अभी
आध ही घंटे बीते होंगे कि फिर एक बार बबऊ के मोबाइल से काल हुई-‘ए बबवा
गौरव हो, गया जाना है। सप्ताह चल रहा है। मंगल को जरूर चले आना। और सुनो,
अपने कालेज के शिक्षकों और प्रमुख जी वगैरह सबको बोल देना। और हां, हो सके
तो अखबार में भी इसका समाचार दे देना।'
गौरव ने चच्चा को निराश
नहीं किया, ‘ठीक है, बोल देंगे और हम आ भी जायेंगे। बोर्ड की परीक्षा चल
रही है, इसलिए व्यस्त हूं। लेकिन मंगलवार को आपको विदा करने जरूर
जाऊंगा।'
मंगलवार की भोर अचानक एक विस्फोटक चीख-पुकार-ललकार हवा
में तैरने लगी। सोते हुए लोग हड़बड़ाकर जाग गये। सब उसी ओर दौड़े। पता चला
कि डीआईजी के सिरे दादा आ गये हैं। बेडौल काली काया प्रेतबाधा में फूल-पिचक
रही है। नथुनों से एक गुर्राहट घड़घड़ा जाती। बच्चे डर के मारे घिघिया
रहे हैं। ये मास्टरजी के बड़े भाई की पहली पत्नी के बड़े बेटे हैं। कहते
हैं कि इनके दादा और बीडियो साहब के पिता में लाग-डाट थी। दोनों को एक माह
के अंतराल में पोते हुए तो बीडिओ साहब के बेटे का नाम उसके दादा ने दरोगा
रख दिया। उस जमाने में यह पद काफी ऊंचा माना जाता था। मास्टर जी के पिता
कचहरीबाज थे। उन्होंने नहले पर दहला मारा। पोते का नाम डीआईजी रखा।
दोनों
बच्चों के उम्दा पोषण में भी लाग-डाट थी। दरोगा की मालिस एक बार होती तो
डीआईजी की तीन बार। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। दरोगा बाद में इनकम
टैक्स कमिश्नर बन गये और डीआईजी भइया हाईस्कूल में पांच साल फेल होने के
बाद कचहरी में मुहर्रिर का काम करने लगे।
डीआईजी भइया कलाकार आदमी
हैं। कहते हैं कि वे अर्द्धनारीश्वर हैं। शादी-ब्याह में महिलाएं गीत
ठीक से न गा पातीं तो डीआईजी भइया उनके बीच बैठकर विवाह, बंदा, सोहर, कजली,
उठान, चौका गीत आदि जिस लय में सुनाते, वे दंग रह जातीं। महिलाओं का कपड़ा
पहनकर नाचने भी लगते। वे कब किसी से नाराज हो जायेंगे और कब प्रसन्न, कुछ
ठीक नहीं। नाराज होने पर ठेठ गंवार महिलाओं की तरह हाथ नचा-नचा, लुंगी
उठा, गा-गाकर कजिया करते। उनके दुष्प्रचार चैनल ने बड़े-बड़े सद्चरित्रों
को मुंह दिखाने लायक तक न छोड़ा था। वे एक साथ नेता, धार्मिक, कलाकार,
अभिनेता, पंडित, कानून के ज्ञाता, महिला-पुरुष सब हैं।
भूतों-प्रेतों
के साथ उनकी पुरानी संगति है। उनकी पत्नी जब तक जीवित रहीं, हबुआती रहीं।
घर के लोग जब इसे नौटंकी करार देते तो उसे सही साबित करने के लिए डीआईजी
भइया अपने सिरे भूत-प्रेत बुला लेते।
एक बार पाही पर रात के समय
कुलगुरु आये। तब भौजी वही थी। उन्होंने अपने शिष्य की इस समस्या का
समाधान करना चाहा। जंगल के बीच बसे इस गांव में रात वैसे ही भयावह होती है।
वहां के पुराने जमींदार परिवार के लोग भी बुलाये गये। गांव के डीह का
पुजारी भी आया। जाति का कोल था। डीआईजी भइया किसी बात को लेकर उससे चिढ़े
थे। भौजी हबुआने लगीं तो ओझा ने भी झाड़-फूंक शुरू की। काफी जद्दोजहद के
बाद उसने बताया कि सारे भूत घर के ही हैं। आगे की योजना बनी और सभा समाप्त
होने लगी। कि अचानक क्या हो गया। डीआईजी भइया के सिरे बरम आ गये। बरम नाच
रहे हैं। मोटी काया में बरम करीब पांच मिनट तक ऐसे डिस्को डांस किये कि
हर कोई थरथरा गया। अचानक बरम ने ओझा की पीठ पर दो लात धर दिया। किसकी
हिम्मत जो बरम को रोके। फिर तो तड़ाक्-तड़ाक् थप्पड़ और घूंसा भी।
गर्मी का समय था। ओझा की पीठ और गाल तमाचे से लाल हो गये। वह भी खांटी गबरू
जवान। पीठ की चौड़ाई पूरे डेढ़ हाथ। सो उसे बचाने के लिए गांव के डीह
बखतबली की सवारी आ गयी। उसने बरम की गांती में हाथ डालकर गद्द से पटक
दिया। चढ़ बैठा सीने पर। लगा बरम का सीना, गाल पीटने। बरम नीचे, डीह बाबा
ऊपर। अब बरम चिल्ला रहे हैं-‘छोड़ दे रे डीह। मैं समझ गया। अब जा रहा हूं।
तुमसे नहीं लड़ पाऊंगा।'
लेकिन डीह का गुस्सा जल्दी थमता है
क्या? बरम चले गये। डीआईजी भइया सुस्त पड़े हैं। डीह अभी भी उनके गालों
का भुर्ता बना रहा है।
जमींदार ने हाथ जोड़ लिए, ‘हो गया डीह बाबा। मैं गांव का जमींदार आपसे बिनती करता हूं इसे छोड़ दीजिए।'
डीह
फुंफकारने लगे। नथुने फड़क रहे हैं। कभी दायें तो कभी बाएं ताक रहे हैं।
गुस्सा रोके नहीं रुक रहा। तीन-चार हाथ अपने कलेजे पर पीटे और उठ खड़े
हुए। डीआईजी भइया की अंटकी सांस वापस आयी।
डीह ने किलकारी मारी-‘बोल द उडि़या कुदान बाबा की।'
‘जै'। सबने भयाक्रांत जैकारी की। डीह बाबा चले गये।
डीआईजी
भइया को आज भी सवारी आयी है। किसी से झगड़ा हुआ हो, कोई बंटवारा कराना हो,
हिस्सा लेनी हो, सवारी आ जाती है। आज दादा आये हैं।
मलिया फुआ
दिल की छुलछुल। दौड़ पड़ी। देखते ही दादा रोने लगे। रोते-रोते चले गये। अब
दादा के भाई की सवारी आ गयी, ‘परधनवा को बुलाओ। अभी जिन्दा है। हमारा जनेऊ
क्यों नहीं कराया। उसका सर्वनाश कर दूंगा।'
मलिया फुआ समझाने को आगे बढ़ी कि चाट्ट, चाट्ट दो तमाचे गाल पर पड़ गये। मलिया फुआ भागी।
सौतेली
मां समझाने पहुंची तो दादा के भाई ने जोर से धक्का दिया। बिचारी चार फुट
दूर जा गिरीं। घर में भय बरसने लगा। छोटे बच्चे चीख रहे हैं।
मझली
भौजी को भी खबर लगी, पर वे नहीं आयीं। उन्हें पता था कि समझाने पर
लात-घूंसा मिल सकता है। मास्टर जी ने कहा, ‘लेड़ार फिर काम बिगाड़ने पर
आमादा हो गया है।'
मास्टर जी ने लेड़ार शब्द तार्किक ढंग से
पर्याप्त विचार के बाद डीआईजी के नाम के लिए चुना है। इलाहाबाद से लौटते
समय एक बार उन्होंने गौरव से इसकी व्याख्या की थी-‘लेड़ार कुत्ता का
मतलब है कि जो न भूंके न काटे, बस घर में चोरी से घुस कर खाये और दुआर पर
केवल लेड़ करे।'
डीआईजी भइया उर्फ लेड़ार पर सुबह के छह बजे तक
सवारियां आती रहीं। दो-तीन घंटे की कड़ी मशक्कत के कारण देह थक चुकी थी।
सो जमीन पर ही सुस्त हो कर गिर पड़े। कोई मनाने न रुका। आध घंटे के बाद
खुद ही उठे और लोटा लेकर दिशा-फारिग चल दिये।
सारी असहमतियों के
बाद भी गौरव घर आने के लिए बाध्य थे। इसलिए नहीं कि पितरों के प्रति
श्रद्धा थी, बल्कि इसलिए कि मास्टर जी ने पिता के निधन और छोटे भाई के
विवाह में अपनी जिम्मेदारी का भरपूर परिचय दिया था। यदि उन्होंने अतीत
भुलाने की कोशिश की तो गौरव को भी वर्तमान का सम्मान करना चाहिए। मास्टर
जी के साथ नये सरोकार के पीछे भी गौरव का ही व्यक्तित्व और उनके द्वारा
दिया जाने वाला सम्मान था। इसलिए भी कि दोनों लोग एक ही पेशे से ताल्लुक
रखते थे। और कहीं न कहीं मास्टर जी अमल के रिश्वतखोरी वाले पैसे के आतंकी
घनत्व से गौरव के प्रति एक जबर्दस्त आत्मीयता और सम्मान का अनुभव करते
हैं। न आते तो मास्टर जी का अंतर आहत होता।
हालांकि मस्टराइन कल
तक गौरव की बीवी के हाथ का छुआ पानी न पीती थीं, लेकिन पिछली बार अपने से
मांग कर चाय पीयीं। गौरव की बीवी का इससे मलाल कम न हुआ। कहा, ‘सरे आम जूता
मारने के बाद सहलाना किस न्याय की श्रेणी में आता है?' फिर भी पति के
समझाने पर आ ही गयीं।
श्राद्ध की क्रिया अमल के घर की बजाय आंगन
में मास्टर जी के अपने हिस्से में आयोजित की गयी। श्राद्ध पूरा हुआ।
मास्टर जी का मुंडन हुआ। साथ में डीआईजी भइया ने भी बाल छिला लिया। यह
क्यों? अरे वे भी तो जायेंगे। पैसा नहीं था, नहीं तो मास्टर जी से पहले
ही गया चले जाते।
सुपारी नाथ, छोटे कक्का, सुन्नर, गुलरी काकी,
मलिया फुआ, कमली फुआ, बड़की फुआ, जलीला बहिन, मोटकी माई, परधान की तीनों
बेटियां, चारों बहुएं, दो बेटे- सभी तो आ गये। यह क्या अमर, बड़क,
गोल्डिया, लोदी आदि के परिवार के लोग भी आ रहे हैं। इनसे तो खाब-दान सब
बंद हो चुका था। फिर भी आ रहे हैं?
मझली भौजी ने बेटे को समझाया, ‘खाब-दान एक तरफ, लेकिन पितर तो सबके एक ही हैं। उनसे काहे की रार।'
बाजे
वाले पेड़ के नीचे बैठे थे। सुपारी नाथ उन्हें देखते ही कुतरने लगे,
‘कितने तरह का व्यापार करते हो भाई तुम लोग? कभी भूसा बेचते हो तो कभी
सब्जी, कभी जनरेटर तो कभी बाजा बजाने लगते हो।
․․․․․․․․․․ऐं․․․․․․․․․․․अच्छा-अच्छा। कितने लोग हो?'
‘तीन लोग बाबू। दाम भी तो कायदे से मिले?'
‘अरे तो अइसै दाम नहीं मिलता। बाजा बजाने आये हो कि आराम फरमाने? दाम लेना है तो बजाना शुरू कर दो।'
बाजे वाले शुरू हो गये। बाजे की धुन से घर-घर टहोका हो गया, ‘चलो रे चलो, अब मास्टर निकलने वाले हैं।'
देखते
ही देखते सैकड़ों लोग जमा हो गये। बहुएं ऐसी बन-ठनकर निकलीं कि बारात विदा
करने जा रही हों। बूढि़यों ने भी आज ब्लाउज पहन रखा था। बच्चों को
पहनावे की फिक्र न थी। चारो ओर अफरा-तफरी, सुझाव-सलाह।
परधान की
बड़ी बेटी ने गौरव का हाथ पकड़कर खींचा, ‘अरे पगला, घरों में जाकर तेज से
चिल्ला कि चलो फलाने बब्बा गया, चलो फलाने आजी गया।'
मझली भौजी चीखीं, ‘अरे अमल खड़े हो? दुआरे जाकर जोर-जोर पितरों को बुलाओ। कहो कि गया चलें।'
अरे
दया बब्बा को क्या हो गया? क्या बताना चाहते हैं? शोर-गुल में उनकी बात
ही नही समझ में आ रही। लंबू पर निगाह पड़ी तो पकड़ लिए, ‘सारे पितरों का
नाम लेकर बुलाता क्यों नहीं?'
‘हमें तो पितरों के नाम मालूम नहीं। आपै बताओ किसको-किसको बुलाऊ?'
दया
बब्बा खिसिया गये, ‘अरे का बतायें, पुजारी होते तो सात पीढ़ी तक का नाम
भर्राटा लेकर बुलाते।' फिर कुछ सोच कर बोले, ‘एक काम करो, ‘पितर लोग गया
चलिए, पितर लोग गया चलिए' बुलाओ। जो लोग भी होंगे, खुद चल देंगे।'
लंबू जोर-जोर चिल्ला रहे हैं, ‘पितर लोग गया चलिए। पितर लोग गया चलिए।'
पितर
कहीं दिख नहीं रहे। सबको भरोसा है कि पितरों की आत्माएं भटक रही हैं। वे
कहीं न कहीं से उन्हें सुन रही हैं। किसी को ये आत्माएं आज डरावनी नहीं
लग रहीं। एक अनजानी श्रद्धा अनजाने चेहरोें, नामों के साथ जुड़ी जा रही है।
महिलाओं की आंख से तो आंसू निकले जा रहे हैं। जलीला बहिन को क्या हो गया?
हचक-हचक कर रो रही हैं। अपनी भौजी, पिताजी, बब्बा, आजी को पुकार रही हैं।
परेशान हैं कि कहीं ये लोग छूट न जायें। बचपन में इन्हीं लोगों ने तो मां
के मरने के बाद पाला-पोसा। आज जिन्दा होते तो ये डीआईजी भइया ऐसी दुर्गति
करते? सौतेली मां के चलते तो मायका ही नोहर (दुर्लभ) हो गया है।
आगे
से हटो, हटो। मास्टर हर घर में अक्षत डालेंगे। अपने और अमल के कोने-अंतरे
तक अक्षत छिड़क आये हैं। अब बबऊ के घर की ओर जा रहे हैं। नया घर है, क्या
पता कोई पितर डेरा डाल दिया हो। बाकी बनने के बाद तो इसमें कोई मरा नहीं?
अरे मरने के बाद ही थोड़े कोई डेरा जमाता है। आत्माएं तो कहीं जम सकती
हैं। जहां उन्हें अच्छा लगे।
मास्टर आज कैसे तो लग रहे हैं। हर
कोई उन्हें ही निहार रहा है। सच्ची उनके भीतर पितरों का वास हो गया है।
चेहरा कैसा तो दमक रहा है। घुटा हुआ सिर, गेरुआ रंग का कुर्ता और गेरुई
धोती। कंधे पर दंड और अंचला। पूरे संन्यासी लग रहे हैं। मस्टराइन भी पूरी
भक्तिन लगती हैं। डीआईजी भइया तो पूरे भोदू महंथ लग रहे हैं। कमर के ऊपर
का हिस्सा इतना भारी है कि वजन से जैसे पैर डायल हो गये हों। साइकिल के
डायल पहिया की तरह पटेंग मारते हुए चल रहे हैं। एक साल पहले तक उनका एक
कुत्ता था। उसका भी पैर डीआईजी भइया की ही तरह था। दोनों जन साथ चलते तो
खुद पता चल जाता कि एक ही फैक्ट्री के उत्पाद हैं।
अमल का भाई
लखनऊ में पढ़ता है। इसी कार्यक्रम में शामिल होने आया है। शक्ल-सूरत में
किसी हीरो से कम नहीं, पर भगवान ने आंखों की रौनक छीन ली है। ताकता है पूरब
तो मालूम होता है पश्चिम। पूरे पैंतीस साल का हो गया, पर कहीं क्लर्की
की भी परीक्षा नहीं पास कर पाया। हां, गुटखे की ऐसी लत लग गयी है कि दो-दो
पुडि़या एक-एक बार में फांक जाता है। गुस्से में भुता जाये तो यमराज को भी
मार डाले। आज भुता गया है जैकारी लगाने में। ‘बोलो बल्लीवीर महराज कीऽ'
हुजूम चिल्लाया- ‘जैऽऽऽऽ'।
‘सत्ती मइया कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
अकेलवा महरानी कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
गड़इया माई कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
बघउत वीर कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
नारसिंह भैरो बाबा कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
ठाकुर महराज कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
शंकर भगवान कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
आगे-आगे
गया यात्री, पीछे बाजे वाले। गड़गड़ ग्ड़ाम् ग्ड़ाम्। तड़ई के तड़ धिन
तड़ई के तड़ धिन, बीली के लगभग। तड़ई के तड़धिन, बीली के लगभग।
किड़-किड़-किड़ ग्ड़ाम् ग्ड़ाम्।
बोलिए बजरंग बली कीऽ'
‘जैऽऽऽऽ'।
बाजे
के साथ भीड़ के जैकारे की संगति। रबीश्वर ने इस मौके को भी मौज का साधन
बना लिया। आधे घंटे के भीतर चार गुटखा खा चुके है। मुंह में कुल्ली भरे
हुए ही सिर आकाश की ओर उठाकर बोलते है-‘ग्यै'।
गांव का एक गया
विशेषज्ञ खुद आ गया है। लाल पताका कहां लगेगा, उसे ही पता। हर पट्टीदार के
दुवार पर हुजूम जाकर बाजे की धुन के साथ जैकारी लगाता है। कुत्ते परेशान।
इतना बड़ा हुजूम आखिर उनके मालिक के घर क्यों धमक रहा है? कोई गड़बड़ तो
नहीं? वे लगातार भूंक रहे हैं। उनका भूंकना बाजे की धुन के साथ मिलकर
गड्डमगड्ड हो जा रहा है। जैकारी सरीखा ही।
मास्टर जी आज किसी के
भाई नहीं, चाचा नहीं, पिता-पति, दादा नहीं। आज वे केवल पितर हैं। घरों में
बेरोक-टोक घुसते हैं और अक्षत फेंकते हुए निकल आते हैं। हुजूम फिर चल
पड़ता है। जिस घर में अक्षत फेंका, घर के सारे सदस्य भी साथ हो लिए। शाम
के छह बज गये। गौरव मास्टर जी के ठीक पीछे-पीछे चल रहे हैं। पलटकर देखे तो
देखते ही रह गये। पांच सौ से कम लोग न थे। जबकि दो तिहाई लोग परदेश में
रहते हैं। सब पट्टीदार एक जगह एकत्र हो जायें तो खिलाने भर को भी न
अंटेगा।
अब गांव गोठा जायेगा। डीआईजी भइया के हाथ में धार (हल्दी
आदि से बना टोटके के लिए घोल, जिसे गांव की बार्डर लाइन पर धारा बनाते हुए
छोड़ना अनिवार्य है।) लेकर पीली लाइन बनाने लगे हैं। सरहद का मोड़ आने पर
लाल पताका गाड़ दी जा रही है। देवथान पहुंचने पर हुजूम जैकारी करता रहता है
और गया यात्री उनकी पूजा करते हैं।
बाप रे गांव गोठने में पूरे तीन घंटे लग गये। सूरज डूबने को आया। अब क्या होगा?
बबऊ ने कान के पास मुंह सटाकर पूछा, ‘गौरव तुम्हारे पास कित्ते रुपये हैं?'
‘ऐं, क्या होगा?'
‘अरे विदाई के समय देना तो पड़ेगा न?'
‘अच्छा। हमें पता न था।'
पाकेट छानने के बाद कुल 180 रुपये मिले। बीस-बीस की दो बाकी सब दस की नोटें मिलीं।
बबऊ संतुष्ट हुए, चलो सारा का सारा फुटकल है।
मझली
भौजी भी पैसे के लिए पूछ रही हैं। बबऊ के कहे अनुसार गौरव ने सारे पैसे
मां, पत्नी, भाभी, भइया को बांट दिये। खुद के लिए 70 रुपये निकाल लिये।
अब
खानदान के लोग गया यात्रियों के पैर छू रहे हैं। दस, बीस, पचास, सौ की
नोटें हाथों में पकड़ाते हुए पितर के पैरों पर सिर टेक दे रहे हैं सब।
‘रुको-रुको, पहले नयी बहुओं को छूने दो।' लोदी काका समझा रहे हैं।
गौरव
परेशान हैं। अम्मा ने पहले ही कहा था कि हजार-दो हजार तो लग ही जायेगा।
चले आये खाली टेट। दूर के पट्टीदार जब सौ-सौ की नोटें थमा रहे हैं तो घर
वालों को उससे भी ज्यादा करना चाहिए न!
पत्नी के पास दौड़े, ‘तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं?'
‘हां, हैं न। कितना चाहिए।
‘तुम कितना रक्खी हो?'
‘यही कोई बारह सौ होंगे।'
‘अच्छा तो एक काम करो कि मास्टर जी को पांच सौ और चाची को एक सौ देकर पांव छू लो।'
पत्नी ने मास्टर जी के हाथ में पांच सौ के नोट रखे तो उन्होंने सिर पर हाथ रख दिया, ‘सदा सुहागन रहो।'
चाची
का आज पहली बार पांव छूने झुकीं। इसलिए उसने सास से साफ कह दिया था, ‘पांव
नहीं छूऊंगी, क्योंकि उनका पांव भी अपवित्र हो जायेगा।' लेकिन नहीं, आज
हठ का दिन नहीं। गौरव की बहू समझती है। सौ की नोट हाथ में रख पैर छू लिए।
चाची निहाल। आशीर्वाद को मुंह क्या खुला, एक धारा ही बह गयी, ‘दूधो नहाओ,
पूतो फलो' ‘अमर रहो बेटा, भगवान तुम्हारे सुहाग राखें'․․․․․․․․․․․․․․․․․।'
अब बारी उम्रदार स्त्री-पुरुषों की थी। ‘अरे यह क्या, दया बब्बा
मास्टर जी के पैर छू रहे हैं?' शायद गौरव बोल रहे थे। सुपारीनाथ ने डपट
दिया, ‘बड़ी-बड़ी डिग्री ले लेने से कोई जानकार थोड़े हो जाता है। आज
मास्टर मास्टर नहीं हैं, वे आज पितर हैं। हम सबके पितर। सारे खानदान के
पितर।'
बड़की भौजी से पालागी तक नहीं, पर वे समझा रही हैं-‘दुर पगला, समझा तो कर। आज माहटर में पितरन का वास है।'
कुछ
बोलते कि तब तक देखते क्या हैं कि हाथ-पैर कांपते नब्बे वर्षी झम्मन
बब्बा को उनके पोते गोद में उठाये चल आ रहे हैं। मास्टर जी से दशकों की
इस परिवार से अदावत। पर पितर जा रहे हैं तो अदावत कैसी? अज्जू पंडित के
भइया का विवाह ऐसी लड़की से हुआ जो किसी चमारिन रखैल की बेटी थी। मास्टर
जी उन्हें ‘मैला' कहकर पुकारते थे, पर नहीं आज मुक्त कंठ आशीर्वाद दे रहे
हैं। परधान के परिवार को आज गौरव और उनके परिवार की उपस्थिति से कोई
दिक्कत नहीं। सब कैसे तो घुल-मिल खिल-खिल हैं। गौरव हक्के-बक्के दस साल
की नारकीय यातना में बहे जा रहे हैं। गैर जातीय विवाह के बाद कैसे-कैसे
अपमान, मानसिक यंत्रणाएं, मौत की हद तक पहुंचाने वाले बयान क्या एकाएक धुल
गये? क्या मैं पवित्र हो गया? क्या अब खानदान के लोग परस्पर खाब-दान
शुरू कर देंगे?
नहीं। संभव नहीं। उन्हें मालूम है कल से हिन्दू
तालिबान फिर कत्ल के मोर्चे पर डट जायेंगे। उन्होंने हाथ जोड़ लिए,
‘धन्य हो पितरों, धन्य हैं तुम्हारे वंशज। जब ये आज अपनी आंत में इतनी
दाढ़ी रखते हैं तो आप उस जमाने में कितने रखते होंगे। आपको धन्यवाद कि कुछ
घंटे, कुछ दिन ही सही, खानदान की एकता तो दिखाई। बस केवल इतने के लिए
तुम्हें प्रणाम।