इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख खेती-किसानी ले जुड़े तिहार हरे हरेलीः ओमप्रकाश साहू ' अंकुर ' यादें फ्लैट सं. डी 101, सुविधा एन्क्लेव : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ' मृदुल' कहानी वह सहमी - सहमी सी : गीता दुबे अचिंत्य का हलुवा : राजेन्द्र प्रसाद काण्डपाल एक माँ की कहानी : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन अनुवाद - भद्रसैन पुरी कोहरा : कमलेश्वर व्‍यंग्‍य जियो और जीने दो : श्यामल बिहारी महतो लधुकथा सीताराम गुप्ता की लघुकथाएं लघुकथाएं - महेश कुमार केशरी प्रेरणा : अशोक मिश्र लाचार आँखें : जयन्ती अखिलेश चतुर्वेदी तीन कपड़े : जी सिंग बाल कहानी गलती का एहसासः प्रिया देवांगन' प्रियू' गीत गजल कविता आपकी यह हौसला ...(कविता) : योगेश समदर्शी आप ही को मुबारक सफर चाँद का (गजल) धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' कभी - कभी सोचता हूं (कविता) : डॉ. सजीत कुमार सावन लेकर आना गीत (गीत) : बलविंदर बालम गुरदासपुर नवीन माथुर की गज़लें दुनिया खारे पानी में डूब जायेगी (कविता) : महेश कुमार केशरी बाटुर - बुता किसानी/छत्तीसगढ़ी रचना सुहावत हे, सुहावत हे, सुहावत हे(छत्तीसगढ़ी गीत) राजकुमार मसखरे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की रचनाएं उसका झूला टमाटर के भाव बढ़न दे (कविता) : राजकुमार मसखरे राजनीति बनाम व्यापार (कविता) : राजकुमार मसखरे हवा का झोंका (कविता) धनीराम डड़सेना धनी रिश्ते नातों में ...(गजल ) बलविंदर नाटक एक आदिम रात्रि की महक : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी से एकांकी रूपान्तरणः सीताराम पटेल सीतेश .

सोमवार, 27 अगस्त 2018

कब होबो सजोर

सुशील भोले
 
सुन संगी मोर, कब होबो सजोर
आंखी ले झांकत हे, आंसू के लोर
काला अच्छे दिन कहिथें, मन मोर गुनथे
तिड़ी- बिड़ी जिनगी ल, मोती कस चुनथे
किस्मत गरियार होगे, ते लेगे कोनो चोर
सरकार तो देथे कहिथें आनी - बानी के काम
बीच म कर देथे फेर, कोन हमला बेकाम
मुंह के कौंरा नंगाथे, देथे कनिहा ल टोर
रंग - रंग के गोठ होथे, रंग - रंग के बोल
आगे सुराज कहिके, पीटत रहिथें ढोल
फेर बरही दीया सुख के, कब होही अंजोर

संजय नगर,
रायपुर छ.ग.

कभी नींद गहरी

सुशील यादव
 
कभी नींद गहरी या ख्वाब छिनता है
वो खिलने से पहले गुलाब छिनता है
मेरी उतरनो को पहनता रहा जो
वही मुझसे मेरा नकाब छिनता है
कहाँ क्या बुरा जो मेरे नाम जुड़ता
जमाना मुझी से खिताब छिनता है
अगर तू कहे आसमा ला के दे दूँ
हथेली से क्या आफताब छिनता है
बुझे लोग बदहाल बस्ती लगे यूँ
यहाँ कोशिशों का हिजाब छिनता है

अगले जनम मोहे कुतिया कीजो

हे भगवान कौन से जन्मों के पापों की सजा दे रहा है मुझे ? यह गंदगी भी मेरी छाती पर ही छोड़नी थी। पूरा घर गंदगी से भर दिया इस बुढ़िया ने।
बीमार सास को गालियां देते हुए नाक बंद कर घर में घुसती मिसेज शर्मा नौकरानी पर चिल्लाई - कांताबाई! अरी कहां मर गई तू भी।
तभी बगल वाले कमरे से आई सास ने पीछे से कुर्ता खींचते हुए  पुकारा -बहू!
- हट बुढ़िया दूर रह, अभी फिर से नहाना पड़ेगा मुझे।
सास को धक्का देते हुए मिसेज शर्मा बोली, तभी नौकरानी पर नजर पड़ी। कांताबाई! यह तो दिन भर गंदगी करेगी,तू तो साफ  कर दिया कर।
अभी और कुछ कहती, उससे पहले ही कांताबाई बोली - लेकिन मालकिन आज तो मांजी ने कुछ भी गंदगी नहीं की। एक दो बार हाजत हुई भी थी तो मुझे बुला लिया था तो मैं टॉयलेट में करा लाई थी।
- तो फिर यह गंदगी ?
- अपने डॉगी को दस्त लग गए हैं।
- अरे बाप रे मेरा बेटू। क्या हो गया उसे।
मिसेज शर्मा चीखती सी बोली। तभी चूं चूं करता डॉगी उनके पास आ गया। मिसेज शर्मा उसे पुचकारते हुए उसके पास बैठने लगी तो कांताबाई बोली - मालकिन कपड़े गंदे हो जाएंगे।
- अरे हो जाने दे, कपड़े कोई डॉगी से बढ़कर है क्या? कहते हुए मिसेज शर्मा वहीं बैठ गई और डॉगी पर हाथ फेरने लगी। अब कमरे से गंदगी और बदबू गायब हो चुकी थी। दूर से यह सब देख रही साथ डॉगी की किस्मत से रश्क कर रही थी। शायद भगवान से दुआ मांग रही थी -अगले जनम मोहे कुतिया ही कीजो।

अंधी का बेटा

एक औरत थी, जो अंधी थी। जिसके कारण उसके बेटे को स्कूल में बच्चे चिढाते थे कि अंधी का बेटा आ गया। हर बात पर उसे ये शब्द सुनने को मिलता था कि अन्धी का बेटा। इसलिए वह अपनी माँ से चिड़ता था। उसे कही भी अपने साथ लेकर जाने में हिचकता था उसे नापसंद करता था।
उसकी माँ ने उसे पढ़ाया और उसे इस लायक बना दिया की वह अपने पैरो पर खड़ा हो सके। लेकिन जब वह बड़ा आदमी बन गया तो अपनी माँ को छोड़ अलग रहने लगा।
एक दिन एक बूढ़ी औरत उसके घर आई और गार्ड से बोली - मुझे तुम्हारे साहब से मिलना है। जब गार्ड ने अपने मालिक से बोल तो मालिक ने कहा कि बोल दो मैं अभी घर पर नही हूँ। गार्ड ने जब बुढ़िया से बोला कि वह अभी नही है ... तो वह वहां से चली गयी!!
थोड़ी देर बाद जब लड़का अपनी कार से ऑफिस के लिए जा रहा होता है तो देखता है कि सामने बहुत भीड़ लगी है और जानने के लिए कि वहां क्यों भीड़ लगी है वह वहां गया तो देखा उसकी माँ वहां मरी पड़ी थी।
उसने देखा की उसकी मुट्ठी में कुछ है उसने जब मुट्ठी खोली तो देखा की एक लेटर जिसमें यह लिखा था कि बेटा जब तू छोटा था तो खेलते वक्त तेरी आँख में सरिया धंस गयी थी और तू अँधा हो गया था तो मैंने तुम्हे अपनी आँखे दे दी थी।
इतना पढ़ कर लड़का जोर - जोर से रोने लगा। उसकी माँ उसके पास नहीं आ सकती थी।
दोस्तों वक्त रहते ही लोगों की वैल्यू करना सीखो। माँ - बाप का कर्ज हम कभी नहीं चूका सकते। हमारी प्यास का अंदाज भी अलग है दोस्तों, कभी समंदर को ठुकरा देते हंै, तो कभी आंसू तक पी जाते है ..!!!
बैठना भाइयों के बीच,
चाहे बैर ही क्यों ना हो,
और खाना माँ के हाथो का,
चाहे जहर ही क्यों ना हो...!!

अगस्‍त 2018 से अक्‍टुबर 2018

आलेख
आपहुदरी में स्त्री - विमर्श और बोल्ड लेखन : प्रीति दुबे
सबसे प्यारा शब्द - माँ : डॉ. कृष्ण गोपाल मिश्र
काग के भाग : जयप्रकाश मानस
अंधेरी रेखाओं में : कुबेर

कहानी
दुर्जनसिंह : मुकेश वर्मा
एक था कागा : दीर्घ नारायण

व्यंग्य
कलजुगी काकभुसुंडि : भुवन कुनियाल

लघुकथाएं
शहर का डॉक्टर : मनोज चौहान

प्रेरक कथा
बड़ी सोच
कोयल

कविता/ गीत/ गजल
तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे ( गज़ल )ः गोपाल सिंह नेपाली
मन ही मन देखो ( गज़ल  ) : ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
रामधारी सिंह दिनकर के द्वन्द्वगीत ( गीत )

आपहुदरी में स्त्री-विमर्श और बोल्ड लेखन

- प्रीति दुबे

     आदिवासी-विमर्श की महान् लेखिका रमणिका गुप्ता की आत्मकथा भाग-2 ‘आपहुदरी’ (एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा) 2014-15 ई. स्त्री आत्मकथा-साहित्य की ही नहीं बल्कि हिंदी-साहित्य की सद्यः प्रकाशित आत्मकथा है। ‘आपहुदरी’ यह कथा लेखिका के जीवन में घटित तमाम घटनाओं, टकराहटों, संघर्षों और भटकावों का आकलन है। यह आत्मकथा रमणिका गुप्ता के जीवन दर्द को बयां करते हुए सामन्ती समाज की पोल खोलती है।
     ‘आपहुदरी’ रमणिका गुप्ता के जीवन की वास्तविकता को परत दर परत खोलती बोल्ड एवं निर्भीक आत्मस्वीकृति की साहसिक गाथा है, जिसमें लेखिका के बचपन से लेकर धनबाद तक की यात्रा कला, साहित्य, समाज-सेवा और राजनीति संघर्षों को चीन्हती रचनाकार की अनोखी दुनिया भी। इस आत्मकथा में रमणिका गुप्ता अपने विरुद्ध खड़ी सामाजिक रूढि़यों, परम्पराओं और तथाकथित संस्कारों की बाढ़ से उबरने के लिए छटपटाती है अपने पर लगे लांछनों को स्वीकार नहीं करती सत्य की विध्वंसक एवं रहस्यमयी मारक शक्तियों का प्रयोग स्वयं के बचाव के तौर पर करती हुई वापिस उसी समाज को वह सारे लांछन, आरोप लौटा देती है। इस आत्मकथा का समय बहुत लम्बा, स्पेस व भूगोल विशाल है।
     पंजाब के सुनाम में जन्मी रमणिका गुप्ता के पिता पटियाला रियासत में (मिलिट्री) डाॅक्टर थे। नाना दीवान दीनानाथ खोसला इसी रियासत के बड़े जमीदार थे। लेखिका का जन्म सामन्ती समाज में हुआ था। इस समाज में पुरुषों को पूर्ण स्वतंत्रता, अधिकार प्राप्त थे, वहीं महिलाओं पर अनेक पाबन्दियाँ, रोक-टोक, पितृसत्तात्मक समाज द्वारा लगाई गई थी। लड़कों के जीवन के तौर-तरीके अलग थे और लड़कियों के अलग। लेखिका अपनी इच्छानुसार कार्य करने का साहस करती है, सबका विरोध झेलती है, परम्पराओं को स्वयं ही तोड़ती है, माँ द्वारा सिर ढंककर चलो की हिदायत देने पर वह तीखे तेवरों से उनका विरोध प्रकट करते हुए कहती है 'नहीं ढकूंगी सिर! क्यों ढकूं? क्या लड़के सिर ढक कर चलते हैं? रवि को क्यों नहीं कहती अपना सिर ढकने को? मैं कोई उससे कम हूँ क्या? नाना जी के हवेली और क्लब में इतनी मेमें आती हैं, वे ‘चुन्नी’ (दुपट्टा) नहीं ओढ़तीं। मैं क्यों नहीं उनकी तरह बिना ‘चुन्नी’ ओढ़े चल सकती?" यह अच्छे घर की लड़कियों का रिवाज़ नहीं है। माँ मुझे समझाते हुए कहती।
      ”मुझे नहीं चाहिए अच्छे घर के रिवाज। मैं नहीं बनूंगी अच्छे घर की लड़की। यह सब पुरानी बातें है। मैं नहीं मानूंगी, कोई पुरानी बात। मैं अपना ही रिवाज़ चलाऊंगी, खुद अपने आप।" मैं ज़ोर देकर कहती।1

     बचपन से ही परिवार में सबसे जिद्दी लड़की रही लेखिका को ‘आपहुदरी’ कहा जाता था। यह एक पंजाबी शब्द है जिसका अर्थ होता है अपने मन की करने वाली अर्थात् जिद्दी लड़की।
    सामन्ती समाज में स्त्री को भोग्या मानकर भोगा जाता था। एक पुरुष के एक से अधिक प्रेम प्रसंग परिवार में उनकी मर्दांनगी का प्रमाण होता था। पत्नियाँ, बहनें, माएँ भी बिना विरोध किए बड़ी सरलता से ऐसे अमान्य संबंधों को स्वीकार कर लेती थी। रियासतों में ये आमतौर पर होता था। लेखिका के पिता जो कि पेशे से मिलिट्री में डाॅक्टर थे वे अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते किन्तु अवसर हाथ लगने पर घर से बाहर भी पर स्त्रियों से संबंध स्थापित करते रहते थे। नाना के रूप में रमणिका एक ऐसा जीता जागता जमींदाराना उदाहरण देखती है। जो घर में ही अपनी बेटी से ही संबंध स्थापित करता है जो कि भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है रिश्तों का यह घिनौंना रूप, बेटी की इज्जत पर अपने पौरुष का दम भरता यह सामन्ती समाज जिसे अपने किए कुकृत्यों पर जरा-भी ग्लानी नहीं होती बल्कि शोषित-पीडि़ता ही स्वयं को कसुरवार मानकर मानसिक संताप झेलती रहती हैं अपने समाज में स्त्री की इस विवशता को प्रकट करते हुए लेखिका लिखती हैं कि- ”घर में औरत को आदर, प्रचुर प्रेम के चश्मे (झरने), बाहर ऐय्याशी से सराबोर सागर। औरत का दोनों रूपों में भोग। पत्नी का पावन रूप, प्रेमिका का अनुराग, वीरांगना की आसक्ति, पुरुष सभी का बिना अपराध बोध के उपभोग करता था। स्त्री अपराध-बोधों की पिटारी थी। अपनी ज़रा-सी बेवफ़ाई उसे अपनी ही निगाहों में चोर बना देती थी और चोर बनाने वाला पुरुष बेदाग रहता था।“2


      भारतीय संस्कृति में यौन संबंधों की चर्चा खुले आम करना जहाँ निषेध माना गया है, वहीं सामन्ती समाज में ये संबंध घर से बाहर ही नहीं अपितु घर के भीतर भी बनते थे। इनका शिकार कभी नौकरानियों तो कभी बहुएँ, बेटियाँ, हुआ करती थी। लेखिका अपने बाल्यकाल से ही यौन उत्पीड़न का शिकार होती रही अपने स्तर पर उसका विरोध भी प्रकट करती रही। अपने साथ हुई इन सारी ज्याततियों को इस तरह सरे आम बयां करना एक जोखिम भरा कदम है यह सच एक स्त्री के निन्तात निजी है रमणिका गुप्ता अपने बचपन की कुछ ऐसी ही घटनाओं का उल्लेख करती है क्योंकि वह यौन संबंधों से जुड़ी है सामन्ती परिवारों के धनाढ्य या पेशेवर पुरुष ही नहीं अपितु इनके यहाँ काम करने वाले नौकर पुरुष भी यौन संबंध उसी घर में काम करते हुए उसी घर की बच्चियों, बहुओं से स्थापित करते। पाखण्ड का चोला ओढ़े धर्म के ठेकेदार जो समाज को धार्मिक शिक्षा देने का दावा करते पाखण्ड की आड़ में वे भी न जाने कितनी लड़कियों का कौमार्य भंग कर चुके होते थे। स्वयं लेखिका कई बार इसका शिकार हो चुकी थी पुरुष के इस रवैये ने उनके भीतर आज इतना साहस एवं आत्म विश्वास भर दिया है कि वे सामाजिक स्तर पर इन सारी घटनाओं को लिखने का साहस ही नहीं कर पाई अपितु अपनी बेबाक लेखनी से विरोध भी प्रकट करती रही है इसी संदर्भ में लिखती हैं कि- ”मेरे प्रतिवाद का यही तरीका रहा है पहले झेल लेना, बाद में झुंझलाना, पछताना और आगे प्रतिरोध करना, आवृत्ति नहीं होने देना। सम्भवतः हर लड़की का यही तरीका है। यह तो अब समझ आ रहा है कि वह सब क्या था, जिसने बचपन में ही मेरे भीतर भय, असुरक्षा और भीखता के बीज बोने की कोशिश की। ये अप्रिय संस्कार मुझे नौकरों ने, सगे सम्बन्धियों या घर आए मेहमानों ने दिए, जिनकी स्मृति मेरे विद्रोही तेवरों से उभारने में सहायक तो जरुर हुई....मेरे अवचेतन में बैठ गया। मेरी शुचिता बार-बार टूटी....इस टूटन का अपराध बोध मुझे हीनता से भरता रहा। बहुत बाद में जाकर मैं इससे उबर पाई।“3
     सामन्ती समाज में यौन संबंध, बलात्कार स्त्री शोषण, अन्याय, अत्याचार कोई नई बात नहीं शिकार होती पीडि़ता को ही चुपचाप सब कुछ सहने सहते रहने की नसीहतें दी जाती रही है स्त्री जाति की इसी सहते रहना बुराई या अत्याचारों के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठाना अपराधी के तेवर बुलन्द करते रहना है। लेखिका समाज की स्त्रियों को बताना चाहती है कि जब तक हम स्वयं इनका विरोध नहीं करेंगें अपराधियों के हौंसले बुलन्द होते रहेंगें। सच को स्वीकारना ही सबसे बड़ा साहस है हम जब तक सच कहने या सच का साथ देने से दूर भागेंगें मृत्यु के उतने ही निकट पहुँचेगें और अपराधी दुनिया को हमारा सच बता देने का भय दिखाकर हमें ब्लैकमेल करता रहेगा। जरुरी है सच कहने की हिम्मत और कुव्वत। सच सुनने में जितना कटु होता है उतना ही बड़ा होता है। जितना बड़ा सच होता उतनी लम्बी, प्रभावशाली उसकी गूंज होती है। सत्य की विराटता शक्ति को व्यक्त करते हुए लेखिका लिखती है कि- ”सत्य जितना सपाट और स्पष्ट होता है, उतना ही बड़ा रहस्य छिपा होता है उसके भीतर। वह जितना रहस्यमय होता है, उतना ही मारक होता है। बदलाव के सब शर्तें, सत्य के गर्भ में छिपी होती हैं। मैंने सत्य की इसी रहस्यमयी मारक और विध्वंसक शक्ति का प्रयोग किया-अपने खिलाफ खड़ी सामाजिक परम्पराओं, रूढि़यों और तथाकथित संस्कारों की बाढ़ से उबरने के लिए। बहुत हमले हुए, बहुत आरोप लगे, लांछन उछाले गये। मैंने उन्हें स्वीकार नहीं किया और वापिस उसी समाज को लौटा दिया। बूमरैंग कर गये सबके सब उन्हीं पर। मैं अगली मुहिम के लिए फिर से उठ खड़ी होती रही।“4

‘आपहुदरी’ रमणिका गुप्ता के प्रेम प्रसंग की कहानी होने के साथ-साथ बोल्ड-लेखन का अद्भूत दस्तावेज भी है। बचपन में दैहिक शोषण का शिकार होती रमणिका गुप्ता मासूमियत खो बैठती है। 11-12 वर्ष की आयु में निरन्तर दैहिक शोषण ने रमणिका गुप्ता के भीतर यौन की अतृप्त प्यास पैदा कर दी। इसी संदर्भ में रमणिका गुप्ता लिखती हंै कि ”अपने को अतृप्त रखना, पूर्ण न होने देना, असन्तुष्ट रहना, बचपन में ही मैंने सीख लिया था और इसी अपूर्णता और अतृप्ति को मैं पूर्णता और तृप्ति के रूप में स्वीकारती थी। असन्तोष मुझे गति देता था। कुछ पाने की इच्छा मेरी इच्छा-शक्ति को ऊर्जा देती थी। तृप्ति मुझे गतिहीनता का प्रतीक लगती थी। तृप्ति मुझे मुर्दापन का अहसास कराती थी। एक ऐसा अहसास जहाँ सब खत्म हो जाता है और करने को कुछ शेष नहीं रह जाता। हासिल करना मेरा लक्ष्य जरुर या लेकिन हासिल करके सन्तुष्ट हो जाना, न मैंने जाना, न ही मैंने सीखा।“5

‘आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता रिश्तों में छिपे दुराचार भाई-बहन जैसे पावन रिश्तों को भुलाने की पुंसवादी मानसिकता को स्पष्ट करती है। अपने चचेरे भाई द्वारा दैहिक स्तर पर बालपन में घटी उनके कुँवारेपन में योनि के क्षत-विक्षत होने की घटना को अत्यनत बेबाक ढंग से अभिव्यक्त करते हुए लिखती हैं कि- भाई-बहन के रिश्ते का एक अलग आदर्श था मेरे मन में, जिसे तोड़ा था उसकी इस हरकत ने। यह बड़ा सवाल था जो मुझे प्रायः कचोटता रहता था, इसी कचोट ने मेरे आदर्शों के पारदर्शी पदों की ओर को तार-तार कर दिया था। रिश्तों के पर्दे चाक-चाक हो गये थे। यौन-वर्जनाएँ जैसे उपहास उड़ा रही थीं वर्जना लगाने वालों या मानने वालों का या रिश्तों का। मेरे मन में पैठे रिश्तों की कसौटी में गहरी दरार पड़ गयी थी। उसी दिन शायद यौन के प्रति जिज्ञासा भी तीव्र हुई थी। वर्जनाएँ जो यौन संबंधों पर लगी थीं, ढहने लगी थीं या ढह गयी थीं। अंकुश ही मुचक गया था।6
     ‘आपहुदरी’ में स्त्री बोल्ड लेखन का फलक बहुत व्यापक है। इस आत्मकथा का एक प्रमुख आयाम ‘स्त्री-मुक्ति’ से भी संबंधित है। मास्टर के शोषण से मुक्त होने के लिए झटपटाती रमणिका प्रेम-यात्रा पर निकल पड़ती है। जहाँ उनकी मुलाकात वेद प्रकाश से होती है। समाज, जात-पात की परवाह किए बिना प्रकाश से अन्तरजातीय विवाह करती है। प्रकाश ही वह राजकुमार था जो जिन्न रूपक आर्य समाजी मास्टर से रमणिका को मुक्ति दिला सकता था। रमणिका गुप्ता लिखती हंै कि- ”मेरे भीतर कोई शहजादा-राजकुमार या नाइट बसता था, जो मेरे भीतर बैठी एक डरी-सी लड़की को मुक्ति दिलाने के लिए सदैव तत्पर रहता था। मेरे कानों में राजकुमार की आहट अनवरत गूंजती थी। पता नहीं क्यों एक अंतरंग साथी बनकर एक पुरुष मेरी मदद में आ जाता था, जबकि पुरुष से ही त्रस्त थी मैं।“7

     रमणिका गुप्ता पुरुष की संस्कारबद्धता एवं संदेह करने की पुरुष प्रवृत्ति से त्रस्त आकर यौन वर्जनाओं, निषेधों के सभी प्रतिमान, नैतिकता के सभी मानदण्डों को तोड़ते हुए प्रेम की अतृप्त प्यास को, यौनाकांक्षा एवं सेक्स-भावना को अत्यन्त बेखौफ एवं बोल्डनेस के साथ प्रस्तुत करती है - ”मैं जितना भी वफादार रहूं, प्रकाश तो मुझ पर शक करेगा ही, फिर क्या जरुरत है उस निष्फल, बेमतलब वफादारी की, जब वफादार होने पर भी शक की नज़रों से ही देखा जाना है। फिर शक को ही सच होने दो। क्या हर्ज है?“8प्रकाश के साथ बनते बिगड़ते रिश्तें जीवन जीने की उन्मुक्त चाह रमणिका को संवेदनाविहीन बना देती है और हर क्षण वह उन मौकों की खोज में रहती है जिनके माध्यम से वह अपने स्वप्नों को पूरा कर सकें। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति रमणिका को बार-बार दैहिक शोषण की गुमनाम गलियों में ला खड़ा करती है। जहाँ वे बार-बार गर्भवती होती है। हर बार एवाॅशर्न करवाती है। अपनी बेटी के जन्म की सच्चाई की स्वीकारोक्ति उनके बोल्ड लेखन का ही परिणाम है- ”मैं पति नाम के खूंटे से बंधी थी, पर उसे मैं एक रस्मी रिश्ता मानकर निभा रही थी। इसलिए अपने प्रेम के रिश्ते गोपनीय रखती थी, पर अगर प्रकाश को पता चल जाए तो मैं सच-सच कह भी देती थी। भक्ष्य-अभक्ष्य क्या है, यह संबंधित व्यक्ति ही तय करता है। अपने यौन-सुख के किस्से सुनाकर वह मुझे उत्तेजित करता था या मैं ही उसके सेक्स-सुख का अन्दाजा लेते-लेते स्वयं ही उस सुख के लिए आतुर हो उठती थी, यह मैं नहीं कह सकती।“9

     ‘आपहुदरी’ रमणिका गुप्ता के भोगे हुए जीवन की खुली किताब है जिसके अन्तर्गत उन्होंने अपने साथ घटित लेस्बियन संबंध को भी बोल्ड रूप से प्रस्तुत किया है। युवा होती भाभी अपनी देह की भूख मिटाने के लिए रमणिका को कसकर अपनी बाँहों में कस लेती, लेस्बियन संबंध बनाती है। डरी सहमी रमणिका दादी के पास भागकर अपने को बचाने की कोशिश करती है इस घटना से रमणिका के मन में पुरुष के साथ-साथ औरत के साथ सहवास का बीज भी पड़ जाता है। रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि- ”पुरुष तो स्त्री को प्रायः इस दृष्टि से ही देखता है भाभी से ‘लेस्बियन’ रिश्ते की तो शुरुआत हुई, पर उस रिश्ते के प्रति घृणा और भय की प्रेतछाया भी मेरे मन में पलने लगी।“10
      रमणिका गुप्ता प्रतिशोधवश (पुंसवादी समाज से) अथवा बचपन से यौन उत्पीड़न की शिकार होते रहने के कारण प्रेम की तलाश करते हुए एक के बाद एक प्रेम-यात्रा पर निकल पड़ती है। कई पुरुषों के सम्पर्क में आती है। अनेक पुरुषों से ‘फीजिकल रिलेशनशिप’ रखने के बावजूद भी यौनाकांक्षा से पूर्ण संतुष्टि नहीं हो पाती। इस यात्रा में उनके जीवन में एक के बाद एक पुरुष आते रहते हैं वह एक ऐसी पगडंडी बन जाती है जिसका कोई अन्त नहीं होता। बकौल रमणिका गुप्ता- ”वे क्षण मुझे ज्यादा अच्छे और तर्क लगते थे, जिन्हें मैं मुक्त होकर जिऊं और निभाऊं, बजाय उन क्षणों के जिन्हें मैं मात्र इसलिए जिऊं या निभाऊं कि कहीं मैं बेवफा या विश्वासघाती न कहलाऊं। मैं नहीं जानती, क्यों ऐसा हुआ, जब एक ही समय में मुझे एक से अधिक लोगों के साथ प्यार का अहसास होने लगा। ये मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूँ कि जितने भी क्षण, पल, दिन या महीने मैंने जिसके साथ गुजारे, वे पूरी तरह उसी के साथ जिए और गुजारे। तब दूसरे या किसी और का ध्यान मुझे नहीं आया। जब कोई दूसरा मेरे नज़दीक आता तो मेरा समय उसी के लिए हो जाता।“11
      ‘आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता का बोल्ड रूप न सिर्फ अपने प्रेम प्रसंगों और यौन संबंधों का खुलासा करने में नज़र आता है, अपितु पीरियड रुकने पर प्रेगनेंट होने पर एवाॅशर्न कराने में भी प्रकट होता है। बच्चा न होने का आॅपरेशन मुक्त होकर प्रेम सुख प्राप्त करने के लिए करवाती है। रमणिका गुप्ता को इस आॅपरेशन से सारे झंझटों से मुक्ति मिल जाती हैं सामाजिक एवं पारिवारिक लोक-लाज की रक्षा भी हो जाती है स्वतंत्र सोच एवं दृढ़ निश्चिय की धनी रमणिका लिखती हैं कि- ”माँ, जिसका बनना कब गौरव बन जाता है और कब कलंक, यह स्त्री नहीं जानती। यह समाज के हाथ में हैं, पुरुष के हाथ में है। चूंकि ‘मां’ देवी है या कुलटा, इसकी मुहर पुरुष ही लगाता है, जो बाप कहलाता है। मैं ‘माँ’ की सृजनशक्ति को बच्चा पैदा करने की क्षमता को गौरवमय मानती थी। किसने बीज डाला, यह मेरे लिए गौण था। मैंने खेत ही बंजर रखने का फैसला लिया, फिर कोई विवाद नहीं होगा। फसल ही नहीं उगेगी तो मिल्कियत कैसी? जमीन है? धरती है, उस पर दावे करते रहे पुरुष! उन दावों से क्या होगा। धरती तो धरती है। वह अपने अस्तित्व के कारण है किसी मालिक या पुरुष के कारण धरती धरती नहीं बनती? औरत भी किसी पुरुष के कारण औरत नहीं होती।12

      आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता का बोल्ड रूप लज्या नामक दूसरी बेबस लड़की को मास्टर के चंगुल से मुक्त कराने में भी नज़र आता है। डरी सहमी वह लड़की मास्टर की उन गलत हरकतों का विरोध नहीं कर पाती। रमणिका गुप्ता को जब इस घटना का पता लगता है तो वह मास्टर का पर्दाफाश करते हुए अपने पिताजी, बीबीजी को कहती है कि- ”आप तो मुझ पर विश्वास नहीं करते थे, पर आपकी आँख तले यह हमारा शोषण करता रहा और अब लज्या का कर रहा है। मुझे भी ब्लैकमेल कर रहा है। अब या तो यह मास्टर घर में रहेगा या मैं रहूंगी।“13
    ‘आपहुदरी’ में रमणिका गुप्ता व प्रकाश की शादी में गवाह की भूमिका निभाने वाले मिलिट्री का रिटायर्ड अफसर को उसकी माँग पर यौन सुख प्रदान करने की स्वीकारोक्ति बोल्ड लेखन है बकौल रमणिका गुप्ता ”पता नहीं मुझे उस वक्त क्या हो गया था? सेक्स को पुरुष का अधिकार और पहल मानने वाली मैं, उस दिन स्वयं पुरुष बन बैठी और मैंने स्वयं प्रयास करना शुरु कर दिया।“14
    ‘आपहुदरी’ आत्मकथा में सेक्स का खुला एवं व्यापक चित्रण रमणिका गुप्ता के बोल्ड लेखन का दस्तावेज है।



संदर्भ सूची
1.    रमणिका गुपता, आपहुदरी (एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा), सिर ढंक कर चलो, सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं.-33
2.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, दोहरे मापदंड, पृ.सं.-70
3.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, अतीत के सांप, पृ.सं.-77-78
4.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, भूमिका से, पृ.सं-18
5.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, बदलती देह, पृ.सं.-120
6.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, अपराध बोध का बीज, पृ.सं.-84
7.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, सच बोलना क्यों जरुरी, पृ.सं.-16
8.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, वफादारी की कसम टूटी, पृ.सं.-261
9.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, मद्रास, पृ.सं.-336
10.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, भाभी, पृ.सं.-125
11.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, आँखों से झलकता प्यार, पृ.सं.-272
12.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, मद्रास, पृ.सं.-339
13.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, जब रिश्तों की गरिमा टूटी, पृ.सं.-300
14.    रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, यू आर माई लिटिल एंजेल, पृ.सं.-220

अँधेरी रेखाओं में

- कुबेर

       किसी विचार वीथी या अनमोल वचन स्तंभ के अंतर्गत मैंने यह पढ़ा था कि - ’पान खाओ, लेकिन पान मत करो।’ मैंने इस वाक्य को गुरूमंत्र मानकर आज तक पान नहीं किया। लेकिन पान खाना मेरी दिनचर्या का वैसे ही अनिवार्य अंग बन चुका है, जैसे झूठे वादेकरना किसी नेता की दिनचर्या का अंग। कोई चाहे पान खाने के लाख हानिकारक प्रभावों का वर्णन करे और मैं पान खाने के एकभी गुण का बखान न कर सकूँ, तब भी मुझे दुनियावालों की (और घर में बीवी की भी) कोई परवाह नहीं है। वैसे ही, जैसे - कुत्ताभौंके हजार, हाथी चले बाजार। इस दृष्टि से मुझमें और नेता में चाहे अधिक अंतर न मालूम पड़े, पर आप विश्वास रखें, मैं इस श्रेणी का प्राणी कतई नहीं हूँ।
       कई सालों के शोध के पश्चात् मैंने पान खाने के कम से कम दो फायदों का पता लगाया है। प्रथम यह कि एक रूपिया देकर अक्षतयोनिबाला-सी समाचार पत्र की नई प्रतियों को विक्षत करने का अधिकार प्राप्त कर लेना। द्वितीय यह कि पानठेला महज पानठेला ही नहीं होता है, यह एक सांस्कृतिक मंच भी होता है, जहाँ समाज के विभिन्न वर्ग के लोग आपस में मिलते हैं और सामाजिक, आर्थिक, राजनीति तथा साहित्य जैसे गूढ़ विषयों पर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। देश की बहुमुखी प्रगति का पूर्ण विवरण यहाँ सहज, सुलभ हो जाता है, अर्थात यूँ कहें कि पान खाने से सामान्य ज्ञान कोश में वृद्धि होती है तो कोई अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं होगी।
        ठंड का मौसम समाप्ति पर था। फरवरी महीने का अंतिम सप्ताह चल रहा था। घर के अंदर भले ही पंखा चलाकर सोना पड़े पर बाहर सड़कों पर बिना शाॅल, स्वेटर तथा मफलर के ठंड सहन-क्षमता से परे हो जाती है। नियमतः उस दिन भी मैं रात्रि-भोजन के पश्चात् पान खाने की इच्छा से चैकवाले पानठेले पर अकेला, टहलता हुआ चला आया। पानठेले को ढेलू राम ने दुल्हन की तरह सजा रखा था। छत पर शीशे की कारीगरी, ग्राहकों के सामनेवाली दीवार को लगभग पूरा ढंकता हुआ एक बड़ा-सा चैकोर शीशा तथा चारों दीवारों पर आयत बनाते हुए चार ट्यूब लाईटें; छत पर हरे, नीले, पीले व लाल बल्बों की चैकड़ी अलग। व्यवस्थित ढंग से सजे हुए सिगरेट्स व बीड़ी के विभिन्न ब्राण्स, माचिस के बण्डल्स, विभिन्न प्रकार की अगरबत्तियों के आकर्षक पैकेट्स, तम्बाकू के डिब्बे, पेन, कंघी, साबुन आदि अतिआवश्यक सामग्रियाँ, अपनी-अपनी चमक अपने-अपने ढंग से बिखेर रहे थे। इन सबके मध्य में बैठा था, पान की चुनी हुई पत्तियों पर चूने और कत्थे की डंडियाँ घुमाता हुआ ढेलू राम।
       सुबह का समय होता तो ढेलू राम हाथ का उपयोग किए बगैर, बंदर के समान सिर को एक विशेष मुद्रा में, झटके के साथ नीचे झुका कर कहता ’नमट्कार गुरूदेव’। पान के बीड़े से मुँह भरा होने के कारण वह कभी भी शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता और हमेशा ’नमट्कार गुरूदेव’ ही कहता, लेकिन अभ्यस्त होने के कारण मैं हमेशा नमस्कार गुरूदेव ही सुनता। इस प्रकार का अभिवादन वह आज भी, प्रातः कर चुका था, अतः इस समय उन्होंने केवल पीक-भरी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया और कुछ ही क्षणों पश्चात् पान का एक बीड़ा मेरे हाथें में थमा दिया।
         शर्मा जी जो कि स्थानीय हायर सेकेण्ड्री स्कूल में हिन्दी और संस्कृत विषय लिया करते थे, और जो सदैव पी.-एच. डी. करने का स्वप्न देखा करते थे, पहले ही ठेले के सामने पड़ी अपाहिज बेंच पर अपनी छः वर्षीय कथित कश्मीरी शाॅल को ओढ़े बैठे प्रातःकालीन अखबार में प्रकाशित सामग्रियों की, बाल की खाल निकालने में व्यस्त थे। उनके अनुसार, प्रसाद, पंत और निराला की छायावादी तथा मुक्तिबोध की प्रगतिवादी साहित्य से संबंधित उनके व्याख्यान को मेरे अलावा कोई दूसरा समझ ही नहीं सकता था, अतः मेरे मिलते ही वह प्रसाद और पंत की छायावाद, मुक्तिबोध की प्रगतिवाद और निराला के काव्य की स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों पर समन्वित रूप से आलोचनात्मक-समालोचनात्मक व्याख्यान देना प्रारंभ कर देता। मैं भी बिना कुछ समझे, समझने का स्वांग भरता हुआ, उनकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ, उनका व्याख्यान सुनता-सहता रहता, अथवा सुनने का उपक्रम करता रहता। न तो मैं, उसके मन में मेरी समझ को लेकर जो विश्वास बनी हुई थी, उसे तोड़ना चाहता था और न ही इस विषय पर अपनी अज्ञानता ही जाहिर होने देना चाहता था, अतः यह स्वांग बेहद जरूरी था। परंतु आज उनको अखबार के कालमों में खोया देखकर मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया।
       डेढ़-दो घंटे की सिरदर्दी व्याख्यान को सुनने से बच पाने और जल्दी घर वापस लौट पाने की प्रत्याशा में मैं मन ही मन पुलकित हो रहा था। तभी मेरी उम्मीदों पर घड़ों पानी फेरते हुए शर्माजी शुरू हो गये। अखबार में छपी एक कविता की ओर इशारा करते हुए शर्माजी भभक उठे - ’’अरे, यह भी साली कोई कविता है? लिखते हैं -
’सरल,
समानांन्तर, और
आड़ी-तिरछी रेखाएँ;

उलझे हुए परस्पर,
जिसमें से उभर-उभर आती है,
प्रतिक्षण एक नवीन आकृति।

एक के बाद दूसरी
आकृतियों का उभरना,
फिर मिटना
(एक सिलसिलेवार घटना)

परंतु इसके पूर्व कि -
मैं वांक्षित आकृति उभरती देख पाता
व्याप्त हो जाता है घोर तमस,
और बन जाता है वह वातावरण
जो सिनेमा हाॅल में हो जाता है निर्मित
अचानक लाइट के गुल हो जाने पर।’
        महोदय, सुना आपने। अरे! बाल की खाल भी निकल आए, लेकिन भला कोई इसका अर्थ निकाल सकता है?’’
      और घोर हिकारत के साथ नकारात्मक ढंग से अखबार के उस पन्ने को मोड़कर, एक ओर फेंककर, पान की पीक की पिचकी मारकर तथा खखारकर गला साफ करने के बाद वे अपने पारंपरिक ढर्रे पर आ गये। इधर मेरे दिमाग पर जैसे हथौड़े बरसने लगे। मेरी समझदारी इसी में थी कि यह सब मैं निःशर्त, निष्कामभाव से सहता चला जाऊँ। अपनी पीड़ा कम करने के उद्देश्य से मैं अकारण इधर-उधर ताकने लगा। स्ट्रीट लाईट के सामनेवाले पोल की ट्यूब लाईट कई दिनों से फ्यूज पड़ी थी, जिसके कारण वहाँ पर कुछ अँधेरा छाया रहता था। यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन खंभे के नीचे गुदड़ी में लिपटी एक मटमैले ढेर पर मेरी निगाहें अटक गईं। मैंने सोचा, संभवतः कोई भिखारी होगा जो मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़ों से ठंड और अपने शरीर के मध्य अभेद्य दीवार खड़ी न कर सकने की स्थिति के कारण स्वयं सिर-घुटने मिलाकर गुटमुटाया हुआ ढेर हो रहा था। उस ढेर के अंदर कोई पुरुष ही होगा, यह कह पाना कठिन था। चाहे जो हो, शर्मा जी द्वारा अभी-अभी अखबार में से उद्धरित वह कविता अचानक मेरे मस्तिष्क में जीवंत हो उठी।
         अपने विचारों में न जाने मैं कब तक खोया रहा। मेरी तंद्रा जब टूटी, शर्माजी और वर्माजी के बीच किसी विषय को लेकर तीखी झड़प छिंड़ी हुई थी, जैसे पानीपत की लड़ाई छिंड़ी हो। कुछ समय पश्चात् ही मैं समझ सका कि बहस देश की अर्थव्यवस्था पर छिंड़ी हुई थी। वर्माजी की अर्थशास्त्रीय व्याख्याएँ मेरी समझ से परे का विषय था। ऊपर-ऊपर की जो बातें मेरी समझ में आई उसका सारांश यूँ था -
        वर्माजी के अनुसार विगत चार दशकों में देश के अंदर हर क्षेत्र में काफी विकास हुआ है। गरीबों की भलाई के लिये बहुत कुछ किया गया है, और अब आमआदमी का जीवन-स्तर पहले से काफी ऊँचा उठ चुका है। जनसंख्या विस्फोट के बावजूद इतना सब कुछ हो पाना एक बड़ी उपलब्धि है।
        शर्माजी इस तर्क का पुरजोर खंडन करते हुए खंभे के नीचे सोये उस भिखारी की ओर इशारा करते हुए कहने लगे - ’’क्या हमारे देश की आर्थिक विकास का यह जीवंत पहलू भी आप झुठला सकते हैं? कहिये।’’
वर्माजी को सामने की वह सच्चाई देखकर कोई उपयुक्त तर्क नहीं सूझ पाया होगा और वे चुप रहने पर विवश हो गये। शर्माजी के मुख-मंडल पर विजयी आभा दमकने लगी।
       शर्माजी और वर्माजी की इन दलीलों को शायद वह ढेर भी ध्यान से सुन रहा था। अब, जबकि यह बहस समाप्त हो गई थी, शायद उसने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर किया था। अचानक उसमें एक हरकत हुई और जोर से खखारने के बाद पच्च से ढेर सारा बलगम बगल में थूँक कर वह पुनः गुटमुटा गया। शायद समाज, सरकार और हम जैसे तथाकथित बुद्धिजीवियों के प्रति वह अपना तिरस्कार प्रगट करना चाहता हो। मुझे लगा, उसके थूँक में से ढेर सारे छींटें उड़कर हम सबके चेहरों पर आ पड़े हों। तथाकथित सभ्य समाज पर यह शायद उसका प्रहार था। मेरा मन अवसाद से भर उठा। झणभर के लिये हम सब सहम गये। उसके खखार की आवाज से मैंने अनुमान लगा लिया था कि वह मर्द नहीं औरत थी। खुले आसमान के नीचे अभिभावकहीन किसी औरत का खयाल आते ही मेरा मन विचलित होने लगा। इधर, इस इलाके में कई दिनों से मैंने किसी भिखारन को देखा नहीं था, लिहाजा मेरा जिज्ञासु मन, या सही मानों में मेरे मन की अतृप्त वासना, उसके वय, रंग-रूप, यौवन आदि की कल्पनाओं में खो गया। अपनी गिरी हुई इस हरकत पर मैंने स्वयं पर लानत भेजी। मेरा मन अब उखड़ चुका था।
       मौन तोड़ते हुए एकाएक अग्रवालजी शुरू हो गये। उनके साथ हम सब विधानसभा भवन तथा संसद भवन के गलियारों के चक्कर न जाने कब तक लगाते रहे। राजनीतिक चर्चायें बराबर होती रहीं। परंतु चाह कर भी और कोशिश करके भी मैं अपना ध्यान उस ढेर पर से हटा नहीं पा रहा था।
        एक मरियल, आवारा कुत्ता दुम हिलाता और कूँ, कूँ करता हुआ आकर उस ढेर से सटकर पसर गया। ढेर को कोई आपत्ति नहीं हुई। उसे निश्चित रूप से ऊष्णता की आवश्यकता थी और वह उसे किसी भी कीमत पर प्राप्त करना चाहता था, चाहे वह कुत्ते के शरीर से ही क्यों न हो। उसे रेबीज का भी भय नहीं था।
        पानठेला बंद होने का समय हो चुका था। ग्राहक छँट चुके थे। धीरे- धीरे हम सब भी खिसकने लगे। निराला पर शोध करने वाले शर्माजी से न तो अपनी छः साल पुरानी तथाकथित कश्मीरी शाॅल उस भिखारिन को ओढ़ाते बनी और न ही पार्लियामेंट में गरीबों के उत्थान के लिये योजनाएँ बनानेवाले अग्रवालजी के मन में आया कि वह उस भिखारिन को पापुलर का एक पैकेट ही ले जाकर दे दे।
         अर्थशास्त्री वर्माजी निश्चित् रूप से इस समस्या का हल माक्र्स आदि अर्थशास्त्रियों के सिद्धातों में ढूँढने लग गए होंगे। चार साल की तैयारियों के बाद फुटपाथी तिब्बतियों की दुकान से खरीदी अपनी नई शाॅल को मैंने भी तह करके अपने बगल में दबा लिया। शायद मुझे अपनी ही भावुकता से भय होने लगा था। मैं उस ठंड का अनुमान लगा रहा था, जिसका उस भिखारिन ने आज तक सामना किया था, जिसका सामना आज भी वह करेगी और अभी आनेवाली कई रातों तक करती ही रहेगी।

          सुबह-सुबह मेरी पत्नी बाहर गली में किसी पर बिगड़ रही थी। शोर से मेरी नींद टूट गई। रजाई के बाहर झाँकते हुए मैंने देखा - रूग्ण, क्षीणकाय और अधेड़ वय में ही बूढ़ी हो चुकी एक भिखरिन एल्युमिनियम का पिचका हुआ कटोरा लेकर दरवाजे पर बैठी खाँस रही थी। उसके चेहरे पर नवागत सूर्य की सुनहरी किरणें पड़ रही थी। मुझे रात का लैंपपोस्ट वाला वह दृश्य स्मरण हो आया। भिखारिन को प्रत्यक्ष देख कर मैं सहम गया। मुझे लगा कि उसके इस हालत के लिये औरों के अलावा मैं भी जिम्मेदार हूँ। मैंने भी उसके हिस्से का रोटी, कपड़ा और मकान उससे छीना है। उससे नजरें मिलाने की मुझमें हिम्मत नहीं हुई और मन में आये इस अपराध् ाबोध को छिपाने के लिये स्वयं को मैंने रजाई में छिपा लिया।
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शनिवार, 25 अगस्त 2018

दुर्जनसिंह

मुकेश वर्मा

रोज सुबह छह बजे से दुर्जनसिंह की आवाज गलियों में सुनाई पड़ने लगती है।
'...दही लो ऽऽऽ... मही लो ऽऽऽ... और ऽऽऽ... दूध ऽऽऽ...।'
उस वक्‍त मैं बिस्‍तर पर आधा सोया आधा जागा, अपाहिज सा पड़ा, उठने के मंसूबे बाँधता रहता हूँ। सुबह घूमने का। महीने में दो-तीन बार घूम भी आता हूँ। बाकी सुबहें मानसिक तैयारी में ही निकल जाया करती हैं और फिर घर गृहस्‍थी के इतने काम अर्राते पहाड़ की तरह सिर पर टूटने लगते हैं कि इन्‍हीं-किन्‍हीं बीच मेरा मंसूबा भुर्ता बनकर रह जाता है। ठीक दस बजे दफ्‍तर पहुँचना जरूरी है चाहे पृथ्‍वी इधर से उधर क्‍यों न हो जाए। साहब का सख्‍त आदेश है और आदेश की अवहेलना का सवाल ही नहीं उठता।
यह जो साहब हैं न, वाकई गजब का है। और साहब-लोग ज्‍यादा नहीं तो कम से कम थोड़े आदमी तो हुआ करते थे। लेकिन यह तो एकदम नकचढ़ा, निर्मम और निष्‍ठुर। उसे किसी की कोई फिक्र नहीं। मातहतों से ऐसे बरतता है जैसे सब उसके निजी नौकर हों। साफ-साफ कहता भी है कि इन लोगों की जात ही ऐसी होती है, परले दर्जे के कामचोर, हरामखोर और मक्‍कार। जब तक लात न लगाओ, हरकत में नहीं आते। इनके लिए कोई रियाअत, मुरब्‍बत की जरूरत नहीं। जितना पीटो सालों को, उतनी काम में चुस्‍ती आती। हर बार कहते हुए वे नई सिगरेट जला लेते। वे घंटे भर में चार सिगरेट पी जाते जिनकी कीमत चालीस रुपये करीब होती। उनके दिन भर धुआँ उड़ाने का जो खर्च है, उसमें एक चपरासी की सात दिन की तनख्‍वाह आराम से निकल सकती है। लेकिन साहब को इन बातों से क्‍या मतलब। जब भगवान ने कलेजे में आग बार रखी है तो धुआँ भी हाथ भर का निकलना चाहिए सो साहब की नाक और मुँह से तोप के गोले की तरह धकाधक छूटता रहता है! सरकारी मंदिर में अगरबत्ती नहीं सिगरेट जलती है, धुआँ-धुआँ और जिसे दुर्जन सिंह अपलक देखता रहता था।
दुर्जनसिंह नेक, परिश्रमी और आज्ञाकारी चपरासी था जिसके लिए साहब के मुँह से निकला एक भी शब्‍द बादशाही फरमान की तरह होता जिसकी तामिली किया जाना एक मातहत के लिए ऐसा हुक्‍मनामा है जिसमें किसी किस्‍म की हीला-साजी की गुंजाईश या गफलत की दरकार नहीं। इसलिए वह हरदम घेरे जा रहे पशु की तरह चौकन्‍ना रहता, शायद जरूरत से कुछ ज्‍यादा तत्‍पर और हमेशा लगभग पंजों के बल पर व्‍यग्रता से चलता। ऐसे समय उसके चेहरे पर विचित्र सा सूखापन उभर आता और आँखें चौंधियाई सी लगती।
उन दिनों मैं भी आशु-लिपिक वर्ग-एक पर पदोन्‍नत होकर साहब का मुख्‍य स्‍टेनो बाबू बन गया। साहब के एयर-कंडीशंड चेंबर के ठीक सामने वाले बेडौल कमरे में उनका स्‍टाफ बैठता जिसमें गर्मियों में एक पुराना जंग खाया कूलर लग जाता जो आवाज तो इतनी करता जैसे बरफ-फैक्‍ट्री चल रही हो मगर ठंडक इतनी देता जो कमरे में ही कहीं बिला जाती। असर कुछ होता ही नहीं। फिर भी यह एक बड़ी नियामत थी जिसे हम पर महान गर्व और गौरव था क्‍योंकि दफ्‍तर के बाकी हिस्‍सों में छत पर फंदे से कसे झूलते पंखे बारह महीने एक ही दफ्‍तर से चलते, चाहे गर्मी हो या ठंड हो, काम का दिन या छुट्‌टी। लोग भी अभ्‍यस्‍त हो चुके थे। ऊपर छत पर पंखे, नीचे फर्श पर कर्मचारी। एक ही दायरे में गोल-गोल घूमते रहते। एक ही चाल से। जैसे किसी ने टोना कर दिया हो।
हमारे कमरे और साहब के चेंबर के बीच जो गलियारा था, उसमे तो न कोई कूलर और न कोई पंखा। दीमक खाई लकड़ी के लचकते स्‍टूल पर बैठा दुर्जनसिंह हल्‍के-हल्‍के मुस्‍कुराते ही रहता और बिना किसी भेद-भाव के हर आते-जाते को विनीत नमस्‍कार करता। यह उसकी निजी प्रसन्‍नता थी जिस पर उसे आत्‍मिक संतोष और गौरव था और जिसकी रक्षा वह सावधानी-पूर्वक करता था। उसकी विनम्रता न जाने क्‍यों, लोगों को खटकती थी। कारण कभी समझ में नहीं आए। कई बार लोग बौखलाकर गालियाँ देने लगते। मारपीट पर आमदा हुए। दुर्जनसिंह फिर भी ज्‍यों का त्‍यों। उत्‍फुल्‍लित मुस्‍कान से कहता - 'हरि इच्‍छा' और फिर थोड़ी गर्दन मचकाकार अगले को नमस्‍कार करने में जुट जाता। वह सामान्‍य दिनों में वर्दी पहिने रहता, ठंड में वर्दी पर एक ऊनी बनियान और वहीं स्‍टूल पर बैठे-बैठे मुझसे बोलता - "बड़े बाबू, आज बड़ी कड़कड़ाती ठंड है।"
उस वक्‍त मैं कोट में से बमुश्‍किल हाथ निकाल कर मिचमिचाई आँखों के ठीक नीचे चश्‍में के बोझ तले दबी नाक में से निकलता सुर्र-सुर्र पानी उल्‍टी हथेलियों से पोंछता रहता और नया कोट खरीदने की योजनाओं के कई प्रारूप बनाता और खारिज करता रहता। हर बार पैसे की कमी रोड़ा बनकर अटकती। इस राह में दुर्जनसिंह भी कोई कम रोड़ा न था। ऐसे हर कठिन अवसर पर मौसम के बंधनों और बंदिशों से आजाद और लापरवाह उसका छरहरा बदन आँखों के सामने कूदने लगता। मन कहता - देखो एक यह है, ऐसा कोई हट्‌टा-कट्‌टा पहलवान नहीं है, दुबला पतला ही समझो। लेकिन ठंड को धता बताता है। और एक तुम हो। लाड़ के लल्‍ला। सारी जिंदगी छींकते-पादते निकली। जरा सी ठंड पड़ी नहीं कि नाक से पर नाले छूटने लगते। गर्मी आई कि पसीने की बदबू से मरे जानवर की तरह गंधाते हो कि कोई भला आदमी पास बैठने से गुरेज करे। यदि थोड़ा बहुत ही शरीर पर ध्‍यान दिया होता तो ये नौबत नहीं आती। और करना भी क्‍या है? कोई पहाड़ तो खोदना नहीं है। सिर्फ थोड़ी वरजिश-कसरत पर ध्‍यान देना है। अरे बड़ी फजर उठो। लगाओ पाँच मील की दौड़। सौ दंड चार सौ बिट्‌ठक। कहाँ की सर्दी और कहाँ की ठंड। लेकिन क्‍या करें जब अपना मन मुर्दा तो किसे दोष दें। सुबह उठने के नाम पर ही ससुरी नाम पनियाने लगती है। छींकों की ऐसी बौछार कि जैसे भूचाल, घर भर डर जाए। अब अपने बस में यही कि ऐसे ही जिंदगी निकाल लो ओर जब यमराज आएँ तो कान-खिची बकरी की तरह चुपचाप चले जाओ...। वो यमराज जब आएँ तब आएँ, अभी तो सामने के कमरे में बैठा यमराज ही जान लेने को तुला रहता है।
एकदम ऐसा खौंखिया के दौड़ता है कि काट ही न खाए। पूरे टाइम चीख-पुकार, गाली-गलौज कि तन-मन पत्तों सा थरथर काँपता। दस बजे से ही मेज पर मुक्‍के मारने लगता। छोटे-बड़े का कोई लिहाज नहीं। कब किसकी इज्‍जत का भुर्ता बना कर लत्‍ते सा खिड़की के बाहर फेंक दे, भगवान भी नहीं जानते। सबेरे से छोटे-बड़े, किसिम-किसिम के अधिकारी-बाबू लोग फाईलें लिए लाईन लगाए बाहर खड़े रहते। साहब एक के बाद एक को बुलाते। अधिकतम डाँटते, अधिकतर कागज फेंकते। लेकिन बड़े अफसरों के या फिर टुच्‍चे नेताओं के फोन आते तो यही बब्‍बर शेर भीगी बिल्‍ली बन जाता। लचक-लचक कर और लाड़ से हँस-हँस कर बातें करता म्‍याउँ-म्‍याउँ टाइप। और फोन रखते ही ऐंठ कर कुर्सी पर लद जाता। एक नई सिगरेट सुलगाता और फिर ज्‍यों का त्‍यों गुर्राने लगता।
उनका एक खास शौक देखा मैंने। वे जोरदार हुक्‍म के साथ कहते कि वे समय के बहुत पाबंद हैं। मतलब वे प्रत्‍येक काम की समयावधि तय कर देते। फिर कोई भी या कैसा भी अधिकारी हो, उसे इस निर्धारित अवधि के भीतर झख मार कर काम करना ही पड़ता। साहब बहाने सुनने से भरपूर परहेज रखते। कामचोर अधिकारियों - कर्मचारियों - चपरासियों की खाल खींचने में विशेष प्रसन्‍नता का अनुभव करते। समय की पाबंदी का यह हाल कि वे बिला नागा खुद हमेशा पाँच बजे दफ्‍तर से उठ जाते किंतु नीचे के स्‍टॉफ को इतना समयावधि का काम दे जाते जिसे पूरा करने में हम लोगों को रोज रात के आठ-नौ बज जाते। वे फिर सुबह ठीक दस बजे दफ्‍तर में होते और उस समय उनके सामने कल का दिया गया पूरा काम टेबिल पर रखा होना चाहिए। इस काम में कोई चूका तो साहब ने सुबह का बाकी मांसाहारी नाश्‍ता पूरा किया। उसका शिकार नुचा-चिंथा अधमरा फर्श पर पड़ा हाय-हाय करता और साहब अच्‍छी खासी डकार लेकर उस घंटे की चौथी और आखिरी सिगरेट जला लेते।
ऐसे नरक में दिन रो-रो कर बीत रहे थे कि एक दिन वह किस्‍सा हुआ। उस दिन साहब घर जल्‍दी चले गए। उनके ससुर साहब आए थे जो एक जमाने में बहुत बड़े अधिकारी होते थे। रिटायर होने के बाद सरकार ने उन्‍हें कर्मचारियों में बढ़ती अकर्मण्‍यता, निष्‍ठाहीनता, लापरवाही और बेईमानी को रोकने के लिए कड़ी कार्यवाहियों की सिफारिश करने हेतु एक स्‍थायी कमेटी का अध्‍यक्ष बना दिया था। वे बहुत कड़क स्‍वभाव के थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे अपने जमाने में दफ्‍तर में हंटर लेकर बैठते थे। रोज दो-चार के चूतड़ फूटते थे लेकिन हमेशा काम सही, फिटफाट और टैम पर होता था। उनकी पुरानी शेफर्ड गाड़ी की आवाज सुनकर ही लोग ऊपर-नीचे हर जगह से थरथराने लगते थे। हालाँकि हंटर अब नहीं दिखा उनके पास। लेकिन उनकी साँप सी लपलपाती जीभ भी किसी हंटर से कम नहीं थी। मुझे उनका अच्‍छा-खासा अनुभव था। वे जब कभी भोपाल आते है तो डिक्‍टेशन के लिए मुझे जाना पड़ता। वे बूढ़े हो चुके थे लेकिन गीध की तरह नोंचती उनकी आँखें और बेहद खरखराती कठोर आवाज सिगार के अनवरत धुएँ में से साक्षात मौत जैसी दिखाई-सुनाई पड़ती। सारा खाया-पिया एक जगह सिमट जाता और शरीर लुकलुकाने-धुकधुकाने लगता। उन्‍होंने मेरे दाएँ कान का नाम हिंदी ओर बाएँ कान का नाम अँग्रेजी रख दिया था। जब तक मैं 'बिसेस' को विशेष नहीं लिख पाता या नहीं कह पाता, वे मेरा दायाँ कान हड़कीली उँगलियों के चमीटे में दबाए रखते। यही हाल बाएँ कान का होता जब तक मैं शश्पेंस की जगह सस्पेंस नहीं कह पाता या ऐसा ही कुछ। वे एक लाईन डिक्‍टेशन के बाद एक नया सिगार पीते ओर कोई पुराना किस्‍सा सुनाते जिसमें लोगों की भली-भांति चमड़ी उधेड़ने या जंगलों में घेर कर जानवर मारने के दिल दहलाने वाले वर्णन होते। हर किस्‍से का अंतिम निष्‍कर्ष यकीनी तौर पर यही होता कि 'और फिर सालों की अकल ठिकाने लग गई' या ऐसी ही कोई कमीनेपन की बात।
लेकिन दुर्जनसिंह पर ऐसा कुछ नहीं गुजरा। चपरासी की जिंदगी बड़े मजे-मजे गुजर रही थी। एक हमीं थे जो ये नरक भोग रहे थे। दुर्जनसिंह का क्‍या, साहब चेंबर में हो या न हों, साहब के आने से पहले और दफ्‍तर से जाने तक हमेशा साफ धोई वर्दी में उसी स्‍टूल पर बैठा रहता और पुराने अखबार से पंखा झलता या मक्‍खियाँ उड़ाता हुआ। फाइल लाए। फाइल ले गए। मैं ही कभी कहता - 'आओ चौधरी, कूलर में बैठ लो।'
तो वह कहता - 'ना जी बड़े बाबू ना, एक दिन के आराम के लोभ से बाकी जिनगी की राह बिगड़ेगी। मन हमेशा आराम चाहेगा और आराम किस्‍मत में नहीं, सो जो मिला है, उसी को किस्‍मत कह लो और उसी को आराम मान लीजो।' फिर पिछले दिनों सुनी कोई धार्मिक कथा बड़े गद्गद भाव से सुनाने लगता। आध्‍यात्‍मिक आवेश की भीगी और रहस्‍मयी आवाज में लगभग फुसफुसाकर बोलता - 'बड़े बाबू, सच्‍चा कुछ नहीं, ये जो कुछ दिखाई दे रहा है न, दुख, सुख, मोह, लोभ सब माया है, उसी का धुआँ-धुआँ है, चारों ओर, अब जैसा मन को इस धुंध में जैसा सूझे वैसा करते चलो या जैसा समझो वैसा मन को धुंध में चलने दो। बस चलते जाना है, लेकिन कहीं नहीं जाना है। काल को ही छाती पर से गुजर जाना है। काल के पहिये भी धुआँ-धुआँ है। फिर मन कहाँ अटकाना है। ...कहा है न कि छाँड़िए न हिम्‍मत, बिसारिए न हरि नाम... जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए...'
मेरी समझ में ऐसी बातें कम आतीं बल्‍कि झुँझला ही जाता। कहाँ तो मेरे दुर्भाग्‍य का अंत नहीं है और दो कौड़ी का चपरासी छाती पर ज्ञान का झंडा गाड़े जा रहा है। लेकिन कुछ कह नहीं पाता। कुछ बोलूँ तो रोना पहले आता। लेकिन एक बात जरूर थी कि मैं दुर्जनसिंह का हृदय से सम्‍मान करता। दरअसल मेरा मन बड़ा दुरंगा है। घर के हालात पर ओर अपनी फूटी किस्‍मत पर जहाँ एक ओर सिर पटकता और रुआँसा रहता, वहीं जब किसी ओर के जीवन में कोई दुख, कोई धात, कोई मात देखता तो आँखें बरबस छलछला उठती हैं। आँसू भीतर ठेलने की कोशिश में मुँह अजब तरह से खिंच जाता है। कुछ नीचे लटक जाता है और नाक से पानी निकलने लगता है। भले ही अपनी तुलना में मेरे पापी मन को दुर्जनसिंह की जिंदगी मजे-मजे की लगती, लेकिन भीतर कहीं यह बात कील की तरह गड़ी रहती कि सचमुच उसका जीवन दिन-प्रतिदिन के संघर्षों की अनंत कथा है।
वह बताता - 'बाबू, मैं रोज सुबह चार बजे के पहले उठ जाता हूँ जब आसमान में पीले बादर भी नहीं होते। फिर गाय-भैंसों के सब काम निबटाकर नहाता-धोता हूँ। पूजा पाठ कर लेता हूँ। बच्‍चों को चाय बनाकर पिलाता हूँ और तब दूध, दही, मठा लेकर साइकिल पर निकल जाता हूँ फेरी के वास्‍ते। आठ-साढ़े आठ तक लौटकर खाना बनाता। खुद खाता। उन्‍हें स्‍कूल छोड़ता। फिर दो घरों में फटाफट खाना बनाता और दफ्‍तर आ जाता। तीसरे बच्‍चे की डिलेवरी में ही औरत मर गई। मासूम बच्‍चों का मुँह देखा और दूसरी शादी का मन नहीं हुआ। बगल में ही बहिन बहनोई रहते हैं। बच्‍चों को सँभालने में उन लोगों ने बड़ी मदद करी। भगवान कभी उनके काम आ सकूँ तो जीवन सकारथ होय। मैं कहता न बाबू कि सकल जिनगी माया का धुआँ-धुआँ है। कुछ सुझता नहीं लेकिन आफत आन पड़ी सिर पे तो रोने से का होय, चित्‍त थिर कर चलते चलो तो पैरों के आगे अपने आप रस्‍ता खुलता जाता है जैसे काल केंचुल छोड़ रहा है। सब कुछ आगे बढ़ रहा है। चलते चलो नहीं तो तुम पीछे छूट जाओगे। काल आगे ही नहीं, पीछे भी है। रुक गए तो उसके ग्रास बन जाओगे, सो चलना ही चलना तकदीर में है, भागोगे कैसे और कहाँ, चहुँ ओर धुआँ ही धुआँ...'
वह अक्‍सर टुकड़ों में बताता रहता कि शाम को फिर दूध दही का काम निबटाकर खाना बनाता। बच्‍चों को खिलाता और चार जगह खाना बनाकर घर लौटता तो पिंडली-पिंडली दुखती। नसें भीतर ही भीतर खिंचती। ऐसा लगता जैसे शरीर को कोई पूरब और कोई पश्‍चिम दिशा में खींच रहा है। धीरे-धीरे नींद हावी होती जाती। मैं बेसुध सो जाता जैसे घर न हो बिना हदों का कोई मैदान है... सूना, सुनसान, निष्‍प्राण...।
'...बहिन ने चार दिन समझाया, बहनोई अब तक समझाता। दूसरे नाते रिश्‍तेदार सभी। लेकिन दूसरी शादी का मन नहीं हुआ। मेरी औरत बहुत सीधी थी, एकदम गाय। न उसने कभी कुछ कहा, न कभी कुछ माँगा जो दिया, उसी में घर गृहस्‍थी चलाई। बस अक्‍सर ऐसे बोलती जैसे दिन में दिन सपना देख रही हो, घिघियाई आवाज में विनती करती कभी मुझसे और अक्‍सर अपने भगवान जी से कि बड़े लड़के को इंजीनियर बना देना। लड़की को डॉक्‍टरनी और तीसरे लड़के को क्‍या बनाना, इस बारे में उसकी अक्‍कल जवाब दे जाती, उसे कुछ नहीं सूझता, केवल यही बर्राती रहती कि उसे भी बड़ा साब बना देना। बस ऐसा ही ध्‍यान रखना। लेकिन भूलकर किसी को चपरासी की जून न देना। इनकी हालत देखी। रोज बैल से जुटे रहते हैं तब भी पार नहीं लग पाता। मैं गाय-भैंसों की सानी बनाता उसकी बातें सुनता रहता और जब कभी ज्‍यादा पगलाती हो उसे डाँट देता। लेकिन उसके मरने के बाद उसकी इच्‍छाएँ मेरे मन में घर कर गईं। बस हमेशा बच्‍चों की पढ़ाई के पीछे पड़ा रहता हूँ। कर्ज भी लेना पड़े तो लूँगा लेकिन उसके मन की बात भगवान सुन ले, खाली न जाने दूँगा। ऊपर या अगले किसी जनम में कभी मिली और उसने जो पूछा कि राजेस के बापू, क्‍या किया राजेस का, सरमिला का और पिरदीप का? तो क्‍या जबाव दूँगा...?'
फिर वह बताता कि अब तो कह सकता हूँ कि राजेस इंजीनियर हो गए। सरमिला डाक्‍टरी पढ़ रही है। अपने पिरदीप भी लेन में लगे है। चिंता मति करियो री।
उसके कष्‍टों को सुनकर मुझे दुख होता लेकिन उसकी आवाज में लड़खड़ाहट तक नहीं होती। एक अजब गहन गंभीर धीरज और कहन में तटस्‍थ ठहराव जैसे किसी मेले ठेले का हाल सुना रहा हो। कहीं दया की भीख नहीं। कोई तरस नहीं। कुछ बड़ाई नहीं। सिर्फ एक अभंग जो कोई सुना रहा है। दुख में भीगा और किसी रोशनी में चमकता-तपता और अनाम आनंद में डूबता-उतराता। फिर भी कहीं कुछ ऐसा था जो मेरी छाती में गड़ता गड़ता कुछ अधिक गड़ जाता। यह मेरी समझ में नहीं आता। और इस असमंजस और परेशानी में मेरा रोना कुछ ज्‍यादा बढ़ जाता। इसमें अपने हाल ही शामिल होते। बड़ा लड़का बी.कॉम. पास कर चुका है। कंप्यूटर भी सीख गया है। बड़ी होशियारी से कंप्यूटर की बातें बताता है लेकिन नौकरी का कहीं कोई जुगाड़ नहीं हो पा रहा है। दो चार लोगों से कहा। साहब से भी एक दिन गिड़गिड़ाया लेकिन हाथ कुछ न आया। जब बड़े का यह हाल हो रहा है तो बाकी तीन संतानों का क्‍या होगा? यह चिंता मुझे भीतर ही भीतर खाए जाती। बार बार नाक में पानी भर जाता। मैं सोचता कि दुर्जनसिंह ने मेहनत की। ठीक किया। किंतु परिस्‍थितियों ने भी उसका साथ दिया कि नहीं? विशेष पिछड़े वर्ग का होने से लड़के को मुंबई के इंजीनियरिंग कॉलेज में और लड़की को दिल्‍ली के मेडीकल कॉलेज में प्रवेश मिल गया। स्‍कालरशिप भी मिल गई। चपरासी के बच्‍चे थे सो रहन सहन, जीवन-स्‍तर तो था नहीं, किसी तरह गुजारा कर लिया। दुर्जनसिंह दूध-दही के धंधे से और चार घर खाना बनाकर, अपना पेट काटकर उनको पढ़ाता रहा। ठीक हैं उसके उद्यम को मैं छोटा नहीं लेखता, उसकी मेहनत रंग लाई, भगवान ने भी सुनी, सरकार ने भी मदद की। लेकिन मेरा क्‍या? मेरा कौन सहारा? मेरा मन रो रो पड़ता। घर में हरदम अभाव। खींचतान मची रहती। सबकी अपनी माँगें। शौक। कैसे पूरा करें। एक कमाने वाला। छह खाने वाले। और सभी के दिमाग चौथे आसमान पर। बस दिन मुझे खींचे जा रहे थे और मैं उनके साथ रोता-झींकता चला जा रहा था जैसे विधाता के हाथों में मैं कोई रबड़ का कोई खिलौना होऊँ। अब अपनी व्‍यथा-कथा क्‍या क्‍या सुनाऊँ राम... ऐसी करी विधाता कि कुछ अपने हाथ नहीं रहा। बस पिटते के साथ पिटता गया, कोई तारणहार न आया...।
जिस दिन दुर्जनसिंह ने बड़े लड़के के पास होने की और नौकरी लग जाने की खबर सुनाई, उन दिन पेड़ा बाँटते उसके हाथ थरथरा रहे थे और उसकी शर्माती संकोची आँखों के ऊपर भाल पर अंकित लाल चंदन का टीका दिपदिपा रहा था। मैंने भारी मन से पेड़ा खाया। बच्‍चे को आशीष दिया और नाक पोंछने लगा।
फिर कुछ समय के अंतराल से उसने अपनी बिटिया के डाक्‍टर हो जाने की मिठाई बाँटी। मेरा मन भुक्‍का मारकर रोने का हुआ लेकिन किसी तरह खुद को सँभाला। नाक से पानी बदस्‍तूर बहता ही रहा।
अक्‍सर वह बड़े ठहरे मन से बोलता - 'बड़े बाबू, ऊपर वाले ने बड़ी किरपा की। खूब निभाया। वह भी सुरग में बैठी खुश हो रही होगी। अब उसके पास भी कहने को क्‍या बचा? ज्‍यादा खुस होती थी तो नई दुल्‍हन सरीखी लजाती थी। भीतर भाग-भाग जाए। अब भगवान के दुआरे बैठी है। कहाँ भागेगी। मेरा ही इंतजार करती होगी। बड़े बोल से भगवान बचाए पर मैंने भी खूब कर लिया। एक ही बचे पिरदीप सो पॉलीटेकनक डिपलोमा में पहुँच गए हैं। बड़े भाई की तरह इंजीनीरंग में नहीं जा पाए। क्‍या है कि कामपटीसन बढ़ गया है। दुखी हो रहे थे। मैंने कहा बेटा मन मत मार। भगवान इसमें भी बरक्‍कत देगा। बिद्‌या हर हालत में मदद करती है। इसके उजियारे की छाँह गह कर बढ़ता चल, पढ़ता चल। तीनेक साल में पार लग ही जाएगा। प्रभु भली करेंगे।'
ऐसा नहीं रहा कि दुर्जनसिंह मेरे दुख को नहीं जानता था। उसने जिंदगी में इतने दुख देखे थे कि वह उन्‍हें जुबान पर आने के पहिले ही आँखों के भीतर से पहिचान लेता था। उसकी बूढ़ी हो रही नजरें दूर खड़े आदमी को देखने में भले ही समर्थ न हों लेकिन पास बैठे दुख को बखूबी देख लेती थी। फिर वह मेरा हमेशा हमदर्द ही रहा। अक्‍सर कहता। 'आपको क्‍या समझाऊँ बड़े बाबू, आप तो पढ़े लिखे, अँग्रेजी जानने वाले। विधाता ने सब भांति झोली भरी। धीरे-धीरे आपकी नैया भी पार लगेगी। वह ऊपर वाला सबको एक आँख से देखता है। उसके दर पर देर भले हो, अंधेर किसी विध नहीं। हौसला रखो। सब ठीक होगा...।'
लेकिन इधर कुछ दिनों से अब वह अपने बेटे बेटियों की बातें नहीं सुनाता। कुछ उद्‌विग्‍न सा रहता। कभी-कभी एकदम चुप जैसे काल ने काटा हो। यहाँ वहाँ से ही पता चला कि बड़ा लड़का किसी मल्‍टीनेशनल कंपनी की नौकरी में अमेरिका चला गया है। उसका साल-छह माह में अँग्रेजी में ग्रीटिंग कार्ड भर आ जाता है। लड़की ने चंड़ीगढ़ में किसी धनाढ्‌य सहपाठी से शादी कर ली है। गैर जाति का है। दोनों कोई बड़ा नर्सिंग-होम चला रहे हैं। अब दुनिया ही बदल गई। फिर कुछ लाज शरम और शायद इसीलिए कभी इधर नहीं आती। कभी कभार कुछ पैसे बाप को भेज देती है। पर दुर्जनसिंह भी दिमाग का टेढ़ा है। बेटी के नाम से सहकारी बैंक में खाता खोल रखा है। जो पैसा आता, उसी खाते में जमा कर देता। पासबुक संदूक में बंदकर फिर अपने गाय-भैसों की सानी बनाने में जुट जाता।
मेरा मन कभी कभी छेद के भेद लेने में रस लेता। लेकिन बड़ी निस्‍संगता और लापरवाही से उसी आध्‍यात्‍मिक रपटती भाषा में वह कहता।
'...बड़े बाबू, कहता था न कि सब धुआँ-धुआँ ही है। इसकी धुंध में काल किसको कहाँ ले जाए। कौन कब खो जाए। क्‍या हो जाए। क्‍या किसी को पता चला है? अब जिसने जो किया। सो किया। अपने तईं ठीक किया होगा। मैं कौन उँगली उठाने वाला। अनपढ़ मूरख गँवार लेकिन दुख होता है। होता है तो मन को समझा देती है। कौन? अरे वही मूरख। मुझसे भी ज्‍यादा गँवार। ऊपर बैठी बैठी कहती है। परेसान न हो राजेस के बाबू, अब जैसे ही पिरदीप को नौकरी लगे, सब छोड़कर यहीं चले आओ। सरग में तुमारे लिए भी जगह छेंक रखी है मैंने। मन छोटा न करना। बेटे को बड़ा करना और जल्‍दी आना। ...अब मूरख ग्‍यानवती मुझे समझाती है। अरे नौकरी क्‍या पेड़ पर उपजती है कि राजेस के बापू ने झराई सो टप्‍प से झोली में आ गिरी। कामपटीसन बढ़ गया है। नौकरी की मारामारी महामारी जैसी फैल रही है। बच्‍चे मेहनत से पढ़ते है लेकिन भाग ने कपाट बंद कर रखे हैं तो क्‍या होगा। वही है कि धुंध में चलते रहो। धुआँ में लट्‌ठ घुमाते रहो, प्रभु ने चाहा तो किसी दिन भाग की मुड़ पर घल ही जाएगी। लेकिन कब? इतनी देर और अंधेर है कि मन रह रह कर घबड़ता है पर बड़े बाबू, विपरीत हवा है, पाँव जमाए चलना। प्रभु भली ही करेंगे...।'
क्‍या खाक, पाँव तो उखड़ चुके हैं। इस बावले को मेरे घर के हालात क्‍या मालूम। बड़ा बेटा बी.कॉम. और कंप्यूटर की डिग्री सिर पर धरे गली-गली के फेरे लगाते रहा लेकिन प्रभु ने भली नहीं की। हारकर आठ सौ रुपया प्रतिमाह पर कंप्यूटर-टाइपिंग की एक दुकान में नौकरी करने लगा। सुबह नौ बजे जाता तो रात के ग्‍यारह बजे तक लौटता। उसने बताया कि मालिक रसूखवाला है। दुनिया भर के दफ्‍तरों से टाइपिंग का काम आता है। दुकान में पंद्रह-बीस लड़के लगा रखे हैं। मानो टाइपिंग की फैक्‍टरी खोल रखी है। रात-दिन काम होता है मैंने उसे बताया कि श्रम-नियमों के प्रावधानों के मुताबिक किसी भी कर्मचारी से आठ घंटे से अधिक काम नहीं लिया जा सकता है जिसमें आधा घंटा खाने की छुट्‌टी देना अनिवार्यतः आवश्‍यक है। उसने हँसकर मेरी ओर देखा जैसे किसी गावदी को देखा हो। बोला कि कहाँ की बातें करते हो आप। ये चोंचले वहाँ नहीं चलते। वहाँ तो लाईन लगी है। एक हटे तो दस खड़े घिघिया रहे हैं। दोस्‍त का मामा है सो तरस खाकर और जताकर नौकरी दी है उसने। मैं चुप रह गया। उसका चेहरा देखता रह गया। जवाब क्‍या दे सकता था भला! लेकिन मन मुरझाकर रह गया। जवानी में क्‍या हालत हो गई है इसकी। छोटे से मुँह पर बड़ा सा चश्‍मा। गहरी उदासी और निराशा की छाप। मनहूस और घुन्‍ना। बहुत बुरा लगा।
लेकिन उससे भी अधिक बुरा लगा दूसरे बेटे को देखकर। नौकरी तो उसकी भी नहीं लगी लेकिन उसे इस बात का रत्ती भर मलाल नहीं था। खटकने वाली खास बात यह थी कि उसकी दिलचस्‍पी के दायरे कुछ अलग ही थे। वह सबको हिकारत की नजर से देखता और कमीनगी के किस्‍से सुनाने और हरामीपन की बातें करने में उसे विशेष आनंद आता जो चेहरे पर दबंग निर्लज्‍जता के साथ छलक छलक पड़ता। उसके तईं सज्‍जनता बेवकूफी, विनम्रता, दब्‍बूपन, धोखा-धड़ी होशियारी, छल-कपट प्रशंसनीय और धौंस-डपट आदर्श मूल्‍य थे। रह रहकर वह हँसता। अपनी या दूसरों की नीचता की बातें गौरवपूर्ण ढंग से बखानकर मन-मुदित होता। और यह सब को जताता हुआ खुश होता। उसकी आँखों के उन भावों को देखकर मैं भीतर ही भीतर दहल जाता। यह लड़का न जाने किस नर्क की ओर जा रहा है और किसी में भी उसे रोकने की हिम्‍मत नहीं!
ऐसे ही रोते-कलपते और आशंकाओं में दहलते-धड़कते दिन गुजर रहे थें लेकिन एक बात देखी। दिनों-दिन दुर्जनसिंह चुप और चुप होता जा रहा था। कारण पूछने का बहुत मन करे लेकिन हमारी ही दुर्दशा चारों ओर से हो रही थी। अब अपनी ढाँकें कि दूसरे की पूछें। इसी उहापोह में बुरे वक्‍त के साथ-साथ हम भी चल रहे थें उन्‍हीं दिनों वह किस्‍सा हुआ जो मैं आपको बताने जा रहा था लेकिन अपने दुखों का रोना लेकर बैठ गया।
उस दिन हुआ यह कि साहब जल्‍दी घर चले गए। मैं उनके ही किसी काम से ऊपर लेखा-कक्ष में गया हुआ था। लौटा तो देखा कि साहब जा चुके थे और चेंबर में कई फाइलों के ढेर के सामने दुर्जनसिंह कुछ कागज हाथ में लिए दूसरे हाथ से सिर खुजा रहा था। मुझे देखते ही मेरी ओर लपका और बोला कि इन फाइलों के डिकटेसन पूरे कर लियो और साहब कह गए हैं कि जिन कागजों में जहाँ निशान लगे हैं, वहाँ करपसन कर लो और मुझे कल दस बजे दिखाना। यानि रात नौ बजे तक की फाँसी। दूसरे दुर्जनसिंह जो कागजात बता रहा था ओर जो कैफियत दे रहा था, वह तो बिल्‍कुल पल्‍ले नहीं पड़ी। उन कागजों में कंप्यूटरों की खरीद का हिसाब-किताब था, उनमें कई जगह पेंसिल से निशान लगे थे। इनमें किस प्रकार करप्‍शन किया जा सकता है? साहब का मंतव्‍य क्‍या है? बड़ा घुटा अफसर है। क्‍या करवाना चाहता है मुझसे? मरवा देगा क्‍या? करप्‍शन के केस में कहीं फँस गया तो मेरा सर्वनाश ही हो जाएगा। धरती डोलने लगी। हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। न करूँ तो मुश्‍किल। समयावधि का काम है और साहब का हुक्‍म। समझ में कुछ आ नहीं रहा। कल खाली हाथ कागज लेकर उनके सामने जाऊँगा तो वह राक्षस हाथ घुसेड़कर पूरे प्रान ही निकाल लेगा। अजब झंझट में फँसा मैं। भरी ठंड में पसीना आ गया। फिर मन में जुगत भिड़ाई कि बाकी सभी फाइलों का डिक्‍टेशन-वर्क पूरा कर लो और तड़के नौ बजे के करीब साहब के बंगले पर पहुँच कर हाथ जोड़कर निवेदन कर डालो कि साहब, प्रकरण में साहब की हिदायतें मिल जाएँ तो अभी बिल्‍कुल एक घंटे में हजूर पूरा कर साहब की टेबिल पर ठीक दस बजे ये नोट भी प्रस्‍तुत कर दूँगा साहब। इस बता से मन को ढाँढ़स बँधा। जल्‍दी-जल्‍दी फुर्ती से काम निबटाया। ग्‍यारह से कुछ ऊपर ही बज गए थे रात के। सब घर चले गए थे। खाली दफ्‍तर भी डरावना लगता है, ऐसा लगा और पहली बार लगा। चौकीदार को चाबी देकर फौरन जान छुड़कर घर को भागा।
उस छोटी पहाड़ी पर आभिजात्‍य बंगलों की श्रृंखलाबद्ध कतारें हैं जिनके आस-पास कोई शोर, गुल-गपाड़ा नहीं होता। इनसानी हँसी पर सख्‍त मुमानियत है। एक अजीब मुर्दनगी इस बस्‍ती में रहती है। अधिकतम कारें-जीपें निकलती रहती हैं लेकिन हार्न कम ही बजते हैं, जैसे शव-यात्रा में शरीक हों। लोग दबे पाँव चलते हैं,उनमें ज्‍यादातर नौकर-चाकर और बाबू स्‍तर के होते हैं। कुछ संभ्रांत हतभागी बूढ़े शाल ओढ़े पुराने दिनों में सिर घुसाये या चेहरे की निरीहता छुपाए बगल से उदास गुजर जाते हैं। अक्‍सर एक-दो स्त्रियाँ सलवार कुर्ता और मर्दाने जूते डांटे फर्राटेदार अँग्रेजी में डपटते हुए बातें करती तेजी से निकल जाती हैं। बाकी होते हैं सुबह की नित्‍यक्रिया को निबटाने के उपक्रम में छोटे-मोटे अजीबो-गरीब कुत्ते जो अपने नौकरों को साथ लेकर यहाँ-वहाँ सूँघते घूमते हैं जिन्‍हें देखकर देशी कुत्ते कभी खुशामद भरे मैत्री भाव से और कभी नितांत अख्‍खड़ तबियत से भौंकने लगते हैं। बंगलों के कुत्ते उन्‍हें अधखुली आँखों से लापरवाही से देखते हैं और डरकर सिटपिटाए जमीन में गड़कर ढेर सारा मूतने लगते हैं। ऐसे समय उनके नौकर सजग हो जाते है और देशी कुत्तों के साथ इस कदर बेरहमी से पेश आते हैं कि देशी कुत्ते दुम छोड़कर अपने ठिकानों की तरफ किकियाते हुऐ दौड़ लगा देते हैं। उन दुमों को विजय-पताका की तरह लहराते हुए नौकर बंगलों में लौटकर तब तक डाँट खाते हैं जब तक वे उन दुमों को अपने पीछे नहीं सजा लेते।
विशाल आलीशान बंगलों के सुरुचिपूर्ण आकृति और प्रकृति वाले लॉन अमूमन वीरान और उदास पड़े रहते हैं। फूल-पत्तियाँ चुप। हवा शुष्‍क। और फिजा मनहूस। बाहर दबंग कुत्ते खुले घूमते हैं। भीतर साहब लोग बँधे रहते हैं। भीतर से बाहर कभी-कभी उनकी चप्‍पलों की हल्‍की आहटें या एक दो आधे-अधूरे शब्‍द या वाक्‍य ही सुनाई पड़ते हैं, वह भी तब जब ध्‍यान लगाकर सुना जावे वरना केवल मेम साहबों की ऊँची तेज तीखी ओर तल्‍ख आवाजों और कर्कश निर्देशों का मलबा कमरों के अर्श-फर्श पर टूट-टूट कर गिरता रहता है।
जब मैंने गेट के बाहर साइकिल टिकाई, सुबह के नौ बज रहे होंगे। सर्दी शुरू होने के मौसमी संकेत यहाँ-वहाँ दिखने लगे थे। बंगले में भीषण निस्‍तब्‍धता थी। जैसे अभी-अभी यहाँ से ताजी मैयत हटाई गई हो। माली लॉन में गुलाब की क्‍यारी गोड़ रहा था। गुलाम अली ड्राईवर कार पोंछ रहा था। बीच-बीच में वह कार के बोनट के अक्‍स में अपना चेहरा देखता। उसके तेजी से चलते हाथ शिथिल हो जाते जैसे नदी की धार में कोई पत्‍थर धीरे-धीरे डूब रहा है। मुझे देखकर वह हँसा। उसी के पास भरोसी खड़ा था जो भीतर से कचरे की टोकरी बाहर फेंकने के लिए निकला था लेकिन अली से बाते करने में उसका मन लग गया था। वह जितना फुसफुसाकर बोल रहा था, उतने ही भेदिया अंदाज में आँखें नचा रहा था और इस हरकत में उसके शरीर के बाकी अंग भी उसी नीचता से शामिल थे। वह भी हँसा। मैं भी हँसा। यद्यपि मुझे नहीं मालूम रहा कि मैं क्‍यों हँसा। ऐसे हँसा जैसे अपना बचाव किया। शायद उस वक्‍त मैं कोई आश्‍वस्‍ति ढूँढ़ रहा था। मैं हर जगह एक अपराधबोध में जाता हूँ, लगभग क्षमा याचना करता हुआ, कोई एक तसल्‍लीबख्‍श हाथ या आवाज या निगाह की भीख माँगता हुआ। बदले में डाँट-फटकार, दुत्‍कार और अपमान से लतपथ बदन और खिसियानी हँसी के बोझ से दोहरा होता वापस लौटता। यह अजाना अपराध-बोध इतना गहरा है कि मैं अपने घर की दहलीज में घुसते भीतर ही भीतर ठिठक कर सिकुड़ जाता हूँ, जैसे किसी कटघरे में ठेला जा रहा हूँ और अब मुझे उन तमाम आरोपों के सामने होना है जिनके उत्तर मेरे पास नहीं हैं और सवाल समझ के बाहर। घर की चौखट पर मँडराती ठंडक भी दुख नहीं हरती बल्‍कि ठंडे मरहम सी जलती ओर चिलकती है।
लेकिन वे क्‍यों हँसे, यह मुझे नहीं मालूम। यकीनन वह स्‍वागत की हँसी या सौहार्द भरी आत्‍मीय नजर नहीं थी बल्‍कि उनमें हमेशा की तरह एक कमीना कौतुहल था। इसी बंगले में बड़े पापाजी डिक्‍टेशन के दौरान मेरी जो दुर्गति बनाया करते थे, ये लोग उन प्रसंगों के चश्‍मदीद गवाह थे। पूरे समय बेशर्मी से हँसने के बाद बाकी वक्‍त इन्‍हीं लोगों ने चटखारा लगाकर अनंत दिशाओं में मेरी तकलीफ और जलालत के किस्‍सों का बेहूदा प्रचार बखूबी किया था। जबकि वे सभी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे और मैं उनसे कई ग्रेड ऊपर था। बड़े साहब का पी.ए. और स्‍टेनो था। मैं जब उनकी मासिक उपस्‍थिति सत्‍यापित करता तभी उनको तनख्‍वाह मिल पाती। लेकिन इन सब बातों को वे तवज्‍जो नहीं देते, बल्‍कि दफ्‍तर में शेर की तरह आते और मेरे सिर पर खड़े होकर अपने सब काम करा ले जाते। मेरे पहले द्वारिका बाबू साहब के स्‍टेनो थे। वे जब टेढ़ी नजर से देखते तो यही सब साले एक पोंद से हगने लगते। लेकिन मुझे कुछ समझते ही नहीं। शायद मुझमें ही खोट है। मेरी पत्नी तक कहती है कि हर कोई मुझे दबा लेता है। शायद यह सच ही है। मैं तो अब अपने बच्‍चों से भी जोर से नहीं बोल पाता। वे ही मेरे ऊपर गरजते-बरसते रहते। क्‍या करूँ। मेरे दुख अनेक हैं। किससे कहूँ, कहाँ जाऊँ, किसको बताऊँ!!!
कचरे की बॉल्‍टी झुलाते हुए भरोसी बोला - 'आ ये बड़े बाबू, सबेरे सबेरे?'
मैं उसे आने का प्रयोजन बता आता, मेरे खँखारकर गला साफ करने के पहिले ही अली बोला - 'अबे, सरकारी काम होगा, साहब को बता दे।'
'साहब को सबेरे-सबेरे लोगों से मिलना पसंद नहीं... भरोसी आँखें नचाकर और लगभग घूरते हुए बोला... दो लोगों को अभी तक भगा चुका हूँ। उनमें एक बड़ा टाई-सूट डांटे था। मैंने कह दिया जाओ दफ्‍तर में। बंगला में नो टाईम। कहने लगा कार्ड रख लो। मैंने कहा खोंस लो भीतर। इतना सा मुँह हो गया। पिछवाड़ा हिलाता फौरन सटका। उन्‍हें भगाया, अब तुम आ गए, क्‍यों...?'
मैं खून का घूँट पी कर रह गया। बस किसी तरह बता पया कि जरूरी काम है। साहब को इत्तला कर दो और उल्‍टी हथेली से नाक पोंछने लगा।
'...बता दिया न कि साहब को पसंद नहीं। पर टलते नहीं, तो कह देता हूँ साब से। साहब फाड़ें तो मेरी कोई जुम्‍मेदारी नहीं, समझे... यहीं खड़े रहना, भीतर शेरू भैया खुले हैं...'
बंगलों में साहबों के कुत्तों को भैया कहे जाने का रिवाज है। मुझे डर लगा। यह शेरू बड़े नीच स्‍वभाव का है। आदमी पहिचानता है। हम जैसे लोग आते हैं तो उछल कर सिर पर लपकता है और दूसरे बड़े लोगों के आने पर उनके पैर चाटता है। आजकल कुत्ते भी इतने होशियार हो गए हैं कि वे ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, जातिवाद, सांप्रदायिकता हम आपसे जल्‍दी और ज्‍यादा समझते हैं। अब खैर इसी में है कि उनसे बनाकर रहो। मैं थोड़ा जमीन में धँसकर खड़ा हो गया।
मैला कपड़ा निचोड़ता हुआ अली बोला - 'साला, दिन भर भीतर चप्‍पलें खाता है, बाहर भभकी देता है। कमीना इतना है कि हगते को मारे। दरअसल जनाब हम गरीब लोग ही एक दूसरे को काटते हैं। एक दूसरे को जलील करते हैं जबकि जिन लोगों को वाकई जलील करना चाहिए, उनके हियाँ दुम हिलाते हैं... बुरा मत मानिए...। बरामदे में आराम से बैठिए... आप तो भले आदमी हैं... हाँ, बड़े बाबू, मेरे बेटे नजीर की दरखास्‍त पर मेहरबानी रखियो, साहब से अर्ज कर रखी है... उम्‍मीद है कि काम हो जाए...' उसकी आँखों में क्षोभ भरा हिलता अविश्‍वास था ओर चेहरे पर तिरस्‍कार की सूखी हँसी लेकिन बाहर निकले हुए बड़े-बड़े पीले दाँतों से निरीहता झर रही थी। वह एक प्रार्थना थी लेकिन कितनी अजब, घृणा भरी और लगभग गाली देती हुई!
तब तक भरोसी ने बरामदे से मुझे आवाज दी और मैं लपक कर पहुँचा। भीतर से झल्‍लाते हुए साहब निकले। वे लाल-पीले फूलों और काली चिड़ियों वाला लंबा तथा फूला हुआ गाउन पहिने थे, मुझे विचित्र जान पड़े। जैसे साहब के भेस में कोई दूसरा गोरा गंजा मजेदार आदमी हो। लेकिन जब उन्‍होंने बहुत तीखी सवालिया नजरों से मुझे घूरा। मैं जमीन पर धड़ाम से मिरा और मेरी घिघ्‍घी बँध गई। किसी तरह हिम्‍मत बटोर कर उन्‍हें कागज दिखाया और दुर्जनसिंह की बात बताई। वे पहिले थोड़े अचकचाए और फिर ठठाकर हँस दिये। उनके साथ मैं हँसने लगा। मुझे लगा, मैं संकट से उबर गया हूँ। मैं विनीत भाव से पैरों की ओर झुकता हुआ खड़ा रहा। साहब ने नई सिगरेट जलाई और मोबाईल पर किसी को यही किस्‍सा हँस-हँस कर बताने लगे। बीच बीच में ब्‍लडी ब्‍लडी बोलते। फिर मोबाईल बंद कर आनंदित आँखों से मुझे देखा और उतनी ही हिकारत से कहा - 'ब्‍लडी-फूल, मैंने करेक्‍शन... करेक्‍शन के लिए कहा था बेवकूफ। टेंडर अप्रेजल रिपोर्ट देखकर करेक्‍टेड आँकड़े भर दो... स्‍साला...' वे फिर हँसे। उठते हुए कहा - 'गेट लॉस, ठीक 11 बजे मेरी टेबिल पर टाईप्‍ड नोट रख देना...' और भीतर चले गए।
मैं हँसता हुआ बाहर आया। वाकई दुर्जनसिंह 'ब्‍लडी-फूल' है। अर्थ का अनर्थ समझ लिया। भला हो साहब का कि हँसते हुए सब निपटा लिया। बड़े पापाजी होते तो अभी दाएँ बाएँ दोनों ही कान खींचते। लेकिन अपने साहब में ऐसा कुछ नहीं। एकाएक मेरा मन उनके प्रति श्रद्धा-भाव से भर गया जिसमें कृतज्ञता भी शामिल थी। आँखें छलछला आईं। वाकई मैं बाल-बाल बच गया।
गाड़ी के पास खड़े उत्‍सुक अली ने पूछा 'क्‍या हुआ?' मैंने हँसते हुए कहा - 'कुछ नहीं, दुर्जनसिंह ब्‍लडी-फूल है।'
अली निराश होकर बोला - 'सो तो है... लेकिन माशाअल्‍लाह आदमी गजब की कुव्‍वत वाला है...' और चुपचाप कार पोंछने लगा।
दूर भरोसी संशय में परेशान खड़ा था।
दफ्‍तर में यह किस्‍सा ऐसा फैला कि चौतरफा हल्‍ला हो गया। आम चर्चा और हँसी-मजाक का विषय बन गया। कुछ नौजवान उद्‌दंड बाबू एक दूसरे को ब्‍लडी फूल कहने लगे। एक किस्‍म से रोज का रिवाज ही बन गया। लोग किसी को चाय पीने के लिए भी आमंत्रित करते तो कहते कि चलो ब्‍लडी-फूल, चाय पी लीजिए। हालत यह हो गई कि दफ्‍तर के एक छोर से कोई जोर से नारा लगता - 'ब्‍लडी फूल ऽऽऽ'! दूसरी ओर से समवेत स्‍वरों की तोप छूटती - 'ब्‍लडी फूल' और साथ बाढ़ के पानी सी बहती आती भयानक हँसी सारे दफ्‍तर को जल-थल कर देती। या फिर बाज-वक्‍त कॉरीडोर में आते-जाते और दुर्जनसिंह के पास से गुजरते, आपसी बातचीत में ब्‍लडी-फूल को गाना सा गाते या मजे-मजे एक-एक पग धरते ब्‍लडीफूल कहते जाते। स्‍टूल पर बैठे दुर्जनसिंह का चेहरा अपमान से काला पड़ जाता।
साहब ने दूसरे दिन ही कह दिया कि यह आदमी मुझे सूरत से ही बेवकूफ नजर आता है। हटाओ इसे। किसी कचरे में ड्यूटी लगा दो। हुक्‍म की तामीली फौरन की गई। जब उसे आर्डर दिया गया, उसका चेहरा हाथ में पकड़े कागज की तरह सफेद था। लेकिन बोला कुछ नहीं और तेजी से वापस मुड़ गया।
जैसा कि पहिले बताया था कि दुर्जनसिंह टेढ़े दिमाग का आदमी है। यह एक बार फिर सिद्ध हुआ जब उस घटना के कुछ दिन बाद उसने सेवानिवृत्ति का आवेदन प्रस्‍तुत कर दिया। मैं हक्‍का-बक्‍का रह गया। कोई आदमी नौकरी छोड़ भी सकता है, इस बात की मैं कल्‍पना भी नहीं कर सकता था। उसे लाख समझाया। ऊँच-नीच और दुनियादारी का सुलभ ज्ञान भी दिया। लेकिन वह पत्‍थर की तरह अड़ा रहा। एक अजब सूखी हँसी उसके चेहरे पर तैरती रही। इस हँसी की दरारों में गहरा विषाद, आस्‍था की टूटन तो थी लेकिन साथ ही साथ एक अखंडित आत्‍माभिमान और संतोष भी टेढ़े-मेढ़े कोनों से भरपूर झलक दे रहा था।
उसने एक ही बात सधे सुर में कही - 'बड़े बाबू, अब नौकरी करने का जी नहीं होता। हाड़ तोड़कर नौकरी की है। गुलामी की तरह। कई ऊँच नीच देखी और सही भी। कितने साहब लोग आए और गए कुछ ने इनाम भी दिया। कुछ ने नहीं दिया लेकिन भेरी गुड भेरी गुड कहा। पर जैसा अपमान इस बार मेरा हुआ है, वैसा कभी नहीं हुआ। कम पढ़ा लिखा हूँ, भृत्‍य हूँ। समझने में कभी-कभी गलती भी होती है लेकिन कभी कोई नुकसान नहीं किया। अब पूरे दफ्‍तर में मुझे ब्‍लडी-फूल, ब्‍लडी फूल कह कह कर मजाक उड़ाया जा रहा है। इनसान की कोई इज्‍जत नहीं। ...आदमी सिर्फ पेट की खातिर नहीं इज्‍जत के लिए भी जीता है। जहाँ लिहाज नहीं... इज्‍जत नहीं... वहाँ एक पल भी नहीं रहना। आज भी जाँगर में दम है। अपने खाने-पहिनने लायक कमा सकता हूँ। दो बच्‍चों को बड़े ओहदों तक पहुँचा दिया। अब पिरदीप भी पैरों पर खड़े हो रहे हैं। मेरी खुद की क्‍या जरूरतें। दूध दही के धंधे से और पेंशन से मेरा गुजारा हो जाएगा। किस बात के लिए मैं रोज-रोज का अपमान झेलूँ... हाय-हाय करूँ... ना जी ना ऐसी नौकरी नहीं करना...'
और वह उठकर चला गया। मैं जाते हुए उसको देखता रह गया। मैं सोचता था कि उसके इस्‍तीफे से दफ्‍तर में भूचाल आ जाएगा। कर्मचारियों में गर्मागर्म चर्चाएँ होंगी। उसे मनाने के समवेत प्रयास होंगे। साहब भी उसे बुलाकर समझाएँगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। किसी के माथे पर शिकन तक नहीं आई। किसी ने कुछ नहीं पूछा। उसका इस्‍तीफा एक कागज की शक्‍ल में उसकी फाइल में लग गया। रोजमर्रा की तरह फाइलें चलीं। साहब के हस्‍ताक्षर हुए। स्‍वत्‍वों का भुगतान हुआ। और दुर्जनसिंह भूतपूर्व कर्मचारी बन गया। उसके स्‍टूल पर छदामीलाल बैठने लगा। दफ्‍तर फिर ज्‍यों का त्‍यों चलने लगा। वही गहमागहमी। लेकिन मुझे गलियारे में सूना सूना लगता। कुछ ऐसी कमी जिसने इस दफ्‍तर को और अधिक बदशक्‍ल और असहनीय कर दिया है।
इधर मेरे घर के हालात दिनों-दिन गिरते चले गए। बड़े लड़के की नौकरी छूट गई। पूछो तो बताता भी नहीं। रोने लगता। पत्‍नी ने अकेले में समझाया कि ज्‍यादा कहा सुनी मत करना। न जाने कैसा उनका मन हो रहा है। अभी कल छत के पंखे से फंदा बाँध रहा था। मँझले ने देख लिया वरना अनर्थ हो जाता। मैं धक रह गया। उधर मँझला किसी इंटरनेट कैफे वाले दोस्‍त के साथ ब्‍लू फिल्‍मों की सीडी के फेर में फँस गया। थाना पुलिस के चक्‍कर लगे। बड़ी मुश्‍किल से जमानत पर छूटा। थानेदार ने जमानत के वक्‍त घुड़ककर कहा था कि साले को ठीक रखना वना अगली बार पाँच-दस साल के लिए अंदर जाएगा। लेकिन उसको इस बात की शर्म महसूस नहीं हुई बल्‍कि दाँव फेल हो जाने का अफसोस मनाता ओर बड़े काँइयाँपन से बताता कि अगर ऐसा कर लेता या वैसा हो जाता तो कभी फँस ही नहीं पाता। उसकी संगत भी खराब हो चली है। और गजब यह कि उससे छोटी लड़की ने तो नाक ही कटवा दी। वो तो मँझला उसे चोटी पकड़कर घर घसीट लाया वरना किसी टेंपो ड्राईवर के साथ मुंबई भाग रही थी और स्‍टेशन तक पहुँच गई थी।
इन दिन-प्रतिदिन के सदमों को मैं झेल नहीं सका। एक रात छाती में ऐसा दर्द उठा कि अस्‍पताल पहुँच गया। डाक्‍टर ने बताया कि दिल का दौरा पड़ा है। हालाँकि पहला है और मामूली। लेकिन दूसरा दौरा खतरनाक हो सकत है। ध्‍यान रखें। अब ध्‍यान क्‍या खाक रखूँ। मुसीबतें एक के बाद एक सिर पर चट्‌टानों की तरह गिर रही हैं। बचने का उपाय नहीं। भागने की जगन नहीं। दूर दूर तक कहीं कोई सहारा नहीं। आगे इतना अँधेरा कि डर लगता है। कहीं कोई उम्‍मीद, निजात नहीं। अभी उस दिन छोटा लड़का बारहवीं की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास होने की खबर लाया तो कभी अखबार देखकर और कभी उसे देखकर मैं रोने लगा। वह मुझे टुकुर टुकुर देखता रह गया और मैं रोता।
दिल का दौरा पड़ने के बाद पत्‍नी मेरे पीछे ही पड़ गई। डाक्‍टर की हिदायत के मुताबिक रोज सुबह मुझे घूमने के लिए भेजने लगी। जिंदगी भर सुबह नहीं उठ पया लेकिन अब डर के मारे बड़ी सुबह उठता। सिर पर कनटोपा और मफलर बाँधकर घूमने निकल जाता। लेकिन घुमने के पूरे वक्‍त वही दिन रात की चिड़चिड़ और चिंताएँ मुझे खाए जातीं।
ऐसी ही एक सुबह जब मैं डॉ. नवाथे की कोठी के पीछे से नजर-बाग की ओर जा रहा था, मुझे चिरपरिचित आवाज सुनाई दी।
'...दही लो ऽ...ऽ...ऽ... मही लो ऽ...ऽ...ऽ...और ऽ...ऽ...ऽ... दूध ऽ...ऽ...ऽ...' फिर एक आवाज। उसके साथ फिर एक अलग आवाज। सामने दुर्जनसिंह था। मैं खुश हो गया जैसे बहुत दिनों बाद कोई पुराना प्रिय दोस्‍त मिला हो। मैं लगभग दौड़कर उसकी साइकिल के करीब हो गया और हैंडिल पकड़कर खड़ा हो गया। दुर्जनसिंह साइकिल से उतर चुका था। उसने बहुत झुकते हुए मेरा अभिवादन किया और पीछे मुड़कर कहा - 'पाँव छुओ, बड़े बाबू के। भाग खुले जो सुबह-सबेरे बड़े बाबू के दर्शन हुए।'
पीछे दूसरी साइकिल पर उसका बेटा प्रदीप था। दोनों की साइकिलों में भांति भांति के डिब्‍बे और केनें टँगीं थी। प्रदीप मजबूती से अपनी साइकिल थामे हुए था और पिता की साइकिल को टेक दिए था। न जाने क्‍यों मुझे दुर्जनसिंह ज्‍यादा स्‍वस्‍थ और सुंदर लगा। मैंने कनटोपा उतार लिया और सिर खुजाने लगा।
'कैसे हो भइया...' यह मेरी कैसी आवाज... गले में अटकी, अजनबी और फटी सी...।'
'बड़े बाबू, भोलेंटरी रिटायर लेके अच्‍छा ही किया। पिरदीप पॉलीटेकनक तो अच्‍छे नंबरों से पास हो गए लेकिन नौकरी नहीं मिली। बेचारे ने खूब चक्‍कर लगाए। मगर कुछ न हुआ। मैंने कहा अरे नौकरी के पीछे टेम खराब ना कर। मैंने खूब नौकरी कर के देख ली। नौकरी में बरक्‍कत नहीं है। गुलामी है। तू जी छोटा मत कर, कुछ नहीं तो अपने घर का धंधा सँभाल। काम कितना भी छोटा हो, मेहनत से तरक्‍की होती है। पहिले तो हिचकिचाया। पीछे हटा। अब नए जमाने के पढ़े-लिखे लड़के है न। हाथ के काम को अच्‍छा नहीं मानते। लेकिन फिर समझ गया। फंड के पैसे मिले तो मैं चार भैंसें और खरीद लाया। घर में ही दूध दही और डबलरोटी की दुकान खोल ली है। सबेरे दूध दही की फेरी और दिन भर दुकान। डेरी की गुमटी की जुगाड़ भी चल रही है। पिरदीप हुसयार और मेहनती है। हफ्‍ते में दो चक्‍कर बेरछा मंडी से मावा ले आता है। चार-पाँच होटल बँध गए हैं। अच्‍छा चल रहा है बड़े बाबू...'
उसकी आँखें चमक रही थी। लड़का निस्‍पृह भाव से खड़ा था। कुछ बोल नही रहा था। बस बीच-बीच में घड़ी देख लेता। मैं दुर्जनसिंह की साइकिल का हैंडिल पकड़े उसी तरह खड़ा था जैसे बचपन में अपने पिता के पास खड़ा हो जाता था।
'...उस दिन वह घटना न हुई होती तो शायद मैं भी जिंनगी से इतनी हिम्‍मत से न जूझ पाता और ये दिन न आते। पिरदीप तो कहता है कि पापा घर बैठो। सेहत का ध्‍यान रखो। लेकिन मैं कहता कि मैं दुर्जनसिंह अभी दस साल तक इसी तरह चलता रहूँगा। ऊपर से भी आवाज आती कि आ जाना आ जाना, अभी जल्‍दी क्‍या है... लेकिन बड़े बाबू आज तो जल्‍दी है। फिर कभी सीधे घर ही आऊँगा। चाय भी पियूँगा और दुनिया जहान की बातें करूँगा। अभी चलता हूँ...'
वह साइकिल पर चल दिया। पीछे मोड़ से सुबह को चीरती एक अलग और बुलंद आवाज साफ-साफ सुनाई दी - '...दही लो ऽ...ऽ...ऽ... मही लो ऽ...ऽ...ऽ...और ऽ...ऽ...ऽ... दूध ऽ...ऽ...ऽ...।' यह आवाज बरसों पहिले सुनी गई दुर्जनसिंह की आवाज से कुछ अलहदा थी, मिली-जुली ओर मथी हुई लेकिन भरी-भरी और भारी...।
बेमन से घर लौटा। चित्‍त में विचित्र सी खलबली मची हुई थीं नहाने-धोने और पूजा-पाठ का मन नहीं हुआ। पत्‍नि आशंकित हुई। किसी तरह समझा दिया। लंच का डिब्‍बा लेकर रोज की तरह दफ्‍तर को निकला।
लेकिन दफ्‍तर जाने का मन नहीं हुआ। साइकिल दूसरी ओर मुड़ गई। पब्‍लिक टेलीफोन से छोटे बाबू को कह दिया कि जरूरी काम है, दफ्‍तर न आ सकूँगा। ऐसा कहने के पहिले दिल थोड़ा धुकधुकाया। साहब छुट्‌टी देना पंसद नहीं करते। पर मन को ठेल दिया। भाड़ में गए साहब, आज तो दफ्‍तर नहीं जाऊँगा। ... ना जी ना ... बस्‍स्‌...।
बिला वजह यहाँ वहाँ साइकिल घुमाता रहा। पोस्‍टर देखता रहा और फिर नजर-बाग की ओर बढ़ गया। बचपन से इसी बाग में खेलता-कूदता रहा हूँ। आज लगा कि जैसे फिर वापस आया हूँ। पार्क में खिलते गुलाबों की कतारों के साथ-साथ हरे घास के लंबे-लंबे कालीन बिछे थे। एक अच्‍छी जगह देखकर लंच के डिब्‍बे के झोले को सिरहाना बनाकर लेट गया। टाँगें फैलाकर जेसे ही ऊपर नीले स्‍वच्‍छ आसमान को देखा। परिंदों की चहचहाहटें सुनाई थी। परकोटा के प्रायमरी स्‍कूल की याद आई। घंटी बजने लगी। आँखें मुँद गईं। फिर बीते हुए तमाम दिन, तमाम लोग, तमाम जगहें याद आई। जैसे कोई फिल्‍म चल रही हो। बीच-बीच में किसी ट्रेन के चलने की और सीटी की आवाज आती। अपने छूट जाने का डर धकिया-धकिया कर घेरता। अजब हालत जैसे सपना देख रहे हैं और बूझ भी रहे हैं कि सपना देख रहे हैं। वे सभी दिखते जो कभी कहीं मिल या कहीं नहीं मिले। इन सब के बीच दूब से दूर आसमान तक फैलता दुर्जनसिंह दिखता। हँसता हुआ। हाथ बढ़ाता। मैं उसे देख रहा और जैसे दिमाग के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हों फिर भी मैं एक इकाई बना अपने भीतर कहीं थिर हो गया हूँ। एक शांत लहर मुझे भिगो कर फिर वापस आ रही है। मैं उस नीम बेहोशी में डूबता चला गया।
जब कुछ ठंड लगी तो आँख खुली। सिर पर से धूप नदारत थी। फौब्‍बारे पर मुँह धोया और वापस चल दिया।
लौटते ढलान पर साइकिल अनायास चल रही थी। शरीर का वजन नहीं था। और न साइकिल का। मन हल्‍का था। यकायक मैंने एक हाथ उठाकर जो से आवाज लगाई -
'...दही लो ऽ...ऽ...ऽ... मही लो ऽ...ऽ...ऽ...और ऽ...ऽ...ऽ... दूध ऽ...ऽ...ऽ...' आवाज गूँजी। राह चलते एक दो लोगों ने चौंक कर देखा। मैंने जोर से फिर वही आवाज लगाई। अब किसी ने नहीं देखा। पुलिया पर एक आदमी बकरी को बदस्‍तूर पत्ती खिलाता रहा।
हवा हल्‍के-हल्‍के चल रही थी। मैंने दबाव देकर भर ताकत दो चार पैडिल मारे। साइकिल को फुल स्‍पीड में छोड़ दिया। हैंडिल पर से दोनों हाथ हटाकर पूरे गले से हूपिंग करता हुआ ऐसा कुछ चिल्‍लाया जैसा अक्‍सर बंदर संभव डाली से असंभव चट्‌टान पर छलाँग लगाने के पहिले बुलंद किलकारी भरते हैं।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

एक था कागा

    
कहानी   
एक था कागा
दीर्द्घ नारायण

जन्म रू १९६८

महत्वपूर्ण पत्रा.पत्रिाकाओं में कहानियां प्रकाशित।
रक्षा संपदा कार्यालयए ११६ए ताज रोडए आगरा छावनी
मोण् ०९४११११५१११
  

मध्य नवंबर का यह समयए दिल्ली में तो जैसे शाम को आसमान से गुलाब की वर्षा होती हो। ऐसे में अपने जेण्एनण्यूण् कैंपस का समां ही जुदा है। आठ महीने की शरीर थकाऊ और मन ऊबाऊ उष्ण कटिबंधीय दीर्द्घकालीन गर्मी के बाद ही तो इस निरालेपन का शुभ आगमन हुआ है। ऐसा गुलाबी मौसम छोड़कर कौन जाए चंद्रेश के गांवए वह भी बिहार के सुदूरवर्ती क्षेत्रा मेंए नेपाल और बंगाल की सीमा से लगे कहीं द्घोर देहात में। वैसे भी मुझे आगामी मार्च तक श्पर्यावरण और पक्षीश् विषय पर विभाग में थीसिस जमा करना हैए मेरी गाड़ी तो पहले से ही एक साल लेट है। कृपया यह ख्वाब.खयाली बिलकुल मत पालिए कि कैंपस की रंगीनियां मुझे चंद्रेश के गांव जाने से रोक रही हैंए तदनुरूप यह कहानी भी कैंपस आशिकी में सराबोर होने का भ्रम मत पाले। समझदार के लिए इशारा ही कापफी होता हैए श्पर्यावरण और पक्षीश् जैसे शुष्क टॉपिक पर रिसर्च करने वाले को कौन भला लिफ्रट देगी! दरअसल वह दो दिनों तक मेरे पीछे पड़ा रहाए मुझे अपने गांव ले जाने की अनवरत जिद लिए.श्तुम विश्वास करो मेरे गांव में एक अजीब बात हो गई हैए मेरे साथ तुम भी चलोए देखें तो हकीकत क्या है।श् मेरे दो बार मना करने के बाद तो वह श्बेस्ट ेंडश् की नाव पर सवार हो लिया.श्हो सके तुम्हारे टॉपिक पर एकाध पेज जोड़ दे यह अजीब सी द्घटनाण्ण्ण्श् द्घटना चाहे जो भी हो मेरे टॉपिक पर वह क्या खाक हेल्प करेगीए चंद्रेश के टॉपिक श्इक्कीसवीं सदी में सामाजिक जागरूकता की दिशाश् में भले ही कुछ एड हो जाए। गांव.समाज में द्घटी कोई द्घटनाए परिवर्तन आदि समाजशास्त्रा के आलिंगन में ही तो जाएगा!
वैसे भी चंद्रेश का श्अजीबश् शब्द पर दबाव बनाकर बोलना मेरे अंदर कौतूहल कमए गुदगुदी ज्यादा पैदा कर गयाए ग्रामीण भारत में हो रहे परिवर्तन के बारे में सुनी.कही गई बातें मेरे मन में गुदगुदी का संजाल और कर्ण व नेत्रा स्वाद की अपार संभावनाएं उछाल रही थीं कि आजकल गांव में तो पंचायतें लगती रहती हैंए खासकर छोरा.छोरी के मुद्दे परए रस ले.लेकरए कोई लड़का.लड़की अरहर के खेत में लिपटे हुए रंगे हाथ पकड़े गए होंगेए पिफर पंचायत हुई होगी और अब दोनों पक्ष आमने.सामने होंगेए एक दूसरे के खून के प्यासेण्ण्ण् या पिफर किसी युवक.युवती में महीनों.वर्षों से लुका.छिपीए गुत्थम.गुत्थी चल रही होगीए अब तो युवती कुछ श्महीने सेश् होगीए शादी को लेकर रस्साकस्सी पंचायत दर पंचायत चल रही होगीए लड़की ऊंचे द्घराने की होगी तो लड़के वाले शादी के पक्ष में गोलबंद होंगे जबकि लड़की वाले लड़के को कठोर दंड के लिए ऐड़ी.चोटी एक किए होंगे या अगर लड़का उच्च कुल का होगा तो लड़की वाले शादी के लिए अड़े होंगे जबकि लड़के वाला ले.देकर मामला रपफा.दपफा करने का तिकड़म भिड़ा रहा होगाण्ण्ण् सो पूर्णियां.अररिया के लिए सीमांचल ट्रेन में बैठते ही अपनी उत्सुकता काबू में न रख पाने के वशीभूत मैंने पूछ ही लिया.श्रे चंद्रेशए उस अजीब सी बात का थोड़ा क्लू तो बताओए मैं जान तो सकूं कि आखिर मामला क्या हैण्ण्ण्श् मुझे जरा भी शक नहीं था कि मामला छोरा.छोरी से हट कर होगा.श्देखो यारए बात ऐसी है कि मेरे गांव बकैनियां में दो टोला है.पूरब टोला और पश्चिम टोलाए दोनों टोला के बीच कापफी मतभेदए तनातनी है और हिंसक वारदात तक हो चुकी हैए पुलिसण्ण्ण्।श् श्अच्छा.अच्छाए ठीक.ठीक हैए मैं समझ गयाश्.मैं अंदर से कांप उठा थाए न जाने ये चंद्रेश मुझे भी कहीं पुलिस के लपफड़े में न द्घसीट ले। मेरे बोलने के अंदाज से वह समझ गया कि मामले की प्रकृति को जैसे मैंने समझ लिया हैए इसके बाद वह चुप लगा गया। ट्रेन अलीगढ़ पार कर चुकी थीए मैं चुपचाप अपनी बर्थ पर सांस अंदर.बाहर करने लगाण्ण्ण्।
श्बस अब आधा किलोमीटर ही रह गया हैए वह देखो सामने बांस.बिट्टीए उसी के पार तो है मेरा गांव बकैनियांश्.पांच किलोमीटर पैदल चलते.चलते थक जाने की शिकायत का सम्मान करते हुए चंद्रेश ने उंगली के इशारे से आस बंधाईए जैसे बच्चे को लड्डू देकर दौड़ा रहा हो। नजर उठाकर आंखें गोल करके मैंने पाया सामने बांसों के झुरमुट की लंबी श्रृंखला धरती के गर्भ से निकल रही हैए जैसे.जैसे नजदीक आते गए बांस के झुरमुट धरती से निकलकर थोड़ा.थोड़ा बड़े होते गए। दूर से सपाट और काली दिखने वाली झुरमुट की श्रृंखला नजदीक आने पर सद्घन और हरित पट्टी सी दिखने लगी। झुरमुट में प्रवेश करते ही मुझे संकल्प लेना पड़ाए दिल्ली वापस लौटते ही बांस के इस कदर सद्घन और दीर्द्घतम झुरमुट को गिनीज बुक ऑपफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज कराने के लिए वृत्तचित्रा बनाऊंगा। बांस.बिट्टी के बीच.बीच में सेमल के विशालकाय पेड़ आसमान से बातें करने में मशगूलए जैसे धरती से आकाश तक गांव की कड़ी पहरेदारी कर रहा हो। झुरमुट खत्म होते ही पीपल के उर्ध्वगामी और बरगद के क्षितिजगामी प्रकृति के दसियों पेड़ हवा के साथ अठखेली करने में मग्न थेए जैसे हवा में ऑक्सीजन का स्प्रे कर रहा हो। गांव की सीमा पर तैनात बलशाली पेड़ गदाधारी सदृश्य दिख रहे थे। आगे बढ़ने पर आम के कई बगीचे सड़क के किनारे.किनारे शांतचित्त पड़े हैंए जैसे इनकी तैनाती हुई हो। सड़क के एक ओर बच्चों के बालसखा जामुन और बेर के अनगिनत पेड़ अपने कोमल पत्ते लहरा रहे हैंए जैसे ग्राम.आगंतुकों का गर्मजोशी से स्वागत कर रहे होंए उसके बाद मंदिर जैसे गांव का रक्षकए मंदिर से लगे विशाल तालाब जैसे गांव का पोषकए पिफर कुछ आगे ऐतिहासिक कुआं जैसे गांव का पालक! अब मैं बीच गांव मेंण्ण्ण् झोपड़ियांए पुआल केए टीन के ऊंचे.ऊंचे द्घर और इक्के.दुक्के पक्के मकान! कुल.मिलाकर पफकीरी.गरीबी और कामचलाऊ आय वर्ग का बेजोड़ कोलाजण्ण्ण् थोड़ा आगे बढ़ने पर सामने विद्यालय भवन श्ण्ण्ण्स्वाहाण्ण्ण्श्.कानों में नारे जैसा मंत्राधारित समवेत स्वर पड़ा। श्स्कूल में कुछ हो रहा है क्याश् .मेरी कौतूहल की पोटली खुलने लगी। यगांव की सीमा में प्रवेश करते ही वातावरण की पिफजा ने गुदगुदी की हर संभावना मिटा डाली थीद्ध चंद्रेश ने गर्व से कहा.श्अजीब बात का परिणाम दिख रहा है।श् सामने से आती हुई दो बुजुर्ग महिला के मुंह से चंद्रेश के लिए आशीर्वाद झरने लगा. श्जुग.जुग जियो बेटाए अच्छा हुआ तुम आ गए बेटाए दुनिया की भलाई में भागीदार बनो।श् पिफर तो चौराहे से मेरे कदम तेजी से स्कूल प्रांगण की तरपफ बढ़ने लगेए मानो द्घटना स्थल पर तरंग गति से पहुंच चुका मेरा मन अदृश्य डोरी से मुझे खींच रहा हो। लेकिन उसने मुझे पीछे से खींच लिया.श्अरे बु;ूए पहले द्घर चलो नहा.धोकर शु; होकर ही वहां चलना ठीक रहेगा।श् तब कहीं मन की डोर छूटी.श्लगता है मामला धर्म.प्रकृति से जुड़ा है।श्
आधा.पौने द्घंटे बाद हम दोनों स्कूल प्रांगण में भारी भीड़ के भाग थे। एक खास केंद्र की ओर मुंह किए हजारों लोगों की वृत्ताकार भीड़ जोश से लबालब थी या गुस्से से सराबोर थीए यह निश्चय कर पाना दुविधापूर्ण था। उस खास केंद्र से आकाश की ओर धुएं के साथ मंत्राोच्चारण का अविरल प्रवाह न जाने कब से जारी था. ण्ण्ण्एण्सीण् वाले स्वाहाण्ण्ण् वाशिंग मशीन वाले स्वाहाण्ण्ण् सीण्एपफण्सीण् पर जिंदा रहने वाले स्वाहाण्ण्ण् ओजोन परत खाने वाले स्वाहाण्ण्ण् कार्बन बढ़ाने वाले स्वाहाण्ण्ण् तापमान बढ़ाने वाले स्वाहाण्ण्ण् प्रदूषण पफैलाने वाले स्वाहाण्ण्ण् धरती मां का भक्षण करने वाले स्वाहाण्ण्ण् मैंने गौर कियाए मंत्राोच्चारण सुनकर चंद्रेश के रोंगटे खड़े होने लगे थे। वह न उछलते हुए भी मुझे उछलता हुआ दिखने लगाए वृत्ताकार भीड़ के वलय में वह तेजी से द्घूमने लगाए मुझे शक होने लगा क्या वह जेण्एनण्यूण् में शोध करने वाला वही चंद्रेश हैए मुझसे रहा न गया.श्अरे चंद्रेश यह क्या ड्रामा चल रहा हैए श्सीण्एपफण्सीण् स्वाहाश् ये सब क्या है।श् वह खुद आश्चर्यचकित था.श्मुझे भी पूरी बात नहीं पताए सिपर्फ इतना पता था कि गांव के दोनों टोलों के बीच उसी कागा को लेकर संद्घर्षपूर्ण स्थिति आ गई थीण्ण्ण्श् मेरे मुंह से आश्चर्यपूरित शब्द निकल पड़ा.श्काअ गाआण्ण्ण् कैसा कागाण्ण्ण्श् इतने में चंद्रेश भीड़ में एक सुराग पाकर अंदर समाने लगाए भीड़ में खोने से पहले वह बोलता गया.श्तुम बाहर ही रुकोए मैं अंदर जाकर देखता हूं क्या बात है।श् उस भीड़ के बाहर मैं अकेला व्यक्ति था जो न तो खास केंद्र की ओर उन्मुख था और न ही मंत्राोच्चारण में शामिल था। लेकिन इस वातावरण ने शीद्घ्र ही मुझे भी अपने आवरण में ले लियाए मैंने पाया मेरे शरीर के रोंगटे भी अपनी पोजीशन छोड़ने लगे हैंण्ण्ण् अब मैं उस वातावरण में सम्मिलित हो चुका थाए मैंने अपने.आपको अभागा पाया जो भीड़ में एक सुराग तक नहीं खोज पा रहा था। हारा हुआ सा चारों ओर नजरें दौड़ाने लगाए कोई दयावान तो मिले जो मुझे श्स्वाहाश् केंद्र तक ले जाकर मुझे अधोगति से उबारेण्ण्ण् श्रे उस टीले में पिरामिड सा क्या बन रहा हैश्.मैंने देखाए उत्तर की ओर कोई डेढ़.दो सौ मीटर की दूरी पर बरगद पेड़ से सटी कोई आकृति खड़ी हो रही हैए निर्माण कार्य में लगे सैकड़ों लोग कोई नारा भी बुदबुदाए जा रहे हैं। मैंने पायाए मैं तेज कदमों से उधर ही जा रहा हूंए नजदीक आते जाने पर नारा बिलकुल स्पष्ट होता गयाण्ण्ण् कागा अमर रहेण्ण्ण् कागा विलुप्त कराने वाले जागोण्ण्ण् पक्षियों को नष्ट करने वाले मुर्दाबादण्ण्ण् कागा अमर रहेण्ण्ण् जब तक सूरज चांद रहेगाए कागा तेरा नाम रहेगाण्ण्ण् नजदीक आकर मैंने पायाए तीन तिरछी दीवारों को जोड़कर पिरामिड आकृति ऊपर उठ रही है। उधर सीण्एपफण्सीण् स्वाहा इधर कागा अमर रहेए मुझे लगा मैं धरती नामक ग्रह पर न होकर किसी अन्य खगोलीय ग्रह पर पहुंच गया हूं। मैं टकटकी लगाए कभी वृत्ताकार भीड़ को देखताए कभी उठते पिरामिड कोण्ण्ण्
श्ओजोन परत खाने वाले स्वाहाण्ण्ण् तापमान बढ़ाने वाले स्वाहाण्ण्ण् पक्षियों को नष्ट करने वाले मुर्दाबादण्ण्ण् कागा अमर रहेण्ण्ण् धरती मां का भक्षण करने वाले स्वाहाण्ण्ण् कागा को लुप्त करने वाले जागोण्ण्ण् कार्बन बढ़ाने वाले स्वाहाण्ण्ण् कागा अमर रहेण्ण्ण्श् जैसे मंत्राोच्चारण और नारा अब क्रम.भंग होकर मेरे कानों में पड़ने लगाण्ण्ण् इधर सभी लोग पिरामिड निर्माण में लगे थे और उधर वृत्ताकार भीड़ का हर व्यक्ति स्वाहा.केंद्र की ओर उन्मुख थाए एक भी व्यक्ति अकारण नहीं था जो मेरी जिज्ञासा यबल्कि द्घबराहटद्ध शांत कर सकेण्ण्ण् श्ओ गॉडश्.मेरी जान में जान आईए पीछे सड़क के किनारे पीपल पेड़ के नीचे बैठे एक बुजुर्ग ने मुझे दोनों हथेलियों के इशारे से बुलाया। मैं आजाद कैदी सा उधर भागा।
श्बेटाए तुम्ही चंद्रेश के साथ दिल्ली से आए होए बहुत बड़े विद्वान लग रहे होए आओ बैठोण्ण्ण्श् मुझे अवाक देखकर वह हंस पड़ा.श्अरे बेटाए यहां पर इसी खादी के गमछे पर ही बैठना होता हैए समझो धरती मां का आसन है।श् मैं उसी गमछे में उससे सटकर बैठ गयाए लेकिन मेरी नजरें स्वाहा केंद्र और बढ़ते जा रहे पिरामिड के बीच दौड़ रही थींए अजनबी को जिज्ञासु जान वह बुजुर्ग शोकजनक अंदाज में बोल उठा.श्यह तो हम गांव वालों का दुर्भाग्य हैए हमारे गांव तो क्या पूरी धरती का संकट हैए इस गांव का एकमात्रा कागा थाए उसने भी शनिवार को प्राण त्याग दिएए पता नहीं इस दुनिया में और कितने कागा बचे हैं.बचे भी हैं कि नहींए अगर हैं भी तो न जाने कहां
होंगेश्.बोलते.बोलते वह आसमान की ओर ताकने लगा। उस अजूबेपन की अबूझ पहेली मुझ पर टनों वजन डालती जा रही थीए सो मैं बीच में ही हड़बड़ाकर टपक पड़ाए बुर्जुग के बोलने के अंदाज से बिलकुल अलग.श्उधर कागाए इधर स्वाहाए आखिर माजरा क्या हैण्ण्ण्।श्
श्क्या तुम्हें चंद्रेश ने नहीं बतायाश्.वह मेरी आंखों में डूबता हुआ जान पड़ा।
श्मुझे सिपर्फ इतना भर पता है कि कोई अजीब सी बात हो गई हैश्. मैं सचमुच अबूझ और भोला सा बना हुआ था।
श्अजीब सी बात नहींए पूरी धरती में गजब होने वाला हैण्ण्ण्।श् वह उदास सा हो गयाए पिफर स्वतः लंबी सांस ली.श्इस गांव के दो टोले हैंए एक पश्चिमी बकैनियां और एक पूर्वी बकैनियां पूरे गांव में वर्षों पहले तक रंग.बिरंगे पक्षियों के साथ.साथ कई कागा भी थेण्ण्ण् पर पिछले दो.ढाई साल से सिपर्र्फ एक ही कागा पूरे गांव की मान.मर्यादाए इज्जत.प्रतिष्ठा को बचाए हुए थाण्ण्ण् विस्तार से तो नहींए संक्षिप्त में ही कागा कथा सुन लोण्ण्ण्।श्
पूर्वोत्तर बिहार का अररिया जिलाए यानी रेणु जी का श्मैला आंचलश् आज तक वैसा का वैसा हीए धरी चदरिया। इसी आंचल का एक गांव बकैनियांए दो टोलों में विभाजित.पूर्वी टोला और पश्चिमी टोलाए दोनों के बीच विभाजक रेखा.एक मृत और उथली धार जो अब धान का कटोरा हैए कहते हैं दो सौ साल पहले यहां भयावह नदी बहती थी। यूं तो इस गांव तक कोई सड़क नहींए बिजली नहींए टेलीपफोन नहींए ऊपर से नीम करेला.वृहद ग्राम पंचायत के एक किनारे होने के कारण ग्राम पंचायत में कोई प्रभाव नहींए पर प्रकृति मेहरबान रही है.उपजाऊ जमीनए जमीन के मात्रा बीस पफीट नीचे अगाध जलए जमीन के ऊपर स्वच्छ आकाशए गांव के चारों ओर बड़े.बड़े हरे.भरे पीपलए पाकड़ए सेमलए बरगदए जामुन के पेड़ए बांस की लंबी हरित पट्टीए बीच.बीच में आम.अमरूद के बगीचेए प्रकृति के गीत गाते मैनाए गौरैक्षयाए कचबचियाए तोताए कबूतरए कौवाए कोयलए कठपफोड़वाए बगुलाए नीलकंठण्ण्ण् पर्व.त्योहारए रीति.रिवाज की अटूट श्रृंखला यानी संपूर्ण सुखए भरपूर उल्लासए अनंत उमंग में डूबा गांव बकैनियां। कोई दस वर्ष पूर्व गांव की दुनिया से गरुड़ धीरे.धीरे विलुप्त हो गयाए सारे गांव में कोलाहल.शोक की अव्यक्त धाराए पर गांव वालों ने प्रकृति की माया समझ गरुड़ की विदाई को पचा लिया। पिफर गांव और गांव के लोग चलते रहे अपनी धुन में।
दो साल पहले तक गांव में असंख्य कौवों के साथ कागा की भी पर्याप्त संख्या थीए कागा यानी पौराणिक पक्षियों में से एकए गांव की आत्मा का एक अभिन्न अंग। किसी के श्रा; के दिन तालाब किनारे क्रिया.कर्म संपन्न होने के बाद पितर को लगाया हुआ दही.चूड़ा.लावा का भोग कौवा.कागा के माध्यम से ही तो मृतात्मा तक पहुंचता है। पितृ पक्ष में तो कौवा.कागा हमारे पितर के एकमात्रा दूतए संवादकए और भोज्य पदार्थ चढ़ावा वाहक होते हैं। लेकिन नमान तो कौआ से नहीं हो सकता न! वह तो सिपर्फ कागा के लिए सुरक्षित.संरक्षित हैए कौवा तो इस कार्य के लिए कतई स्वीकार्य नहीं है।
नमान पर्व से कागा मौलिक रूप से जुड़ा हैए यह इतिहास के किस काल से चली आ रही है पता करना मुमकिन नहीं। नमान पर्व या प्रथा अगहन महीने में मनाई जाती है इस क्षेत्रा में। इसे शु; रूप में लवण ही कहते हैंए धान की नई पफसल कटने के बाद नए चावल के साथ नमक मिला कोई भी व्यंजन खाना वर्जित है जब तक कि अगहन में नमान यानी लवण पर्व या अनुष्ठान संपन्न न कर लिया जाए। यह एकमात्रा ऐसा वार्षिक पर्व या अनुष्ठान है जिसकी कोई निश्चित तिथि नहीं होतीए बल्कि अगहन महीने में हर परिवार अपनी सुविधानुसार किसी भी तिथि में यह अनुष्ठान संपन्न करता है। दिन भर विभिन्न चरणों में चलने वाली मनोरंजक व उल्लासमय प्रक्रिया के बाद रात को देवी.देवता को नए चावल का प्रसाद चढ़ाते हैंए पिफर नमकयुक्त भोजन ग्रहण करते हैंए सामूहिक रूप से। सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है प्रातःकाल वाला जब कुंवारी कन्याएं केले के पत्ते में दही.चूड़ा व प्रसाद लेकर कागा के लिए भोजन रखती हैंए द्घर के पिछवाड़े में या बगीचे में! न जाने प्रकृति में वह कौन सी अंजान शक्ति है जिसने कागा में एक अनिवार्य व्यवहार या आचरण उत्पन्न कर रखा थाए कागा उस पत्तल में रखे प्रसाद और भोजन ग्रहण करता ही करता हैए तब कहीं गृह स्वामी निश्चिंत हो पाता है कि अगले वर्ष भी धरती मां अन्न भंडार पूर्ण करेगी।
दो साल पहले तक इस इलाके के साथ.साथ इस गांव में भी सैकड़ों कागा थेए जैसे मनुष्य के साथ उसका भी पूरा हक हो गांव मेंए लेकिन धीरे.धीरे कागा की संख्या द्घटती गई। जब तक कागा की संख्या पर्याप्त थी गांव का नमान सुचारू रूप से निभता रहा। कागा की संख्या कापफी कम होते जाने से नमान की सुबह लोगों की बेचैनी बढ़ने लगी। दो साल पहले कागा की संख्या मात्रा एक रह गईए जैसे प्राणी जगत की धरती की तीर्थ यात्राा में अपनी प्रजाति की तीर्थ यात्राा निपटाकर अकेला रह गया हो। धरती मां का शुक्रिया अदा करने। भूल.चूक मापफ करना हे माते। हे मांए जब इस अंतरिक्ष में तुम्हारा दोबारा जन्म होगाए तुम्हारे पास स्वच्छ पर्यावरण होगाए तुम्हारी इजाजत होगी तो दोबारा जन्म लेंगे! कागा की संख्या मात्रा एक रह गई है इसका पता भी लोगों को महीनों बाद लगाए जिस दिन कागा दो से एक रह गया उसकी बेचैनी बढ़ती गईए वह गांव के इस किनारे से उस किनारे तक मंडराता रहाए काआंव.काआंव करते.करते। शुरू में लोगों का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआए गांव वालों के लिए यह कागा का सामान्य व्यवहार था कि कागा जब काआंव.काआंव करे तो समझो किसी के द्घर मेहमान आने वाले हैंए और एक बड़े गांव में तो लगभग हर दिन कोई न कोई मेहमान आता ही है। लेकिन आषाढ़.सावन.भादो में तो मेहमानबाजी बिलकुल बंद ही हो जाती हैए जब सारा इलाका पटुआ काटने और धान रोंपने में मशगूल रहता है। उन महीनों में भी जब कागा बेचैनी से काआंव.काआंव करने लगा तो
लोगों को शक हुआ कि कोई बात जरूर है इस कागा के साथ। पिफर तो सुबह ही बच्चे उस कागा के पीछे पड़ गएए शाम तक आविष्कार कर डाला कि इस गांव में अब एक ही कागा बचा है और इतनी बड़ी धरती में अकेला होने के कारण वह डर खा गया है।
गांव में एकमात्रा कागा होना नमान के लिए आपफत से कम न था। सौ परिवारों के गांव में सदियों से पूरे अगहन में चार.पांच तिथियों में नमान संपन्न होता रहता था। एक दिन में यदि बीस.पचीस परिवार भी नमान संपन्न करते थे तो सुबह सभी के पत्तल में कागा मिल जाता थाए कागा की संख्या कम होती भी गई तो बगल वाले कागा से काम चलाया जाने लगाए अब एक कागा भला एक ही दिन में कितने परिवारों के पत्तल का भोज्य प्रसाद चखेगा! लेकिन बकैनियां वालों को अपने ऐतिहासिक शांतिपूर्ण ग्राम्य संस्कार पर गर्व रहा हैए सो कई दौर की आपसी बातचीतए विचार.विमर्श के बाद गांव वालों ने नायाब कागा प्रबंध पेश कियाए जैसे महान मानवशास्त्राी ेंच बोआस के सांस्कृतिक सापेक्षवाद में संस्कृतियां अपने.आप स्वतंत्रा होकर आगे बढ़ती हैंए वैसे ही अब पूरे अगहन बिना नागा किए हर दिन नमान संपन्न होगाए एक दिन में सिपर्फ तीन.चार द्घर ही नमान कराएगाए इस प्रकार एक ही कागा से पूरे अगहन भर सभी द्घर में नमान संपन्न हो सकेगा। लेकिन नमान शुरू किस द्घर से होघ् लॉटरी निकाली गई.पूर्वी टोला के उत्तर से या दक्षिण से या पिफर पश्चिम टोला के उत्तर से या दक्षिण से। लॉटरी में पर्ची निकली पश्चिम टोला के दक्षिण सेए यानी संत लाल विश्वास के द्घर से शुरू होकर अगहन के अंत में पूर्वी टोला के दक्षिण में रद्घुवर दास के द्घर समाप्त होगा। पिफर तो पहले वर्ष पूरे अगहन पूरे गांव में भोज सा माहौल रहाए जिस.जिस परिवार में नमान हो वे अपने.अपने सन्निकट को नमान भोज में शामिल करते। पूरे महीने कागा बिना किसी रोक.टोक के नमान संपन्न करता रहाए जैसे बैट्री चालित कोई खिलौना हो। उस वर्ष के नमान से उत्साहित हो गांव वाले गर्व से बोल उठे.बदलते जमाने के साथ हम भी तालमेल बिठा सकते हैं। चक्रीय नियम के तहत अगले वर्ष नमान पूर्वी टोला के रद्घुवर दास के द्घर शुरू होकर अगहन के अंत में पश्चिम टोला के संत लाल विश्वास के द्घर समाप्त होना थाण्ण्ण्।
पूरे एक साल गांव में और आस.पास के गांवों में गेहूंए पटुआए धानए दलहन की बहार रहीए हरे.हरे खेतए पूरे.पूरे खलिहानए भरे.भरे द्घर.आंगन! नमान आते.आते लोगों का हर्षित मन हंसतेए खिलखिलाते चेहरे से बाहर झांकने लगाए उमंग आंखों में तैरती दिखने लगी और पूरे गांव का जोश ढोलक.मृदंग.मंजीरे पर थाप देने लगा। नमान आते.आते कागा तैंतीस करोड़ में से अनाम.अंजान देवी.देवता के दूत की पदवी पाता गया.श्आखिर सोचो जराए सारे कागा मर.खप गएए यही एकमात्रा कैसे बचा है! जरूर किसी न किसी देवता का दूत होगा।श् मौका पाकर भक्त हंसदास ने जोड़ ही दिया.तैंतीस करोड़ में से एक है दाना देव और कागा है उसी का दूत। पिफर तो इस बार का नमान छोटा पर्व.अनुष्ठान न रहकर अन्न.
महोत्सव का रूप.रंग धरने लगा। नवयुवकों की टोली ने गांव में एक महीने तक कागा मेला आयोजित करने की भी द्घोषणा कर डाली। पिफर तो आस.पास के गांवों से भी जन.जोर हिलोर मारने लगा। देखते ही देखते गांव के पूरब धान कटान से खाली पचास एकड़ खेतों में कागा मेला उछल.कूद करने लगा। नमान की पूर्व संध्या आते.आते रद्घुवर दास का द्घर तो द्घर न रहाए इसने नमान.मठ की पदवी हासिल कर लीए रद्घुवर अचानक रद्घुनाथ कहलाने लगा.श्रद्घुकुल नंदन रद्घुनाथ धन्य होए नवयुग का नमान तुम्हारे द्घर से यात्राा आरंभ करेगा! नमान के दिन गांव में हंसता हुआ सूरज उगाए अगहन की मीठी.मीठी ठंड में पसरती धूप की उष्मा इस वर्ष शरीर में मन मेंए अनंत सुखद स्पर्श का आभास दे रही थी। दिन भर संपन्न होने वाले अनुष्ठान वृहद रूप.रंग में उतरता.सिमटता रहा। सांध्यकालीन अन्न.पूजन तो रात्रिा.विस्तार हेतु अंधकार को याचक बनाए रखा। दिन की तो बात छोड़िएए कुंवारी कन्याओं का अभिनंदन दल तो मध्य रात्रिा तक कागा पर टकटकी लगाए रहाए जैसे स्वर्ग से उतरकर सीधे इसी गांव में पधारा हो। पूर्णियां कॉलेज में जंतु विज्ञान का छात्रा नवीन व्याख्या पर उतर आया.अगर पक्षी विज्ञानी इस कागा का परीक्षण करे तो बेशक यह तथ्य मिलेगा कि इसमें कुछ विशिष्ट लक्षण या जीव द्रव्य है जो सामान्यतः पृथ्वी के पक्षियों में नहीं पाया जाता है और यदि नासा वाले इस गांव में आ सकें तो साबित हो सकता है कि किसी दूर ग्रह या तारा से उड़नतस्तरी द्वारा इस पक्षी को भारत वर्ष में उतारा गया हैए पृथ्वी लोक से मैत्राी हेतुए पिफर तो इसे बु; भूमि में ही उतरना था। वह रात गांव में सबसे लंबी रात थीए कागा के दीदार के इंतजार मेंए स्पष्टतः असंख्य कागा महायुग का अंत और एकल कागा युग की शुरुआतण्ण्ण्।
अगली सुबह धरती में सूरज की रोशनी पहुंचने से पहले ही कुंवारी कन्याओं के किशोरवय की कलकल से गांव रोशन हो उठाण्ण्ण् कागा.कागा.कागा.कागाअअ .काआगाआण्ण्ण् कहां है कागा.कहां है काआ.गाआण्ण्ण् हो कागा देवए मत करो देरण्ण्ण् पश्चिम टोला से पूरब टोला तक बालिकाओं का हुजूम हवा में तैरने लगाए पर कागाघ् न कागा और न उसका काआंव! पिफर तो औरत.मर्द. बच्चे.बूढ़े.जवान सभी की आंखें दूरबीन बन गईं कागा खोज अभियान में। उनके बीच उत्साह.उत्सुकता जवान हो उठीए जो सबसे पहले कागा देखेगा अगले साल उसके द्घर से नमान शुरू होगा। लेकिन कागा का कोई अता.पता नहींए जैसे दैवीय शक्ति से अंतर्धान हो गया होए बडे.बुजुर्ग दर्शन पर उतर आए.श्अरे! अब यह कोई साधारण कागा थोड़े न हैए देव.दूत है तो गांव वालों की परीक्षा तो लेगा ही लेगाए धीरज धारण करोए प्रसन्न होकर अपने.आप प्रकट होंगे।श् पिफर तो पल भर में ही पूरा गांव मौनी मठ लगने लगाए ण्ण्ण्जैसे कोई अवतार लेने वाला होण्ण्ण्।
श्मुन्नर काका के खेत में कागाआआ अण्ण्ण्श् हीरेन चौधरी की छोटी लड़की सुधा एकाएक चीख उठी तो जन समूह मुन्नर यादव के खेसारी खेत की तरपफ दौड़ पड़ाए जैसे भूकंप से अचानक उत्पन्न हुई बड़ी खाईं की ओर आस.पास की जलराशि प्रवाहित हो उठती हैण्ण्ण् खेसारी की पफसल के रंग का ही तो होता है कागा। भीड़ के पद.थाप से पूरे खेत की पफसल का वजूद मिटता गयाण्ण्ण् खेत के लगभग मध्य.उत्तर में कागा पड़ा थाए निस्तेज.अक्रिय। भीड़ में कोहराम मच गयाए समवेत स्वर पफूट पड़ा.पानी का छींटा मारो पिफर पंख उठाकर हवा में लहराओए पक्षी में जान ऐसे ही वापस आती है। जीतमन वैद्य भीड़ चीरकर आगे आएए कागा को टटोलाए आंख की पुतली उलटाई.चोंच पफैलाईण्ण्ण् उनका चेहरा दयामय हो उठाए आवाज करुणापूर्ण.श्इसके प्राण तो चार.पांच द्घंटे पहले ही निकल गए जान पड़ते हैं।श् पिफर तो भीड़ वृत्त के केंद्र से पफुसपफुसाहट तरल वलय भांति शोर में बदलती गईए कागा मर गयाण्ण्ण् कागा नहीं रहेण्ण्ण् कागा स्वर्ग सिधार गएण्ण्ण्।
श्यह पश्चिम टोला की साजिश हैश् भीड़ के बाहरी भाग से दो.तीन लोगों का मिश्रित उद्गार यइसलिए न पहचाना जाने वालाद्ध पफूटते ही विस्मित.करुणामय.उदास भीड़ के चेहरे पर उबालए क्रोध और द्घृणा तैरने लगीए जैसे कोई तैलीय पदार्थ अपना आवरण्ा तोड़कर पफैलने लगा हो। श्पश्चिम टोला की
साजिश क्यों होगीए पूरब टोला की क्यों नहींश्.लहटन यादव के टोकते ही पूरब टोला का साधु दास उखड़ गया.श्क्योंकि मुन्नर यादव पश्चिम टोला का हैए वैसे भी इस बार के महा नमान की शुरुआत पूरब टोला से हो रही हैए इसलिए आप लोग मन ही मन जल रहे हैंए पूरब टोला का भाग्य आप लोग पचा नहीं पाए तो कागा ही मरोड़ डालेण्ण्ण्श् इतने में तो पश्चिम टोला के दसियों लोग उबल पड़े.श्अरे पकड़ो स्साले कोए हमारे टोला पर कागा हत्या का आरोप लगा रहा हैए जबकि पूरब टोला वालों ने ही मारा हैण्ण्ण्श् इतना सुनते ही पूरब टोला के नवयुवक भीड़ से अलग होकर धोती.लुंगी कमर में लपेटते हुए यु;ातुर दिखने लगे.श्रे कागाखोर! हमारे टोला से तो नमान युग शुरू हो रहा हैए तो हम भला क्यों मारेंगे कागा कोए चुप हो जाओ नहीं तो जो आज तक नहीं हुआ है वह हो जाएगा।श् पिफर तो पश्चिम टोला के नवयुवक भी भीड़ से अलग होकर अपने टोला की तरपफ खड़े होकर कमर कसने लगेए बाजू लहराने लगे. कागा मेला और नए.नमान के चलते तुम्हारे द्घरों में मेहमानों की भीड़ बढ़ने लगी हैए तुम्हें भारी पड़ने लगा तो कागा ही खा डालाण्ण्ण्श् आग में द्घी पड़ चुका थाए पूरब टोला के बड़े.बुजुर्गों ने द्घोषणा कर डाली.श्अपने.अपने द्घरों से निकालो लाठीए आज पश्चिम टोला से निपटना ही पड़ेगाए शुरू से ही ये लोग पूरे गांव में दादागीरी करते आए हैं।श् चंद मिनटों में ही सारी भीड़ द्घरों में कैद हो गईण्ण्ण् आधे द्घंटे के अंदर ही दोनों टोला के बलिष्ठ लोग हाथों में लाठी लिए अपने.अपने टोले के आगे कतारब; खड़े हो गएए लाल.लाल आंखेंए पफड़कती भुजाएंए
क्रोधपूर्ण चेहरे पहले आक्रमण के इंतजार में उबलने लगे। जिस गांव में आज तक कोई हिंसक द्घटना नहीं हुईए जिस गांव से आज तक थाने में कोई रिपोर्ट नहीं लिखी गई यइसलिए पुलिस की नजर में सड़ा.गला गांवद्ध वहां अब खून की नदी अपना प्रवाह और दिशा तय करने लगीण्ण्ण् इस बीच भक्त अद्घोड़ी दास बदन उद्घाड़कर गेरुआ वस्त्रा लहराते हुए हौले.हौले गांव के मध्य बने ग्राम देव के स्थान तक पहुंचने लगेए उनकी मंथर गति से प्रतीत हो रहा थाए जैसे हवा में दोनों टोलों के दबाव से अवरोध की मोटी.मोटी अदृश्य बल्लियां बिछी होंए स्थान पर पहुंचकर दोनों हाथ उठाकर बारी.बारी से दोनों टोलों की तरपफ मुंह पफेरकर वह अपना पफेपफड़ा खाली करने लगाए स्वर थैली भरते हुए.श्आज तक इस गांव का भगवान रही है शांतिए गांव वालों ने आज तक एक चींटी तक नहीं मारी है तो पक्षी क्या मारेंगेए मेरी विनती है कि शाम को स्कूल प्रांगण में पंचायत बैठेण्ण्ण् बोलो मंजूर हैघ्श् दोनों टोला से पफुसपफुसाहट और बुदबुदाने का अस्पष्ट शोरगुल आने लगाण्ण्ण्
सूरज ढलान की ओर बढ़ रहा थाए पंचायत में नया सवेरा हो रहा था। तभी थानाध्यक्ष मय दलबल आ धमकाए मोबाइल युग हैए जाहिर सी बात है गांव में तनाव की खबर जिला प्रशासन तक पहुंच चुकी थी। दरोगा की अप्रिय आवाज पर सवार होकर कानूनी धाराओं के डरावने तीर छूटने लगे.श्यहां बैठे सभी लोग धारा तीन सौ सातए तीन सौ तेईसए तीन सौ
तिरेपनए पांच सौ छहण्ण्ण् में अंदर जाने के लिए तैयार रहो।श् पूरी तरह सन्नाटा छा गयाए जैसे अचानक मध्य रात्रिा टपक पड़ी होए सिपर्फ तनी ग्रीवा पर दरोगा का सिर अनियमित गति से चारों दिशाओं में द्घूर्णन कर रहा थाण्ण्ण् भीड़ से कृत्रिाम रूप से खांसने की आवाज आई शायद किसी के अंदर दरोगा से बात करने का साहस जन्म ले रहा थाए सो हल्का खांसकर साहस बटोरने की पूर्व सूचना देना चाह रहा था। राधेश्याम यादव यदोनों टोलों में सर्वाधिक धनी आदमीद्ध का दंडवत शरीर दिखने से पहले उसके दोनों हाथ जुड़े हुए ऊपर आए उसके शब्द अवर्णनीय रूप से याचनापूर्ण थेए जैसे मुंह से विनती सागर बह रहा हो.श्हुजूर हमारे गांव में ऐसी कोई बात नहीं हुई हैए एक अदना कागा को लेकर कुछ गलतपफहमी जरूर हुई थीए पर हम लोगों ने उसे भी सुलझा लियाण्ण्ण्श् उसको चुप कराते हुए दरोगा दहाड़ पड़ा.श्बिना कानून पढ़े पंचायत मत किया करोए यदि आपसी समझौता कानून की नजर में गलत हुआ तो पंचायत कराने वालों तैयार रहनाण्ण्ण् डॉक्टर साहब मृत कागा का परीक्षण कीजिएए रिपोर्ट बनाकर जिले में भेजना पड़ेगाश् साथ आए पशु चिकित्सक से बात करते हुए दरोगा जी सहज हो गए थे।
मृत कागा का परीक्षण निपटाकर पशु चिकित्सक और
दरोगा की टीम जीप में बैठने लगीए हिम्मत जुटाकर कुछ नवयुवक जीप तक प्रश्नवाचक मुद्रा लिए बढ़ेए पिफर तो दोनों टोलों के बहुतेरे युवकों और बड़े बुजुर्गों ने जीप को गोल द्घेरे में बदल डाला। लोगों की कौतूहल से भरी नजरों की प्यास बुझाने के गरज से डॉक्टर अब्दुल सलीम पर्यावरणविद नजर आए.श्देखिए मेन पफैक्टर है इन्वायरनमेंट में डिटेरियोशन! इसी का रिजल्ट है कि पिछले दो दशक में चिड़ियों की दसियों प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैंए यह जो चिड़िया है वह पोरस बोन वाला पफीदर्ड क्रिएचर हैए हवा में कार्बन की मात्राा बढ़ते रहने और धरती का तापमान बढ़ने से इनका वजूद खतरे में हैए वैसे भी कीड़े.मकौड़े कम होते जाने के कारण पक्षी वर्ग का बचना मुश्किल हैए पहले कागा की लाइपफ दो साल से ज्यादा होती थीए अब तो कापफी कम हो गई हैण्ण्ण्श् पीछे खड़ी दसवीं की छात्राा नीता अधैर्य हो उठी.श्मरने की बात तो समझ में आईए आदमी की जनसंख्या इतनी बढ़ रही है तो नए.नए कागा का जन्म क्यों नहीं हो रहा है।श् डॉक्टर साहब गंभीर होकर बोले.श्क्योंकि मानव जाति की पफर्टीलिटी को इन्वायरनमेंट ने अभी उतना प्रभावित नहीं किया हैए जबकि कागा वर्ग की पफर्टीलिटी कैपेसिटी कापफी कम हुई हैए साथ ही प्रजनन स्थल लगभग खत्म हो रहे हैंण्ण्ण्श् गांव वालों को अवाक.विस्मित हालत में डालते हुए जीप आगे निकल गई। वहां पर खड़े किसी के मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था जैसे सभी गूंगे हो गए हों। यह स्थिति गांव वालों के लिए बिजली गिरने से कम नहीं थीण्ण्ण् अंधेरे को अपनी आंखों में कैद करते हुए लोग स्कूल प्रांगण में हो रही शोक सभा में भाव विह्वल हुएण्ण्ण् भावनापूर्ण ढंग से निर्णय हुआ कि पक्षी वर्ग के ऊपर उत्पन्न खतरे के प्रति दुनिया को चेताने के लिए हवन किया जाए और कागा स्मारक बनाया जाए ताकि नमान का दही.चूहा.गुड़.प्रसाद का पत्तल स्मारक में ही चढ़ाकर नमान चालू रखा जा सकेण्ण्ण्।
श्ण्ण्ण्दिल्ली वाले बाबू साहब!! एक था कागा और यह थी उसकी कहानीए अब तो गांव में कोई कागा न रहाए कोई बात नहीं अब हम लोग उसके स्मारक को ही कागा मानकर नमान का अनुष्ठान पूरा करेंगे और देश.दुनिया के गैर.खेतिहर के लिए अन्न पैदा करते रहेंगे।श् मैं अभी भी अपने.आपको अधिक समझदार.बु;मिान समझता थाए सो मुझसे रहा न गया.श्माना कि कागा अब नहीं बचा हैए लेकिन आपका नमान तो कौवा से भी चल सकता है।श् बुजुर्ग निर्विकार भाव से बोल पड़ा.श्इस प्रस्ताव पर भी चर्चा हुई थीए पर लड़कियों ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि हम लोग कौवा को पत्तल नहीं देंगेए धर्मजीत मास्टर ने समझाया कि गांव से लेकर पूर्णियां.पटना.दिल्ली हर जगह अब तो कौवा ही राजपाट चला रहाए तो नमान भी कौवा से पूरा करोए पर लड़कियों ने काट दिया.नमान तो पवित्रा होता है कौवा से कैसे चलेगा भलाए राजपाट पवित्रा है कि अपवित्रा हमें क्या पताश् ण्ण्ण्पिफर तो स्मारक बनते देर नहीं लगीए सामने देखाए कल यह स्मारक होकर दुनिया को पशु.पक्षी बचाने का संदेश देगा।श् उस बुजुर्ग से बात करते.करते मेरी पर्यावरण विशेषज्ञता जाग रही थी.श्मेरी बात का बुरा मत मानिएगा अंकलए मैं कहता हूं आज आपका कागा मर गया तो आप लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक दिख रहे हैं और उसे क्षति पहुंचाने वाली चीजों.तत्वों को स्वाहा कर रहे हैंए अब तक तो पर्यावरण को कापफी क्षति पहुंच चुकी हैए गांवों में आबादी का बड़ा हिस्सा रहता हैए लेकिन पर्यावरण के लिए आप कभी आगे नहीं आए।श् मुझे लगा इस बुजुर्ग बेचारे के पास मेरे तर्कपूर्ण प्रश्न का कोई जवाब नहीं होगाए लेकिन वह तो सहज भाव से बोलता गया.श्देखो बेटाए तुम शहरी लोग कापफी पढ़े.लिखे हो और पर्यावरण के अच्छे जानकार होए लेकिन पर्यावरण के लिए दिल से तो कुछ करते नहीं होए सिपर्फ भाषण देते हो और पर्यावरण रक्षक होने का झंडा उठाए पिफरते होए हम देहाती लोग कम पढ़े.लिखे हैं और पर्यावरण की कोई किताबी जानकारी हमें नहीं हैए लेकिन हम लोगों से तुम लोग पर्यावरण बचाने की उम्मीद रखते हो। दिल्ली वाले बाबू साहब जरा इस बात पर गौर तो करोए भले ही हम लोगों को पर्यावरण की गहरी
जानकारी न हो पर चारों तरपफ नजर उठाकर तो देखो कितने बड़े.बडे पुराने पेड़ हैं हमारे गांव मेंए हम बरगद पूजते हैंए पीपल पूजते हैंए पाकड़ पूजते हैंए जामुन पूजते हैंए आम पूजते हैंण्ण्ण्।श् मेरे दिल के कोने से आवाज आई.श्ये सच्चे पर्यावरणवादी हैं।श् मैं उसे नमस्कार कर स्मारक स्थल की ओर बढ़ गया।
कल संध्या कटिहार जंक्शन पर नार्थ.ईस्ट एक्सप्रेस में अपनी बर्थ पर आते ही नींद ने अपने आगोश में ले लियाए यचंद्रेश गांव में ही कुछ दिनों के लिए रुक गया थाद्ध ण्ण्ण्सुबह को नींद खुली हैए ट्रेन अब यमुना ब्रिज पार कर चुकी हैए खिड़की से बाहर झांकता हूंए दिल्ली की झलक पानेए नीचे चार पहिए.दुपहिए वाहनों की अंतहीन श्रृंखलाए उस पर सवार सिपर्फ खुद के लिए जीने वाली मानव जातिए सभी के सभी


    श्अधिकतमश् नामक दुर्लभ लक्ष्य की ओर विक्षिप्त होकर भागते हुएए दिन.रात पर्यावरण से उधार लेने वालेए लेकिन कभी न चुकता करने वाले श्डिपफॉल्टरश्। मैंने खिड़की से मुंह पफेरकर आंखें बंद कर लीए सुकून के लिएए लेकिन बंद आंखों की पुतली के पीछे भयावह चलचित्रा उभरने लगे हैं.इन महामानव के द्घर में बड़ी.बड़ी थालियां सजी हुइर् हैंए पर्यावरण नामक कल्पतरू से तोड़कर झपटकर सुख.सुविधाओं के
अनेकानेक व्यंजन इन थालियों में परोसे जा रहे हैंण्ण्ण् शोर.शराबे से आंखें खुलींण्ण्ण् ट्रेन से बाहर आ गया हूंए सामने जन सैलाब बढ़ता जा रहा हैए सिर के पिछले हिस्से से मुझे वे गांव वाले दिखाई देने लगे हैंए अनजाने ही सहीए पर्यावरण पालक हैं येए सदियों से लगेए पूरी की पूरी दिल्ली तराजू पर पासंग भर भी नहीं है इन गांव वालों के सामनेण्ण्ण् जन समूह का दबाव बढ़ता ही जा रहा हैए मैंने गौर कियाए वे गांव वाले तो यहां कुली बने मेरा बैग उठाने को आतुर हैंए थोड़ा आगे बढ़ाए वही लोग प्लेटपफार्म सापफ करते दिख रहे हैंए अरे ये तो रिक्शा लिए खड़े हैं मेरे इंतजार में!ण्ण्ण् तो क्या कागा के बाद इन गांव वालों का नंबर है! मेरे अंदर से एक आवाज विपरीत दिशा तय करते हुए कानों के रास्ते बाहर आई. एक था कागाए अब बचा है एक
गांवण्ण्ण्।