महावीर अग्रवाल
नाटक हमारे ‘स्व’ का विस्तार है, जो हमे
समूचे समाज से जोड़ता है। नाटक के दूसरे कलारूपो की तुलना मे अधिक समाजिक
माना जाता है। और फिर हबीब तनवीर के नाटको की तो बात ही अलग है। नाटक चाहे
संस्कृत (‘मृच्छकटिकम’, मुद्राराक्षस, उत्तररामचरितम, मालविकाग्निमित्रम,
वेणीसंहार) के हों या हिन्दी मे असगर वजाहत का ‘जिन लाहौर नई देख्या वो
जन्मई ही नई’ या फिर शेक्सपियर के ‘मिड समर नाइटस ड्रीम’ का अनुवाद कामदेव
का अपना, बसंत ऋतु का सपना हो या फिर आदिवासियों की आंतरिक पीड़ा को
रेखांकित करता हुआ ‘हिरमा की अमर कहानी’ या फिर ‘चरनदास चोर’ जैसा अपार
लोकप्रियता प्राप्त करने वाला नाटक, उनके सभी नाटकों में आधुनिक संवेदना
दर्शकों को छूती चली जाती है।
लोक
कलाकारों के साथ साथ लोक गीतो का भरपूर प्रयोग के बाद भी उनके नाटक पूरी
तरह आधुनिक माने जाते है। ‘बहादुर कलारिन’, ‘लोरिक चंदा’और पोंगवा पण्डित
का रंग विधान बताता है कि, रंगकर्म किस तरह दायित्व बोध से जुडा हुआ है।
इनमें समकालीन यथार्थ की प्रतिध्वनी के साथ भविष्य की अनुगूंज साफ सूनी
जा सकती है। आइए देखिए- अनोखे रंगशिल्पी व रंगचिंतक हबीब तनवीर की
अंतर्द्ष्टि से सम्पन्न नाटकों पर हमारे मनीषियों ने किस तरह विचार व्यक्त
किए हैं-
रघुवीर सहाय ने लिखा है, ‘मेरा
ख्याल है कि सबसे बडा काम परम्परा को तोड़ने का एक तरीका ईजाद करना था जो
कि सिर्फ तोडता न हो, साथ साथ बनाता भी हो और जो चीज बनाता हो वह परम्परा
मे शामिल हो जाती है, उससे अलग जा न सकती हो, हालाँकि बदल देती हो। संस्कृत
नाटक के साथ उअनके प्रयोग एक शुरूआत थे। छत्तीसगढी लोक नाट्य के साथ उनके
प्रयोग उसी सुरूआत का नतीजा हओ। मगर ऐसा नतीजा है जो संस्कृत नाटक के दायरे
से निकलकर एक बडे दायरे मे दाखिल हो गया है”|रंग ऋषि ब.व. कारंत ने कहा है, “भारतीय
रंगजगत मे हबीब तनवीर अकेले ऐसे रंगनिर्देशक हैं जो 75 पार करने के बाद भी
स्टेज पर शानदार अभिनय करते हैं। अपने नाटको की स्क्रिप्ट लिखते है।
कलाकारों के साथ नाचते है और मधुर कंठ से गाते हैं। उनकी खनकती आवाज का
जादू अभी तक बरकरार है।“
आलोचक नामवर सिंह इंटरव्यू मे कहते है, “हबीब
के नाटकों मे लोक की स्थानीयता का बहुत विराट स्वरूप है, लेकिन उनके
नाटक-लोक नाटक नहीं है, वैज्ञानिक सोच के साथ परिमार्जित आधुनिक नाटक है।“
वरिष्ठ रंगकर्मी व नटरंग के संम्पादक नेमिचन्द्र जैन ने लिखा है,”हबीब
तनवीर ने ‘मिट्टी की गाड़ी’ की अपनी प्रस्तुति(1958) को ‘नयी नौटंकी’ कहा
और उसमें बहुत सी लोक संगीत की धुनें भरी, एक विशेष प्रकार से रीतिबद्ध
गतियों का प्रयोग किया, प्रारंभ मे सूत्रधार को ओवरकोट और पाइप लेकर मंच पर
प्रस्तुत किया(यह भूमिका स्वंय हबीब ने की थी)। इस प्रकार मृच्छकटिक की
कहानी पर आधारित एक नया रंगारंग दिलचस्प तमाशा तो हो सका, पर संस्कृत नाटक
का उसमें कहीं पता नहीं था- न चरित्रों की परिकल्पना और उनके मंचीय रूपायन
में, न उनकी गतियों और व्यवहारों में, न नाटक के सांस्कृतिक परिवेश में और न
उनकी विशिष्ट सौंदर्य दृष्टि में—दूसरी बार छत्तीसगढी बोली में वहां के
अभिनेताओं के साथ’ मिट्टी की गाड़ी की नयी प्रस्तुति मे पहली बार के पदर्शन
के कई अटपटे प्रयोग नहीं थे और वह अधिक सहज तथा कलात्मक लगती थी।“
पारम्परिक रंगमंच के अध्येता डा. सुरेश अवस्थी ने लिखा है, “रंगमंच
का यह नया मुहावरा हिन्दी के भारतेन्दुयुगीन रंगमंचीय दृष्टि और संवेदना
से जुड़ता है, और उसका नवीनीकरण करते समकालीनता प्रदान करता है। मोटे तौर
पर, हिन्दी में इस नये मुहावरे की शुरूआत 1954 मे हबीब तनवीर द्वारा आगरे
के लोकप्रिय कवि नजीर की कविताओं और जीवन पर लिखित और निर्देशित ‘आगरा
बाजार’ और 1958 मे ‘मृच्छकटिक’ के अनुवाद ‘मिट्टी की गाडी’ से होती है।“
वरिष्ठ रंग समीक्षक सत्येन्द्र कुमार तनेजा’, वागर्थ(सम्पादक: प्रभाकर श्रोतिय) के अनुसार,”हबीब
तनवीर की रंगक्षमता की वास्तविक पहचान नाटक और उसकी अंतर्वस्तु के अनुरूप
लोक रंग तत्वों के सार्थक लाभ उठाने और नए आयाम खोजने में देखी जा सकती है।
‘आगरा बाजार’, ‘मिट्टी की गाड़ी’, चरनदास चोर’, ‘मुद्राराक्षस’ अपने कथ्य
और शिल्प के स्तर पर कितने भिन्न और अलग प्रकार के हैं परंतु इन सबको जिस
रंगदृष्टि से सम्भाला और प्रस्तु किया गया है, वह उनकी कुशलता है। उसमें
निरंतर मंजाव आता गया। प्रासंगिक तेवर देते हुए उन्होंने भारतीय रंगकर्म की
नई संभावनाएँ खोली हैं।“
रंग समीक्षक के.बी. सुब्बण्णा ने लिखा है- ”
हमारे निर्देशकों ,मे सबसे अनन्य और असाधारण हैं हबीब तनवीर। उनके समान
बुद्धि और अंतरंग के बीच समंवय को साधने वाले दूसरा कोई नहीं। यही कारण है
कि उनके ‘आगरा बाजार’ और ‘चरनदास चोर’ जैसे प्रयोग आज राष्ट्र की
सर्वश्रेष्ठ रंगकृतियों के रूप में प्रतिष्ठित हैं।“
आलोचक कमला प्रसाद लिखते है, “उनके
सभी नाटकों में राजनीति है, राजनीति का पक्ष है। वर्गदृष्टि है,
शोषित-पीडित जनता का पक्ष है। धर्मनिरपेक्ष चरित्र है, शोढकों पर हमला है।
अपने समूचे निहितार्थ में हबीब साहन के नाटक राजनैतिक रंगमंच का निर्माण
करते हैं।“
संस्कृताचार्य कमलेशदत्त त्रिपाठी के अनुसार. “मृच्छकटिक
के रूपांतर को 1958 में लोक रंग-शैली के मुहावरे मे ढालकर की गई उनकी
प्रस्तुति संस्कृत नाटक और पारम्परिक रंग शैली के सामंजस्य का नया प्रयोग
था। बाद मे भी यह प्रयोग संस्कृत नाटक के पुनराविष्कार का एक अत्यंत सार्थक
समकालीन प्रयास रहा है।“
प्रसिद्ध समीक्षक इरवींग् वारडल ने लिखा है,” लोक नृत्य और गीतों से सजे नाटक ‘चरनदास चोर मे संस्कृत परम्परा और ब्रेख्त का अदभुत समवय है।“
विश्व प्रसिद्ध निर्देशक पीटर ब्रुक लिखते है, “हबीब
तनवीर एक ऐसे शहरी अभिजात्य नाटककार हैं जो लोक कलाकारों के साथ नाटक करते
आए हैं, लेकिन बिना उनकी संवेदना को संकुचित करते हुए। बिना उन्हें एक
उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हुए।“
छत्तीसगढी लोक कला मर्मज्ञ एवं नाट्य निर्देशक रामहृदय तिवारी ने लिखा है “आर्बुज़ोफ़
की प्रतिकात्मक, ब्रेख्तिरियन अति यथार्थवाद और नाचा की लयात्मक सादगी- इन
तीनों के संश्लिष्ठ फार्मूले से जन्मा एक नया नाट्य व्याकरण, हबीब तनवीर
की नाट्य प्रस्तुतियों के चुम्बकीय आकर्षण का रहस्य है। अध्ययनशील, युगीन
नब्ज़ और चीजों पर बारीक नजर रखने वाले तनवीर जी ने छत्तीसगढ के चुनिंदा
कलाकारों, गीत, नृत्य, बोली और कला विधाओं कच्चे माल की तरह अपनाया। अपनी
विलक्षण प्रतिभा से उन सबका बेहतरीन इस्तेमाल किया। वक्त ने भी उनका साथ
दिया। और अपनी सुविचारित व्यूहरचना से नाट्य अंतरिक्ष में स्थापित हो गये।
इन सबके बावजूद यह आश्चर्यजनक है कि खुद उनके गृहांचल छत्तीसगढ में उन्हें
व्यापक और सहज स्वीकृति नहीं मिल पायी।
कवि आलोचक संस्कृतकर्मी अशोक बाजपेई ने लिखा है, “एदिनबरा
1982 के समारोह में जब हबीब तनवीर को प्रथम पुरस्कार मिला था, तब बहुत से
लोग चौंके थे। यह पुरस्कार उस आधुनिकता को नही मिला था जोअलका जी ने
स्थापित की थी। यह पुरस्कार उस संयमित आधुनिकता को नही मिला था जो शंभु
मित्र ने विकसित की थी। यह पुरस्कार उस कच्ची, उबड़ खाबड़ आधुनिकता को मिला
था जो हबीब तानवीर ने किसी हद तक विन्यस्त की थी और किसी हद तक विकसित की
थी।“ ‘कहानी का रंगमंच’ के प्रर्वतक व रंग समीक्षक देवेन्द्रराज अंकुर के अनुसार”भारतीय
रंगमंच मे ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व रंगमंच में ऐसे किसी रंग निर्देशक का
मिसाल मिलना मुश्किल है, जिसने लगातार एक दिशा में, एक ही तरह का, एक ही
नाट्य दल के साथ और अंतत: एक रंगकर्म किया हो और अब भी उतना ही सक्रिय है।
वह निर्देशक है हबीब तनवीर।“कथ्य की सघनता:
नाट्क
में चितन और विचार की ताकत बहुत बड़ी होती है। निरंतर कौतुहल की सृष्टि
करते हुए हबीब तनवीर के नाटकों की विषय वस्तु इतनी पुख्ता होती है कि दर्शक
शुरू से ही कथा में बंध जाता है। कहा गया है, “वेदाध्यात्मोपपन्नं तु शव्दच्छन्दस्समंवितम, लोक सिद्धं भवेत्सिद्ध नाट्यं लोकात्मकं तथा।“
अर्थात, ‘नाट्क चाहे वेद या अध्यात्म से उत्पन्न हो, व्ह कितने ही सुंदर
शब्दों और छन्दों में रचा गया हो, वह तभी सफल माना जाता है जब लोक उसे
स्वीकार करता है क्योंकि नाटक लोकपरक होता है।‘ उनका कथ्य आधुनिकता और
जीवनबोध से जुड़ा हुआ होता है, यही कारण है कि अथ्य और शिल्प दोनों ही
दृष्टि से प्रयोगधर्मी होने के बाद भी उनके नाटकों मे कहानी बहुत ही सहज
ढंग से विकसित होती चली जाती है। लोकगाथा ‘लोरिक चंदा’ को नवीन प्रयोग से
अंतर्गत ‘सोन सागर’ के नाम से प्रस्तुत करते हैं। इसमें वस्तु तत्व पूरी
तरह कथा श्रोतों से जुडा हुआ है और नायिका ‘चंदा’ के माध्यम से स्त्री
चेतना द्वारा परम्परा को नया अर्थ देने का सार्थक प्रयास हबीब तनवीर करते
हैं। कुछ नाट्कों को छोड दिया जाय तो उनके अधिकांश नाटकों की यह विशिष्टता
रही है कि हर बार एक नया नाटक, एक नए रंग भाषा के साथ नया रंग शिल्प लेकर
आया है। गांव की गलियों से ज्यादा महानगरों के प्रबुद्ध दर्शकों के साथ
खांती रंग समीक्षक तक को उनके नाटक बांधकर रखते हैं, इसका एक कारण यह भी है
कि उनके नाटकों में समग्र जीवन का सत्य दिखाई पडता है। “यही हमारे आज का
सत्य भी है। ससुर की उपस्थिति में बहू बोल नहीं पाहीए। पति की उपस्थिति में
पत्नी शब्दों को ढूंढ नहीं पाती। हमारा समाज विलक्षण अवरोधों से जूझने
वाला समाज है। यहाँ सब कुछ पहले तय होता है। कहां बोलना चाहिए-कहां चुप
रहना चाहिए—पहले किसे बोलना चाहिए—रसोईघर मे कौन बोलेगा, बाहर कौन
बोलेगा—यह सब तय है और कोई भी नाट्य लेखक टोन के इस सूक्षम भेद को पकड नहीं
पाता।“ लेकिन हबीब तनवीर इन स्थितियों के रेसे-रेशे को जानते हैं। उनके
नाट्कों में संवाद छोटे छोटे और मारक होते है’। अक्सर उनके कलाकार
प्रत्युत्पन्नम्ति द्वारा तत्काल संवाद बोलकर एक नई और अनोखी बात पैदा कर
लेते हैं। हास्य व्यंग्य से ओत प्रोत नाट्क ‘गाँव के नाँव ससुराल मोर नाँव
दमाद’ मे भी श्रेष्ठ मानव मूल्य भीतर ही भीतर विकसित होते है। 1954 में
‘आगरा बाजार’ से लेकर ‘मिट्टी की गाडी’ 1958, ‘चरनदास चोर’ 1975 एवं 2002
के ‘जहरीली हवा’ सहित 2006 के ‘विसर्जन’ तक सभी नाटकों मे लोक कल्याण की
अनुगूंज सुनी जा सकती है।
समाजिक सारोकार:
हबीब
तनवीर के नाटकों में एक प्रकार की बेचैनी, प्रश्नाकुलता के साथ किसी न
किसी रूप मे मौजूद रहती है। ‘बहादुर कलारिन’ नाटक मे वैयक्तिक अनुभूति और
समाजिक मान्यताओं के बीच का द्वंद (मां और पुत्र्) – मां ने समझौताविहीन
संघर्ष किया और बेटे को कुआँ मे ढकेलकर मौत के आगोश में हमेशा हमेशा के लिए
सुला दिया। इस नाटक में बहादुर कलारिन का जानदार अभिनय फिदा बाई ने किया
था। “फिदा बाई को विश्व स्तक की एक महान अभिनेत्री मानता हूं। जितनी
भूमिकाएँ उन्होने ‘नया थियेटर’ के नाट्कों में निभाई हैं, उनमें खासतौर से
मुझे दो बेहद पसंद है। मेरी राय मे ‘बहादुर कलारिन’ और साजापुर की शांति
बाई’ में उनकी कला शिखर पर पहुंच गई थी।“ ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘चारूदत और
गणिका बंसतसेना की रोमांटिक प्रेमकहानी ही नहीं है, उसके साथ अत्यचारी राजा
पालक के बिरूद्ध शर्विलय राजनीतिक चेतना का शंखनाद करते हैं। वे कहते भी
हैं, अपनी ज़मीन से जुडाव, अपनी मिट्टी की खुशबू, इसकी हाजिर जवाबी के
प्रभावकारी इज़हार के साथ साथ इसके वजनदार लेकिन सीधे सीधे फार्म ने मुझे
बेहद प्रभावित किया और यह मेरा मॉडल बना। नाट्क ‘हिरमा की अमर कहानी’
आदिवासियों पर होने वाले अत्यचार की गाथा के साथ साथ आदिवासी समाज को जागृत
करने का एक प्रयास है। आदिवासियों की कठिनाइयों और उनके विकास का प्रश्न
का पूरे तथ्यों के साथ सामने रखा गया है। समाज और शासन दोनों के लिए सीधा
संदेश है या उससे भी अधिक चुनौती सामने आती है। ‘जिन लाहौर नहीं देख्या, वो
जन्मई ही नई’ में अनेक छोटे छोटे दृष्यों को एक दूसरे से जोडकर उनमें एक
नया अर्थ भरा और नाटक को गति दी। जैसे क्लर्कों को दफ्तर से उठाकर पहलवान
के चेलों के साथ घर के अंदर लाया गया। आखिरी में भी मौलवी साहब और दादी के
मरने की ‘टाइमिग’ में तब्दीली की गई। एक हिन्दु और एक मुसलमान का जनाजा एक
साथ उठा और उसी के साथ दंगे का दृश्य भी दिखाया गया। इसके बाद ‘जिन लाहौर
नी देख्या’ हो या फिर ‘वेणीसंहार’ नाटककार समकालीन राजनैतिक, समाजिक परिवेश
पर बेखौफ टिप्पणी करते हुए विसंगतियों को उदघाटित करते हैं। हबीब तनवीर ने
बातचीत मे मुझसे कई बार कहा कि ‘चरनदास चोर’ यह भी बताता है कि बडे बडे
चोर हैं, बडे बडे पगडीधारी। अपनी तिजोरियों का ताला खोल कर देखो, तो उनको
चोरी का माल मिलेगा और चरनदास जो है सबको बांटता है, गरीबों की परवाह करता
है। चरनदास दरअसल चोर नहीं है उसके अलावा बहुत सारे चोर समाज में मौजूद है।
यह जो कंट्राडिक्शन है, यह मैंने ब्रेख्त से सीखा है। उसके अलावा बहुत
सारे चोर सअमाज में मौजूद है। यह जो कंट्राडिक्शन है, यह मैंने ब्रेख्त से
सीखा है। उनके सभी नाटकों के भीतर समाजिक दृष्टि का विस्तार साफ सुनाई
पड़ता है। उनके सभी नाटकों के भीतर समाजिक दृष्टि का विस्तार साफ सुनाई
पड़्ता है। मनुष्य विरोधी ताकतों के विरूद्ध नाटक करने में उनका समूचा जीवन
बीता है। “इप्टा कम्युनिष्ट पार्टी का सांस्कृतिक प्रकोष्ठ था। स्वतंत्र
रूप से रंगमंच और नाटकों के संबंध में कोई रति नीति नहीं थी।“ इसके बाद भी
हबीब तनवीर के पास एक जनपक्षधर दृष्टि थी और आज भी है, समझ और सोच पूरी तरह
पकी हुई है। ‘पोंगवा पंण्डित’ का मंचन देख संघ परिवार और कट्टरपंथी तबके
के लोगों ने नाटक के बीच में पत्थर फेंकें थे लेकिन दिल दहला देने वाली
स्थितियों में भी हबीब तनवीर अपना नाटक जारी रखते हैं। समाज के सवालो से
टकराते उनके नाटक व्यक्ति की चेतना को झकझोरकर हंगामा मचा देते हैं।
भाषा का नया मुहावरा:
सहज
विवेक से देखें तो भाषा हमेशा बदलती रहती है। हमें भाषा और शिल्प का
प्रयोग करते समय कट्टरता की प्रवृत्ति छोड्नी चाहिए, भाषा के विकास के लिए
यह आवश्यक है।स्वर और लय की अंविति पर ध्यान नहीं दिया गया तो
सम्प्रेषणीयता सहज नहीं रह पाती। भाषा की मूल शक्ति कमजोर हो जायेगी और
अच्छे संवादों और दृश्यों का भी दर्शकों पर असर नहीं हो पाता।विचार व भाव
मे तादाम्य तभी हो सकता है जब शब्द के अनुरूप ही स्वर निकलता रहे। हबीब
तनवीर शब्दों के सही उच्चारण पर पूरा ध्यान रखते हैं। भाषा की स्वाभाविकता
और जीवंतता उनके नाटको की बहुत बड़ी ताकत हैं। परम्परा और आधुनिकता के
समंवय करने की दृष्टि से भी वे बेजोड है। “मेरी दृष्टि में किसी भी नाटक की
उत्कृष्टता की कसौटी इस बात से में है कि वह अभिनय के लिए कितनी चुनौतियाँ
प्रस्तुत करता है। इस बात का एक तात्पर्य यह भी है कि उस भाषा में जटिल
अभिनय की कितनी सम्भावनाएँ है क्योंकि इकहता अभिनय हमें उतनी नाट्यनुभूति
नहीं दे पाता जो जटिल अभिनय से सम्भव होती है। “ अभिनय की चुनौती और भाषा
की बारीकी दोनों ही दृष्टि से हबीब तनवीर के नाटक ‘आगरा बाजार’ ने पांच दशक
पहले 1954 में ही धूम मचा दी थी। सच तो यह है कि ‘आगरा बाजार’ की पारदर्शी
भाषा ने रंगजगत को एक नई भंगिमा और नया तेवर दिया। उनके अधिकांश नाटकों की
भाषा दैनिक बोलचाल की भाषा होने के साथ ही पात्र के बेहद अनुकूल होती है।
उनके नाटक की भाषा मे लोक भाषा का समावेश होता है। इसके बाद भी कथ्य के
अनुरूप होने के कारण वह पूरी तरह समझ मे आती है। हास्य और व्यंग्य से
सराबोर रहकर भी कथ्य को आगे बढाती हुई भाषा मुहावरेदाए और खुबसूरत तो होती
ही है। “ रंगमंच अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है जहाँ संवाद गीत होता है और
गीत संवाद----- धुन वह वाहन है जिस पर विचार सवार होता है, दर्शक तक पहुचने
के लिए, उसके मन में समाने के लिए।“ इस दृष्टि से भी वे दर्शकों सी
संवेदना का पूरा ध्यान रखते हैं। ‘आगरा बाजार’ एवं ‘चरनदास चोर’ के गीत जिस
तरह संवाद का काम करते है वह अपने आप में अनोखी अनुभूति है। यही कारण है
कि हबीब तनवीर के नाटक, दूसरे नाटको से अलग आधुनिक नाटक बन जाते हैं।
“ब्रेख्त ने रंगमंच की पुरानी परम्परा को तोडते हुए हमारे समय की आर्थिक
समाजिक स्थितियों के सम्बन्ध मे नये प्रयोग किये। उसने त्रासादी को कामेडी
और कामेडी को त्रासादी बनाया, जहां अरस्तु का प्रेक्षक जार-जार आंसू बहाता
था, वहाँ ब्रेख्त ने उसे हंसाया, जिस जगह पर वह विद्रुप व घृणा से भर उठता
था वहां ब्रेख्त ने उसे गंभीर होकर सोचने के लिए मजबूर किया। सबसे बढकर
ब्रेख्त ने अपने रंगमंच पर पार्थक्य प्रभाव के द्वारा प्रेक्षक की आलोचना
बुद्धि और विवेक के स्वातंत्रय को प्रतिष्ठित किया।“ ‘हिरमा की अमर कहानी’
के मर्मस्पर्शी संवादों की व्यंजना हमें बताती हैं कि यथार्थ को पकडने मे
ही नहीं उसका अतिक्रमण करने के कारण भी उनके नाटक लोकप्रिय होते हैं और
सार्थक माने जाते हैं। मानवीय रिश्तों की उष्मा की दृष्टि से वे लोक की
आधुनिक जिजीविषा के प्रतीक है।
गीत संगीत:
गीत
और संगीत हबीब तनवीर के नाट्कों की आत्मा है। गीत और संगीत दोनो का
स्वतंत्र अस्तित्व होने के बाद भी दोनो एक दूसरे के पूरक होते हुए अधिक
प्रभावपूर्ण होटल हैं। धरती से जुड़े संगीत और आधुनिक भावबोध से एक नई शैली
विकसित करने वाले हबीब जी लोक जीवन के द्रष्टा की नही सृष्टा भी हैं। हबीब
तनवीर अपने नाटको मे गीतों का अधिक प्रयोग करते हैं, फिर भी वह नाट्कों को
बोझिल नहीं होने देते वरन कथ्य के विकास में गीतों की स्वभाविक गति चकित
करती है। लोक धुनों पर आधारित उनके गीतों मे बसंत के झोंके जैसी ताजगी का
अहसास-उनके नाट्क का संगीत हमेशा साथ साथ चलता है, न कभी नाट्क पर हावी
होने की कोशिश और न कभी नाटक से अलग। रंग संगीत का प्रयोग अपने नाट्कों मे
जब भी वे करते हैं तो उनमे अजब सी ताजगी और नाटकीयता होती है। वे कहते हैं,
संगीत ऐसा हो जो नाट्क के भीतर छुपे हुए अर्थ को भी खोलते हुए आगे बढाए।
उनके गायक कलाकारो की दिल छू लेने वाली आवाज से नाटक की एक एक परत खुलती
जाती है। सच तो यह है कि उनके नाटको मे गीत और नृत्य कभी बाधक नही होटल वरन
नाटक को अधिक पारदर्शी बनाते रहते हैं। “हबीब साहब रंगसंसार से जुड़े
हमारे बीच सबसे दीर्घकालीन रंगकर्मी है। चालीस के दशक मे शुरू हुआ उनका
रंगकर्म बिना खंडित हुए रंगसंगीत के साथ लगातार चल रहा है। हबीब जी ने
परम्परा को साधने और उसे आधुनिक बनाने का काम किया है। ब्रेख्त की थ्योरी
का साक्षात प्रमाण हबीब जी के नाट्कों में मिलता है। उनके रंग संगीत में
परिवर्तन की इच्छा है। सच तो यह है कि संगीत की सहायता से एक के बाद दूसरे
दृश्य में इस तरह गुथे जाते हैं कि नाटक की कथा आगे बढती है। कथानक चलता
रहता है, आगे बढ़ता जाता है। मुद्रा राक्षस, मिट्टी की गाडी जैसे संस्कृत
नाटकों के साथ हिरमा की अमर कहानी, गाँव का नाम ससुराल मोर नाँव दमाद और
चरनदास चोर जैसे नाटकों तक की पृष्टभूमि में संगीत की महता कभी कम नहीं
होती। लय, ताल और स्वर का अदभुत समंवय हजारों दर्शकों को देश काल की सीम
से परे नाटक के कथालोक में ले जाता है। “देशी संगीत के विकास की पृष्ठभूमि
लोकसंगीत है।---- आधुनिक प्रचलित गुर्जरी, सोरठ, सौराष्ट्र टंक, गांधरी,
भोपाल मुल्तानी, बंग भैरव, कन्नड़ आदि राग अपने नाम आख्याभेद के अनुसार भी
तत्त जनपदों और लोक संगीत का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि हमारा जनतंत्र
राज्य शासन, लोक संगीत के सभी अंगो के विकास की यथेष्ठ चेष्टा करे तो
भारतीय संस्कृति के विकास का एक ऐसी अनुशीलन प्रधान इतिहास निर्मित हो जाए
जिससे समस्त मानव जाति को प्रेरणा और लोकोत्तर आन्नद प्राप्त हो सकेगा।“
लोक मानस का उल्लास मिश्री की तरह और उसकी व्यथा नमक की तरह घुलकर नाटक मे
गायन, वादन और नर्तन रूपी त्रिवेणी के साथ बहता है। संगीत का यही तत्व
हमारी जातीय स्मृति है। दर्शक तन्मय होकर नाटक देखते हैं। हबीब तनवीर के
नाट्कों की चमत्कारिक लोकप्रियता को देखकर इब्राहिम अल्का की का कथन याद
आता है, ‘सारी कलाएँ अंतत: उस कला के लिए है जिसका नाम जीवन है।‘ कहना न
होगा कि लोक संगीत और सुगम संगीत को नाटक की आंतरिक शक्ति के रूप में
स्थापित करने वालों में वे अग्रणी है। इसके साथ ही यह भी बहुत बड़ा सच है
कि गीतों और धुनों में पुरनावृति का बोध कई बार होता है। कभी कभी ऐसा
प्रतीत होता है मानो लोक चित की अपार सर्जनात्मकता नाटक पर हावी होने लगती
हैं। इसके बाद भी छत्तीसगढी गीत चुलमाटी और तेलमाटी की धुनों की कोमल लोक
बद्धता दर्शकों को उल्लास और आनन्द से भर देती है। ददरिया एक और रस की
वर्षा करता है तो सुआ गीत की लय नारी जाति की वेदना की वाहक बनती है।
विशिष्टता की अनुभूति का यह वातावरण दर्शकों के बीच स्वत: निर्मित होता
जाता है। यह रस में डूबने का अनुभव है। गीत संगीत और संवाद के मेल से भीतर
ही भीतर विचार का एक रूपक बनता है और पूरे नाटक में अदभुत कसावट आ जाती है।निर्देशकीय कौशल:
‘जन
रंजन सज्जन प्रिय एहा’ (श्रेष्ठ रचना वही है जो जनसमान्य का रंजन करे और
सज्जनों को प्रिय हो।) संत तुलसी की इन पक्तियों को हबीब तनवीर के नाटकों
में सच होते हुए देखा जा सकता है। लोक नाट्य परम्परा के तत्वों का सार्थक
और संतुलित प्रयोग उनके निर्देशन मे साफ दिखाई देता है। 1973 के रायपूर मे
आयोजित वर्कशाप के बाद भिलाई, रायपूर, भोपाल, दिल्ली, दुर्ग और खैरागढ के
अने नाट्य शिविरों को मैने देखा है, कठिन से कठिन स्थिति में भी हबीब जी
धीरज नहीं खोते, यह उनके निर्देशन की सबसे बडी विशेषता है। सबसे पहले अपने
कलाकारों को नाटक की थीम समझाते हैं। नाट्यलेख पढा जाता है, उसपर बहस होती
है। कहानी के आधार पर नाटक अनेक दृश्यों मे विभक्त किए जाते है और प्रत्येक
दृश्य का महत्व और उसमे किस कलाकार की भूमिका कितनी अहम है? इस बात को
बहुत बारीकी के साथ रेखांकित करते हुए रिहर्सल प्रारंभ करते है। हबीब तनवीर
के संकेतो को उनके कलाकार बहुत अच्छे से समझते हैं और फिर इम्प्रोवाइजेशन
का कमाल शुरू हो जाता है। निर्देशन की सहजता के कारण ही उनके कलाकार
आत्मविश्वास से भरे पूरे रहते है। अभिनेता स्वत:स्फूर्त और स्वभाविक अभिनय
करते हुए आगे बढते रहते है। परदे के पीछे की जिम्मेदारी निभाने वालों के
काम में भी वे बहुत कम हस्तक्षेप करतें हैं।अभिनय के साथ साथ मंचीय
गतिविधि, दृश्य बंध, वस्त्र सज्जा, रूप विन्यास और सूरीले संगीत के बल पर
नाटक तैयार किए जातें हैं। ‘गाँव के नाँव ससुराल मोर नाँव दमाद’, ‘मिट्टी
की गाड़ी’ , ‘आगरा बाजार’ और ‘चरनदास चोर’ में लोकतत्वों से भरपूर एक नई
शैली अपने मोहक रंगों से दर्शकों को अभिभूत करती है। कसी हुई निर्देशकीय
दृष्टि से बहुत कम चूक होती है। कुष्ठ उन्मूलन पर दुर्ग मे तैयार किया गया
नाटक ‘सुनबहरी’ एक बहुत कमजोर नाटक था। ‘जहरीली हवा’ भी कोई बेहतर प्रभाव
छोडने में सफल नहीं हो पाया है, जबकि अंगराग, वेशभूषा, ध्वनि, प्रकाश और
संगीत का चरमोत्कर्ष भी उनकी अधिकांश प्रस्तुतियों को प्राणवान बनाता है।
महाभारत की कल्पनाशीलता और सांकेतिकता का एक नया नाट्यरूप है, ‘वेणी
संहार’, जिसमें पूनाराम निषाद की पंडवानी का अनोखा प्रयोग है। महाभारत के
अनेक प्रसंग केवल खबर या गीत के माध्यम से सामने आते है--
--मानस तन बौराना—
युद्ध भूमि में उतर पड़े, दो झन, दोनों सरदारा जो जीता भी वो भी हारा, जो हारा सो हारा
जीत
हार के अंतर का है भेद कठिन समझना—मानस तन बौराना। यह प्रयोग उन्होंने 80
वर्ष की उम्र में किया, लेकिन इस नाटक को ‘मिट्टी की गाडी’ जैसी व्यापक
स्वीकृति नहीं मिली। अधिकांश दर्शकों को निराशा हुई। हबीब जी ने बताया था,
‘आगरा बाजार’ की प्रस्तुति जिस मैदान मे होती थी वहाँ बकरी चराने वाले
निकलते थे। एक बार सभी चरवाहों को बकरी के साथ ‘आगरा बाजार’ नाटक मे
उन्होने सम्मलित कर लिया था। लोक जीवन में ऐसे नाटकों के प्रभाव को व्यक्त
करते हुए लिखा गया है, “परम्पराशील नाट्यों का दर्शक, दर्शक मात्र नहीं
होता, वह तो उस उत्सवपूर्ण वातावतण का अंग बन जाता है, जो नट, गायक और वादक
अपने कला कौशल से उत्पन्न कर लेते हैं। वह झूमता ही नहीं, बोल भी पडता है,
विभोर ही नहीं होता, कभी कभी नट भी बन जाता है। ‘बहादुर कलारिन्’ का बेटा
जब जवान होता है तब 126 शादियाँ करने के बाद समझता है कि वह अपनी माँ पर
मोहित है। 126 शादियाँ स्टेज पर दिखाना कठिन था पर निर्देशक ने अपनी
कल्पनाशक्ति के बल पर, दो-ढाई मिनट के एक गीत मे खूबसूरती के साथ दिखा
दिया। “सच्ची संस्कृति को दुनियाँ के हर कोने से प्रेरणा मिलती है, लेकिन
वह अपनी ही जगह मे उठती है और उसकी जड़े सारी जनता मे समाई रहती है।“
‘हिरमा की अमर कहानी’ नाटक लगभग 20 वर्ष पहले मैंने देखा था। आदिवासी जीवन
के गीत नृत्य के साथ साथ सांस्कृतिक जीवन की झांकी से ओत प्रोत ध्वनि और
प्रकाश के अद्भुत प्रयोग तो उसमे थे ही, विधान सभा में- कुर्सियों को दोनों
हाथों से उल्टा किए हुए- विरोध प्रकट करते हुए विधायकों का वह दृश्य आज की
राजनीति पर सटीक टिप्पणी है।“ परम्परा हमारे भीतर जीवित है---किंतु
परम्परा ऐसी वस्तु नहीं है जिसे लगा देने मात्र से नाटक अच्छा हो जायेगा।
परम्परा एक अनुभव है। परम्परा का बोध जरूरी तो है लेकिन परम्परा में जब
युगीन दृष्टि और संवेदना का नया रूप मिलता है तब इस नई दृष्टि में सार्थकता
होती है। गहराई और व्यापक्ता होती है। हबीब के नाट्कों की लम्बी यात्रा
देखकर उसका विश्लेषण करते हुए ये पंक्तियाँ बहुत सही प्रतीत होती हैं, “इस
पर तुम जानना चाहो तो यह कहानी बीज जितनी पूरानी और फल जितने नयी है।
समुन्द्र जितनी पूरानी और बादल जितने नई है। डूबते सूरज जितनी पूरानी और
उगते सूरज जितने नई है।“ हबीब तनवीर दिल्ली और भोपाल जैसे महानगरों मे रहते
हुए भी अपनी जड़ों से जुडे हुए है। पाश्चात्य रंग परम्परा के गंभीर
अध्येता होने के बाद भी उनकी प्रस्तुतियों में लोक जीवन से सीधा
साक्षात्कार होता है। नित नई और अनोखी अर्थछवियों का सृजन करते हुए अपनी
अपील में वे पूर्णत: आधुनिक हैं।
मंचीय शिल्प:
हबीब
तनवीर को नाट्कों के मंचन के लिए किसी भी तरह के ताम झाम की आवश्यक्ता
नहीं पड़्ती। सेट वगैरह की झंझट बहुत कम रखते हैं। अधिकांश नाट्क एकदम सादे
मंच पर सहजतापूर्वक मंचित किए जा सकते हैं। खुले मंच पर रूपविधान की चमक
देखते बनती है। मंच सज्जा समान्यत: कभी होती भी है तो केवल प्रतीकात्मक।
प्रतीक इतने सहज होते है कि परिवेश का यथार्थ स्वयं ही बोल उठता है। अपने
अनुभव संसार के बल पर वे प्रत्येक नाट्क और उसके प्रत्येक पात्र पर वे अथक
परिश्रम करते रहे हैं। यही कारण है कि उनकी हर प्रस्तुति , हर बार नई और
ताजी लगती रही है। अब कलाकार शायद पहले की तरह उतनी जमकर रिहर्सल नहीं करते
हैं। अत: इक्कीस्वीं सदी में तैयार किये गए नये नाट्कों (वेणी संहार और
जहरीली हवा) को छोड़ दिया जाए तो उनके अधिकांश नाटकों की यह विशेष्टता रही
है कि हर बार एक नया नाटक, एक नई रंग भाषा के साथ नया रंग शिल्प आया है।
लोक मंच और पारम्परिक मंच तो उनके नाट्कों में है लेकिन इसके साथ साथ पारसी
रंगमंच और संस्कृत संगमंच की झलक भी उनके नाटकों मे दिखलाई पडती है। भरत
के नाट्य शास्त्र से ब्रेख्त तक की समंवयमूलक गहरी अंतर्दृष्टि के बल पर
उन्होंने भारतीय रंग जगत को लागातार समृद्ध किया है।“ इस सदी मे दो लोग
मुझे दुनिया में ऐसे लगते हैं जिनकी रचनाधर्मिता से एक अद्भुत सत्य प्रगट
होता है। एक हैं हबीब तनवीर और दूसरे हैं विश्व के ख्याति प्राप्त कवि
पाब्लो नेरूदा। हबीब तनवीर ने यह साबित किया कि जो गहरे रूप से स्थानिक है
वही सार्वमौमिक भी है। “ पाँच
दशकों की रंग यात्रा में उनके नाट्कों के कैनवास का कोई एक रंग नहीं है,
वह इन्द्रधनुषी और बहुआयमी है। प्रवृतियों का विवेचन करते हुए विचार करें
तो नाट्कों के इस यात्रा मे भारतीय रंगमंच का पूरा इतिहास दर्ज है। असगर
वजाहत के नाटक ‘जिन लाहौर नई देख्या वो जन्मई ही नई’ और राहुल वर्मा के
नाटक ‘जहरीली हवा’ सहित अपवादस्वरूप कुछ नाटकों को छोडकर हबीब तनवीर ने
अधिकांश नाटक स्वयं लिखे है या फिर उनका अनुवाद अथवा रूपांतरण किया है। लोक
कथाओं पर आधारित तैयार किए गये नाटकों के साथ ही शेक्सपियर के नाटक से
लेकर संस्कृत नाटकों तक जितने भी नाटक हबीब तनवीर ने खेले उनमें नृत्य, गीत
और संगीत अपने ढंग से जोडकर उनको अधिक अर्थवान और सम्प्रेषणीय बनाया। उनके
साथ चलनेवाले रंगयात्रियों में कुछ ठहर गए, कुछ थम गये लेकिन हबीब जी अभी
भी नाटक कर रहे हैं। यह सुख, यह अनुभूति अपने आप में रोमांचक है। 1954 के
‘आगरा बाजार’ से 2006 के ‘विसर्जन’ तक की बहुअयामी रंगयात्रा का दर्शक होना
भी एक अभूतपूर्व नाट्यानुभव है। नाटक की कथा के भीतर छुपी अंतर्कथा के
मर्म तक धीमी गति से पहुंचने की उनकी कोशीश इतनी मार्मिक होती है कि शब्दों
मे व्यक्त नहीं की जा सकती। नाटक मे गति और लयात्मकता के साथ एक अद्भुत
कसावट आ जाती है। सभी दृष्यों का संयोजन स्वतंत्रता पूर्वक करते हुए वे
दर्शकों को नाटक की मनोभूमि से जोड़ लेते है। मानवीय संवेदनाओं से भीगा हुआ
दर्शक धीरे-धीरे नाटक की गहराई मे उतरता चला जाता है। तमाम अलंकरणों और
विशेषणों से विभूषित विश्व विख्यात हबीब तनवीर के साथ एक मार्मिक सच्चाई यह
भी जुडी है कि उन्होने अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से नाट्क के कालजयी
आख्यानों में जिस ‘लोक’ को बार बार प्रतिष्ठित किया है उस लोक की ‘ज़मीन’
से वे कभी भी दूर नहीं हुए।साहित्य शिल्पी से साभार